3.12 काण्ट
काण्ट (१७२४-१८०४) आधुनिक आदर्शवादका जन्मदाता माना जाता है। वह कनिंग्सवर्ग विश्वविद्यालयका अध्यापक था। वह दर्शन एवं राजनीतिशास्त्रका विद्वान् और अध्यात्मवादी था। उसके मतानुसार एक वस्तुका ज्ञान उसकी बनावटसे नहीं, किंतु मस्तिष्कमें पड़े हुए उस वस्तुके प्रतिबिम्बसे होता है। एक वस्तुको हम पुस्तक इसीलिये कहते हैं कि वह हमारे मस्तिष्कके अनुसार पुस्तककी भाँति है। विशुद्ध विवेकका जीवनमें अनुभवसे अधिक महत्त्व है, लॉककी परम्परानुसार केवल अनुभव और प्रयोगसे नहीं। राजनीतिके सम्बन्धमें उसने कहा कि ‘नियममें व्यापकता आवश्यक है; परंतु उसका आधार विवेक होना चाहिये।’ उसने जनवादका समर्थन करते हुए कहा कि ‘राजतन्त्र आदर्श व्यवस्था नहीं है; क्योंकि उसमें नियम विवेकके अनुसार नहीं होते।’
जनवादमें भी विवेकका अभाव ही है। निष्पक्ष दूरदर्शी ऋषियोंके राजनीतिक शास्त्रों एवं धार्मिक आध्यात्मिक दर्शनोंके बिना विवेक न तो भौतिक जनतन्त्रमें है, न निरपेक्ष राजतन्त्रमें ही। अध्यात्मवादपर आधारित धर्मनियन्त्रित शासनतन्त्रमें ही विवेकका महत्त्व है। वस्तुतस्तु इस पक्षमें संविधान एवं नियम भी सनातन ही है। उनका निर्माण नहीं करना है, किंतु निर्णय किया जाता है। इसलिये विधान-निर्मात्री परिषद् न बनाकर विधान-निर्णेत्री परिषद् ही बनाना है। काण्ट सर्वव्यापक नैतिक नियमोंको व्यक्तिका प्रेरक मानता है। वह इसीके द्वारा इच्छाओंका संचालन और नियमन मानता है अन्यथा मनुष्य निकृष्ट नियमोंका शिकार होकर नष्ट हो जाता है। अत: ऐसे नियमोंद्वारा ही नागरिक जीवनका संचालन होना चाहिये। उसका कहना है कि यदि नागरिक अपने कर्तव्योंका पालन करता है, तो अधिकारी अपने-आप ही उसका अनुगमन करते हैं। व्यक्तिवादियोंके अनुसार अधिकारीकी प्रधानता है; परंतु काण्टके मतानुसार कर्तव्यकी। व्यक्तिवादी स्वेच्छानुसार कार्यको ही स्वतन्त्रता कहते हैं; परंतु काण्ट नैतिक नियमानुसार जीवनयापनसे ही स्वतन्त्रता सम्भव मानता है। मद्यपान, द्यूत आदि नैतिकताके विरुद्ध आचरणको स्वतन्त्रता नहीं कहा जा सकता। व्यक्तिवादी मिलके अनुसार ‘मद्यपान आदि भी व्यक्ति-स्वातन्त्र्यमें ग्राह्य हैं।’ काण्ट कहता है—‘व्यक्ति ही समाजकी जड़ है, जब उसमें भी खराबी हो, तब पत्रों, शाखाओंकी खराबी रोकी नहीं जा सकती। अतएव व्यक्तिके अनैतिक कार्य सर्वथा वर्ज्य हैं। राज्यके द्वारा मनुष्य नैतिक नियमोंका अनुगामी बन सकता है।’ शक्ति-विभाजनको अंगीकार करता हुआ भी काण्ट व्यवस्थापिका सभाको राज्यमें प्रधान मानता था। सामन्तों एवं मठोंके भूमिसम्बन्धी एकाधिकारका भी वह विरोधी था। उसके मतानुसार ‘मनुष्यके विवेक एवं नैतिकताका पूर्ण विकास केवल राष्ट्रसंघद्वारा ही हो सकता है। स्थिर शान्ति एवं मानव-प्रगतिके लिये यह अत्यन्त आवश्यक है।’ फिर भी काण्टके अनुसार ‘राज्यको शासितोंकी स्वीकृतिपर निर्भर नहीं करना चाहिये। उसके मतानुसार शक्तिद्वारा राज्यका जन्म हुआ है, सोशल कण्ट्राक्ट (सामाजिक समझौता)-द्वारा नहीं। वह रूसोके समान ही ‘सामान्येच्छा’ का समर्थक था। पर उसके लिये प्रत्यक्ष जनवादका आश्रयण अनिवार्य नहीं। एक व्यक्ति भी उसका प्रतिनिधित्व कर सकता है। काण्टका सर्वमनस्तत्त्व वेदान्तियोंके विशुद्ध अखण्डबोध ब्रह्मके तुल्य है। बाह्यार्थवादी बौद्धोंके समान ही उसके मतमें बाह्यार्थ भले ही हो; किंतु वह स्वत: प्रत्यक्ष नहीं, अपितु अनुमेय-सा है। आन्तरिक ज्ञानमें होनेवाले प्रतिबिम्बोंद्वारा ही उसकी ज्ञप्ति हो सकती है। आन्तर होनेसे ज्ञान ही स्वप्रकाश एवं प्रत्यक्ष है। विभिन्न आकारवाली वस्तुएँ ज्ञाननिष्ठ प्रतिबिम्बके द्वारा विदित होती हैं। वेदान्तीके मतानुसार भले ही बाह्यार्थ अनिर्वचनीय व्यावहारिक ही हो तथापि घटादिका प्रत्यक्ष सर्वानुभवसिद्ध है। अतिसूक्ष्म वस्तुओंमें अनुभव एवं प्रयोग असम्भव है। अत: विवेक ही तत्त्वनिर्णयका मूलाधार है।’
काण्टकी यह बात अवश्य बहुमूल्य है। विवेकके लिये परम्परा एवं अपौरुषेय या ईश्वरीय तथा आर्ष शास्त्रोंका समाश्रयण अपेक्षित है। विवेकसामग्री बिना विवेक असफल ही रहता है। सामान्य विषयोंमें जनवादद्वारा विवेकका प्रयोग हो सकता है; परंतु तत्तद्विशिष्ट विषयोंमें उन-उन विषयोंके विशेषज्ञोंद्वारा ही विवेकका सफल प्रयोग हो सकता है। ऐसे विवेक-निर्धारित नियमोंद्वारा इच्छाओंका नियन्त्रण एवं संचालन अवश्य ही व्यष्टि-समष्टि सर्वकल्याणका कारण है। यह नियन्त्रण स्वतन्त्रताका साधक ही है, बाधक नहीं। माता-पिता गुरुजनोंद्वारा उचित नियन्त्रण एवं शिक्षणसे ही मनुष्य विद्वान्, बलवान्, धनवान् होकर स्वातन्त्र्यसुखका भोक्ता हो सकता है। अनियन्त्रित, उच्छृंखल बालक प्रायेण मूर्ख रहकर परतन्त्रताके बन्धनोंमें जकड़ा ही रहता है। व्यक्तिका समुदाय ही समष्टि है। सुतरां व्यक्तिका पतन समष्टिके पतनका कारण बन सकता है। प्रसिद्ध है कि एक ग्रामके नेताने ग्रामीणोंको कहा कि आज रात्रिमें सभी लोग एक कुण्डमें दूध डालें। ग्रामीणोंने स्वीकार कर लिया; परंतु डालते समय एक व्यक्तिके मनमें आया कि सब लोग दूध डालेंगे ही, यदि मैं दूधके बदले पानी डाल दूँगा तो भी क्या पता लगेगा? दैवात् डालनेके समयतक सबके ही मस्तिष्कमें यही विचार आ गया। फलस्वरूप सबने कुण्डमें पानी ही डाला, दूध किसीने भी नहीं। कुण्डमें शुद्ध जल-ही-जल पड़ा। ठीक इसी तरह व्यक्तियोंकी बुराईसे समष्टि-समाजमें बुराई और व्यष्टिकी अच्छाईसे समष्टिमें अच्छाई आ सकती है। अत: व्यष्टि-समष्टिका परस्पर अविरोधेन समन्वय ही दोनोंके कल्याणका कारण होता है। भारतीय राजनीति-शास्त्रोंके अनुसार यद्यपि व्यष्टि-शासक समष्टि-शासक ईश्वरका ही प्रतीक होता है, इसीलिये उसमें तदनुसार आंशिक ही सही ईश्वरके गुणों एवं शक्तियोंका संनिवेश अनिवार्यरूपसे होना चाहिये तथापि मात्स्य न्यायसे पीड़ित जनताने शान्ति-सुव्यवस्थाके लिये राजाका वरण किया। इस तरह वह जनताके ऊपर बलात् लादा नहीं गया। इसीलिये उसके कार्योंमें विवेकका प्राधान्य होते हुए भी जनसम्मति एवं जनसमर्थनकी उपेक्षा कभी न होनी चाहिये। अयोग्य अविवेकी शौर्यवीर्यविहीनके हाथमें शासन आनेसे राष्ट्रकी हानि होती है—‘वीरभोग्या वसुन्धरा’—शक्तिशाली ही पृथ्वीपति हो सकता है—‘नाविष्णु: पृथिवीपति:।’ (दे० भा०)
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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