गोत्रों के वंशज ब्राह्मणों का विस्तार
जैसा कि अध्याय ९ में बताया गया है कि सरयूपारीण ब्राह्मणों में इस समय निम्नलिखित २४ गोत्रों के ब्राह्मण पाये जाते हैं—
१. अगस्त्य | १३. चान्द्रायण |
२. उपमन्यु | १४. पराशर |
३. कण्व | १५. भरद्वाज |
४. कश्यप | १६. भार्गव |
५. कात्यायन | १७. मौनस |
६. कुण्डिन | १८. वत्स |
७. कुशिक | १९. वशिष्ठ |
८. कृष्णात्रेय | २०. शाण्डिल्य-१ |
९. कौशिक | २१. शाण्डिल्य-२ |
१०. गर्ग | २२. शाण्डिल्य-३ |
११. गौतम | २३. संकृति |
१२. घृतकौशिक | २४. सावर्णि |
इनमें से प्रमुख गोत्रकार ऋषियों का परिचय और उन गोत्रों के वंशज ब्राह्मणों
का मूल स्थान तथा वहाँ से विस्तार का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
१. कश्यप – कश्यप ऋषि महर्षि मरीचि के पुत्र थे। कश्यप के पुत्र का नाम भी कश्यप था। अतः कश्यप गोत्रकार ऋषि थे।
कश्यप गोत्र के पाण्डेय ब्राह्मणों का आदि स्थान त्रिफला (जिला बस्ती) है। त्रिफला के पाण्डेय लोगों के अन्य प्रतिष्ठित स्थान निम्नलिखित हैं-
कठैचा, गौरा, जगदीशपुर, दतुआखोर, धवरहरा, नेदुला, नाथपुर, फरेंदा, बनगाँव, बारहकोनी, बिसनैया और भटगाँव। लग्गूपुर (जिला आजमगढ़) में है। कश्यप गोत्र में राल्ही मिश्र, खैरी ओझा, परवा दुबे, पकड़ी उपाध्याय और सोनबरसा के चौबे भी हैं। अन्य स्थानों के कश्यप गोत्रीय ब्राह्मणों का नाम आगे वंश क्रम में इसी गोत्रावली में दिया गया है।
२. शाण्डिल्य १ (सोहगौरा के) – महर्षि कश्यप बक्सर के पास सिद्धाश्रम में रहते थे। उनके दो पुत्रों के नाम शाण्डिल्य थे। ज्येष्ठ पुत्र शंडिला में जा कर तप करते थे। इस शांडिल्य से सोहगौरा त्रिपाठी की वंश परम्परा चली। ऐसा कह्य जाता है कि वे शंडिला की तपोभूमि छोड़ कर सरवार में गोरखपुर से दक्षिण राप्ती नदी के किनारे आ कर बस गये। वहाँ सदा स्वाहा की गूंज रहती थी। सदा हवन होता रहता था। उसको स्वाहा गाँव कहा जाने लगा। स्वाहा गाँव से धीरे धीरे बदल कर सोहगौरा हो गया। कुछ लोगों का कहना है कि शांडिल्य की स्त्री का नाम ही स्वाहा था। इसलिए इस गाँव का नाम स्वाहा गाँव पड़ा। स्वाहा गाँव से सोहगौरा हो गया।
शाण्डिल्य के वंशजों में राम, कृष्ण, मणि और नाथ चार पुत्र हुये। बाद में वे लोग अलग-अलग गाँवों में बस गये। उनका विस्तार होता गया। अपनी पहिचान के लिए वे लोग अपने नाम के आगे राम, कृष्ण, मणि और नाथ अब भी लगाते हैं। राम के वंशज सरयू और राप्ती नदी के मध्य अतरौली, कोटा, झुड़िया, बदरा, महिलवार, भरुहिया, रुद्रपुरा, रोहा, उनवलिया, विश्वनाथपुर और सरया आदि में बसे हुए हैं।
कृष्ण के वंशज परतावलि, बनकटिया, बसावनपुर, च्यूंटहा, वंशडिला, बारीपुर, बेलवा, सोहगौरा आदि में बसे हुए हैं।
मणि के वंशज उधोपुर, खरहरा, देउरवा, देवरिया (दोनों), धतुरा, धानी, नैयापार, बलुआ, बुढ़ियाबारी, बरपार, सिधाँव, सिरजम, सैनुआ, सोपरी (दोनों) हरदी, भलुआ और सोनौरा आदि गाँवों में बसे हुए हैं। नाथ त्रिपाठी के वंशज चेतिया, निगुहिया आदि गाँवों में बसे हुए है।
३. शाण्डिल्य २-एक दूसरे महर्षि शाण्डिल्य थे। उनसे पिंडी (पींड़ी) के त्रिपाठी लोगों का वंश चला। पिंडी गोरखपुर के पूर्वी भाग मझौली राज्य में एक प्रसिद्ध गाँव है। कश्यप ऋषि बक्सर के सिद्धाश्रम से आ कर अपना हवन कुंड जहाँ बनाया था वहीं अब पिंडी गाँव हैं। वहीं उस हवन कुंड से अग्नि की उत्पत्ति हुई। उस पवित्र अग्नि से शांडिल्य की उत्पत्ति हुई। शांडिल्य का तेज अग्निपिंड के समान था। अतः उस गाँव का नाम पिंडी पड़ा। उन्हीं शाण्डिल्य के वंशज पिंडी के त्रिपाठी हैं। शाण्डिल्य के ज्येष्ठ पुत्र सुमुनोधर त्रिपाठी का आश्रम पिंडी के पास ही समोगर स्थान में है। सुमनोधर त्रिपाठी के तीन पुत्र तीन स्थानों – (१) पिंडी, (२) नदवली (३) चन्द्रवटा में बस गये। पिंडी के वंशज अयोध्या के पं. उमापति जी और औरंगाबाद (काशी) में पं. कमलापति त्रिपाठी आदि हैं।
नटवली से निकल कर त्रिपाठी लोग कटियारी, टांडा, मँगराइच, मुजौना, लोनापार, लोनाखार और सॅवरेजी आदि में बस गये। चन्द्रवटा से निकल कर भी लोग अन्य गाँवों में बस गये।
पिंडी के त्रिपाठी नाम के साथ ‘पति’ शब्द लगाते हैं, जैसे उमापति त्रिपाठी, कमलापति त्रिपाठी, लोकपति त्रिपाठी आदि।
४. शाण्डिल्य ३ (पाला के) – महर्षि कश्यप के द्वितीय पुत्र का नाम भी शाण्डिल्य था। उनका विवाह सरयू के उत्तर वासी बेलौरा मिश्र की कन्या पाला से हुआ था। उनसे पाला त्रिपाठियों की उत्पत्ति हुई। पाला वह गाँव है जहाँ पाला सहित शाण्डिल्य निवास करते थे। ये शाण्डिल्य अपने ज्येष्ठ भाई शाण्डिल्य के समान तेजस्वी नहीं थे। अतः उनके समान प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त कर सके।
पाला के त्रिपाठी परिवार का विस्तार होने पर उकिना, चौरी, खोरमा, गोनौरा, पड़री, ब्रह्मपुर, नेवासन कौझा, पोहिला, हथियापरास, चरथरी, नैनसार, सेमरी, कर्दहा, काँधापार, मँगरा, घरनर, (घोड़नल), गोपीकाँध, जोगिया, छपरा, पुरैना, पौरिया, कुसुम्मी आदि गाँवों में बस गये।
नोट-कुछ लोग शाण्डिल्य का अलगाव श्रीमुख शाण्डिल्य और गर्दभमुख शाण्डिल्य दो प्रकार करते हैं किन्तु यह निराधार है। वस्तुतः शाण्डिल्य वंश में श्रीमुख, गर्ध और मुख इस तरह तीन व्यक्ति अलग अलग हुये होंगे। श्रीमुख और गर्दभ मुख नहीं।
पाला के त्रिपाठी वंश में ऋषभ नाम के एक प्रसिद्ध विद्वान हुये थे। उनके नाम पर कुछ त्रिपाठी अपने को ऋषभ गोत्रीय कहते हैं। वस्तुतः उनका गोत्र शाण्डिल्य ही है ऋषभ नहीं।
५. संकृति – मूल गोत्र संकृति है। इसी संकृति शब्द को गोत्र मानना चाहिये। सांकृत्य, सांकृत और शांकृत शब्द का गोत्र के रूप में प्रयोग अशुद्ध है। संकृति ऋषि महर्षि अत्रि के पुत्र थे। संकृति गोत्र के पाण्डेय लोगों का मूल स्थान मलाँव (मलैंया) है। मलाँव से विस्तार होने पर ये लोग कट्याँ, करौदिया, नाउरदेउर, भिउरा, भेलौरा, रमवापुर, हरदही आदि में बसे हुए हैं। संकृति गोत्र में नयपुरा और भौआपार के चौबे भी है। इनका उल्लेख वंश क्रम में इसी पुस्तक में किया गया है।
६. गौतम – गौतम ऋषि महर्षि अंगिरा के पुत्र थे। गौतम के पुत्र का नाम भी गौतम था। अतः गौतम गोत्रकार ऋषि हैं। न्यायशास्त्र के प्रवर्त्तक तथा महान् तपस्वी गौतम मिथिला क्षेत्र में आश्रम बना कर रहते थे। उनकी पत्नी अहल्या थी। उनके पुत्र शतानन्द थे जो राजा जनक के पुरोहित थे। आज कल गौतम के आश्रम पर अहियारी गाँव बसा हुआ है। इसके पास ही दरभंगा जिले में मधुबनी प्रसिद्ध स्थान है। उसके पास ही गौतम कुण्ड भी है। कहा जाता है कि महाराज दशरथ ने श्री रामचन्द्र जी के विवाह में चम्पारन देश दान में दिया था। चम्पारंन में मधुबनी एक स्थान है। गौतम गोत्रीय मिश्र वहाँ जा कर धीरे-धीरे बस गये। मिथिला के तथा महाराज दशरथ के पूज्य होने के कारण मधुबनी के मिश्र प्रतिष्ठित माने जाने लगे। इनके प्रसिद्ध स्थान मधुबनी, बाँसगाँव, चम्पारन, और बेइसी हैं। बाद में इनका विस्तार, मटियारी, नरईपुर, कारीडीह, बरईपुर, चॅचाई, कारीगाँव, बस्ती, पिपरा, पिपरा गौतम, अहिरवलिया, पतिलाड, अखरचन्दा, सिसई, डुमराँव, भभया, भरसी, डलिहा, कटगैया और रेउड़ा आदि गाँवों में हुआ।
७. भरद्वाज – भरद्वाज ऋषि महर्षि अंगिरा के पुत्र थे। भरद्वाज के पुत्र का नाम भी भरद्वाज था। उनसे भरद्वाज वंश प्रारम्भ हुआ। प्रयाग में स्थित भरद्वाज मुनि दूसरे थे। गोत्रकार भरद्वाज आंगिरस भरद्वाज थे। वे आयुर्वेद के भी प्रवर्तक थे। महर्षि अत्रि के पुत्र आत्रेय इनके शिष्य थे। भरद्वाज गोत्र बहुत व्यापक है। इस गोत्र में धाराधरी (सरारि) दुबे, मीठा बेल दुबे, सोनौरा के पाठक, खोरिया के उपाध्याय और मचैंया (जिला आरा) के पाण्डेय विशेष प्रसिद्ध हैं। भरद्वाज गोत्र के एक तपस्वी थे। उन्होंने अपनी कुटी डूबने से बचाने के लिए राप्ती की धारा को रोक दिया था। तब से उनका नाम धाराधर पड़ गया और उस स्थान का नाम धाराधरी। उनके बंशज अपने नाम के आगे ‘धर’ शब्द लगाते हैं। जैसे रामधर, पद्मधर, श्रीधर आदि। सरारि बढया आदि इसी गोत्र में हैं।
भरद्वाज गोत्र का विशेष विवरण इस पुस्तक में वंश क्रम में आगे दिया गया है।
८. गर्ग – महर्षि अंगिरा के पुत्र भरद्वाज और भरद्वाज के दूसरे पुत्र गर्ग थे। ऋषि गर्ग का मूल स्थान सरयू के उत्तर गोरखपुर से दक्षिण गर्गहा में था। उसको आज कल गगहा कहते हैं। उसी के पास भेड़ी, बकरुआ, मामखोर आदि गाँव बसे हुए है।
गर्ग गोत्र के शुक्ल ब्राह्मणों के प्रसिद्ध स्थान निम्नलिखित हैं-
(क) मामखोर – कँनइल, करंजही, खखाइजखोर, छोटा सराँव, तलहा, परसा, बकरुआ, बहेरी, बरहुचिया, भटौली, भेड़ी, रुदाइन, सीयर, सराँव। १५ घर
(ख) महसौं – अकौलिया, कटारी, खोरीपाकरि, गोपालपुर, झौआ, सिलहटा, बकैना, बसौढ़ी, मुँडेरा, मेहरा, रुद्रपुर। १२ घर
(ग) लखनौरा – आमचौरा, कसैला, गोबरहिया, छोटकी भादी, चिनगहिया, जिंगना, जिंगनी, झरकटिया, तुरकहिया, नवागाँव, भेलखा, भादी, लोहरौली, बायखोर, सिटकिहा, पैड़ी, हँथरसा, हटवा। १८ घर
(घ) महुलियार-ककरही, गौरा, छीछापार, जरगहिया, टॉठर, दीक्षापार, नगरा, नेवारी, बनगई, बुड़हट (हरपुर), मलेंद (मलेन), मुड़फेंकरा, सेरापार, हर्दिहा। १४ घर
महसौं, लखनौरा, बरहुचिया और बहेरी ये चार मुख्य गाँव गर्ग गोत्रीय शुक्लों के बस्ती जिले में हैं। महसों से हट कर वहाँ के कुछ परिवार मुँडेरा, मेहरा, सिलहटा आदि गॉवों में बाद में बसे हैं। विशेष
विवरण आगे यथास्थान दिया गया है। ९. वत्स-महर्षि भृगु से जमदग्नि हुये और जमदग्नि के पुत्र वत्स हुए। वत्स ऋषि का मूल स्थान पयासी गाँव था। वे अपने वंशजों को वहाँ छोड़ कर प्रयाग चले गये। वहाँ उन्होंने अपना स्थान बनाया। उसके बाद उनके वंशज रतनमाला, बेलौरा और फरगैया आदि गाँवों में सरवार में बस गये। महर्षि वत्स के सहारे पयासी के ही कुछ मिश्र परिवार प्रयाग चले आये। वे गंगा जी के दोनों ओर कुछ दूर तक बस गये। उनमें से कुछ परिवार यहीं स्वतंत्र रहने लगे और कुछ अन्य पूर्वागत ब्राह्मणों से सम्बन्ध करके उनके उत्तराधिकारी भी बन गये। महर्षि वत्स इतने प्रतापी थे कि उनके नाम पर इलाहाबाद जिले के एक भू भाग का नाम ही ‘वत्स’ पड़ गया। पयासी मिश्रों के प्रधान गाँव गाना, नगरहा, दोगारी, फरगैयाँ आदि हैं। इनके निम्नलिखित स्थान अति प्रसिद्ध हैं-
(क) गाना – गाना, त्योठा, चकदहा, बरवरिया, शेरिया।
(ख) दोगारी – दोगारी
(ग) नगरहा – अधैला, चैनपुर, तिलकपुर, बनकटा, रेवली, सेखुई, सलेमपुर।
(घ) पयासी – कतरारी, छपिया, जिंगना, गोपालपुर, परसिया, बिजरा, बीजापुर, भरवलिया, बैरिया, मुड़िला, भिटहा. रत्नमाला, रानीपुर।
(ङ) फरगैयाँ – दियाबाती, फरिहाँव, मेंहदावल ।
(च) बेलौरा – चिमरवा, बकरिया, पानन, बँधौरा, बेलौरा, मँझौलिया, सुलतानपुर।
(छ) मणिकढ़ा – खुदिया, चिमरवा, बधौरा, बैनुआँ, मणिकढ़ा।
१०. भार्गव – भृगु ऋषि के पुत्र जमदग्नि और जमदग्नि के पुत्र भार्गव हुये। इनसे भार्गव गोत्रीय ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई। महर्षि भुगु का आश्रम बलिया नगर में भृगु आश्रम नाम से प्रसिद्ध है। आगे चल कर जमदग्नि ऋषि ने गोरखपुर जिले के सोहनाग (मझौली राज्य से पश्चिम सलेमपुर स्टेशन के पास) में अपना आश्रम बनाया। वहाँ एक तालाब और परशुराम जी की मूर्ति अब भी है। तूतीपार स्टेशन के पास स्थित भागलपुर को पहले भार्गवपुर कहते थे। बलिया से सोहनाग तक सरयू के उत्तरी किनारे भार्गव ब्राह्मण बसे हुये थे। भार्गव त्रिपाठी ब्राह्मणों को सिंहनजोरी भार्गव कहते हैं। गर्ग और गौतम तपोबल की दृष्टि से ब्राह्मणों में सिंह कहे जाते हैं। उनके ही समान तपस्वी और तेजस्वी होने के कारण भार्गव को सिंहनजोरी भार्गव कहते हैं।
भार्गव गोत्रीय त्रिपाठी ब्राह्मणों का आदि स्थान सरयू के उत्तर तट स्थित भार्गवपुर (भागलपुर) है। इनके अन्य प्रतिष्ठित स्थान सिंहनजोरी, रखुआखोर, मदनपुर, चरणारि, सोढ़ाचक्र, तुरहापट्टी, पुरैना, हरपुर, बिष्ठौली (मलाँव के पास) और गुरौली हैं।
११. सावर्णि – भृगु ऋषि से जमदग्नि हुये। जमदग्नि के एक पुत्र सावर्णि हुये। वही सावर्णि गोत्रकार ऋषि हैं। सूर्य के पुत्र सावर्णि या दक्ष पुत्र सावर्णि गोत्रकार नहीं हैं। सावर्णि के स्थान पर सावर्ण्य गोत्र कहना अशुद्ध है क्योंकि सावर्ण्य की गिनती गोत्रकार ऋषियों में नहीं है।
सावर्णि गोत्र में इटारि पाण्डेय प्रसिद्ध हैं। इनके अन्य स्थान रहकट, चारपानी (चारूपाणि या चक्रपाणि) लहेसरी, साहूकोल और भस्मा हैं। सरवार से आ कर प्रसिद्ध प्रतापगढ़ के अनेक गाँवों में इटारि और लहेसरी के पाण्डेय बस गये हैं। फिर आगे भी उनका विस्तार हुआ है। भट्टाचारी, सावर्णटिकरा, इन्द्रपुर, एकौना, ज्वरवा, नयपुरा के पाण्डेय भी सावर्णि गोत्र में हैं।
१२. कौशिक – भृगु से विश्वामित्र और विश्वामित्र के ज्येष्ठ पुत्र कौशिक हुये। कौशिक गोत्र इन्हीं से प्रारम्भ हुआ। कौशिक गोत्र में ब्रह्मपुर के दुबे प्रसिद्ध हैं। ये लोग काशी के गहरवार क्षत्रियों के पूज्य थे।
कौशिक गोत्र में ‘घृत’ का नाम जोड़ कर अपना गोत्र घृतकौशिक कहना प्रारम्भ किया। ये मिश्र ब्राह्मण सरवार में धर्मपुरा, मझौना, हरदिया, लगुनही, कुशहरा आदि में बसे हुये हैं।
१३. वशिष्ठ– महर्षि वशिष्ठ की तीसरी पीढ़ी में वशिष्ठ नामक एक ऋषि हुये। उनसे वशिष्ठ गोत्र का प्रारंभ हुआ। वशिष्ठ इक्ष्वाकु वंशीय राजाओं के राज- पुरोहित थे। अयोध्या से वशिष्ठ के वंशज बट्टूपुर में आ कर बसे। बट्टूपुर मार्जनी मिश्र का वशिष्ठ गोत्र है। इनके अन्य स्थान बढ़नी, खेउसी, खेसी, खेली आदि हैं।
वशिष्ठ गोत्र में चतुर्वेदी, पाण्डेय और त्रिपाठी भी होते हैं। उनका उल्लेख इस पुस्तक में आगे यथास्थान किया गया है।
१४. पराशर – वशिष्ठ महर्षि के पुत्र पराशर थे। उनसे पराशर गोत्र का प्रारंभ हुआ। इस गोत्र में मुख्य शिला के पाण्डेय हैं। इनका आदिस्थान हस्तिगाँव है, सरवार में इनके अन्य स्थान सन्त, धमौली, सोहनपार और इटैली है। वामपुरा गंगापार तथा गढ़वार राज्य में भी शिला के पाण्डेय बसे हुये हैं। इनके अतिरिक्त कुछ मिश्र शुक्ल और उपाध्याय भी पराशर गोत्र में होते हैं। उनका उल्लेख इस गोत्रावली में आगे यथास्थान किया गया है।
१५. उपमन्यु – महर्षि वशिष्ठ से उपमन्यु उत्पन्न हुये। उनसे उपमन्यु गोत्र का प्रारम्भ हुआ। इस गोत्र में करैली के ओझा प्रसिद्ध हैं। करैली के अन्य प्रसिद्ध स्थान ओझावली (ओझौली), अजाँव, असवनपुर, ककुआ, ब्रह्मपुर, मलॉव, रामडीह, लगुनी, बारीगाँव और हरजनपुर हैं।
१६. कुण्डिन – महर्षि वशिष्ठ से कुण्डिन ऋषि की उत्पत्ति हुई। उनसे कुण्डिन गोत्र प्रारम्भ हुआ। ऋषि का नाम कुंडिन है। अतः गोत्र का नाम कौण्डिन्य अशुद्ध है। कुण्डिन गोत्र ही कहना चाहिये।
कुंडिन का आदि स्थान गोरखपुर जिले में कौड़ीराम है। यह अम्बिका (आमी) और राप्ती नदी के संगम के पास है। कुंडिन गोत्र में कौहली तिवारी, कोहिली मिश्र, बँभनौली के मिश्र और पलामू के पाण्डेय आते हैं।
१७. अगस्त्य – अगस्त्य नाम के अनेक ऋषि हुये हैं किन्तु काशी के प्रसिद्ध अगस्त्य ऋषि ही गोत्रकार ऋषि है। इनमें पाण्डेय ब्राह्मण हैं। इनके प्रसिद्ध स्थान अगस्त्यपार, पाण्डेपार, भौआपार, बेदौली, महसौ, अष्टकपाल और अगस्तिया हैं। तकिया, धरहरा, धन्धवार के तिवारी भी इसी में हैं।
१८. कृष्णात्रेय – महर्षि अत्रि के पुत्र अत्रि थे। उनका रंग कृष्ण वर्ण था। अतः उनको कृष्णात्रेय कहते थे। इनसे कृष्णात्रेय गोत्र प्रारम्भ हुआ। कृष्णात्रेय के स्थान पर कृष्णात्रि गोत्र कहना अशुद्ध है।
इस गोत्र में पिछौरा के शुक्ल, सत्यकर शुक्ल तथा डोमरिया, डोमरियागंज, कुटुरिहा, पड़रौना दुबे भी हैं।
१९. कात्यायन – कात्यायन गोत्र में केवल नयपुरा और कुसौरा के चतुर्वेदी आते हैं। किन्तु खोज से पता चला है कि सरवार में संकृति गोत्र के चतुर्वेदी लोगों की प्रतिष्ठा है। उसमें नयपुरा के चतुर्वेदी आते हैं। कुसौरा के चतुर्वेदी लोगों का गोत्र कश्यप है। महर्षि कश्यप के वंश में कात्यायन नामक ऋषि हुये हैं। लगता है कि बाद के चतुर्वेदी लोगों ने इन कात्यायन से ही अपने को कात्यायन गोत्र मान लिया हो। एक कात्यायन वह हुए हैं जिन्होंने पाणिनि के व्याकरण सूत्रों पर वार्तिक लिखा था। वे संकृति गोत्र में उत्पन्न हुये थे। भ्रमवश उनको गोत्रकार ऋषि मान लिया गया है किन्तु वे तो बहुत बाद में हुये हैं।
२०. गोरक्षक मुनि – श्रीमुख शाण्डिल्य (शाण्डिल्य १) गोत्र के बाबा गोरक्षक मुनि त्रिपाठी सच्चे अर्थ में ‘पंक्तिपावन’ थे। उनकी सात भार्या थीं- (१) महसौं शुक्ल की बेटी ढुंढा (२) नदुला ग्राम त्रिफला पाण्डेय की बेटी सतांभरा (३) गौतम गोत्र बाँसगाँव मिश्र की बेटी धान्या (४) मामखोर शुक्ल की बेटी चितिका (५) इटारि पाण्डेय की बेटी श्रीदेवी या सिरजम देवी (६) बेलौरा मिश्र की बेटी पाली (७) हरीपुर भूमिहार की बेटी हरिद्रा।
इन्हीं सात स्त्रियों की सन्तान त्रिपाठी देवरवा, सिरजम, सोहगौरा, धानी, बड़ी सोपरी, बुढ़ियावारी, चेतिया, परतावल, हरदी और बलुआ आदि अनेक गाँवों में यथावकाश बसे हैं।
संवत् १५८९ विक्रमी माघ शुक्ल पंचमी गुरुवार को बाबा गोरक्षक मुनि त्रिपाठी का देहान्त हुआ।