जय जय भैरव असुर-भयाउनि, पसुपति-भामिनि माया।
सहज सुमति बर दिअहे गोसाउनि अनुगति गति तुअ पाया॥
बासर-रैनि सबासन सोभित चरन, चंद्रमनि चूड़ा।
कतओक दैत्य मारि मुँह मेलल, कतन उगिलि करु कूड़ा॥
सामर बरन, नयन अनुरंजित, जलद-जोग फुल कोका।
कट-कट बिकट ओठ-पुट पाँड़रि लिधुर-फेन उठ फोका॥
घन-घन-घनन धुधुर कत बाजए, हन-हन कर तुअ काता।
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक, पुत्र बिसरु जनि माता॥
व्याख्यान :
राक्षसों को आतंकित करने वाली भैरवी शिवानी तुम्हारी जय हो! तुम्हारे चरण-युगल ही इस दास के लिए एकमात्र सहारा हैं… देवि, मैं तुमसे ‘सहज-बुद्धि’ की ही वरदान के रूप में याचना कर रहा हूँ। दिन-रात तुम्हारे चरण शव-आसन पर शोभित हैं… तुम्हारा सीमंत चंद्रमणि से अलंकृत है… कितने ही दानवों को मारकर तुमने अपने मुँह के अंदर डाल लिया, कितने ही दानवों को तुम हज़म कर गई हो… उगल दिए जाने पर कितने ही दानव सीठी (निःसत्त्व) बनकर धूल में मिल गए हैं। तुम्हारी सूरत साँवली है। आँखें लाल-लाल हैं। लगता है, बादलों में लाल-लाल कमल खिले हैं। पंखुड़ियों जैसे होंठ हैं तुम्हारे, जिनसे कट-कट की विकट आवाज़ निकल रही है। ख़ूनी रंग के झाग बुलबुले पैदा कर रहे हैं। मेखला (करधनी) के घुँघरुओं से झन-झन-झनन घन-घन-घनन की मीठी आवाज़ निकल रही है। तुम्हारी कृपाण प्रहार करने के लिए हमेशा तैयार रहती है… । तुम्हारे चरणों का सेवक विद्यापति कवि कहता है—“माता, पुत्र को कभी नहीं भूलो!”
स्रोत :
पुस्तक : विद्यापति के गीत (पृष्ठ 9) रचनाकार : विद्यापति प्रकाशन : वाणी प्रकाशन संस्करण : 2011
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