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सरयूपारीण ब्राह्मणों’ का इतिहास (वंशावली, गोत्रावली और आस्पद नामावली सहित) – २

इतिहासकार और धर्मग्रन्थ दोनों यह बतलाते हैं कि समाज में ‘ब्राह्मण वर्ण’ सर्वमान्य था और सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। अतः अब ‘ब्राह्मण’ शब्द पर विचार करना चाहिए। बंगला विश्वकोष के हिन्दी संस्करण हिन्दी विश्वकोष में ‘ब्राह्मण’ शब्द की व्युत्पत्ति दी गई है। उसमें लिखा है कि ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मा या विप्र की सन्तान को, ब्रह्म अर्थात् वेद के अध्ययन करने वाले को ब्राह्मण कहते हैं। यही अर्थ पं० ज्वाला प्रसाद मिश्र ने भी दिया है। अतः सरल शब्दों में ‘ब्राह्मण’ शब्द का अर्थ है, वेदों का अध्ययन करने वाला। वह जाति जो वेदों का अध्ययन करती है, ब्राह्मण जाति है। ‘ब्राह्मण’ शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द कोश ग्रन्थों में दिये गये हैं। शब्द रत्नाकर कोश में द्विज, सूत्रकंठ, ज्येष्ठ वर्ण, द्विजन्मा, वक्त्रज, मैत्र, वेदवास, नय और गुरु शब्द दिये गये हैं। राज निघंटु कोश में ब्रह्मा, षटकर्मा, द्विजोत्तम शब्द दिये गये हैं।

श्रेष्ठता

‘ब्राह्मण’ की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में बड़ी ऊँची बातें कहीं गई हैं। मनु महाराज ने मनुस्मृति में कहा है कि ‘सृष्टि के सब पदार्थों में प्राणी श्रेष्ठ हैं। प्राणियों में बुद्धिजीवी श्रेष्ठ हैं। बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणों में भी विद्वान् ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। उनमें भी क्रियानिष्ठ ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं और उनमें भी ब्रह्म को जानने वाले (ब्रह्मविद्) ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ होते हैं। विश्वामित्र मुनि जब घोर तप करने के पश्चात् भी वशिष्ठ को पराजित नहीं कर सके तो अन्त में उन्होंने भी कहा कि क्षत्रिय के बल को धिक्कार है। ब्रह्मतेज का बल ही सच्चा बल है।

भागवत महापुराण में एक स्थल पर कहा गया हैं ‘मैं इन्द्र के वज्र से नहीं डरता हूँ और न तो शिव के त्रिशूल या यम के दण्ड की परवाह करता हूँ। न तो मुझे सूर्य, चन्द्र वायु से भय लगता है और न वरुण के पाश से ही किन्तु मुझसे ब्राह्मण का अपमान न हो जाय। इस बात से सदा डरता हूँ।

कर्म

‘ब्राह्मण’ की जो श्रेष्ठता ऊपर वर्णित है वह उसके कर्मों के कारण है। धर्मग्रन्थों में ब्राह्मणों के कर्मों को विस्तारपूर्वक बताया गया है। मनुस्मृति नें मनु महाराज ने कहा है कि ‘पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना यह ब्राह्मण का कर्म है।’ इसीलिए ब्राह्मण को ‘षट्कर्मा’ भी कहा जाता है। भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा है कि शम, दम, तप, शौच, क्षान्ति, आर्जव, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिक भाव ये ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।

महाभारत में भी कहा गया है कि ‘मनुष्यों के शरीर में रहने वाला क्रोध शत्रु है। जो क्रोध और मोह को त्याग देता है उसे देवता लोग ‘ब्राह्मण’ कहते हैं। वहीं पर कहा गया है कि ‘ब्राह्मण का धर्म है स्वाध्याय दम, आर्जव और इन्द्रिय निग्रह। “मनु महाराज ने इस बात पर बहुत बल दिया है कि ब्राह्मण को आचारवान् होना चाहिए। उनका कथन है कि ‘वेदों और स्मृतियों में कथित आचार परम धर्म है। अतः ब्राह्मण को सदा उस आचार से युक्त होना चाहिए।१० भविष्य पुराण में ‘आचार’ को सर्वोपरि माना गया है। वहाँ कहा गया है कि ‘ब्राह्मण यदि षडग सहित वेदों का अध्ययन किये हुये हैं किन्तु वह आचार हीन है तो उसको वेद भी पवित्र नहीं कर सकते क्योंकि वेदों का अध्ययन करना तो ब्राह्मणों का शिल्प है लेकिन आचारवान और सच्चरित्र होना तो ब्राह्मण का लक्षण है।११ अग्निपुराण में कहा गया है कि तिलक यज्ञसूत्र, त्रिकाल संध्योपासन, विष्णु पूजन और गायत्री आदि मंत्रों का जप ये ब्राह्मण के लक्षण हैं।१२ वाचस्पत्यम् कोश में वशिष्ठ मुनि का एक वचन उद्धत किया गया है। वशिष्ठ जी कहते हैं कि ऐसे ही ब्राह्मण दूसरों का उद्धार कर सकते हैं जो कि सच्चरित्र, वेदविद्, जितेन्द्रिय, अहिंसक, और दान लेने में संकोच करने वाले हों।१३ भविष्य पुराण में कहा गया है कि ‘श्रुति और स्मृति ब्राह्मण के दो नेत्र हैं। एक का ज्ञान न होने पर ब्राह्मण को काना और दोनों का ज्ञान न होने पर ब्राह्मण को अन्धा ही समझना चाहिए।’ ऊपर ब्राह्मण के जो कर्म बताए गये हैं ऐसे ही कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों से समाज का उत्थान होता है। ऐसा कहा गया है कि जिन घरों में वेद ध्वनि नहीं होती, ब्राह्मणों के पैर धोये जाने वाले जल से कीचड़ नहीं हो जाता, स्वाहा, स्वधा और स्वस्ति वाचन नहीं होता, ऐसे घर तो स्मशान के समान हैं।१४ इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मणों के कर्मों के कारण समाज में प्रारम्भ से ही उनको उच्चता और मान्यता प्राप्त थी। आर्यावर्त में उच्च कोटि के आचारवान् ब्राह्मण रहते थे। महाराज मनु ने बड़े गर्व से ने लिखा है कि इस देश में रहने वाले ब्राह्मणों से पृथ्वी के सब मनुष्यों को सच्चरित्रता की शिक्षा लेनी चाहिए।१५

१. ब्रह्मणो विप्रस्य प्रजापते व अपत्यं ब्रह्म वेदस्तमधीते वा ब्राह्मणः। -अणु (ब्राह्मोऽजातौ), पा० ६/४/१७१, इति व टि लोपः।
विप्र जाति भेद, ब्राह्मणत्व जाति, ब्राह्मण जाति।

२. ब्रह्मणः विप्रस्य प्रजापतेर्वा अप ब्रह्म वेदस्तमधीते वा सः ।
ब्रह्मणः अण् प्रत्ययेन पदं सिद्धं इति भरतः । -पं० ज्वालाप्रसाद मिश्र जाति निर्णय, पृ० १

३. भूतानाम् प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः । बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठाः नरेषु ब्राह्मणाः स्मृताः ।।
ब्राह्मणेषु च विद्वांसः विद्वत्सु कृतबुद्धयः । कृतबुद्धिषु च कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवेदिनः ।। – मनुस्मृति, अध्याय १, श्लोक ९६-९७

४. घिग्बलं क्षत्रियबलं, ब्रह्मतेजो बलं बलम् ।। -विश्वामित्र

५. नाहं विशङ्के सुरराजवज्रात्र त्र्यक्षशूलत्र यमस्य दंडात्
नानर्कचन्द्रानिलवित्तपाशाच्छङ्के भृशं ब्रह्मकुलावमानात् ।। — भागवतमहापुराण

६. अध्यापनमध्ययनं भजनं याजनं तथा ।
दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ।। — मनुस्मृति, अध्याय १, श्लोक ८८

७. शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। –गीता अद्ध्याय १८, श्लोक ४२

८. क्रोधः शत्रुः शरीरस्थो मनुष्याणाम् द्विजोत्तम!
यः क्रोधमोहे त्यजति तं देवाः ब्राह्मणं विदुः ।
९. धर्मं तु ब्राह्मणस्याहुः स्वाध्यायं दममार्जवम् ।
इन्द्रियाणां निग्रहं च शाश्वतं द्विजसप्तम! | – महाभारत वनपर्व, अध्याय २.६, श्लोक ३२४१

१०. आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त्त एव च।
तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादाचारवान् द्विजः । – मनुस्मृति, अध्याय १, श्लोक १०८

११. आचारहीनान् न पुनन्ति वेदाः यद्यप्यधीताः सहषड्भिरङ्गैः ।
शिल्पं हि वेदाध्ययनं द्विजानां वृत्तं स्मृतं ब्राह्मणलक्षणन्तु ।। -भविष्यपुराण, षष्ठीपर्व, कार्त्तिकेयवर्णन, अध्याय ४८, श्लोक ८

१३. तिलकं यज्ञमूत्रं च त्रिसंध्यं विष्णुपूजनम् ।
गायत्र्यादिजपेन्नित्यमेतद् ब्राह्मणलक्षणम्।। – अग्निपुराण

१४. सर्वत्र दान्ताः श्रुतपूर्णकर्णाः जितेन्द्रियाः प्राणिवधे निवृत्ताः
प्रतिगृहे संकुचिताग्रहस्ता स्ते ब्राह्मणस्तारयितुं समर्थाः ।।
– वाचस्यपत्यम्, पृष्ठ ४६१५

१५. न विप्रपादोदककर्दमानि न वेदध्वनिप्रतिगर्जितानि ।
स्वाहास्वधास्वस्तिविवर्जितानि श्मशानतुल्यानि गृहाणि तानि ।। – भविष्यपुराण (श्रीराम शर्मा संस्करण), पृष्ठ २४२

१५. एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।
स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्या सर्वमानवाः ।। -मनुस्मति, अध्याय २, श्लोक २०

श्रोत: हरिदास संस्कृत सीरीज ३६१, लेखक: पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र , शास्त्री , चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस , वाराणसी

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