3.7 उपयोगितावाद
वेन्थम (१७४८-१८३२)-ने उपयोगितावादद्वारा भी व्यक्तिवादी प्रथाका समर्थन किया था। हेनरी-मेनके मतानुसार ‘उस समयके वैधानिक सभी सुधारोंपर वेन्थमके विचारोंकी छाप है। उसके विचारोंके बड़े-बड़े ११ ग्रन्थ हैं। उसने फ्रांस, अमेरिका एवं भारतवर्षके लिये भी विधान बनाये थे। उसने प्रतियोगिताद्वारा कर्मचारियोंकी नियुक्ति, सरकारी विभागोंका संघटन, नोट-मुद्रणकला, उपनिवेशसम्बन्धी मताधिकारके सम्बन्धमें विचार व्यक्त किये हैं। कहा जाता है कि वेन्थमको प्रीस्टलेका एक सूत्र मिला—‘अधिकतम लोगोंका अधिकतम हित।’ प्रीस्टलेसे पूर्व फ्रांसिस एवं हचीसनने भी इसी सूत्रका अनुकरण राज्यका मुख्य ध्येय बताया था। ग्रीसके ‘हिडनिज्म दर्शन’ के अनुसार मनुष्यके कार्य सुख-दु:खके मान-दण्डसे निर्धारित होते हैं।’ उसने इस सिद्धान्तको उक्त सूत्रसे मिलाया और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘न्याय और व्यवस्थाके सिद्धान्तोंकी प्रस्तावना’ में बताया कि ‘प्रकृतिने मनुष्य-जातिको दो सत्ताधारी स्वामियों—सुख और दु:खके अधीन बनाया। मनुष्यके कार्य सुख-दु:खपर आश्रित हैं। जीवनका एकमात्र ध्येय सुख-प्राप्ति, दु:खनिवारण है। यही जीवनका सार है। जिसका जीवन इस सिद्धान्तद्वारा नहीं चालित होता, वह अज्ञानी है। सुख-दु:खका अर्थ उपयोगिता है। वही वस्तु उपयोगी है, जिससे सुख हो। आनन्द या आनन्द-कारण सुख है। क्लेश या क्लेशकारण दु:ख है।’ वेन्थमके अनुसार ‘मनुष्यके सभी भौतिक कार्य उपयोगितासे ही निर्धारित होते हैं। धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय, भलाई-बुराईकी परख उपयोगिताके ही आधारपर की जाती है। जीवन-उपयोगिता ही सत्ताधारी है।’
उसके अनुसार ‘नैसर्गिक, लौकिक, राजनीतिक और धार्मिक—ये चार सुख-दु:खके स्रोत हैं। जैसे किसीका मकान जल गया। यदि वह उसकी भूलसे जला तो नैसर्गिक स्रोतसे दु:ख हुआ। यदि पड़ोसीकी बुरी भावनासे हुआ तो लौकिक स्रोतसे। सरकारी आदेशसे जलाया गया तो राजनीतिक स्रोतसे। यदि दैवी प्रकोपसे जला तो धार्मिक स्रोतसे दु:ख हुआ।’ वेन्थमके अनुसार—‘सुख-दु:खकी मात्राकी परख तीव्रता, समयप्रसार, निश्चय, समीपता, उपजाऊपन, शुद्धता और विस्तार—इन सात विशेषताओंद्वारा होती है। इन्हींके आधारपर वस्तुकी उपयोगिता निर्धारित होती है।’ उसके अनुसार सुख-प्राप्ति और दु:ख-निवृत्तिके लिये ही राज्यके सब नियम बनने चाहिये। अधिकतम लोगोंका सुख ही राज्यका ध्येय होना चाहिये। व्यवस्थापक उक्त सात विशेषताओंद्वारा ही इसकी जानकारी प्राप्त कर सकता है।
उपयोगिता एवं व्यक्तिवाद—उपयोगिताकी दृष्टिसे राज्यके नियम स्वतन्त्रताके बाधक होते हैं, अत: नियम विकारतुल्य है। किंतु उनके बिना सभ्य जीवन-निर्वाह सम्भव नहीं। अत: वह आवश्यक विकार है। राज्यको कम-से-कम नियम बनाना चाहिये। जैसे ‘आरोग्यता सर्वोत्तम है, परंतु अस्वस्थ होनेपर औषध आवश्यक है। स्वतन्त्रतापूर्ण जीवन उपयोगिताकी दृष्टिसे आदर्श जीवन है, परंतु चोरी, दुराचार आदि बाधाओंके द्वारा स्वतन्त्रता-भंग होनेकी सम्भावना होती है। तब नियम ही औषधका काम करते हैं। राज्यका नियम बाधा तो अवश्य है, परंतु आवश्यक है; क्योंकि उससे अन्य असामाजिक बाधाएँ दूर होती हैं। औषधका प्रयोग जैसे कम-से-कम करना आवश्यक है, वैसे ही राजकीय नियमरूप बाधा कम-से-कम होनी चाहिये। जैसे व्यक्ति स्वास्थ्यकी दृष्टिसे आरोग्य स्थितिको ही चाहता है, वैसे ही उपयोगिताकी दृष्टिसे स्वच्छता, स्वतन्त्रता चाहता है। अत: सत्ताधारी उपयोगिताकी दृष्टिसे व्यवस्थापकको कम-से-कम नियम बनाने चाहिये।’ ‘वेन्थम’ के अनुसार व्यवस्थापकोंको नियम-निर्माणके पूर्व इसपर विचार करना चाहिये कि नियमद्वारा जो कार्य रोके जाते हैं, वे समाजके लिये विकार हैं कि नहीं? उदाहरणार्थ—चोरी। साथ ही प्रस्तावित नियम विकारात्मक कार्यसे कम विकार है या अधिक? जैसे १००० रुपयेकी चोरीके समक्ष तीन मासका कारागार कम विकार है या ज्यादा? अत: केवल चोरी आदि रोकनेके लिये ही नियम ठीक है। यह नागरिककी स्वतन्त्रतामें सहायक है। समाजके कुछ लोग स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करते हैं। वे ही आदर्शभूत स्वतन्त्र-परिस्थितिमें बाधक होते हैं। इसलिये राज्यको नियमद्वारा उसका नियन्त्रण आवश्यक होता है। अत: राज्य आवश्यक है, परंतु राज्यका संचालन अपरिवर्तनशील तथा नैसर्गिक नियमोंद्वारा होना ठीक है। व्यक्तिके आर्थिक एवं सामाजिक विषयोंमें हस्तक्षेप करनेसे उपयोगिताकी वृद्धि सम्भव नहीं होती। प्राकृतिक बहुमूल्य उपयोगिता-वृद्धिके लिये शान्तिस्थापनाके क्षेत्रमें ही राज्यको नियम-निर्माण करना चाहिये। इस विषयमें भी नियम-निर्माण उपयोगिताके मानदण्डसे ही होना चाहिये।
वस्तुत: भारतीय दर्शनके अनुसार केवल लौकिक सुखप्राप्ति एवं दु:ख-निवृत्तिकी दृष्टिसे ही कार्य नहीं किया जाता है। नैयायिकोंने दु:ख-निवृत्तिको ही अन्तिम ध्येय बताया है। सुख-प्राप्ति एवं उसके रागको दु:ख ही बतलाया है और कहा है कि कुपित फणी (नाग)-के फणातपत्रकी छायामें विश्रामके तुल्य ही सुखमें विश्राम है। वेदान्तके अनुसार भी लौकिक प्रिय (सुख) अप्रिय (दु:ख)-से अतीत होनेसे परम पुरुषार्थस्वरूप अपवर्ग मिलता है। ‘नैनं प्रियाप्रिये स्पृशत:।’ तत्त्व-साक्षात्कारकी स्थितिमें प्राणीको प्रिय-अप्रिय दोनों स्पर्श नहीं करते। उसी अभिप्रायसे बुद्धिमान् संसार छोड़कर निरन्तर तपस्या करते हैं। परोपकारार्थ सब सुख छोड़कर विविध यातनाओं-दु:खोंको सहते हैं। अन्तमें प्राणतक दे देते हैं। बहुत-से लोग परार्थको ही स्वार्थ मानते हैं। अत: उन्हें परोपकारमें ही सुख होता है। इसीलिये भारतीय शास्त्रोंने वास्तविक आत्महित एवं लोकहितको ही राज्यका ध्येय माना है। हित और सुखमें पर्याप्त अन्तर होता है। परोपकारार्थ कष्ट-सहन एवं तपस्या सुख नहीं है, परंतु हित है। परदारपरवित्तापहरण सुखकर प्रतीत होते हुए भी अहित है। कटु औषध-सेवन, कठोर पथ्य-पालन, कुपथ्य-परिवर्जन दु:खकर प्रतीत होनेपर भी हित है। ज्वराक्रान्त प्राणीको उष्ण आतप सुखकर प्रतीत होता है, तक्रादि कुपथ्य रुचिकर प्रतीत होता है, फिर भी वह अहित है। स्वतन्त्रता यद्यपि प्राणीमात्रको अभीष्ट है। मनुष्य ही नहीं, किंतु प्रत्येक प्राणी अपनी सत्ता या जीवनका प्रेमी होता है। ज्ञान एवं आनन्दका भी प्रत्येक प्राणी भक्त होता है। ठीक उसी तरह स्वतन्त्रताकी भी प्राणीमात्र इच्छा करते हैं। एक चींटीको पकड़ते हैं तो वह छुटकाराके लिये प्रयत्नशील होती है। एक पक्षी स्वतन्त्र होकर खट्टा फल खाकर, खारा पानी पीकर रहना मंजूर करता है, परंतु परतन्त्र रहकर पिंजड़ामें बन्द होकर मधुर फल एवं मधुर पक्वान्न खाकर रहना नहीं चाहता। इसी प्रकार शासन भी निम्न श्रेणीके लोगोंसे आज्ञा-पालन कराना, उच्च श्रेणीके माता-पिता, गुरुजनोंसे अनुरोध—प्रार्थना स्वीकार कराना चाहता है। इतना ही नहीं, सीमित सत्ता, ज्ञान, आनन्द, स्वतन्त्रता तथा शासनके बदले निस्सीम निरतिशय सत्ता, ज्ञान, आनन्द तथा निस्सीम निरतिशय स्वतन्त्रता, शासन-शक्ति चाहता है तथापि महती स्वतन्त्रता प्राप्त करनेके लिये पर्याप्त स्वतन्त्रताका बलिदान करना पड़ता है। किसी भी राष्ट्रको स्वतन्त्रताके लिये दूसरे राष्ट्रद्वारा हमला होनेपर सैनिक संघटन करना पड़ता है और सैनिकोंको सेनापतिके नियन्त्रणमें रहना ही पड़ता है। शिशुको माता-पिता तथा गुरुजनोंके परतन्त्र रहकर ही अध्ययनादिमें संलग्न होनेसे ही स्वतन्त्रताकी प्राप्ति होती है। किसी भी नागरिकको राजकीय, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक आदि विविध नियमोंके पालन करनेसे ही स्वतन्त्रता मिलती है। यहाँतक कि जो जितना ही धार्मिक एवं आध्यात्मिक नियमोंके पालनमें परतन्त्र बनता है, वह उतना ही स्वतन्त्र एवं सभ्य समझा जाता है। धारणा, ध्यान, समाधिके अभ्यासमें दृढ़ नियम पालन करनेवाला व्यक्ति तो अन्तमें देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि एवं कर्म-बन्धनोंसे छुटकारा पाकर पूर्ण स्वातन्त्र्य-सुखका उपभोग कर सकता है अन्यथा स्वतन्त्रता परम अभीष्ट होनेपर भी उचित नियमोंके अंगीकार बिना प्राणी भीषण परतन्त्रताके बन्धनमें जकड़ जाता है।
आधि-व्याधि, रोग-शोक, जरा-मृत्युके परतन्त्र रहनेवाला प्राणी वास्तविक स्वतन्त्रतासे अति दूर रहता है। सुख-दु:खकी परिभाषा भी केवल तात्कालिक अनुकूल वेदनीय, प्रतिकूल वेदनीयतक ही सीमित नहीं है। वास्तविक सुख निरुपप्लव (निर्विघ्न) स्वप्रकाश सत्ता या अबाधित निर्विघ्न ज्ञान ही है। इसीलिये शास्त्रोंने कहा है कि स्वतन्त्रता ही सुख एवं परतन्त्रता ही दु:ख है—
‘सर्वं परवशं दु:खं सर्वमात्मवशं सुखम्।’
(मनु० ४।१६०)
इन विचारोंसे वेन्थमकी विचार-धारा बहुत ही निम्नश्रेणीकी प्रतीत होती है। अवश्य ही सामान्य प्राणीकी स्वसुखार्थ, स्वदु:खनिवृत्त्यर्थ ही प्रवृत्ति होती है तथापि यह कहा जा चुका है कि व्याघ्रादि क्रूर, हिंस्र प्राणी भी अपने बच्चोंके लिये जानतक दे देते हैं। अत: स्वसुखार्थीके समान ही परसुखार्थ भी प्राणियोंकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। ‘बृहदारण्यक उपनिषद्’ में भी यद्यपि यही कहा गया है कि ‘पति, पुत्र, धर्म, लोक, परलोक, माता, पिता, गुरु, देवता सबमें जो प्रेम और कामना होती है, वह आत्माके ही लिये होती है। वे सब अपने उपकारक हैं।’ अत: उनमें प्रेम होता है, परंतु यहाँ आत्मा शब्दका अर्थ देहादि संघातमात्र नहीं, किंतु देहादिभिन्न विशुद्ध आत्मा है। जो ‘स्व’ शब्दसे केवल देहादि संघात ही समझते हैं, उनके मतानुसार देहादि संघातको भोजन, पान, वस्त्र, भूषण, वाहन, सम्पत्ति आदि मिलना ही स्वार्थ या आत्मार्थ है; परंतु जो देहादि संघातसे भिन्न निर्विकार प्रत्यक्चैतन्याभिन्न आत्माको समझते हैं, उनका स्वार्थ या आत्मार्थ बहुत ऊँचा होता है। वहाँ तो परोपकार, धर्म, तपस्या, उपासना, तत्त्वसाक्षात्कार तथा सकलानर्थनिवृत्तिमय परमानन्दावाप्ति ही स्वार्थ या आत्मार्थ होता है; ‘स्व’ एवं समाज व्यष्टि एवं समष्टिका भेद समाप्त हो जाता है। इस दृष्टिसे उच्च कोटिकी उपयोगिता एव स्वार्थमें परार्थ अन्तर्भूत हो जाता है। भले ही राजकीय नियम स्वल्प-से-स्वल्प हों; क्योंकि यह तो भारतीय शास्त्रोंको भी सम्मत है, परंतु सामाजिक, धार्मिक आध्यात्मिक, विविध नियन्त्रण तो तबतक परम अपेक्षित होते हैं, जबतक प्राणी प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परम तत्त्वका साक्षात्कार करके पूर्ण कृतार्थ नहीं हो जाता। इतना ही क्यों, उस कालमें भी जीवन्मुक्तोंको भी लोकसंग्रहार्थ बहुत-से कर्तव्य नियम पालन करने पड़ते हैं। विदेह-मुक्तिमें ही पूर्ण स्वतन्त्रता, नियमरहितता सम्भव होती है।
स्टुअर्ट मिल भी ‘उपयोगितावादी’ था। उसने वेन्थमके उपयोगितावादमें संशोधन किया था। वह सुखके मात्रात्मक परिमाणके साथ-साथ गुणात्मक भेद भी मानता है। पहलेका उदाहरण है—‘जितना सुख वीणावादनमें होता है, उतना संगीतमें।’ परंतु दूसरेको स्टुअर्ट मिलने बताया कि ‘एक असन्तुष्ट विद्वान् होना सन्तुष्ट मूर्खसे अच्छा है। उससे उपयोगिताकी परख केवल सुखकी मात्रापर नहीं, किंतु गुणके आधारपर होती है।’ किंतु गुणात्मक भेदसे उपयोगिताका मानदण्ड व्यक्ति भी होता है, केवल पदार्थ ही नहीं। वेन्थमने केवल पदार्थको ही मानदण्ड माना है। इसीलिये उसके आलोचक उसे ‘सन्तुष्ट मूर्खका दर्शन’ मानते हैं। इस तरह जब व्यक्तिगत दृष्टिकोणसे एक वस्तुकी उपयोगिता निर्धारित होती है, तब व्यक्तिकी रुचिका भी ध्यान रखना आवश्यक है एवं शंकराचार्य-जैसे नि:स्पृह त्यागी विद्वान्के हर्ष एवं सुखकी उपयोगिताका मानदण्ड एवं भौतिकवादी दार्शनिक हॉब्स-जैसे राजनीतिज्ञकी उपयोगिताका मानदण्ड भिन्न ही होता है। मनुष्य केवल सुख और स्वार्थका ही कठपुतला नहीं—मनुष्य केवल सुख-दु:खसे ही नहीं संचालित होता है। अन्य भावनाओंका भी जीवनमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। देशभक्ति, नैतिक, आध्यात्मिक, सन्तुष्टि आदिकी भावनाओंसे ही मनुष्यके कार्य निर्धारित होते हैं। यदि मनुष्य-जाति उपयोगितावादके अनुसार ही चलती तो वसिष्ठ, विश्वामित्र, शंकर, रामानुज, ईसा आदि-जैसे लोगोंका सम्भव ही न होता। उपयोगितावादके अनुसार वेन्थमको ही एक धनी वकील होना था, गरीब दार्शनिक नहीं।
आज भी नैतिकताके नामपर कितने ही सज्जन सत्य बोलकर अपनेको संकटमें डालते हैं। एक देशभक्त सारा जीवन दु:खमय बिताता है। अत: यदि व्यवस्थापक उपयोगिताके आधारपर ही नियम बनायेगा तो वह अवश्य त्रुटिपूर्ण होगा। भारतीय वेदान्तके अनुसार पूर्ण स्वतन्त्रतापूर्ण सुख और आत्मा एक ही वस्तु है; परंतु वेन्थमका तो भौतिक सुख ही ध्येय है। वेन्थमके ‘अधिक लोगोंके अधिकतम सुख’ के सम्बन्धमें भी समालोचकोंने कहा है कि ‘यह अव्यावहारिक है।’ उदाहरणार्थ एक ‘अ’ नियमसे १२ मनुष्योंको दस मात्रा प्रतिमनुष्यके परिमाणसे सुख मिलनेकी सम्भावना है। पूर्ण सुख १२० मात्राका होगा। ‘ब’ नियमसे २० मनुष्योंको पाँच मात्रासे प्रतिमनुष्य सुख मिलनेकी आशा है। पूर्ण सुख १०० मात्राका होगा। ऐसी परिस्थितिमें व्यवस्थापक क्या करेगा? ‘अ’ नियम अधिकतम सुख १२० मात्रासे सम्भव होगा, परंतु मनुष्योंकी संख्या कम (१२) होगी। ‘ब’ नियमद्वारा अधिकतम मनुष्योंको (२० को) सुख मिलता है, परंतु सुखकी मात्रा अल्प (५ मात्रा) होगी। अब यहाँ अधिकतम लोगोंके सुखकी दृष्टिसे ‘ब’ नियम बनाना चाहिये, परंतु अधिकतम सुखकी दृष्टिसे ‘अ’ नियम आवश्यक जान पड़ता है। ऐसी स्थितिमें न्यायपूर्ण नियम सम्भव नहीं कहा जाता। वेन्थमका उपयोगितावाद उस समयके पूँजीपतियोंके लिये उपयोगी था। पूँजीपति निजी सुख और लाभके हेतु मानवताको भूल जाता है। वह अपने अधिकतम सुखको ही अधिकतम मनुष्योंका सुख समझता है। एक मानवतावादी तो यही चाहेगा कि ‘अधिकतम लोगोंको सम्भव हो तो अधिकतम सुख हो नहीं तो जितना भी सुख हो, उतना अधिकतम लोगोंको सुख मिलना चाहिये।’ यह नहीं कि अल्प-से-अल्प लोगोंको अधिकाधिक सुख मिले।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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