6.8 वास्तविक पूँजीवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.8 वास्तविक पूँजीवाद

कहा जाता है कि ‘पूँजीवादी समाज भी प्राचीन वर्गोंके समान ही उसी वर्गकलहपर एक दलके द्वारा दूसरे दलके रक्तशोषणपर ही स्थिर है। साथ ही उसी पूँजीवादके द्वारा ही मनुष्यको वह उत्पादन-शक्ति भी प्राप्त होती है, जिसके द्वारा भौतिक बन्धनों और प्राकृतिक गुलामीसे मनुष्यको छुटकारा मिलता है और वह वर्गकलहको त्यागकर बौद्धिक सभ्यता या ज्ञानयुगका श्रीगणेश कर सकता है। यह ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ विज्ञानकी अन्य शाखाओंके समान नीति अथवा आदर्शसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता।’
यह भी कहा जाता है कि ‘मनुष्यने हजारों वर्षतक प्रकृतिकी निष्ठुर पराधीनतामें रहकर कष्ट भोगा। पाशविक दशासे छुटकारा पानेके लिये संग्राम किया। हजारों वर्षोंतक समाजकी स्थापनाके लिये उद्योग किया और बहुत विकास भी प्राप्त किया, फिर भी उसे न्याय तथा मानवीय अधिकारोंकी प्राप्ति न हुई।’
कहते हैं—‘सामाजिक वर्णों और वर्गकलहका सिद्धान्त मार्क्सने आविष्कृत किया है। यद्यपि उससे पहले भी वर्ग-कलहका अस्तित्व देखा और समझा जा रहा था, तथापि श्रमजीवी दल पहले नगण्य था, अत: ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त न था।’
पर वस्तुस्थिति यह है कि धर्मनियन्त्रित पूँजीपति एवं समाज राष्ट्रके विकास एवं कल्याणके कारण हैं। शास्त्र तथा धर्म-निरपेक्ष उच्छृङ्खल पूँजीवाद शोषणका कारण होता है। पूँजी स्वत: निन्द्य नहीं है, मालिकोंकी अच्छाई-बुराईसे पूँजीमें अच्छाई-बुराईका व्यवहार होता है। साम्यवादमें भी जनता नहीं तो सरकारको पूँजीपति बनना ही पड़ता है। उसके बिना कोई भी विकासयोजना, संग्राम, शास्त्रास्त्र सफल नहीं हो सकता। सामान्यरूपसे सरकारी भूमि, सम्पत्ति, उद्योग-धन्धे या पूँजीका कोई मनमानी उद्योग नहीं कर सकता, परंतु बाढ़, भूकम्प, दुष्काल आदि विपत्तियोंके समय सरकारी पूँजी आदिका उपयोग जनहितके काममें हो सकता है। उसी तरह व्यक्तिगत भूमि, सम्पत्ति, पूँजी भी रहनेमें कोई अहित नहीं। जैसे सरकारी खजानेकी पूँजी राष्ट्रकी है, वैसे ही व्यक्तिगत खजानेकी पूँजी भी राष्ट्रकी समझी जा सकती है; क्योंकि अवसरपर राष्ट्रके काममें उसका उपयोग किया जा सकता है। आज भी युद्धकाल अथवा असाधारण राष्ट्र-विप्लवमें सरकारोंका अधिकार होता है कि वे व्यक्तिगत सम्पत्ति, मोटर, मकान आदिको राष्ट्रहितकी दृष्टिसे अपने कब्जेमें ले लें। पूँजीके दुरुपयोग या अपव्ययपर सरकार कभी भी प्रतिबन्ध लगा सकती है। भेद यही रहता है कि जहाँ सरकारी वस्तुओंमें साधारण ममत्व होता है और सेवक नामधारी नौकरोंद्वारा लापरवाही, दुरुपयोग, लोहाकाण्ड, जीपकाण्डके समान भ्रष्टाचार होता है। व्यक्तिगत वस्तुओंमें व्यक्तिको प्राणतुल्य ममता होती है, लापरवाही, दुरुपयोगकी भावना नगण्य होती है। हाँ, मूलधन आदिसे होनेवाली आमदनी विशेषतया अतिरिक्त आयपर शुक्रके अनुसार पूर्वोक्त पंचधा विभागका नियम होना अनिवार्य है।
वस्तुत: शास्त्रीय उचित व्यवस्था-पालनमें प्रमाद होनेसे ही अनेक अनर्थ बढ़ते हैं। प्राय: शास्त्र, सज्जन, समाजकी अपेक्षासे सदाचार, संयम, नीति-नैपुण्य आदि सद‍्गुणोंका विनाश होता है। ऐसी हालतमें धन केवल विलासिताका ही कारण बनता है। विलासितासे क्षीणता, क्लीबताकी वृद्धि होती है। इससे संततियोंकी कमी होती है और दूसरे कुलोंसे दत्तक लाये जाते हैं। यदि दत्तक हीन कुलसे आयें तो उनमें विलासिता, अनाचार एवं अनुदारताका और भी विस्तार होता है और भी भीषण क्षीणता, क्लीबता बढ़ती है, पुनश्च संततिकी हीनता बढ़ती है। फलत: अधिकाधिक सम्पत्ति थोड़े-से लोगोंके हाथमें रह जाती है। गरीबोंमें सम्पत्तिहीनता होते हुए भी संतानोंकी अधिकता होती है। इस तरह धनवान् नि:संतान और धनहीन बहुसंतान होने लगते हैं। दोनों जगह सदाचारकी कमी होनेसे धनवान‍्में अनाचार बढ़ते हैं, शोषण-उत्पीडनका विस्तार बढ़ता है, धनहीनोंमें ईर्ष्या बढ़ती है, फलत: संघर्ष होता है। धनहीनोंका बहुमत शासन एवं शासकोंका खात्मा कर देता है। बहुमतमें मुण्डगणनाकी ही प्रधानता रहती है। बहुमत शासनमें भी अल्पधन-बहुधनवाले लोगोंका अस्तित्व रहता है। धनके आधारपर भी बहुमत बनाया जाता है। कभी-कभी बहुमतका अल्प-मतपर अत्याचार होने लगता है। उसी समय धनवान् निर्धनका विरोध बढ़ जाता है। धनवानोंको शुद्ध शोषक मानकर उनके वोटोंका महत्त्व हटा दिया जाता है, फिर आर्थिक समानताके नामपर साम्यवाद स्थापित होता है। थोड़े दिनोंतक उसमें रुचि बढ़ती है, पर आगे चलकर व्यवस्थाकी दृष्टिसे वहाँ भी कुछ लोगोंका ही शासन-तन्त्रपर नियन्त्रण हो जाता है। व्यक्ति शासन-यन्त्रके नगण्य कल-पुर्जे बन जाते हैं, शासन-यन्त्र मुट्ठीभर तानाशाहोंके हाथका खिलौना बन जाता है, साम्यवादी साथियोंमें ही फूट और शोषक-शोषणकी भावना जग उठती है; इस तरह साम्यवाद अधिनायकवाद ही बन जाता है। शास्त्र, धर्म आदिका नियन्त्रण न होनेसे उच्छृंखलता बढ़ती है और फिर लोगोंकी धर्मनियन्त्रित शासन-तन्त्रकी ओर पूरी प्रवृत्ति हो जाती है। इस तरह शासन-तन्त्रोंमें भी चक्रवत् परिवर्तन चलता रहता है। सुतरां धर्मनियन्त्रित होनेसे ही वर्ग-कलहका अन्त होता है। वास्तविक सभ्यताके विकासकी बात भी तभी चल सकती है। इस प्रकार तथाकथित भौतिकवाद न सही, किंतु मूल भौतिक समस्त वस्तु अभौतिक चेतन वस्तुरूप प्रतिपत्तिका उपाय है। अत: भूतोंका पर्यवसान भी अभौतिक तन्त्रमें ही है।
मनुष्य ‘स्वयं चेतन नहीं है, भूतोंका परिणाम है। यदि अचेतनसे भिन्न कोई स्वतन्त्र चेतन है तो उसकी ‘प्रकृति पराधीनता, कष्ट भोगना या पाशविकतासे छुटकारा पानेके संग्राम’ आदिका कुछ अर्थ ही नहीं है। जलकणों या जलप्रपातों एवं पाषाणोंके संघर्ष-जैसे ही मनुष्यके प्राकृतिक संघर्ष हैं। उससे किसी अभीप्सित पदार्थकी सिद्धि आदिकी बात नहीं उठती। अतएव वर्ग-कलह, वर्ग-संघर्ष, सामूहिक दलबन्दी, दलविशेषके विध्वंस आदिकी कहानी सृष्टि-प्रलयकी परम्परा जबसे चली और जबतक रहेगी, तबतक किसी-न-किसी रूपमें रहेगी ही। धर्म-नियन्त्रण घटनेपर संघर्ष बढ़ता है और धर्म-नियन्त्रण बढ़नेपर संघर्ष समाप्त हो जाता है।’


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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