March 2025

4. विकासवाद – 4.1 डार्विनका मत ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4. विकासवाद (प्राणिशास्त्र, शरीर-रचना) आजकल धर्म, संस्कृति, राजनीति, भाषाविज्ञान, इतिहास सभी क्षेत्रोंमें विकासवाद सिद्धान्त लागू किया जा रहा है। आधुनिक विज्ञान तथा जड-भौतिकवादका एक प्रकारसे यही मूल हो रहा है। बहुत-से भारतीय विद्वान् भी इसे ही मानकर भारतीय विषयोंकी व्याख्या करते हैं। मार्क्सवादके सिद्धान्तोंका आधार भी बहुत कुछ विकासवाद ही है। अत: विकासवादका सिद्धान्त और […]

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3.25 अराजकतावाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.25 अराजकतावाद मार्क्सवादियोंसे भी बढ़े-चढ़े अराजकतावादी हैं। इसके प्रवर्तक माइकेल बाकुनिन (१८१४—१८७६) और प्रिंस क्रोपोटकिन (१८४२-१९१९) हुए हैं। उनके मतानुसार क्रान्तिद्वारा पूँजीवादका अन्त होते ही राज्यका भी अन्त हो जाना चाहिये। श्रमिक क्रान्तिके पश्चात् वर्गीय संस्थाका अन्त हो जाना चाहिये। न मर्ज (वर्ग) रहे, न मरीज (राज्य) रहना चाहिये। मार्क्सवादी भी राज्यको वर्ग-विशेषकी ही संस्था

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3.24 जनवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.24 जनवाद जनवादकी व्याख्याएँ भी भिन्न-भिन्न ढंगसे होती रही है। अब्राहम लिंकनके अनुसार ‘जनताका जनताके लिये जनताद्वारा किया जानेवाला शासन ही प्रजातन्त्र या जनतन्त्र माना जाता है। प्रतिनिधि जनवादका आधार राष्ट्रका सामान्य हित होता है। सुशासनके लिये सामान्यहितको कार्यान्वित करनेके लिये कुछ प्रतिनिधियोंका निर्वाचन होता है। यही ‘परोक्ष-जनवाद’ है।’ आलोचकोंकी दृष्टिमें जनवादका अर्थ ‘मूर्खोंपर उनकी

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3.23 फॉसीवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.23 फॉसीवाद मुसोलिनी एवं हिटलरके फॉसीवाद एवं नाजीवादने डार्विनके संघर्षको बहुत महत्त्व दिया और स्पेंसर आदिके इस पक्षको अपनाया कि ‘जो संघर्षमें सफल हो, वही जीवित रहे।’ अर्थक्रियाकारित्ववाद इसका प्राण है। उत्कृष्ट जातिका यह प्रकृतिसिद्ध अधिकार है कि वह निकृष्ट जातिका शासन करे। उसके अनुसार मानव-इतिहास एक युद्धकी कहानी है। मानव-प्रगति युद्धके द्वारा ही होती

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3.22 बहुलवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.22 बहुलवाद इसी प्रकार ब्रिटेनमें ही एक सत्तावादका विरोधी बहुलवाद दर्शन प्रकट हुआ। एक सत्तावाद एकात्मव्यवस्थाका समर्थक था। बहुलवादके अनुसार व्यक्ति उसकी स्वतन्त्रता उसके संघोंका समर्थक है। लॉस्की मुख्यरूपसे इस दर्शनका वेत्ता था। व्यक्ति अपने अनेक ध्येयोंकी पूर्तिके लिये अनेक संघ बनाता है। राज्यद्वारा यह काम पूरा नहीं होता। उसके अनुसार कोई भी संस्था ‘मेरे

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3.21 संघवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.21 संघवाद १९वीं सदीके अन्तमें फ्रांसीसी संघवाद भी मार्क्सवाद एवं अराजकतावादके आधापर ही बना है। इसका भी अनेक देशोंपर प्रभाव फैला। कोकरके कथनानुसार यह राज्य-विरोधी, देशभक्ति-विरोधी, सैन्यवाद-विरोधी, राजनीतिक-दल-विरोधी, संसद्-विरोधी, मध्यमवर्ग-विरोधी और सोवियतवाद-विरोधी भी है। उस समयके वोलेञ्जर, ग्रेवी-विल्सन, पनामा आदि अनेक भ्रष्टाचारकाण्ड इसके कारण थे। लेवीनके मतानुसार जिस शासनमें नागरिक स्वयं निर्माण करे, वही वास्तविक

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3.20 समष्टिवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.20 समष्टिवाद समष्टिवादका भी मार्क्सवादसे अंशत: मतभेद है। उसका स्रोत है फेवियनवाद और संशोधनवाद। इसे ही ‘समाजवादी जनतन्त्र’ या ‘जनतन्त्रीय समाजवाद’ कहा जाता है। द्वितीय अन्ताराष्ट्रिय मजदूर-संघके कई दल इसके समर्थक थे। इसे ही सुधारवादी या विकासवादी समाजवाद भी कहा जाता है। इंग्लैण्डका मजदूर-दल इसी विचारधाराका है। मिल इस वादका उद‍्गम है। वार्करने मार्क्सवादसे बचकर

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3.19 कार्ल मार्क्स ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.19 कार्ल मार्क्स मार्क्सका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवारमें हुआ। पहले उसने वकालतकी शिक्षा ग्रहण की। फिर वह पत्रकार बना, समय पाकर उसने ‘हीगेलवाद’ का अध्ययन किया। मानवतावादसे प्रेरित होकर वह श्रमिक आन्दोलनमें अग्रसर हुआ और शीघ्र ही आन्दोलनका नेता बन गया। उसकी जीविकाका आधार उसके लेख एवं एंजिल्सकी सहायता ही थी। गरीबी अवस्थामें भी उसने

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3.18 मार्क्सवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.18 मार्क्सवाद कार्लमार्क्स (१८१८-१८८३)-के कैपिटल आदि अनेक ग्रन्थोंद्वारा समाजवाद एवं साम्यवादका परिष्कृत रूप व्यक्त हुआ। यों इसका प्रचलन बहुत पूर्वसे ही था। अफलातून, मोर आदिने तथा उनसे भी पहले कई धार्मिक लोगोंने साम्यवादी समाजका चित्रण किया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की प्रसिद्धि बहुत पुरानी है। किंतु कार्लमार्क्सने साम्यवाद या समष्टिवादको आवश्यक ही नहीं; अपितु अवश्यम्भावी बतलाया।

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3.17 एफ० एच० ब्रैडले ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.17 एफ० एच० ब्रैडले एफ० एच० ब्रैडले (१८४६-१९२४)-का कहना था कि ‘मनुष्यका समाजसे बाहर कोई अस्तित्व ही नहीं। समाजद्वारा ही उसे भाषा एवं विचार मिलते हैं। मनुष्यका शरीर एक पैतृक सम्पत्ति है, परंतु बिना समाजके यह सम्पत्ति प्रगति नहीं कर सकती। व्यक्तित्व-वृद्धिके लिये समाज अनिवार्य है।’ उसके अनुसार ‘व्यक्तिको समाजमें स्थान चुननेकी स्वाधीनता है, परंतु

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