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सरयूपारीण ब्राह्मणों’ का इतिहास (वंशावली, गोत्रावली और आस्पद नामावली सहित) – ५

सरयूपारीण ब्राह्मण-भेद

सरयूपारीण ब्राह्मण वर्ग में शुक्ल, त्रिपाठी, मिश्र, पाण्डेय, पाठक, उपाध्याय, चतुर्वेदी और ओझा ब्राह्मण होते हैं। व्यवहार में इनको शुकुल, तिवारी, मिसिर, दूबे, पांडे, ओझा, उपाध्याय, पाठक और चौबे भी कहा जाता है। ऐसा लगता है कि इस प्रकार का विभाजन इनके गुणों और कर्त्तव्यों का बंटवारा करके किया गया। जैसे शुक्ल यजुर्वेद के अध्येता को शुक्ल, दो वेदों के ज्ञाता को द्विवेदी, तीन वेद के ज्ञाता को त्रिवेदी या त्रिपाठी, चारों वेदों के ज्ञाता को चतुर्वेदी, मिश्रित सभी विषयों के ज्ञाता को मिश्र, विविध विषयों को पढ़ाने वाले को उपाध्याय, वेदों का पाठ मात्र करने वाले को पाठक आदि। धीरे-धीरे जीविका की समस्या के कारण यह प्राचीन विभाजन अव प्रायः टूट गया है।

आस्पद

सरयूपारीण ब्राह्मण सरयूपार में जिन गाँवों में बसे हुए हैं उस गाँव का नाम जोड़ कर अपना परिचय देते हैं। उन गाँवों को आस्पद या स्थान कहते हैं। जैसे-मामखोर के शुक्ल, पयासी के मिश्र, इटारि के पाण्डेय आदि। इनमें मामखोर, पयासी और इटारि गाँव के नाम हैं। ‘आप कौन आस्पद हैं?’ का अर्थ समझ कर ही वैसा उत्तर देते हैं। अधिकांश लोग ‘के’ शब्द हटा कर सीधे कहते हैं- मामखोर शुक्ल, पयासी मिश्र आदि। ये ब्राह्मण देश-विदेश में जहाँ कहीं भी जीविका वश या अन्य प्रयोजन वश स्थायी या अस्थायी रहते हैं, वे पूछने पर अपना परिचय इसी प्रकार मूल स्थान से देते हैं। जैसे मामखोर के शुक्ल आदि।

जनसंख्या में वृद्धि होने पर सरयूपारीण ब्राह्मण मूल गाँव से अन्य गाँवों में जा कर बस गये। जीविकावश मूल निवास गाँवों को छोड़ कर सरयूपार से बाहर गाँवों और नगरों में भी बस गये हैं। उनमें से कुछ का सम्बन्ध सरयूपार से बना हुआ है। बाकी लोगों का सम्बन्ध टूट गया है।

गोत्र

सरयूपारीण ब्राह्मणों में जो ब्राह्मण जिस ऋषि की सन्तान परम्परा में जन्म लेता है उस ऋषि का नाम उसका गोत्र कहलाता है। जैसे गर्ग गोत्र मामखोर शुक्ल, वत्स गोत्र पयासी मिश्र आदि। गोत्र शब्द से कुल की प्रथम पीढ़ी का बोध होता है। गोत्र सदा स्थायी होता है। उसमें परिवर्तन नहीं होता। गोत्रों का परिचय आगे दिया गया है।

श्रोत: हरिदास संस्कृत सीरीज ३६१, लेखक: पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र , शास्त्री , चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस , वाराणसी

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इसके अलावा, हम यह भी निवेदन करते हैं कि यदि संभव हो तो आपके बच्चों का उपनयन संस्कार ५ वर्ष की आयु में या किसी भी हालत में ८ वर्ष की आयु से पहले करवाएं। उपनयन के पश्चात्, वेदाध्ययन की प्रक्रिया आरंभ करना आपके स्ववेद शाखा के अनुसार आवश्यक है। यह वैदिक ज्ञान को पीढ़ी दर पीढ़ी संजोये रखने का एक सार्थक उपाय है और हमारी संस्कृति की नींव को मजबूत करता है।

हमारे द्वारा इन परंपराओं का समर्थन और संवर्धन हमारे समुदाय के भविष्य को उज्ज्वल बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देगा। आइए, हम सभी मिलकर इस दिशा में प्रयास करें और अपनी पारंपरिक मूल्यों को आधुनिक पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य करें।

हमें स्वयं शास्त्रों के अनुसार जीवन व्यतीत करना चाहिए जब हम दूसरों से भी ऐसा करने का अनुरोध करते हैं।

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