3.8 वैयक्तिक स्वतन्त्रता ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.8 वैयक्तिक स्वतन्त्रता

स्टुअर्टकी पुस्तक ‘स्वतन्त्रता’ (लिबर्टी, १८५९) व्यक्तिगत स्वतन्त्रताका सर्वोत्कृष्ट समर्थन करनेवाली है। व्यक्तिकी स्वतन्त्रता एवं व्यक्तित्वके लिये ‘मिल’ ने व्यक्तिवादको आवश्यक बतलाया। उसका कहना था कि ‘मानव-प्रगतिके लिये विचार एवं भाषणकी स्वतन्त्रता अत्यावश्यक है।’ कहते हैं, वह सनकी लोगोंकी भी स्वतन्त्रताका समर्थक था। उसका कहना था कि ‘इनमेंसे न जाने किसके विचारसे किसी नयी विचारधाराका जन्म हो जाय।’ अत: प्रगतिके लिये प्रत्येक व्यक्तिको विचार एवं भाषणका स्वातन्त्र्य प्राप्त होना चाहिये। मिलके विचारसे स्वतन्त्रता बिना प्रगतिमें बाधा पड़ती है। उसका कहना था कि ‘जो विचारधारा एक समयमें प्रचलित है, वही सत्य है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। उसके विपरीत किसी व्यक्तिकी विचारधाराका दमन नहीं करना चाहिये। हो सकता है कि वही विचारधारा सत्य हो। अत: विचार एवं भाषणकी स्वतन्त्रताद्वारा किसीको भी अपनी विचारधाराका प्रचार करने देना चाहिये। ईसा एवं सुकरातकी विचारधाराएँ प्रचलित विचारधाराओंसे विपरीत थीं। सत्ताधारियोंने उनके दमनका भरसक प्रयत्न किया। दोनोंको प्राणदण्ड दिया गया, परंतु संसारको मानना पड़ा कि वे सनकी नहीं, किंतु महापुरुष थे।’ इसीलिये मिलका कहना था कि ‘आज हम जिन्हें सनकी कहते हैं, उनके अनोखे विचारोंकी उपेक्षा करते हैं, वे ही भविष्यमें विशिष्ट बुद्धिवाले सिद्ध हो सकते हैं।’ डॉक्टर जानसनका कहना था कि ‘दमनसे सचाई छिप नहीं सकती, सत्यकी दृढ़ताके लिये दमन एक कठोर कसौटी है।’ परंतु मिल इस दमनको प्रगतिमें बाधक कहता था। मार्टिन लूथर (१४८३-१५४६)-के पूर्व धर्मसुधार आन्दोलन बीस बार आरम्भ हुआ, परंतु वह दमनद्वारा रोका गया। यदि ऐसा न होता तो सम्भव है कि यूरोपमें १६वीं शतीसे पूर्व ही धर्मसुधार आरम्भ हुआ होता। लूथरके धर्मसुधार (१६वीं शती)-के फलस्वरूप कई महत्त्वपूर्ण विचारधाराओंका बीजारोपण हुआ। यदि उसको पूर्व-दमनसे रोका न गया होता तो उससे और अधिक प्रगति हुई होती। अवश्य सत्य अमर है। उसका दमनसे अन्त नहीं होता; परंतु दमनसे प्रचारमें विलम्ब किया ही जा सकता है। यह विलम्ब समाजके लिये हानिकारक होता है। अत: विचार एवं भाषणकी पूर्ण स्वाधीनता होनी चाहिये। मिलके अनुसार ‘सत्यके कई पहलू होते हैं। वे एक-दूसरेके बाधक नहीं, किंतु परस्पर सहायक होते हैं। अत: एक पक्षके अनुयायीका दूसरोंको सत्यविरोधी समझना ज्ञानवृद्धिमें बाधक है। सत्य किसी एक पक्षकी बपौती नहीं है, अन्य विचारधाराओंमें भी सत्य हो सकता है। अत: विचार-प्रचारकी स्वाधीनता आवश्यक है। ऐसे वातावरणमें निश्चित सत्यका बोध सम्भव होता है। तर्कद्वारा संघर्षसे सत्य बलिष्ठ एवं विजयी होता है। इससे अन्धविश्वासकी जड़ नहीं जमती।’ इस तरह मिलने विचारों, तर्कोंकी पूर्णस्वतन्त्रताके पक्षमें मत प्रकट किया था।
ब्राउनके मतानुसार मिलने जीवशास्त्रके—जो योग्य है ‘जीवित रहेगा’ इस नियमको विचारोंकी दुनियामें लागू किया; क्योंकि मिलका कहना था कि ‘जो विचार तर्क, संघर्षमें बलिष्ठ होता है, वह विचार सत्य सिद्ध होता है। अत: राज्यको भाषण, लेख, विचार, तर्ककी पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिये।’ मिलके मतानुसार ‘समाजपर असर डालनेवाले चोरी-कलह आदि कार्योंपर तो राज्यको हस्तक्षेप करना चाहिये; परंतु व्यक्तिगत कार्योंमें राज्यको हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जैसे कोई अपने घरमें रहकर चाहे रातभर पढ़े, चाहे मद्यपान करे, उसे स्वतन्त्रता होनी चाहिये, परंतु जोरसे गायन करनेसे दूसरोंके आराममें बाधा पड़ सकती है, अत: समाजके प्रतिकूल व्यक्तिगत कार्यपर प्रतिबन्ध ठीक है, परंतु जिसका बुरा असर समाजपर नहीं पड़ता, ऐसे व्यक्तिगत कार्योंकी स्वतन्त्रता ठीक है। यदि मद्यपायी अपने अनुभवसे मद्यपानको हानिकारक समझेगा तो उसे छोड़ देगा। राज्यके प्रतिबन्धसे भी मद्यपान छूट सकता है, परंतु इसमें चारित्रिक संघटन नहीं आता। जो निर्णय अपने अनुभवसे होता है, वही दृढ़ होता है! राज्य-प्रतिबन्धसे छिपकर भी मनुष्य मद्य पीता रह सकता है। शिक्षा-प्रोत्साहन, चित्रप्रदर्शन आदि परोक्ष रीतियोंद्वारा बुरे कामोंके रोकनेका प्रयत्न अनुचित नहीं।’ इसी तरह द्यूत खेलनेको भी वह प्रतिबन्धद्वारा रोकना ठीक नहीं समझता था। ये सब काम बुरे हैं सही, परंतु आत्मसंघर्षसे ही उनका छूटना चरित्रबलका वर्धक होता है। वह सामाजिक परम्परागत रीति-रिवाजोंके बन्धनको भी प्रगतिका बाधक समझता था। सामाजिक नियन्त्रणसे व्यक्तित्वका विकास नहीं हो पाता। मिल आविष्कार एवं नवमार्गदर्शक शक्तिको महत्त्वपूर्ण मानता था। उसके मतानुसार ‘जनसाधारणकी मनोवृत्ति सामान्यकी दर्शिका होती है।’ परंतु वह इस मनोवृत्तिका विरोधी था। वह तो ‘अपूर्व नवीन बुद्धिवालोंको प्रोत्साहनसे नवीन विचारधाराकी सम्भावना होती है’ ऐसा मानता था। वह अधिक कवियोंका होना समाजकी उन्नतिका लक्षण मानता था। ‘इससे रुचियोंकी विभिन्नता विदित होती है और यह स्वतन्त्र वातावरणमें ही सम्भव है। यदि एक कक्षाके विद्यार्थियोंके प्रश्नोत्तरमें विभिन्नता होती है तो वह कक्षा प्रगति समझता था। जो जिसे हितकर प्रतीत हो, उसे वैसा करनेकी छूट होनी चाहिये! एक ढंगसे जीवन-निर्वाहार्थ किसीको बाध्य करना उचित नहीं; इसीलिये शिक्षाके राज्यनियन्त्रित होनेका भी वह विरोधी था। हाँ, नागरिकोंको अपने बच्चोंको स्कूल भेजनेके लिये बाध्य करना राज्यका कर्तव्य है। इसके अतिरिक्त शिक्षापर राज्यका हस्तक्षेप न होना चाहिये। शिक्षा प्राप्त करनेकी स्वतन्त्रता नागरिकोंको ही होनी चाहिये। विद्यालयमें बालक कैसी शिक्षा प्राप्त करे, यह नागरिकोंकी रुचिपर ही छोड़ना चाहिये।’
उसके मतानुसार ‘व्यक्तिवादियोंकी भाँति ही व्यक्तिगत लाभके लिये भी मनुष्य भलीभाँति अपना कार्य संचालन करता है। उसमें राज्यके हस्तक्षेप हितकर न होंगे। सरकारी कर्मचारियोंद्वारा होनेवाले कार्योंमें उनकी इतनी तत्परता नहीं होती, जितनी किसीको व्यक्तिगत कार्योंमें तत्परता होती है। जब व्यक्ति कोई काम स्वयं करता है तो उसकी ज्ञानवृद्धि होती है। इसीलिये मनुष्यको स्वयं ही अधिकाधिक कार्य करना चाहिये। हाँ, समाचार-पत्रोंद्वारा अतीत कार्योंके अनुभवोंकी सूचना सरकारको देते रहना चाहिये। उससे लोग स्वयं सबक सीखेंगे। चेतावनीद्वारा भी राज्य परोक्षरूपसे मार्गदर्शक हो सकता है। सरकारी कार्योंकी व्यापकतासे नागरिक सदा ही राज्यकी ओर निहारते रहते हैं। इससे आलस्य, प्रमाद एवं प्रगतिका अवरोध होता है। इससे व्यक्तित्वके विकासमें बाधा पड़ती है और नौकरशाही बढ़ती है। इससे कोई कार्य भलीभाँति सम्पादित नहीं होता। राज्य-हस्तक्षेप एक आवश्यक विचाररूपमें ही स्वतन्त्रताके लिये मानना चाहिये। नागरिक जीवनमें राज्यका न्यूनतम हस्तक्षेप ही व्यक्तिगत स्वतन्त्रताके लिये अपेक्षित है।’
समालोचक कहते हैं कि मिल ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के दफ्तरमें नौकर और राजनीतिक पत्रोंका लेखक था। १८५८ में उसने कम्पनीके शासनके पक्षमें एक प्रार्थनापत्र लिखा था, जिसमें कम्पनीके शासनको न्यायसंगत कहा था और १८५९ में उसकी ‘स्वतन्त्रता’ पुस्तक प्रकाशित हुई, जिसमें उसने व्यक्तिगत स्वतन्त्रताका पूर्ण समर्थन किया था। इस तरह उसके कार्य और विचार बेमेल थे। यह भी कहा जाता है कि १८३२ के पूर्व मध्यमवर्गके लोगोंने सामन्तोंकी सत्ताका विरोध किया था। १९वीं शतीमें सामन्तोंका ह्रास हुआ; परंतु बुद्धिजीवी वर्गकी एक बढ़ती हुई जनशक्तिका विरोध इस आधारपर सम्भव नहीं था। पूँजीपतियों एवं मध्यमवर्गीय उपयोगितासे जनताकी उपयोगिता भिन्न थी। अत: जनमतसे भयभीत बुद्धिजीवीके लिये अपेक्षित था कि वह व्यक्तिगत स्वतन्त्रताके नामपर जनमतके हस्तक्षेपसे बचे। उसी कार्यकी सिद्धि ‘स्वतन्त्रता’ पुस्तकद्वारा मिलने की। अब तो पूँजीपति एवं सर्वहारा श्रमिकोंके बीच पड़ा मध्यम वर्ग शोचनीय दशामें है। न वह पूँजीपति ही है न तो सर्वहारा ही! वह स्वयं व्यक्तिगत स्वतन्त्रता चाहता है। किसीका भी एकाधिकार नहीं चाहता। ‘स्वतन्त्रता’ पुस्तकमें इसी आवश्यकताकी पूर्ति की गयी है। समालोचकोंका यह भी कहना है कि ‘मिलका धार्मिक जीवन ही परम्पराओंके विरुद्ध था। इसीलिये उसने व्यक्तिगत स्वतन्त्रताको दार्शनिक रूप दिया।’
हम पहले कह चुके हैं कि ‘सर्वं परवशं दु:खं सर्वमात्मवशं सुखम्।’ (मनु० ४।१६०)-पराधीनता ही दु:ख और स्वाधीनता ही सुख है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता अवश्य ही आदरकी वस्तु है, परंतु यदि मद्यपान, द्यूत आदिकी स्वतन्त्रता व्यक्तियोंको होनी चाहिये, तब तो आत्महत्याकी भी स्वतन्त्रता होनी चाहिये! इसी तरह यदि कोई स्वेच्छानुसार शराब, द्यूतसे परहेज न करे, माँ, बहन, बेटीसे भी शादी कर ले या मनमानी प्रेमसम्बन्ध करे, तब तो मनुष्यता-पशुतामें कोई अन्तर ही नहीं रह जाता। आहार, निद्रा, भय, मैथुन मनुष्य एवं पशुका समान ही होता है। धर्म ही मनुष्यकी विशेषता है। धर्मविहीन स्वतन्त्रता स्वेच्छाचारिता या उच्छृंखलताके ही रूपमें परिणत हो जाती है। सर्वोपाधिविनिर्मुक्त ब्रह्मात्मभाव प्राप्त होनेसे पहले प्राणीको अवश्य ही धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक विभिन्न नियन्त्रणोंके परतन्त्र रहना पड़ता है। वास्तविक पूर्ण स्वतन्त्रताके लिये प्राणीको पर्याप्त स्वतन्त्रताका बलिदान करना पड़ता है। अपौरुषेय वेद एवं तदनुसारी शास्त्रोंके अनुसार विधिविहित कार्यको ही धर्म कहा जाता है। भोजन, पान, शयन, विश्राम, संतानोत्पादनादि सभी कार्योंको शास्त्र-विधिके अनुसार करना ही धर्म है। धर्मनियन्त्रित जीवनसे ही पूर्ण स्वतन्त्रता-प्राप्ति सम्भव है। इसी प्रकार ‘सनकी लोगोंके विचार एवं भाषणकी स्वतन्त्रता’ भी उपहासास्पद है। अवश्य ही गुदड़ीसे भी लाल निकलते हैं, सनकियोंमेंसे भी कोई योग्य, लाभदायक सनकी निकल सकते हैं, परंतु सभी सनकियोंको पूर्ण स्वतन्त्रता दे देनेसे तो समाजकी शान्ति ही खतरेमें पड़ सकती है।
इसी प्रकार तर्कका आदर अवश्य उपयोगी हो सकता है, परंतु कुछ नियमोंको मानकर ही तर्कका प्रयोग करना पड़ता है। फिर तर्कका कुछ अन्त भी नहीं है! जीवनमें विश्वासका भी तो कहीं स्थान है। यदि बाजारमें खड़े होकर राजद्रोहपर तर्क करनेकी स्वतन्त्रता दे दी जाय तो क्या शान्ति सुरक्षित रह सकेगी? इसी प्रकार बहुत-सी निश्चित वस्तुएँ भी हैं। माता, पिता, गुरुजनोंद्वारा उन्हें जानकर प्राणी आगे बढ़ता है। निश्चित वस्तुओंमें भी तर्कका प्रयोग करके वह अपने समयका अपव्यय ही करेगा। वैज्ञानिकोंको साम्राज्य तथा कुछ वैज्ञानिक नियमोंको मानकर ही नयी खोजकी ओर बढ़ना पड़ता है। पूर्वके अन्वेषणको ही अपने अनुभवसे अन्वेषण करना व्यर्थ ही होगा। यदि कोई अपने अनुभवपर ही संखियाके स्वाद और गुणके निर्णय करनेका हठ करेगा, तो उस-जैसे लक्षों व्यक्तियोंको जीवनसे हाथ धोना पड़ेगा और लाभ कुछ न होगा। काले नागके काटने और उसके विषका परिणाम अनुभवद्वारा ही समझनेका प्रयत्न करना मूर्खता है। स्पष्ट है कि इस सम्बन्धमें शिष्टोंके अनुभवोंका सदुपयोग करना उचित है। इसी प्रकार जिन दुराचारों, दुर्गुणों, पापोंकी अग्राह्यता पूर्वजोंके अनुभवोंसे सिद्ध है, उनपर विश्वास न करके पहले पाप, दुराचार करनेकी छूट देना अमानवता है। हिन्दूविचारोंके अनुसार मद्यपानसे ब्राह्मणका ब्राह्मणत्व ही नष्ट हो जाता है। फिर लौटना असम्भव ही होता है। इसी प्रकार एक बार पतिव्रताका सतीत्व चले जानेसे पुन: उसका लौटना सम्भव नहीं। अत: पापोंका दुष्परिणाम देखनेके लिये पाप करनेकी छूट देना बुद्धिमानी नहीं।
परम्पराके अनुसार एक ढंगका संस्कार बन जानेपर तद्विरुद्ध प्रवृत्ति होती ही नहीं। फिर विरुद्ध प्रवृत्ति कराकर दुष्परिणाम अनुभव करके उससे निवृत्त होनेकी व्यवस्था करनी वैसी ही होगी, जैसे कंटक चुभाकर पीड़ा अनुभव करके पुन: कंटक-निष्कासन-जन्य स्वास्थ्यका अनुभव करना। इसकी अपेक्षा अपनी बुद्धि एवं समयको किसी अन्य उपयोगी काममें लगाना ही श्रेयस्कर है। जिनकी परम्पराओंमें मद्य-मांसका प्रचलन नहीं है, वहाँके बच्चोंको उस सम्बन्धके न तो संस्कार ही होते हैं, न इच्छा ही होती है। प्रत्युत निषेध ही संस्कार होते हैं। उनके उस संस्कारको दृढ़ बनानेमें ही कल्याण है। अतितार्किकको सर्वतोऽभिशंकी हो जाना पड़ता है। फिर तो भोजनमें भी विषकी कल्पना होने लगती है। कई लोग बालकी खाल ही खींचते रहते हैं। वे अपने और दूसरोंका समय व्यर्थ ही अपव्यय करते रहते हैं। कितने ही जिद्दियोंको तर्क करनेकी स्वाधीनता देनेपर तत्त्व-निर्णय न होकर विवाद ही बढ़ता है। चरित्रोंकी भिन्नता एवं झक्‍कियोंकी वृद्धि समाजकी प्रगतिका लक्षण नहीं; किंतु निश्चित एवं उपयोगी गुणोंकी समृद्धि ही प्रगतिका लक्षण है। भिन्नताकी अपेक्षा गुणात्मक समृद्धिपर ही जोर देना आवश्यक है। योग्य वातावरण, उच्चकोटिकी शिक्षा एवं सदाचारके द्वारा ही उच्चकोटिका चारित्रिक संघटन होता है और यही राष्ट्रकी प्रगति है। झक्‍कियोंकी स्वतन्त्रतासे चरित्रमें भिन्नता भले ही आ जाय, परंतु चारित्रिक उच्चतामें कोई सहायता न मिलेगी। इसी प्रकार भले राजकीय नियम कम-से-कम हों, परंतु धार्मिक, सामाजिक नियमोंद्वारा सदा ही व्यक्तियोंको उच्छृंखल जीवनसे बचाना अनिवार्य है। अवश्य ही रामराज्यकी दृष्टिमें सभी सम्पत्तियों एवं कार्योंका सरकारीकरण अनुचित है तथापि विशिष्ट शिष्टों एवं शास्त्रोंका मार्ग-दर्शन समाजकी प्रगतिमें सदा ही सहायक होता है। प्रगतिके बाधक तत्त्वोंका निराकरण राज्यका अवश्य कर्तव्य है। विकासवादियों एवं आधुनिक विचारकोंका सबसे बड़ा दोष यह है कि वे पूर्व-पूर्वके निर्णयों एवं सत्योंको निम्नस्तरका तथा उत्तरोत्तर निर्णयों एवं सत्योंको उच्चकोटिका मानते हैं। इसीलिये वे सदा ही निश्चित विषयमें भी खोजते रहते हैं। वे इसी दृष्टिसे झक्‍कियोंसे भी नवीन ज्ञानकी आशा रखते हैं और नयी-नयी व्यवस्थाओंकी खोजमें लगे रहते हैं, परंतु प्रमाणद्वारा प्रमित तत्त्व किसी भी कालान्तर या देशान्तरमें अन्यथा नहीं हो सकते। इस दृष्टिसे अपौरुषेय वेदों, तदनुसारी आर्ष ग्रन्थों तथा सर्वज्ञकल्प महर्षियों, राजर्षियोंने अपने ऋतम्भरा प्रज्ञा एवं सफल प्रयोगोंद्वारा जिन नियमों, व्यवस्थाओंको समाजके लिये लाभदायक समझा, वे त्रिकालाबाध्य सत्य एवं उपयोगी हैं। उनका अनुसरण करना समाज एवं तद्घटक व्यक्तियोंका कर्तव्य है।
शास्त्र एवं समाज स्थिर वस्तु है। उनका धार्मिक, संस्कृत स्वरूप एवं सभ्यता स्थिर वस्तु है और राज्यलक्ष्मी अस्थिर वस्तु। विशेषतया राज्यसत्ताको हथियानेके लिये सभी लोग प्रयत्नशील होते हैं। जिस ढंगकी विचारधारावालोंका बहुमत होता है, उन्हींका शासन होता है। फलत: वे शासन, शिक्षा, सम्पत्ति धर्म सभीको अपने हाथमें लेना चाहते हैं। कहना न होगा कि उक्त तीनों विषयोंमें सरकारी हस्तक्षेप होनेसे समाजकी संस्कृति, सभ्यता एवं धर्ममें सर्वथा रद्दोबदल हो जाता है; फिर समाजकी स्थिरता भी नष्ट हो जाती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि ‘अच्छे ही लोगोंके हाथमें शासन-सत्ता जाती है।’ अनुभव तो यह है कि शान्तिप्रिय विचारक, गम्भीर विद्वान्, जाल-फरेब न करनेवाले पीछे रह जाते हैं। जाल-फरेबवाले अयोग्य लोग आगे आ जाते हैं। ऐसी स्थितिमें विभिन्न शासनोंके बदलनेके साथ यदि सभ्यता, संस्कृति, शिक्षामें रद्दोबदल होता जाय, तब तो समाजकी एकरूपता, स्थिरता असम्भव हो जायगी। बहुत-से लोग विकासवादी नियमानुसार उत्तरोत्तर प्रगतिका ही सिद्धान्त मानते हैं, परंतु इस मतमें फिर मनुष्यके प्रमाद, पुरुषार्थकी विशेषता नहीं रह जाती। परंतु वस्तुस्थिति यह है कि प्रमाद और सावधानीसे पतन एवं अभ्युदय स्पष्ट परिलक्षित होते हैं। अत: हर चीजका भार राज्यपर छोड़ देना उचित नहीं। सामाजिक एवं वैयक्तिक जीवनमें राज्यका कम-से-कम हस्तक्षेपवाला सिद्धान्त शास्त्र-सम्मत है। फिर भी धार्मिक, सामाजिक नियमोंका पालन तो सबके लिये अपेक्षित होगा ही। न्याय, सुरक्षा, समष्टि-स्वास्थ्य, सुव्यवस्था, सफाई आदिका काम सरकार कर सकती है। आज तो राष्ट्रके प्रत्येक जीवन-क्षेत्रमें सरकार ही हावी होती जा रही है। व्यक्ति शासनयन्त्रका एक नगण्य कल-पुर्जा बनता चला जा रहा है। उसे व्यक्तिगत विकास-विचार आदिकी कोई भी स्वतन्त्रता नहीं। मिलकी दृष्टिसे ‘मद्य-पान, द्यूत आदि व्यक्तिगत समझे जानेवाले कार्योंका भी समाजपर असर पड़ता ही है।’ धन एवं समयका यदि अनुचित कार्योंमें अपव्यय न कर किसी उचित कार्यमें व्यय किया जाय तो अवश्य ही उससे समाजका लाभ हो सकता है। एक व्यक्तिके भी दुराचारी होनेसे समाज दूषित होता है, अन्य लोगोंपर भी उसके दुस्संस्कार पड़ते हैं, फिर जब व्यक्तियोंका समुदाय ही समाज है, तब तो व्यक्तिके दूषित होनेसे समाज दूषित होगा ही। मिलके इस स्वतन्त्रता-प्रेमका भी आधार रूसोका यह वाक्य है कि ‘मनुष्य स्वतन्त्र जन्मा है, किंतु सभी ओरसे बेड़ियोंसे जकड़ा हुआ।’ इसका सार यही है कि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक बन्धन परस्पर विरोधी हैं। किंतु भारतीय भावनासे स्वतन्त्रता-प्रेम स्वाभाविक है और वह है परम ध्येय एवं प्राप्य, परंतु उसे पूर्णरूपसे प्राप्त करनेके लिये पर्याप्त स्वतन्त्रताका बलिदान कर धार्मिक एवं सामाजिक सभी बन्धनोंको अंगीकार करना परमावश्यक है। अधिक मुनाफा पानेके लिये व्यापार आदिमें पर्याप्त धन व्यय करना पड़ता ही है। अतएव रूसो भी तो वास्तविक स्वतन्त्रता राज्य-नियन्त्रणसे मानता ही था। इस दृष्टिसे व्यक्ति एवं समाजका परस्पर पोष्य-पोषक भाव ही है, विरोध नहीं। लौकिक दृष्टिसे भी कई स्वतन्त्रताएँ परस्पर विरोधी होती हैं! वहाँ समझौतासे काम चलता है। सर्वथापि समष्टिहिताविरोधेन स्वतन्त्रताका उपयोग ही सदुपयोग है।
विचार और भाषणकी स्वतन्त्रता बहुत आवश्यक है। भारतीय सिद्धान्तोंमें उसका सदा ही अत्यन्त आदर था। इस देशमें चार्वाक, शून्यवाद, द्वैती, अद्वैती आदि अनेक प्रकारके परस्पर विरुद्ध दार्शनिक हुए हैं। उनमें विचार-संघर्ष चलता रहा, परंतु किसीके विचार या भाषणपर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाता था। यहाँ ईसा, सुकरातकी तरह विचार-भेदके कारण किसीको फाँसीपर नहीं लटकाया जाता था। रामराज्यमें एक रजकको अखण्ड भूमण्डलके लोकप्रिय सर्वजनरंजन रामकी परम साध्वी सीताके विरुद्ध भी विचार रखने एवं भाषण देनेपर प्रतिबन्ध नहीं था। राम चाहते तो उसे दण्ड दे सकते थे। लौकिक मनुष्य, वानर, भालू, राक्षस तथा अलौकिक महर्षि, देवता, सिद्ध, इन्द्र, ब्रह्म, रुद्र, आदिके सामने जिनकी अग्नि-परीक्षा हो चुकी, उनके विरुद्ध एक रजक बोल सका। रामने यही सोचा कि ‘दण्डके द्वारा एक मुख बन्द किया जायगा तो हजारों मुखोंसे वही आवाज निकलेगी।’ व्यवहारद्वारा ही जनता या व्यक्तिके विचार या भाषण बदले जा सकते हैं, दण्डद्वारा नहीं। फिर भी उसकी कुछ सीमा उचित है। असम्बद्ध अहितकर विचारों एवं भाषणोंका दुष्प्रभाव समाजपर पड़ सकता है। अत: समष्टिहितके लिये उसमें भी एक सीमा उचित ही है। ‘सनकीके भाषणसे भी कोई चीज अच्छी मिल सकती है।’ इसका इतना ही अभिप्राय है कि ‘बालादपि सुभाषितं ग्राह्यम्’ एक अबुद्ध बालकसे भी सुभाषित ग्रहण करनेमें कोई हर्ज नहीं। इसका यह अभिप्राय नहीं कि पागलोंके बढ़ाने और उनके भाषणोंकी व्यवस्था की जाय, उसमें समयका अपव्यय किया जाय।
ज्ञानपिपासा अवश्य अच्छी चीज है, परंतु बहुत-सा ज्ञानभार भी लाभदायक नहीं होता। ईश्वरद्वारा निर्मित एवं नियमित विश्वके कल्याणोपयोगी सभी आवश्यक विषयोंका प्रबोध ईश्वरीय शास्त्रों एवं सर्वज्ञ महर्षियोंकी ऋतम्भरा प्रज्ञाओंद्वारा सुलभ है। महाभारतकारका कहना है कि जो भारत ग्रन्थमें है, वही अन्यत्र है; जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं है—‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित्।’ फिर भी एक सीमाके साथ उसपर स्वतन्त्र तर्क करनेकी परम्परा मान्य ही है। जहाँसे शास्त्रोंकी परम्परा टूट गयी थी और शास्त्रीय देशोंसे भी सम्पर्क टूट गया था, वहाँ अन्वेषणकी उत्कृष्ट लगन लाभदायक सिद्ध हुई है। यह बात अवश्य है कि किसी परम सत्यपर बिना पहुँचे और बिना दृढ़ निश्चय किये समाजकी स्थिरता एवं सुखशान्तिका स्थायित्व नहीं हो सकता। दौड़ दौड़के लिये नहीं, श्रम श्रमके लिये नहीं; किंतु परम विश्रामके ही लिये होना चाहिये। ‘सत्य किसीकी बपौती नहीं’ परंतु किसीकी इच्छा-अनुसार उसमें रद्दोबदल भी नहीं होता रहता। एक रज्जुमें रज्जु-ज्ञान ही यथार्थ है। रज्जुमें सर्पका ज्ञान, धाराका ज्ञान, मालाका ज्ञान अयथार्थ ही है। इन ज्ञानोंमें समझौता नहीं हो सकता। देह ही आत्मा है या देहभिन्न आत्मा है, चेतन आत्मा है या अचेतन, व्यापक आत्मा है या अणु अथवा मध्यम परिमाण है, आत्मा असंग है या कर्ता-भोक्ता है? इन सभी विचारोंका समान दृष्टिकोणसे समान सत्तासे समन्वय नहीं हो सकता। अवस्थाभेद, दृष्टिभेद, सत्ताभेदसे समन्वयकी बात अलग है। फिर विचारके लिये अनेक पक्षोंका उत्थापन, तत्त्व-अतत्त्वका विवेचन आवश्यक होता ही है।
इसी प्रकार हरबर्ट स्पेन्सर (१८२०-१९०३)-ने डार्विनके विकासवादके अनुसार बतलाया कि ‘विश्वका विकास एक अनिश्चित असम्बन्धित एकत्वसे निश्चित और सम्बन्धित विभिन्नताकी ओर हो रहा है।’ उसके मतसे समाजका विकास भी इसी ढंगसे हुआ है। प्राचीन समाजमें एकत्व था, परंतु था अनिश्चित एवं असम्बन्धित। आधुनिक समाज विभिन्नताके साथ निश्चित एवं सम्बद्ध है। जीवका विकास भी एक निम्नप्राणीसे उच्चकोटिके प्राणीकी ओर हुआ है। पहले एक सूक्ष्म अणुके द्वारा ही खाना, पीना, श्वास लेना आदि काम होता था। प्रगतिके फलस्वरूप विभिन्न अणुओंका जन्म हुआ। इनके द्वारा विभिन्न क्रियाएँ होने लगीं। अणुओंमें कार्य-विभाजन हो गया। समाजका विकास भी इसी तरह हुआ। पहले समाजमें कार्य-विभाजन नहीं था। जीवन-सम्बन्धी सभी कार्योंको एक व्यक्ति सम्पादित करता था। विज्ञानकी प्रगतिसे समाजके कार्योंका विभाजन हो गया। आजका कार्यविभाजन जटिल हो गया। इसीलिये समाजके अंग अन्योन्याश्रित हो गये। पहले भी मनुष्य समूहरूपमें रहते थे। कुछ मात्राके नष्ट होनेपर कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता था, परंतु आज तो यदि रेल या मिलोंके श्रमिक कार्य बन्द कर दें तो समाजपर उसका भीषण प्रभाव पड़ता है। स्पेन्सरके मतानुसार यह कार्य-विभाजन आन्तरिक एवं अपरिवर्तनीय है। इस आन्तरिक कार्य-विभाजनकी गतिमें राज्यको हस्तक्षेप न करना चाहिये। इस कार्य-विभाजनसे समाज स्वयं प्रगतिशील होगा। यह जीवशास्त्रका सुप्रसिद्ध नियम है कि ‘योग्य ही जीवित रहेगा।’
इस तरह उक्त महानुभाव जो सामाजिक वातावरणके अनुकूल अपना जीवनयापन कर सकते हैं, वे ही जीवित रहकर उन्नतिमें सफल होते हैं। वर्षाऋतुमें अनन्त कीड़े उत्पन्न होते हैं। वर्षाके अनन्तर ये नये वातावरणके अनुकूल अपनी जीवन-व्यवस्थामें परिवर्तन नहीं कर सकते, इसीलिये मर जाते हैं। स्पेन्सर कहता है कि ‘गरीब वही है, जो जीवनको सामाजिक व्यवस्थाके अनुकूल संचालित करनेमें असफल होता है। जो योग्य होता है, वही सफल होता है। योग्य अनुपयुक्त वातावरणमें भी सफलता प्राप्त करता है। अयोग्य व्यक्ति परिस्थितिके शिकार होते हैं। अयोग्य प्राणियोंके समान ही अयोग्य व्यक्ति भी समयानुसार जीवन-यापनमें असफल होते हैं। जैसे अयोग्य प्राणी मृत्युके शिकार होते हैं, वैसे ही अयोग्य मनुष्य निर्धन एवं निर्बल होते हैं। संघर्षमें पिछड़ जानेवाला ही गरीब होता है। ‘योग्य ही जीवित रहता है’ इस प्राकृतिक नियममें राज्यको हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। स्पेन्सरके मतानुसार ‘एक गन्दी बस्तीके निवासियोंको उनके भाग्यपर छोड़ देना चाहिये। जो व्यक्ति योग्य होंगे, वे इस प्रतिकूल वातावरणमें भी जीवित रह सकेंगे। प्रतिकूल बीमार होकर मर जायँगे। राज्यको स्वच्छता, जल और अन्नका प्रबन्ध नहीं करना चाहिये। अयोग्य संघर्षसे लुप्त हो जायगा, योग्य बच जायगा।’ यह सिद्धान्त मानवताके विरुद्ध है। किसी भी बीमार प्राणीकी सहायता करना या कम-से-कम उसे स्वावलम्बी बननेमें सहायता करना एक मनुष्यता है। किसी परिस्थितिमें रुग्ण, मूर्च्छित प्यासे तथा असहाय आदमी या प्राणिमात्रकी सहायता करना भारतीय शास्त्रोंके अनुसार विश्वधर्म है।’


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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