3.6 व्यक्तिवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.6 व्यक्तिवाद

यद्यपि सभी सिद्धान्तोंमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रताको महत्त्व दिया जाता है, किंतु व्यक्तिवादमें व्यक्तिको सर्वोच्च स्थान दिया गया है। इस मतमें न्याय एवं सुरक्षाके अतिरिक्त व्यक्तिकी स्वतन्त्रतामें समाज या राज्यका हस्तक्षेप ही नहीं होना चाहिये। इसीलिये व्यक्तिवादी राज्यमें व्यक्तिको निजी, सामाजिक तथा आर्थिक विषयोंमें स्वतन्त्र छोड़ देना चाहिये। इसीको ‘यद्भाव्यं-नीति’ कहा जाता है। यह पूँजीवादियोंके संघर्षकी देन है। सामन्तशाही प्रतिबन्धोंके मिटाने, स्वतन्त्र व्यापार करनेके लिये व्यक्तिवादके आधारपर व्यापारियोंने संघर्ष किया था। इंग्लैण्डमें इसके लिये एक बड़ी पूँजी देनी पड़ी थी। कहीं-कहीं लड़ाइयाँ भी लड़नी पड़ी थीं। दार्शनिकोंने भी यह प्रतिपादन किया कि आर्थिक प्रगतिके हेतु राज्यका आर्थिक एवं सामाजिक विषयोंमें हस्तक्षेप करना उचित नहीं। इन विषयोंमें व्यक्तिको पूर्ण स्वतन्त्रता मिलनी चाहिये। इसी आधापर १९वीं सदीमें ब्रिटेनमें औद्योगिक क्रान्ति हुई और उसके नेता पूँजीपति ही थे। ब्रिटेनमें उनका ही प्राधान्य था। सामन्तों एवं श्रमिकोंसे संघर्ष लेकर वे लोग सफल हुए थे। अर्थशास्त्र, उपयोगितावाद, मिलकी स्वतन्त्रता एवं स्पेन्सरके जीवशास्त्रके आधारपर व्यक्तिवादका प्रचार बढ़ा। ब्रिटेनमें अर्थशास्त्रके चार प्रमुख दार्शनिक हुए। आरम्भमें स्मिथ (१७२३-९०) हुए। उनकी पुस्तक ‘राष्ट्रोंकी सम्पत्ति’ पूँजीपतियोंके लिये बाइबिल-तुल्य हुई। इसमें व्यक्तिवादी अर्थशास्त्रका विश्लेषण है। माल्थस (१७६६-१८३४)-के ‘जनसंख्यासम्बन्धी सिद्धान्त’ का अर्थशास्त्रमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। रिकार्डो (१७७२-१८२३)-के ‘भूमिकर सिद्धान्त’ का भी अर्थशास्त्रपर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। स्टुअर्ट मिल (१७७३-१८३६)-के ‘अर्थशास्त्रके सिद्धान्त’ पुस्तकका भी बड़ा प्रभाव पड़ा। इन लोगोंका अनेक विषयोंमें मतैक्य था। वे नैसर्गिक नियमोंके समान ही अर्थशास्त्रके नियमोंको भी अपरिवर्तनीय मानते थे। जैसे शीतके पश्चात् ग्रीष्म, ग्रीष्मके बाद वर्षा आनेका नियम तथा सूर्यका पूर्वमें उदय होकर पश्चिममें अस्त होनेका नियम नैसर्गिक एवं अपरिवर्तनीय है, तदनुसार प्राणीको जाड़ेमें गरम और गर्मीमें हल्के कपड़े पहनने पड़ते हैं, उसी तरह अर्थशास्त्रके नियम भी अपरिवर्तनीय हैं। मनुष्यको उसके अनुकूल ही अपने-आपको बनाना पड़ता है। कहा जाता है कि यह सिद्धान्त पूँजीपतियोंके अनुकूल किंतु श्रमिकोंके लिये विष-तुल्य था।
व्यक्तिवादी अर्थशास्त्रके सात नियम थे—
१. निजी स्वार्थका नियम—इसके अनुसार ‘मनुष्य तार्किक एवं स्वार्थी है, वह स्वयं अपना हित-अहित जानता है। सस्ता खरीदकर महँगा बेचता है। उसे स्वतन्त्रता मिलनेपर वह स्वयं ही बढ़ जाता है। कहा जाता है कि इन्हीं सिद्धान्तोंके अनुसार ‘लार्ड क्लाइव’, ‘वारेन हेस्टिंग्ज’-जैसे लोग साधारण श्रेणीसे उठकर भारतमें अंग्रेजी राज्यके जन्मदाता बने और गवर्नर बने। इन लोगोंकी दृष्टिसे ‘मनुष्यके हित एवं समाजके हितमें विरोध नहीं है।’ मनु, शुक्र, बृहस्पति आदिके मतसे कहा जा चुका है कि व्यक्तिके समुदायका नाम ही समाज है। सुतरां व्यक्तियोंके सुखी हो जानेपर समाज सुखी होगा एवं समाजके सुखी होनेपर व्यक्तियोंका भी सुखी हो जाना स्वाभाविक है।’
२. स्वतन्त्र प्रतियोगिताका नियम—‘अपना हित-अहित समझकर मनुष्य बाजारसे एक वस्तुका क्रय-विक्रय अपने हितकी दृष्टिसे करता है। अपनी वस्तुका ज्यादा-से-ज्यादा दाम चाहता है। दूसरोंकी वस्तु न्यूनतम मूल्यमें खरीदना चाहता है। राज्यको इस सम्बन्धमें नियम नहीं बनाना चाहिये। माँग और पूर्तिके आधारपर वस्तुओंके मूल्य निर्धारित हो जायँगे। वस्तुकी माँग अधिक, पूर्ति कम होनेसे मूल्य बढ़ता है। पूर्ति अधिक, माँग कम होनेसे मूल्य घटता है। स्वतन्त्र प्रतियोगिताद्वारा वस्तुओंका विवरण भी स्वयं ही हो जायगा। जहाँ वस्तुकी आवश्यकता होगी, वहाँ व्यापारी पहुँचायेगा। जहाँ माँग न होगी, वहाँ नहीं भेजेगा। इसी प्रकार अपना व्यवसाय भी प्रत्येक व्यक्ति स्वयं निर्धारित करेगा। किस कार्यके करनेसे उसे लाभ होगा, किससे हानि, इसे मनुष्य स्वयं ही जानता है। उसमें भी राज्यका हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये। वेतन-निर्धारणमें भी राज्यका हस्तक्षेप अनुचित है; क्योंकि प्रत्येक व्यक्तिको अपनी आवश्यकताका ज्ञान है। वह अपना वेतन स्वयं ही निर्धारण कर लेगा।’
रामराज्यवादीका मत है कि यदि सभी लोग शिक्षित हों तो अंशत: यह सिद्धान्त ठीक हो सकता है। जब संसारमें स्वार्थके लिये जाल, फौरेब भी चला ही है, तब अशिक्षित, अज्ञानी प्राणियोंको धोखा हो सकता है। मोलतोल करना भी सबको नहीं आता। फिर सभी व्यक्ति क्रय, विक्रय व्यवहार भी नहीं समझ सकते। हीरा, पन्ना, पद्मराग आदि मणियों तथा अन्य रत्नोंका गुण सब लोग नहीं समझ पाते। इसीलिये रत्न-परीक्षा-शास्त्र तथा विशेषज्ञोंकी आवश्यकता होती है। अतएव सावधानीके लिये बोर्डोंपर सरकारी या गैरसरकारी तौरपर विभिन्न वस्तुओंके मूल्य-निर्धारणोंका उल्लेख रहता है। नदी पार उतारनेवाले नौकावाहकों, मोटर-टैक्सी आदिके भाड़ोंका सरकारी तौरपर निर्धारण मिलता है। सर्वसाधारणके अज्ञानका दुष्परिणाम देखकर ही यह सब किया जाता है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी रुपयेकी आवश्यकता अधिक होनेसे गरीब किसानोंको अपना गेहूँ, अन्न, कपास आदि सस्ते दाममें बेचनेके लिये बाध्य होना पड़ता है। ऐसी स्थितिमें उत्पादन एवं आवश्यकता देखकर किसी सीमातक नियन्त्रण आवश्यक होगा। कहीं दरका नियन्त्रण करनेके लिये सरकारी दूकानें भी खोलनी पड़ती हैं। वेतन आदिके सम्बन्धमें भी यद्यपि सामान्यतया यही ठीक है कि नौकर और मालिक स्वयं ही आवश्यकतानुसार वेतनका निर्णय करें तथापि नागरिकोंके निर्धारित जीवनस्तरके अनुसार वेतनकी भी कुछ सीमा निर्धारित करना आवश्यक है ही, अमुक-अमुक काममें कम-से-कम वेतन कितना होना चाहिये—भले ही उससे ऊपर योग्यता एवं कामके अनुसार नौकरीमें कमी-बेशी हो सकती है। इसीलिये ‘युक्ति-कल्पतरु’ आदि ग्रन्थोंमें विभिन्न मणियों, रत्नोंके गुणों एवं मूल्योंका निर्धारण किया गया है। वेतनके सम्बन्धमें भी स्मृतिग्रन्थोंमें इस प्रकार उल्लेख है कि ‘यदि मालिक और नौकरने बिना तय किये ही काम किया और कराया है तो वेतनके सम्बन्धमें विवाद उपस्थित होनेपर न्यायालयद्वारा कृषि, पशुपालनादि सम्बन्धमें लाभकी अमुक मात्रा नौकरको दिलानी चाहिये।’ हाँ, यह सब बात भले राज्यके द्वारा न होकर समाजके द्वारा हो। संसारमें रजोगुण, तमोगुणकी बहुतायत होती है। उस हालतमें ‘दुर्लभो हि शुचिर्नर:’ पवित्र लोग बहुत कम मिलते हैं। अत: बिना नियन्त्रणके अनेक ढंगसे शोषण चलेगा ही। शास्त्रानुसार तो बैलोंके भी कामके घण्टे नियत हैं और उनकी उच्चस्तरीय स्वस्थताकी जिम्मेदारी भी मालिकोंपर ही डाली गयी है। फिर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मनुष्य प्राणीके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या? सुतरां उनके कामके घण्टोंका नियम एवं उचित वेतनकी व्यवस्था राज्य या सरकारद्वारा अवश्य ही होनी चाहिये।
३. जनसंख्याका नियम—जॉन माल्थसने बताया कि ‘जनसंख्याकी वृद्धि ज्यामितिक ढंगसे २ से ४ (२×२) होती है और उपजकी वृद्धि अंकगणितके ढंग—२ से ३। इस नियमको भी अपरिवर्तनीय माना जाता है। अत: एक समय ऐसा आता है कि जब बढ़ती हुई जनसंख्याके लिये देशकी उपज पर्याप्त नहीं होती। फलत: कई लोगोंको भूखा रहना पड़ता है। तब अकाल, युद्ध, भीषण बीमारियोंद्वारा जनसंख्याका घटना ही अस्थायी तौरपर समस्याका समाधान होता है।’ वस्तुत: इस तर्कद्वारा भी गरीबीको प्राकृतिक एवं अनिवार्य बतलाकर राज्यके अहस्तक्षेपका ही समर्थन किया गया है। इसीलिये संतति-निरोधका भी प्रयत्न चलता है। वस्तुत: अब माल्थसका सिद्धान्त खण्डित हो गया है। उत्पादनके क्रममें घटाव, बढ़ाव दोनों ही होते हैं। उचित उपचारों एवं प्रबन्धोंसे उत्पादनका विस्तार किया जा सकता है। खाद्यकी कमीके कारण मनुष्योंकी संख्या घटानेका प्रयत्न अमानुषिक है। न्याय और भावनाके नाते मनुष्यकी लम्बाईके अनुसार पलंगकी लम्बाई बढ़ानी चाहिये, न कि मनुष्यका पाँव काटकर उसे पलंगके अनुसार बनाना चाहिये। ठीक इसी तरह उत्पादन-प्रगतिद्वारा ही जनसंख्याकी समस्या हल करना उचित है।
४. पूर्ति-माँगके नियमानुसार—‘पूर्ति माँगसे अधिक हो तो दाम घटता है। पूर्तिकी अपेक्षा माँग अधिक हो तो दाम बढ़ता है।’ यह नियम अवश्य ठीक है; परंतु यह भी सर्वथा अपरिवर्तनीय नहीं कहा जा सकता। उत्पादन और पूर्ति, व्यक्तिकी आय एवं अनिवार्य आवश्यकताको ध्यानमें रखते हुए इसमें भी नियन्त्रण आवश्यक होगा। जैसे कभी माँग कम होनेपर लागत मूल्यसे भी कम दाममें वस्तु बेचनी पड़ती है, वैसे ही व्यक्तिसामान्यकी आय एवं अनिवार्य आवश्यकताके अनुसार कई वस्तुओंका न्यूनतम, कईका अधिकतम मूल्य निर्धारण करना आवश्यक है।
५. वेतनका नियम—‘यदि श्रमिकोंकी संख्या आवश्यक नियुक्तिकी संख्यासे अधिक होगी तो वेतन घटेगा। यदि नियुक्तिकी संख्यासे श्रमिकोंकी संख्या कम होगी तो वेतन बढ़ेगा। यदि दो पूँजीपति एक श्रमिकके पीछे चलें तो वेतन बढ़ेगा। यदि दो श्रमिक एक पूँजीपतिके पीछे चलें अर्थात् उससे नौकरी देनेके लिये आग्रह करें तो वेतन घटेगा।’ व्यक्तिवादियोंके मतानुसार, ‘वेतन-निर्धारणमें राज्यको हस्तपेक्ष नहीं करना चाहिये।’ सामान्यतया यह नियम ठीक है, परंतु अपरिवर्तनीय नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अनिर्णीत अवस्थामें काम करनेपर न्यायालयको वेतनकी कोई-न-कोई दर निश्चित करनी पडे़गी। इस तरह नागरिकोंका एक साधारण जीवनस्तर बनानेके लिये न्यूनतम मूल्यका निर्णय करना ही पड़ेगा। भारतीय शास्त्रोंने कृषि, गो-रक्षा, वाणिज्य आदिमें श्रमिकको लाभका छठा (आदि) भाग देना निश्चित किया है, जिसका विस्तार हम आगे दिखायेंगे। नौकरके कुटुम्बका पोषण, स्वास्थ्य, शिक्षण और काम देखकर न्यूनतम उचित वेतनका निर्णय राज्य या समाजको अवश्य करना चाहिये। उसके ऊपर श्रमिक और नियुक्तिकी संख्याके अनुसार घटाव, बढ़ाव उचित हो सकता है। मिल आदि श्रमिकोंकी संख्या कम करके माँगपूर्तिके आधारपर ही वेतन बढ़ाना उचित मानते थे। वेतन-कोषके सिद्धान्तानुसार प्रत्येक देशकी आयका एक भाग वेतनके लिये व्यय होता है। यह पूँजी निश्चित रहती है। श्रमिकोंकी संख्या अधिक होनेसे कम हिस्सा मिलेगा। कम रहनेसे अधिक हिस्सा मिलेगा। यदि राष्ट्रिय वेतन कोष १०० रुपया है और श्रमिकोंकी संख्या दस हो तो प्रत्येकको दस-दस मिलेगा। पाँच संख्या होगी तो बीस-बीस मिलेगा। निजी धन एकत्रित करनेके अभिप्रायसे ही मजदूरोंकी गरीबी दूर करनेका कोई प्रयत्न नहीं हुआ। धर्म-नियन्त्रित शासनतन्त्रसे यह सर्वदा विरुद्ध है।
६. भूमिकरका नियम—कहा जाता है कि यह नियम रिकार्डोकी देन है। उसके अनुसार ‘भूमि या किसी वस्तुका कर स्वयं ही निर्धारित होता है। जैसे यदि ‘अ’ खेतकी उपज औसत उपज है। यदि ‘ब’ खेतकी उपज उस औसत उपजसे अधिक है तो वह अतिरिक्त उपज खेतका कर होगा।’ यह भी अपरिवर्तनीय नियम माना जाता है। इस सम्बन्धमें भी भारतीय दृष्टिकोणसे श्रम और लाभके अनुसार भारतीय शास्त्रोंमें लाभका छठा, पाँचवाँ, चौथा, कहीं-कहीं नवाँ, दसवाँ भाग भी राज्यका कर निर्धारित किया गया है। वही ठीक प्रतीत होता है।
७. अन्ताराष्ट्रिय विनिमयका नियम—देशके आयात-निर्यातपर कर नहीं लगाना चाहिये। जैसे देशके बाजारोंमें पूर्ति और माँगके नियमसे मूल्य और वितरण निर्धारित होता है, वैसे ही अन्ताराष्ट्रिय बाजारमें भी वस्तुओंका मूल्य और उनका आयात-निर्यात निश्चित हो सकता है। इसीको ‘मुक्त व्यापार’ भी कहते हैं। कहा जा सकता है कि ‘नैपोलियनसे होनेवाले युद्धके समय (१८०२-१४) यूरोपके अनाजपर ब्रिटिश सरकारने आयात-कर लगाया था। इससे ब्रिटेनके अनाजका मूल्य बढ़ा था। इसमें जमीदारोंका लाभ भी बढ़ा था। किंतु इससे जनसाधारण एवं श्रमिकोंका निर्वाह-व्यय बढ़ा। श्रमिकोंने वेतन-वृद्धिकी माँग की। वेतन-वृद्धिसे धनिकोंका लाभ घटता था। उस समय जनसाधारणकी सहायताके नामपर पूँजीपतियोंने मुक्त व्यापारकी माँग की। अन्नकर रद्द करनेका आन्दोलन हुआ। संघर्षके पश्चात् अन्नकर हटाया गया। तभीसे मुक्त व्यापारकी प्रथा चली। अन्न सस्ता हुआ। श्रमिकोंकी वेतनवृद्धिकी माँग कुछ दिनोंके लिये रुक गयी। पूँजीपतियों एवं सामन्तोंका लाभ हुआ। अन्ताराष्ट्रिय व्यापारमें भी इससे ब्रिटेनके व्यापारियोंका लाभ हुआ। ब्रिटेनमें ही सर्वप्रथम औद्योगिक क्रान्ति हुई थी। अत: अन्य देशोंकी वस्तुओंसे ब्रिटेनकी वस्तु अच्छी और सस्ती थी। यदि सर्वत्र मुक्त व्यापारकी प्रथा होती तो संसारभरके बाजारपर ब्रिटेनका ही अधिकार हो जाता। जहाँ उनका अधिकार था, वहाँ सदियोंके देशी व्यापारोंका अन्त हो गया। साम्राज्यवादसे व्यापारमें वृद्धि एवं व्यापार-वृद्धिसे साम्राज्य-विस्तार हुआ।’
भारतीय राजनीतिसे यह भी विरुद्ध है। कारण, स्वार्थी लोग लाभके लिये देशका माल विदेशोंमें भेज देते हैं। देशके लिये उपयोगी वस्तुओंको महँगी कर देते हैं। इससे गरीबोंका जीवन संकटमें पड़ जाता है। अत: सरकारोंका कर्तव्य है कि वह देशके उपयोगलायक पदार्थसे अतिरिक्त हो, तभी वह बाहर जानेकी आज्ञा दे। इसी तरह जिससे अल्पमूल्यमें सबका कार्य चल सके और अपने देशके व्यापारकी वृद्धि हो इस दृष्टिसे विदेशी मालपर प्रतिबन्ध या उचित कर लगाया जाय। कौटिल्य आदिने इस करका समर्थन किया है। जर्मनी आदि राज्योंने आयातकर लगाकर अपने राष्ट्रव्यवसायोंको ब्रिटेनकी प्रतियोगितासे बचाया। ब्रिटेनने भी अमेरिकाकी वस्तुओंका एकाधिकार रोकनेके लिये १९३१ में रक्षित व्यापार-प्रथाको स्वीकार किया। इस दृष्टिसे उपर्युक्त नियम ग्रीष्मके अनन्तर वर्षाऋतुके आने या सूर्यका पूर्वमें उदय होकर पश्चिममें अस्त होनेके नियम जैसे प्राकृतिक नियम नहीं हैं और न ये नियम ईश्वरीय शास्त्रोंसे ही समर्थित हैं।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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