1.5 मार्क्स-दर्शन
कार्लमार्क्स (१८१८-८३)-ने हीगेलके द्वन्द्वमानको भौतिकवादसे जोड़ लिया, परंतु मार्क्स मानस या बोधको स्वयंविकास या विवर्त मानता है। इस प्रक्रियाका प्रथम अंश है एक अविभाजित इकाई। यह इकाई दो विरोधी अंशोंमें विभाजित हो जाती है। पुन: इन विरोधोंका समन्वय होकर एक नयी सम्बन्धित इकाईका जन्म होता है। इसी प्रकार सृष्टिका विकास होता रहता है। इन बातोंको ब्रह्मवादमें भी जोड़ा जा सकता है। अविभाजित ब्रह्मका भी दृक्-दृश्य, ज्ञान-ज्ञेयरूपमें विभाजन हुआ। पुन: दोनोंके समन्वयसे ही महदादि प्रपंचकी सृष्टि होती है। इसी तरह उत्तरोत्तर कारणका विभाजन, विध्वंस या समन्वयसे उत्तरोत्तर सृष्टि होती है। एक बीजमें धरणि, अनिल, जलके सम्पर्कसे उच्छूनावस्था (अंकुरोत्पत्तिके पहले बीजकी फूलनेकी अवस्था) होती है। फिर अन्तर्विरोधसे बीजका विध्वंस या विभाजन होता है, पुन: समन्वय होकर अंकुर उत्पन्न होता है। मार्क्स इसी अन्तर्विरोधको द्वन्द्वमान मानकर कहता है ‘यह क्रिया भूतकी ही है, मनकी नहीं, मनमें तो भूतकी ही क्रिया प्रतिबिम्बित होती है।’
परंतु वेदान्त-मतानुसार विनाश या विध्वंसको अंकुरका कारण नहीं माना जाता, किंतु बीजके अवयव ही अंकुरके रूपमें परिणत या विवर्तित होते हैं; क्योंकि कार्यमें बीजके अवयवोंका ही अन्वय दिखायी देता है। अत: विनाश या विध्वंस विकासका कारण नहीं, इसके अतिरिक्त कारण ब्रह्म कार्यरूपमें परिणत होनेपर भी अविकृत मुक्तोपसृप्य ब्रह्म बना ही रहता है। आकाश, वायु आदि भी उन-उन कार्योंके रूपमें परिणत होनेपर भी समाप्त नहीं हो जाते। उनका भी पृथक् अस्तित्व बना ही रहता है। इसके अतिरिक्त हीगेलके यहाँ इस संघर्ष-क्रियाकी सीमा है। हर कार्यमें अन्तर्विरोध या संघर्षसे उत्तम वस्तुका विकास नहीं होता, इसीलिये कोई कार्योंके विनाशसे कोई भी अच्छी चीज उत्पन्न नहीं होती। तभी लोग कार्यध्वंससे उद्विग्न होते हैं। वस्तुत: मार्क्सने हीगेलके द्वन्द्वमानका गलत अभिप्राय समझकर दुरुपयोग किया है। किसी कार्यमें भावरूप उसका उपादान कारण एवं रजके हलचलके साथ तमका अवष्टम्भ तथा सत्त्वका प्रकाश भी अपेक्षित होता है, इस तरह कार्योत्पत्तिमें आंशिक संघर्षसे अधिक प्रकाश एवं अवष्टम्भका महत्त्वपूर्ण हाथ रहता है।
हलवांश एवं हलवैशियस अठारहवीं शताब्दीके भौतिकवादियोंके प्रतीक समझे जाते थे। हलवांशकी पुस्तक ‘प्रकृति-विश्वास’ है। उसका कहना है कि ‘यदि सत्ताका अर्थ है सच्चा स्वरूप तो हमें वस्तुकी सत्ताका कोई ज्ञान नहीं। प्रत्यक्षावलोकनसे तथा तज्जनित स्पन्दन और विचारोंसे हमें भूतका ज्ञान प्राप्त है। इन्द्रियोंके अनुसार विषमेच्छा—अच्छी या बुरी राय कायम करते हैं। उसकी प्रतिक्रियाके अनुसार उसके कुछ गुणोंका परिचय यद्यपि हमें मिलता है, फिर भी भूतकी सत्ता या सच्चे स्वरूपका ज्ञान नहीं होता। मनुष्य भूतोंका ही बना है। अत: भूतोंके अतिरिक्त उसका और कोई विचार नहीं है। अत: भूत ही विचार-शक्ति-सम्पन्न है अथवा भूतका परिणाम ही मनन शक्ति है।’
पृथ्वीके सम्बन्धमें इसका अनुमान है कि ‘सम्भव है कि यह एक भूतपिण्ड है, जो किसी नक्षत्रसे विच्छिन्न हो गया होगा अथवा सूर्यस्थित काले बिन्दुओंके विस्तारका ही परिणाम है अथवा बुझी हुई धूमकेतु होगी।’ ऐसे ही वह मनुष्यको भी प्रकृतिकी आकस्मिक उपज होनेकी कल्पना करता है। इस समयके दार्शनिक धर्मके विरोधी थे और बुद्धि एवं अनुभवपर प्रतिष्ठित नीतिके साथ धर्मके सम्बन्धको भयंकर समझते थे; क्योंकि धर्मको वे बुद्धिविरुद्ध एवं नैतिक शिक्षाको कमजोर बनानेवाला मानते थे। हलवांश वासनाको ही वासना-पूर्तिकी औषध समझता था। वह वासनाओंका दमन अनावश्यक समझता था। उसका कहना है ‘मनुष्यमात्र सुख चाहता है। दु:खसे घबराता है। इसीलिये सुख-साधन भले तथा दु:ख-साधन बुरे हैं। कोई सरकार ऐसा कष्ट नहीं उठाती, जिससे उसकी प्रजाको न्याय, भलाई और ईमानदारीमें ही सुविधा मालूम हो। इसके विपरीत अन्यायी दोषी बननेके लिये प्रेरित किया जाता है। प्रकृतिने मनुष्यको बुरा नहीं बनाया। सामाजिक व्यवस्था ही इसके लिये जिम्मेदार है।’
वाल्टेयरके मतानुसार ‘समाज न्याय-अन्यायकी धारणा बिना नहीं रह सकता।’ किंतु हलवांश इसमें ईश्वरकी आवश्यकता नहीं समझता। ‘न्याय, संयम, उपकार जीवनके लिये लाभदायक हैं, यह सभी समझ सकते हैं।’ रूसो कहता है, ‘फिर भी अपने सुखके लिये कोई मौतका सामना क्यों करेगा? अत: ऐसे स्थलोंका स्वार्थ सामाजिक स्वार्थ ही समझा जाना चाहिये, व्यक्तिगत नहीं।’ १८वीं शतीके भौतिकवादी समझते थे कि ‘भूलसे ही मनुष्यको दु:ख होता है, यदि मनुष्य अपने स्वभावपर कायम रहेगा तो सदा सुखी रहेगा।’ सियरवेलके शंकावाद, लंक, कनडिलाक बर्क आदिके इन्द्रियानुभूतिवादसे भौतिकवादको बड़ा बल मिला, हलवेशियसने भी बताया कि ‘मनुष्यकी बुद्धिमें प्रकृतिगत समानता, विचारशक्ति तथा उद्योगकी उन्नतिमें एकता तथा पालन-पोषणकी महान् शक्ति स्वाभाविक गुण है।’ इन सबसे समाजवादको बल मिला। सेंट साइमन लूई तथा राबर्ट एडवर्ड लासाल आदिने समाजवादकी रूपरेखा व्यक्त की। यद्यपि ये सभी ईश्वर एवं धर्ममें विश्वास रखते थे।
मार्क्स यद्यपि दार्शनिक विचारोंमें हीगेलका शिष्य था, तो भी उसका कहना था कि ‘हीगेल सिरके बल खड़ा था। आज मैं उसे पैरके बल खड़ा कर रहा हूँ।’ हीगेल एवं मार्क्सके बीच फायरवाखका दर्शन है। इसके कई अंशोंको मार्क्सने ग्रहण किया, कईका खण्डन किया। वीटेने लिखा है—‘ईश्वर मेरा पहला विचार है, ज्ञान दूसरा तथा मनुष्य तीसरा और अन्तिम।’ इसपर फायरवाखने कहा है, ‘आदर्शवाद एवं भौतिकवादके झगड़ेका केन्द्र है मनुष्यका मस्तिष्क। मस्तिष्क किस प्रकारकी वस्तुसे बना है, यह मालूम हो जाय, तब अन्य वस्तुओंके सम्बन्धमें विचार स्पष्ट होते हैं।’ उसका यह भी कहना है कि ‘अस्तित्व कर्ता है और विचार क्रिया है। विचार अस्तित्वका कार्य है, कारण नहीं। अस्तित्व स्वयं मूल है।’ वह कहता है, ‘आदर्शवादी दर्शनका आरम्भ ही गलत है। सच्चे दर्शनका आरम्भ केवल मैंसे न होकर मैं और तुमसे होना चाहिये। यहाँसे विचार एवं पदार्थ तथा कर्ता एवं कर्मके सम्बन्धको ठीक रूपमें समझ सकते हैं। मैं स्वयं अपने लिये मैं हूँ, परंतु दूसरोंके लिये तुम। मैं एक साथ कर्ता हूँ एवं कर्म भी, मैं अमूर्त-सत्ता नहीं। मेरा वास्तविक अस्तित्व है मेरा शरीर ही। अपने समग्ररूपमें मेरी वास्तविक सत्ता है। जो विचार करता है वह अमूर्त नहीं, भौतिक अस्तित्व ही कर्ता है, विचार उसकी क्रिया है। विचार एवं विरोधके अस्तित्वकी समस्याका यही हल है। प्रकृति या भूतोंको दबाकर या मिथ्या कहकर समस्याका हल नहीं हो सकता।’ फायरवाखका कहना है कि ‘यदि स्पिनोजाके सिद्धान्तसे धर्म विद्याका जंजाल निकाल दिया जाय तो मूलत: यह बहुत सही है।’ कहते हैं, आदर्शवादसे नाता तोड़नेके बाद पहले-पहल मार्क्स एवं एंजिल्सने इसी दर्शनको अपनाया था। फायरवाखका कहना था कि ‘बाहरी वस्तुकी क्रियाका विषयमात्र बनकर मनुष्य उन वस्तुओंको पहचानता है’ परंतु मार्क्सका कहना है कि ‘वस्तुके ऊपर अपनी प्रतिक्रियाद्वारा हम उसकी पहचान करते हैं।’
उपर्युक्त विद्वानोंके विचार भारतीय दर्शनोंकी दृष्टिसे बहुत स्थूल हैं। विषयेन्द्रियसंयोगजन्य सुख ही वास्तविक सुख नहीं हैं। अनश्वर सुख आत्मस्वरूप ही है। यों तो दादके खुजलानेमें भी सुखकी प्रतीति होती है, पर क्या उसे कोई बुद्धिमान् सुख मान सकता है? इसी तरह सूक्ष्म विवेचन बिना अस्तित्वयुक्त पदार्थको ही अस्तित्व मानकर उसके कर्ता एवं विचारको कर्म मान लिया गया। अस्तित्व तो वह सूक्ष्म वस्तु है, जो विचारमें भी अनुस्यूत है, जिस अस्तित्वके बिना देह एवं देहान्तर्गत उसकी समग्रताके पूरक सभी असत् हो जाते हैं। सर्व विशेषणरहित अस्तित्व ही सर्वत्र समानरूपसे अनुस्यूत होनेके कारण सर्वबीज है, विचारकी सूक्ष्मता उससे अधिक संनिकट है। उसमें ही मैं और तुम सबका अन्तर्भाव हो जाता है। अवश्य ही बहिर्मुख प्राणीकी ‘मैं’ की अपेक्षा ‘तुम’ अधिक स्पष्ट है। इसीलिये तो भाष्यकार शंकराचार्यने ‘युष्मदस्मत्प्रत्ययगोचरयो:’ इत्यादि रूपसे तुमसे ही विचार प्रारम्भ किया था। भौतिकवादियोंके मैं और तुम सभी शंकरके युष्मत्प्रत्ययगोचर ही ठहरते हैं; क्योंकि दृश्य अनात्ममात्र युष्मत्प्रत्ययगोचर होता है। निर्दृश्यदृक् आत्मा ही अस्मत्प्रत्ययगोचर भाष्यकारको मान्य है।
मार्क्सने फायरवाखके दर्शनपर टिप्पणी करते हुए लिखा है—‘उस भौतिक सिद्धान्तमें जिसके अनुसार मनुष्य परिस्थितियों एवं शिक्षाकी उपज कहा जाता है, इस बातको भुला दिया जाता है कि मनुष्य परिस्थितियोंमें परिवर्तन कर सकता और करता है और शिक्षकको स्वयं शिक्षित होनेकी आवश्यकता रहती है। ज्यों ही इस समस्याका समाधान होता है, इतिहासकी भौतिक धारणाका रहस्य खुल जाता है।’ फायरवाख विचारप्रणालियोंके विकासका आधार मानवसत्ताके विकासको ही कहता है। ‘मानवसत्ता क्या है’ इसका उत्तर देते हुए वह कहता है कि ‘मानवसत्ता मनुष्यके साथ मनुष्यके ऐक्यमें उनके परस्पर संयोगमें मिलती है।’
मार्क्स कहता है ‘सामाजिक सम्बन्धी समग्रता ही मानवसत्ता है।’ पहलेसे इसमें स्पष्टता अधिक है। फायरवाखने पहले घोषणा की कि ‘भूत मानस (ज्ञान)-की उपज नहीं है, मानस ही भूतकी सर्वोत्कृष्ट उपज है।’ उसने हीगेलके द्वन्द्ववादका भी खण्डन किया था, पर मार्क्सने उसे ग्रहण कर ही अपना द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद बनाया। वह जगत्का असली रूप भूतको ही मानता है। जगत्के विचित्र एवं विभिन्न रूप व्यापारभूतकी ही गतिके विभिन्न रूप हैं। इन व्यापारोंके आपसी सम्बन्ध गतिशील भूतके विकासके नियम हैं। इन्हीं नियमोंके अनुसार जगत्का विकास होता है, इसे किसी विकासकर्ताकी आवश्यकता नहीं है। भूत-प्रकृति जीवका अस्तित्व भी भूतके अन्दर है। प्रथम भूत ही है, मन द्वितीय है; क्योंकि यह भूतसे ही उत्पन्न होता है। उसके अनुसार मनन या चिन्तन-क्रिया भूतकी ही उपज है और भूत ही मस्तिष्कका रूप प्राप्त कर चुका है।
एंजिल्सके शब्दोंमें ‘भौतिक अस्तित्व, मनन, प्रकृति और जीवात्माके अस्तित्वका प्रश्न ही दर्शनशास्त्रका मुख्य प्रश्न है।’ आदर्शवादी जीवात्माको पहले मानते हैं, भौतिकवादी प्रकृतिको। मार्क्स कहता है—‘जो भूत-चिन्तन करता है, उस भूतसे चिन्तनको पृथक् नहीं किया जा सकता। जो ज्ञान प्रयोग एवं अनुभवद्वारा व्याप्त है, वही वास्तविक ज्ञान है। इसको बाह्य जगत्से मिलाकर जाँचा जा सकता है। जगत्में कोई अज्ञेय वस्तु नहीं है। जगत् और उसके नियम पूर्णरूपसे जाने जा सकते हैं। यह बात अलग है कि अभी हम पूर्णरूपसे नहीं जानते।’
उपर्युक्त बातोंपर विचार करनेसे मालूम होता है कि यह भी अनुमान है कि मनुष्य सब संसार एवं उसके नियमोंको जान सकेगा; क्योंकि अभीतक सम्पूर्ण जगत्की तो बात ही क्या, एक सूर्यके ही अन्दर कितने तत्त्व हैं, इसीका पूरा अन्वेषण नहीं हुआ। एक कोयला या मिट्टीके तेलमें या एक परमाणुमें कितनी शक्तियाँ हैं, इसका भी परिज्ञान पूरा नहीं हुआ। विज्ञानके बलसे आज वैज्ञानिक एक वस्तुको जाननेका दावा करता है, कुछ दिन बाद उसे अपनी भूल भी मालूम पड़ती है। किसी चीजको आज किसी रोगपर लाभदायक समझा जाता है, कालान्तरमें उसे ही हानिकारक मान लिया जाता है। फिर स्वेतरसकलवस्तुप्रतियोगी घटको ही आजतक कौन जान सका है? और आगे भी जाननेकी आशा कौन बुद्धिमान् कर सकता है? किसी भी संयोग या यन्त्रसे कोई भी सम्पूर्ण प्रपंच एवं तद्गत विचित्रताको कैसे जान सकता है? जैसे एक उदुम्बरके भीतर ही रहनेवाला नगण्य कीट बाहरकी वार्ताको नहीं जानता, उसी तरह एक क्षुद्र भूखण्ड तथा ब्रह्माण्डगोलकके भीतरका जन्तु सर्वज्ञ होनेका दावा करे, यह साहसमात्र है। एक तीक्ष्ण संखियाके स्वादका वैशिष्टॺ समझ लेनेके लिये लाखों जीवन समाप्त हो जाना भी पर्याप्त नहीं है, फिर उसके अन्य रस, वीर्य, गुण, विकारादिको समझना, चींटीद्वारा आकाश-परिवेष्टनकी कल्पना-जैसी बात है।
एंजिल्सका यह कहना भी सही नहीं कि ‘यदि हम अपनी किसी कल्पनाकी सत्यताका प्रमाण उस वस्तुको स्वयं बनाकर दे सकें, उसको अपनी अवस्थाओंके बाहर उत्पन्न कर उसको अपने व्यवहारोपयोगी बना सकें तो काण्टके वस्तुस्वरूपका अन्त हो जाता है। कारण, इससे भी उपर्युक्त तर्कका समाधान नहीं होता। मनुष्य अपने नेत्रों, श्रोत्रों एवं तत्सहायक भौतिक साधनोंसे बहुत कुछ जान सकता है सही, परंतु इतनेसे ही वह सब वस्तुओंको जान लेगा—यह नहीं सिद्ध होता; क्योंकि इन्द्रियों और तत्सहायक साधनोंकी भी एक सीमा है। योगज अतिशयता भी उसे लंघन करनेमें असमर्थ होती है। अतएव चक्षुसे रूपकी अनुभूति होती है, स्पर्शकी नहीं। श्रोत्रसे गन्धकी उपलब्धि नहीं हो सकेगी, भले ही वैज्ञानिक सहस्रों साधनोंका प्रयोग कर ले। किसी यन्त्रद्वारा सूक्ष्म चक्षु-इन्द्रियको देख सकना भी दुष्कर है। व्यापक नियम है कि द्रष्टासे दृश्यका दर्शन होता है, किंतु दृश्यद्वारा द्रष्टाका दर्शन नहीं होता। चक्षुद्वारा रूप दिखायी देता है, किंतु रूप या चक्षुद्वारा चक्षुका दर्शन नहीं होता, मनसे चक्षुके व्यापारोंकी मन्दता-पटुता आदिका तो बोध होता है, किंतु चक्षुसे मनके व्यापारोंका बोध नहीं होता। मनसे तो मनका पता लग सकता है, परंतु मन एवं अहं सबका भान जिससे होता है, उसका बोध—भास्यभूत मन या अहंसे कैसे हो सकता है? सर्वविज्ञाताको किससे जाना जा सकता है—‘विज्ञातारमरे केन विजानीयात्।’ (बृहदा० उप०)
आर्गेनिक केमिस्ट्रीके बलपर अवश्य कई सूक्ष्म रसायनोंका बोध हो सकता है, किंतु इसीसे निर्दृश्य दृक्का भी बोध हो जायगा, यह निरा भ्रम है। हृदय या मस्तिष्कके जिन तन्तुओंको ज्ञानचक्षु कहनेका प्रयत्न किया जाता है, वह भी ज्ञानव्यंजक अन्त:करण वृत्तिके ही व्यंजक हैं। ठण्डे एवं गर्म तारोंके संयोगसे प्रकाश शक्ति विद्युत् व्यक्त होती है, परंतु ‘दोनों तार या उनका संयोग ही विद्युत् है’ यह नहीं कहा जा सकता।
एंजिल्सका यह कहना भी ठीक नहीं है कि कोपर्निकसकी सूर्यमण्डलीका तथ्य एक अनुमान था, परंतु जैसे लारियरने गणनाओंसे उसके अस्तित्वका पता लगाया, गालेने खोज निकाला, वैसे ही सर्वज्ञानका अनुमान भी सही निकलेगा; क्योंकि दृश्यद्वारा द्रष्टाके ज्ञानका समर्थन इस उदाहरणसे भी नहीं होता। इतना ही क्यों? ऋषियोंका ज्ञान आजसे कहीं बढ़ा हुआ था, उनके संनिकृष्ट-विप्रकृष्ट, लोक-परलोक, अस्त्र-शस्त्र, विमान आदिके विज्ञानतक अभी भी भौतिकवादी वैज्ञानिक नहीं पहुँचे हैं। वे ऋषि भी सर्वज्ञ होनेका दावा नहीं करते। ब्रिटेनके प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर लोका कहना है कि ‘मेरी रायमें इस युगकी सबसे बड़ी खोज यह है कि हम किसी वस्तुके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं जानते। प्रसिद्ध वैज्ञानिक मिस्टर कैल्डरने भी ब्रिटिश-वैज्ञानिक-विकास-संघके अधिवेशनमें रूपान्तरसे इसी बातको प्रकट किया है। सुकरातका भी ऐसा ही मत था। भर्तृहरिका भी कहना है—
यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहं
द्विप इव मदान्ध: समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मी-
त्यभवदवलिप्तं मम मन:।
यदा किञ्चित् किञ्चिद्
बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति
ज्वर इव मदो मे व्यपगत:॥
(नीतिशतक ८)
अर्थात् जब मैं अत्यन्त नासमझ था, तब हाथीके समान मदान्ध होकर अपनेको सर्वज्ञ मानता था; किंतु जब बुधजनोंके अनुग्रहसे कुछ समझने लगा, तब मुझे मालूम पड़ा कि मैं तो निरा मूर्ख ही हूँ और तब ज्वरके समान मेरा सर्वज्ञताका मद भी उतर गया।
अध्यात्मवादियोंकी आज भी चुनौती है। सब वस्तुका ज्ञान तो दूर रहा, एक घटका भी सम्यक् ज्ञान कोई सिद्ध कर दे। वस्तुत: सत्त्वकी शुद्धतासे ज्ञानमें विशेषता आती है। उपासना एवं योगसे जितनी सत्त्वकी शुद्धता बढ़ती है, उतना ही ज्ञान बढ़ता है। सर्वातिशायी सत्त्व-बुद्धि ईश्वरकी है, अत: पूर्ण सर्वज्ञ वही है। अन्योंमें सर्वज्ञताकी कल्पना होती है, वस्तुत: सर्वज्ञता नहीं होती। इसी प्रकार भूत और मानसकी प्राथमिकताकी बात भी भौतिकवादियोंकी भ्रमपूर्ण है। वस्तुत: भूतसे प्रथम अत्यन्ताबाध्य स्वप्रकाश-सत्का अस्तित्व ही वेदान्त-सिद्धान्त है। उसे भौतिकवादी भ्रमसे मानस कहते हैं। मनको तो अद्वैतवादी वेदान्ती भी भौतिक ही मानते हैं। प्रमाणाधीन प्रमेयकी सिद्धि होती है। बोधाधीन बोध्य तथा उसके व्यवहारकी सिद्धि होती है। सत्ता एवं बोध बिना सब वस्तुएँ ही अस्तित्वहीन होनेसे असत् ठहरेंगी। फिर तत्स्वरूप बोध पहले कि भूत पहले? मृत्तिका बिना घट रहता ही नहीं। घटके बाहर-भीतर मृत्तिका ही है। फिर मृत्तिका पहले या घट पहले? इसका क्या उत्तर है? घट न रहनेपर भी मृत्तिका उदंचनमें है ही। वैसे ही अस्तित्व एक वस्तुमें न सही दूसरी वस्तुमें बना ही रहता है। घटबुद्धि यद्यपि घटान्तरमें हो सकती है तथापि पटमें घट-बुद्धि नहीं होती; परंतु सद्बुद्धि सबमें ही अनुवृत्त होती है। भूत परस्पर व्यावृत्त हैं, परंतु सत् सर्वत्र अव्यावृत्त है। अत: जैसे व्यावृत्त पुष्पोंसे अनुवृत्त-सूत्रको पहले ही मानना पड़ेगा, उसी तरह व्यावृत्त भूतोंसे पहले ही सबमें अनुवृत्त सत् तथा तत्स्वरूप बोधको मानना अनिवार्य होगा। कोई प्रयोग, प्रयोक्ता एवं प्रयोगफल भी स्वप्रकाश सत्के बिना सिद्ध नहीं हो सकते। फिर बोधके प्रथम भूतको मानना सर्वथा ही निराधार है। वस्तुत: जैसे घटानुस्यूत मृत्तिका सामान्य ही घटविशेष रूपसे उपलब्ध होता है; कटक, मुकुट आदिमें अनुस्यूत सुवर्ण सामान्य ही कटकादि सुवर्णविशेष रूपमें व्यक्त होता है, वैसे ही सर्वप्रपंचानुस्यूत सत्सामान्य ही सद्विशेष प्रपंचके रूपमें उपलब्ध होता है। अत: वही सर्वप्रथम है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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