3.21 संघवाद
१९वीं सदीके अन्तमें फ्रांसीसी संघवाद भी मार्क्सवाद एवं अराजकतावादके आधापर ही बना है। इसका भी अनेक देशोंपर प्रभाव फैला। कोकरके कथनानुसार यह राज्य-विरोधी, देशभक्ति-विरोधी, सैन्यवाद-विरोधी, राजनीतिक-दल-विरोधी, संसद्-विरोधी, मध्यमवर्ग-विरोधी और सोवियतवाद-विरोधी भी है। उस समयके वोलेञ्जर, ग्रेवी-विल्सन, पनामा आदि अनेक भ्रष्टाचारकाण्ड इसके कारण थे। लेवीनके मतानुसार जिस शासनमें नागरिक स्वयं निर्माण करे, वही वास्तविक जनवाद है। मार्क्सके अनुसार ये भी देशभक्तिको ढोंग मानते हैं। श्रमिकोंकी न कोई मातृभूमि होती है और न कोई देश। भूखों और नंगोंके लिये मातृभूमिका आदर्श खोखला है, यह पूँजीपतियोंका प्रचारमात्र है। संघवादी सैनिकोंसे कहते थे कि ‘वे अपने वर्गीय-बन्धुओंपर गोली न चलायें; क्योंकि वे भी श्रमिक कुटुम्बके ही सदस्य हैं और अन्तमें उन्हें उन्हींमें रहना है।’ वे युद्ध-विरोधी भी थे। इनके मतमें संसदीय नीति एवं वर्ग-सहयोगसे श्रमिकोंका हित नहीं हो सकता, इसके लिये वर्ग-संघर्ष ही आवश्यक है। वे तोड़-फोड़में, आम हड़ताल करने और वोटमें भाग न लेनेमें विश्वास रखते थे।
जॉर्ज सोरेलके अनुसार पूँजीपतियोंको सदा भयभीत रखना चाहिये। आम हड़ताल प्रोत्साहन एवं प्रेरणाके द्वारा ही सफल होती है। अराजकतावादियोंके अनुसार इनका भावी समाज श्रमिक संघोंद्वारा बनेगा, परंतु फ्रांसके संघवादियोंने प्रथम महायुद्धमें क्रान्तिकारी मार्ग छोड़कर राष्ट्रभक्ति और सुधारका मार्ग ग्रहण कर लिया। अन्यत्रके भी संघवादी शिथिल हो गये। इसी तरह इंग्लैण्डका श्रेणी समाजवाद भी कुछ दिन पनपकर खत्म हो गया। यह फ्रांसीसी संघवादका आँग्ल-संस्करण था। ए० जे० पेन्दी, ए० आर० ओरेल, एम० जी० हॉब्सन, जे० डी० एच० कोल इनके प्रमुख विचारक थे। पूँजीवादके अन्तसे ही सब बुराइयोंका अन्त मानते थे। इनके अनुसार श्रेणीवादी समाजवाद ही मुख्य जनतन्त्र है।
हॉब्सनके अनुसार भावी समाजमें भी राज्यका महत्त्वपूर्ण स्थान होगा। वह एक समाज-सेवक संस्था होगी। उसके द्वारा अन्य सामाजिक तथा आर्थिक संस्थाओंका समन्वय होगा, परंतु लोकके अनुसार राज्यका कोई महत्त्वपूर्ण स्थान न होना चाहिये। वह राज्यके स्थानपर कम्यूनकी स्थापना चाहता था। उसके अनुसार राज्यके अधिकार इतने कम होने चाहिये कि वह धीरे-धीरे समाप्त हो जाय। इसके कार्य-क्रममें व्यावसायिक संघोंकी स्थापना महत्त्वपूर्ण है। १९२५ तक वह भी खत्म हो गया।
वस्तुत: सिद्धान्तकी दृष्टिसे नहीं, किंतु बहुत-से पक्षोंकी सफलता परिस्थितियोंके अनुकूल हो जाती है। उन परिस्थितियोंको बदला जा सकता है अवश्य, परंतु उसमें अनेक साधनों तथा समयकी अपेक्षा होती है। यदि मार्क्सवादियोंकी रूसमें सफलता न होती, तो मार्क्सवादकी भी वही हालत होती, जो इन दूसरे वादोंकी हुई। यदि हिटलरकी जीत हो गयी होती, तो भी मार्क्सवाद अबतक मर चुका होता। कई बार शून्यवादियोंकी भी जीत हो जाया करती है, परंतु इससे ही यह नहीं कहा जा सकता कि सिद्धान्त भी वही ठीक है, यह तो ‘बन आयेकी बात’ है। किसीका सिद्धान्त बहुत श्रेष्ठ हो, परंतु अन्य साधन न हों तो वह केवल सिद्धान्तके आधारपर नहीं जीत सकता।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें