सरयूपार की सीमा
सरयूपार भू भाग की सीमा दक्षिण में सरयू नदी, उत्तर में सारन और चम्पारन का कुछ भाग, पश्चिम में मनोरमा या रामरेखा नदी, पूर्व में गंगा और गंडक (शालिग्रामी) नदी का संगम है। इस सरयूपार क्षेत्र की लम्बाई पूर्व से पश्चिम तक सौ कोस के लगभग हैं। उत्तर से दक्षिण तक पचास कोस से कुछ अधिक है। इस क्षेत्र को ‘सरबार’ कहते हैं। कुछ विद्वान सरयूपार क्षेत्र की सीमा अयोध्या से हरिहर क्षेत्र तक मानते हैं।
वर्तमान उत्तर प्रदेश में सरयू नाम की एक नदी है। प्रसिद्ध अयोध्या नगरी इसी सरयू नदी के तट पर बसी हुई है। ब्राह्मणों का जो वर्ग सरयू नदी के उस पार बसा हुआ है। उसको ‘सरयूपारीण ब्राह्मण’ या ‘सरवरिया ब्राह्मण’ भी कहा जाता है।
सरयूपारीण ब्राह्मण
इस क्षेत्र के अन्तर्गत ब्राह्मणों का जो वर्ग बसा हुआ है उसको सरयूपारीण ब्राह्मण कहते हैं। इन्हीं ब्राह्मणों को ‘सरवरिया ब्राह्मण’ भी कहा जाता है। ‘सरवार’ शब्द कुछ विद्वानों के मतानुसार सर्वार्य (सर्व आर्य) शब्द का तद्भव रूप है। अर्थात् जिस क्षेत्र में आर्य अर्थात् श्रेष्ठ गुणों से युक्त लोग निवास करते हैं, उसको सर्वार्य कहा जाता था। बाद में उससे सर्वमान्य प्रयोग में ‘सरवार’ कहा जाने लगा। कुछ विद्वान कहते हैं कि भगवान श्री राम ने अश्वमेघ यज्ञ समाप्त होने पर ब्राह्मणों के आवास के लिये यह भूखंड दान में दिया था। उन्होंने अपने सर अर्थात् बाण के द्वारा यह सीमा निर्धारित की थी। सामान्य लोग ‘सरवार’ शब्द को ‘सरयूपार’ शब्द से बना हुआ ही मानते हैं।
पूर्ववृत्त
सरयूपारीण ब्राह्मणों के पूर्वज कब कहाँ से आ कर सरयू पार में बसे, इस पर विचार करना है। इस सम्बन्ध में कान्यकुब्ज ब्राह्मणों का कहना है कि कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के कुछ विद्वान युवकों ने श्री रामचन्द्र जी का यज्ञ कराया। उन्हीं को श्री राम ने सरयू के पार बसा दिया। उन्हीं की सन्तान सरयूपारीण ब्राह्मण हैं। ब्राह्मणों में कान्यकुब्ज ही श्रेष्ठ हैं। ‘कान्यकुब्जाः द्विजा श्रेष्ठा इतरे नामधारकाः, ऐसा श्लोक बना कर अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयास किया। इसी प्रकार किसी गौड़ ब्राह्मण पंडित ने ‘सारस्वतः कान्यकुब्जो गौडो मैथिलउत्कलाः। पञ्चगौडा इति ख्याता विन्ध्यस्योत्तरवासिनः।’ ऐसा लिख कर गौड़ ब्राह्मणों को सर्वोत्तम सिद्ध करने का प्रयास किया किन्तु ये श्लोक किसी प्रामाणिक ग्रन्य में नहीं हैं। ये मनगढ़न्त हैं। तथ्य की बात तो यह है कि अयोध्या नगरी कोशल प्रदेश की राजधानी थी और इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का राज्य था। वे राजा धार्मिक और प्रतापी थे। सरयू नदी के उत्तर सरयूपार क्षेत्र में अनादि काल से गर्ग, गौतम, वशिष्ठ आदि ऋषियों के वंशज बसे हुए हैं। वे ही इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के धार्मिक कृत्य यज्ञादि कराते रहे हैं। अतः कान्यकुब्ज प्रदेश से यज्ञ के लिए ब्राह्मणों को बुलाने की बात कपोलकल्पित और मनगढ़न्त है।
अयोध्या दक्षिणे यस्यास्सरयूतटगः पुनः।
सरवाराख्यदेशोऽयं सरयूपाराग्रजः ।
अर्थात् सरयू नदी के दक्षिण अयोध्या नगरी है। सरयू के उत्तर का क्षेत्र सरवार है जहाँ ब्राह्मण बसे हुये हैं। वे ही सरयूपारी ब्राह्मण या सरवरिया ब्राह्मण नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ यह भी स्मरणीय है। सरयूपार शब्द सरयू के उत्तर और दक्षिण दोनों पार का बोधक है। सरयू के दक्षिण भाग में बसे ब्राह्मण भी सरयूपारीण ही हैं।
वास और विस्तार
इस प्रकार धीरे-धीरे उनकी वंश वृद्धि भी होती गई और सरयूपार क्षेत्र में उनका विस्तार और प्रसार हो गया। फिर सरयूपारीण ब्राह्मण लोग इस क्षेत्र से बाहर जा कर विशेष रूप से प्रतापगढ़, इलाहाबाद, बांदा, बनारस, बलिया और गाजीपुर आदि जिलों में जाकर बस गये। अब तो जीविका वश सरयूपारीण ब्राह्मण भारत के अन्य प्रदेशों में भी जा कर बस गये हैं।
कंतित ब्राह्मण
किसी विशेष स्थान या प्रदेश में बस जाने पर तदनुसार ब्राह्मण कहे जाने लगते हैं। जैसे मैथिल, कान्यकुब्ज आदि। ऐसे ही सरयूपारीण ब्राह्मण ही एक भाग में पाये जाते हैं जिनको कंतित ब्राह्मण कहते हैं। जिला मिर्जापुर में दक्षिणी तथा मांडा, विजयपुर आदि का. इलाहाबाद का भाग कंतित प्रदेश कहा जाता है। राम के ज्येष्ठ पुत्र कुश की राजधानी कुशावती यहाँ थी। कुश के साथ कुछ श्रोत्रिय ब्राह्मण यहाँ आ कर बसे थे। ये कंतित ब्राह्मण सरवार तथा अन्यत्र भी जा कर बसे हुये हैं। इनमें जो ब्राह्मण हैं उनके स्थान नाम के साथ इस गोत्रावली में ‘कंतित’ लिख दिया गया है।
प्रव्रजन
सरवार के ब्राह्मणों का वहाँ से बाहर प्रवजन जीविकावश तथा राजसम्मान वश हुआ। सरयू के दक्षिण जिलों फैजाबाद, रायबरेली, सुलतानपुर, वाराणसी, प्रतापगढ़ और इलाहाबाद आदि में वे लोग धीरे-धीरे बस गये। बहुत को राजाओं ने आश्रय दिया। जैसे प्रतापगढ़ के राजा प्रताप सिंह ने मऊ मिश्र, चौखरी उपाध्याय, खजुत्री है। तिवारी और त्रिगुणायत पाण्डेय आदि को ससम्मान बसाया। प्रतापगढ़ जिले में धीरे- और धीरे सोपरी, सोहगौरा, पयासी, भेड़ी, मधुबनी, कपिशा, करैली, मलाँव, त्रिफला, के इटारि, पिपरा और लहेसरी आदि स्थानों के ब्राह्मण धीरे-धीरे बस गये हैं। इनमें से कुछ का विस्तार तो अनेक गाँवों में हुआ है। अब तो जीविका वश सरवरिया ब्राह्मण : पूरे देश में और कुछ तो विदेशों में भी स्थायी और अस्थायी रूप से बसे हुये हैं।
डीह
सरवरिया ब्राहणों में अपने मूल स्थान को डीह कहा जाता है। इन डीहों की बड़ी प्रतिष्ठा है। बाहर जा कर बसे हुये सरवरिया ब्राह्मण अपने डीह को तीर्थ स्थान की तरह पवित्र मानते हैं और दनका दर्शन करने जाते हैं। वे अभिजन स्थान हैं जहाँ पूर्वजों ने वास किया था। जिन ब्राह्मणों का डीह सरयूपार में नहीं है वे ब्राह्मण प्रामाणिक और प्रतिष्ठित नहीं माने जाते।
श्रोत: हरिदास संस्कृत सीरीज ३६१, लेखक: पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र , शास्त्री , चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस , वाराणसी
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