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सरयूपारीण ब्राह्मणों’ का इतिहास (वंशावली, गोत्रावली और आस्पद नामावली सहित) – १०

गोत्र

‘गोत्र’ शब्द के कई अर्थ होते हैं। किसी व्यक्ति के गोत्र से तात्पर्य उस व्यक्ति के आदि पुरुष से होता है जो कि उस वंश का प्रवर्तक होता है। सबसे प्रथम वैदिक काल में जो ऋषि हुये उनके वंश का विस्तार आगे होता रहा। उस वंश के लोग अन्य लोगों से अलगाव रखने के लिए अपने मूल ऋषि या मूल पुरुष का नाम गोत्र के रूप में लेते चले आ रहे हैं।, भारत में ऐसे गोत्रों की संख्या लगभग ७०० है। उनमें से लगभग २०० गोत्र भारत के विभिन्न प्रदेशों में फैले हुए ब्राह्मणों में पाये जाते हैं। ये महर्षि गोत्र कहलाते हैं। कुछ गोत्रों को मिला कर ‘गोत्र काण्ड’ बनाये गये हैं। ये महर्षि गोत्र कहलाते हैं। प्रत्येक ‘गोत्र काण्ड’ में अनेक गोत्र सम्मिलित हैं। गोत्रकाण्ड के रूप में किया गया गोत्रों का यह वर्गीकरण उनको याद रखने में सहायक होता है। बौधायन आदि कई आचार्यों ने गोत्रों का वर्गीकरण किया है। वंश-परम्परा नष्ट होने पर कुछ गोत्र लुप्त भी हो जाते हैं। ऐसे कुछ प्राचीन लुप्त गोत्रों का उल्लेख शिलालेखों में मिलता है। धर्मग्रन्थों में एक गोत्र में विवाह वर्जित किया गया है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपना गोत्र याद रखना चाहिए।

सरयूपारीण ब्राह्मणों के गोत्र

कुछ विद्वान सरयूपारीण ब्राह्मणों में गोत्रों का तीन प्रकार से विभाजन करके ३, १३ और अन्य १० मानते हैं। उन्होंने मिश्रित गोत्रों की संख्या ३ स्वीकार की है। वे निम्नलिखित हैं-

१३१०
१. गर्ग१. पराशर१. कुण्डिन
२. गौतम२. गालव२. वशिष्ठ
३. शाण्डिल्य३. कश्यप३. उपमन्यु
४. कौशिक४. मौनस
५. भार्गव५. कण्व
६. भरद्वाज६. वर्तन्तु
७. सावर्णि७. भृगु
८. अत्रि८. अगस्त्य
९. कात्यायन९. कौशल्य
१०. अंगिरा१०. उद्वाह
११. वत्स
१२. संकृति
१३. जमदग्नि

मिश्रित गोत्र

(कृष्णात्रेय, घृतकौशिक, गार्गेय)

किन्तु इनमें से २४ गोत्रों के ब्राह्मणों और उनके आस्पदों का पता चला है जो निम्नवत हैं-

१. अगस्त्य१३. चान्द्रायण
२. उपमन्यु१४. पराशर
३. कण्व१५. भरद्वाज
४. कश्यप१६. भार्गव
५. कात्यायन१७. मौनस
६. कुण्डिन१८. वत्स
७. कुशिक१९. वशिष्ठ
८. कृष्णात्रेय२०. शाण्डिल्य-१
९. कौशिक२१. शाण्डिल्य-२
१०. गर्ग२२. शाण्डिल्य-३
११. गौतम२३. संकृति
१२. घृतकौशिक२४. सावर्णि

अतः इन्हीं गोत्रों का विवरण इस पुस्तक में प्रवर, वेदादि निरूपण, वंश और आस्पद क्रम से दिया गया है।

१. गोत्र (क्लीब) गवते शब्दायते अनेन गु करणे च। – उण्/४/१६६२

(१) गोत्रं चाभिजनः कुलम् । – अमरकोश

(२) गोत्रं वंशपरम्पराप्रसिद्धम् । – विज्ञानेश्वर-गोत्रप्रवरदर्पण

गोत्रंच वंशपरम्पराप्रसिद्धमादिपुरुषं। ब्राह्मणरूपम्। – शब्दकल्पद्रुम्

(३) एतेषां यान्यपत्यानि तानि गोत्राणि मन्यन्ते। – धनञ्जय-धर्मप्रदीप

हिन्दी विश्वकोष सम्पादक नागेन्द्रनाथ वसु। – गोत्रशब्द

श्रोत: हरिदास संस्कृत सीरीज ३६१, लेखक: पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र , शास्त्री , चौखम्भा संस्कृत सीरीज ऑफिस , वाराणसी

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