जातियों की उत्पत्ति
आजकल हिन्दू जाति में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण पाये जाते हैं। इन सबके अनेक भेद-उपभेद हो गये हैं। ‘सरयूपारीण ब्राह्मण’ ब्राह्मण वर्ण का एक भेद है। इस पुस्तक में इसी ‘सरयूपारीण ब्राह्मण’ वर्ण के विषय में विचार किया गया है। यह वर्ग मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ आर्य जाति का एक अंग है। इसलिए इस सम्बन्ध में मूलरूप से विचार करना उचित होगा।
प्राचीन भारतीय साहित्य वेद, परवर्ती संस्कृत साहित्य और पुराणों में सुरक्षित प्राचीन परम्परा और इतिहास के अनुसार आर्यलोग इस देश के मूल निवासी थे। भारतीय विद्वान डा० अविनाशचन्द्र दास और डॉ० सम्पूर्णानन्द ने ऋग्वेद के भूगोल और अन्य संकेतों के आधार पर ‘सप्तसिन्धु (वह स्थल जो सरस्वती, शतद्रु, विपासा, परुषणी, असिक्नी, वितस्ता और सिन्धु जैसी सात नदियों द्वारा सिंचित हो-वर्तमान, पंजाब और सीमान्त) को आर्यों का आदि स्थान माना है। इन विद्वानों के अनुसार यही स्थल आर्य लोगों का प्राचीन अभिजन (वास स्थान) था और यहीं से आर्य लोग भारत तथा पश्चिम योरोप में फैले।१ आर्य जाति विद्या कला, कृषि और युद्ध आदि में उस समय सर्वश्रेष्ठ थी। ऐसा प्रतीत होता है कि श्रेष्ठ गुणों के कारण ही वह आर्य कहलाती थी। आर्यों ने बनों और जंगलों को काट कर साफ किया। उसे रहने के योग्य तथा कृषि के योग्य बनाया। वेद उनके धार्मिक ग्रन्थ थे। वेदों की ध्वनि से उनके गृह गूंजते रहते थे और यज्ञ का धूम आकाश में फैलता रहता था। अपने पौरुष से उन्होंने इसी धरती पर स्वर्ग उतार लिया था। जितने भू-भाग पर आर्यों का विस्तार था उसको ‘आर्यावर्त’ कहते थे। आज भी प्रत्येक हिन्दू किसी शुभ कार्य के समय जो संकल्प पढ़ता है उसमें ‘जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तैक देशे ऐसा उल्लेख करता है।
वर्गों की उत्पत्ति
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णों की उत्पत्ति कैसे हुई? इस सम्बन्ध में धर्मग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में यह कहा गया है कि सृष्टि की उत्पत्ति करते समय विराट् पुरुष ने अपने मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्रों को उत्पन्न किया। मनु महाराज ने भी मनुस्मृति में कहा२ है कि ‘लोकों की वृद्धि के लिए भगवान् ने मुख, बाहु, उरु और पाद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को बनाया।३ भगवान् श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है कि ‘मैनें ही १ गुण और कर्म के अनुसार चारों वर्णों को बनाया है।४ इस प्रकार इन धर्म ग्रन्थों के मतानुसार चारों वर्णों की उत्पत्ति भगवान् ने स्वयं की। इसके विरूद्ध इतिहासकारों का मत है कि वर्ण व्यवस्था का प्रारम्भ आर्य जाति में बाद में हुआ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में आर्य जाति का विभाजन हुआ। इस सम्बन्ध में डा० राजबली पाण्डेय का कथन है कि ‘धीरे-धीरे आर्यों ने अपना राज्य स्थापित किया। इनको आर्येतर जातियों से संघर्ष भी करना पड़ा। आर्यों का जंगली और दास जातियों से आपस में जूझते रहना एक बड़ी समस्या थी। जिसके लिए आर्यों ने अपने बीच में से कुछ चुने हुए वीर, शक्तिमानं और साहसी व्यक्तियों पर रक्षा का भार सौंपा। वे लोग युद्धकला में विशेष दक्ष तथा निपुण होते थे। इस वर्ग के व्यक्तियों को ‘क्षत्रिय’ सम्बोधन मिला जिसका तात्पर्य था क्षत (क्षति) से त्राण करने वाला। यह वर्ग समाज में अपनी जिम्मेदारी और कार्यों के कारण बहुत अधिक सम्मानित था। ऐसा प्रतीत होता है कि राजा का चुनाव इन्हीं राजन्यों में से ही होता था। जो स्थिति क्षत्रिय वर्ग के व्यक्तियों के साथ थी, वही स्थिति उन व्यक्ति के साथ भी थी जो याज्ञिक क्रियाओं और कर्मकाण्ड में निपुण थे। आर्यों का ज्यों-ज्यों प्रचार और संस्थापन होता गया त्यों-त्यों याज्ञिक विधियों एवं धार्मिक उपादानों में अत्यधिक जटिलता और वृद्धि होती गई। ऐसी स्थिति में जिन व्यक्तियों ने इस दिशा में दक्षता प्राप्त की उन्हें ‘ब्राह्मण’ सम्बोधन मिला और वे भी क्षत्रियों की भाँति समाज में आदर की दृष्टि से देखे जाने लगे। धीरे-धीरे धर्म, शिक्षण एवं राजनीतिक मंत्रित्व’ उनके हाथ में चला गया और सामाजिक ढाँचें में उनको प्रथम स्थान मिला। कृषि, गो-रक्षा, लेन-देन या आदान-प्रदान और व्यापारिक कार्यों के करने वालों को वैश्यों की श्रेणी में रखा गया और अन्त में केवल शारीरिक श्रम करने वाले व्यक्तियों को शूद्र अथवा दास की श्रेणी मिली। इस प्रकार आर्यों के बीच उनके सामाजिक जीवन में वर्ण-व्यवस्था विकसित हुई।५
आगे चल कर इन चार वर्णों को ही जाति कहा गया। उसके बाद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियों के भेद उनके स्थाननामों, पेशों, धर्मों, सम्प्रदायों आदि के आधार हो गये।
१. डॉ० राजबली पाण्डेय प्राचीन भारत, पृ० ४०
२. ऋग्वेद (१०/९०/११-१२)
३. लोकानां तु वृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्वर्त्तयत्।। – मनुस्मृति, अध्याय १, श्लोक ३१
४. चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। – श्रीमद्भगवद्गीता ४/१३
५.डा० राजबली पाण्डेय प्राचीन भारत, पृ० ५७-५८
श्रोत: हरिदास संस्कृत सीरीज ३६१, लेखक: पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र , शास्त्री , चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस , वाराणसी
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