3.13 फिक्टे
फिक्टे (१७६२-१८१४) प्रथम मार्टिन लूथरकी धार्मिक शिक्षासे प्रभावित हुआ। १७८४ में वह काण्टके आदर्शवादका अनुयायी हुआ। कहा जाता है कि वह १७९४ तक विश्वबन्धुत्व एवं जनवादका अनुगामी था। इसके पश्चात् उसकी विचारधारामें परिवर्तन हुआ और वह व्यक्तिवादका विरोधी राष्ट्रवादी हो गया। वह अपने गुरु काण्टके विचारोंसे आगे बढ़ा। वह विचारोंपर प्रतिबिम्बरूपमें वस्तुका प्रभाव नहीं मानता था। वह विचारको मनुष्यके मस्तिष्क या विवेककी देन मानता था। उसका कहना है—‘केवल विचार-तत्त्वसे ही भौतिक जगत्का निर्माण होता है।’ यह विचार-तत्त्व बौद्धोंके क्षणिक विज्ञानके तुल्य नहीं; किंतु वेदान्तियोंके ब्रह्मसंवित्के तुल्य है। मस्तिष्क या विवेकसे उसकी अभिव्यक्ति होती है, उत्पत्ति नहीं। उसके मतानुसार ‘मानव-जातिका इतिहास पाँच विभागमें विभक्त है। मनुष्यकी प्राकृतिक स्थितिमें स्वर्णयुग था। दूसरे भागमें बाहुबलद्वारा राज्यकी स्थापना हुई। मध्य एशियाकी शक्तिशाली एक जातिने सम्पूर्ण एशियापर आधिपत्य किया। उसका ही एक अंश यूरोपमें आया। उस युगमें शासक दैवी अधिकार प्रचार करते थे। तीसरे भागमें मनुष्यने व्यक्तिगत अधिकारके लिये संघर्ष और राज्यके एकाधिकारका विरोध किया। उस समय (१७-१८वीं शतीमें) व्यक्तिवादका बोलबाला हुआ। इतिहासके चौथे भागमें सामाजिक एवं राजनीतिक संस्थाओंका विवेकके अनुसार निर्माण हुआ। यह युग १८०६ से आरम्भ हुआ। इसमें वीरों एवं विद्वानोंका राज्य होगा। व्यक्तिका जीवन स्वतन्त्र नैतिक इच्छाके अनुसार संचालित होगा। उसके बाद मनुष्यजाति इतिहासके पाँचवें भागमें प्रवेश करेगी। उसमें आदर्श राज्य सर्वव्यापक होगा। विवेक ही सत्ताधारीका स्थान ग्रहण करेगा। पूर्ण स्वतन्त्रता एवं समानता सर्वव्यापक होगी।’
कहा जाता है फिक्टेके इस विश्लेषणका प्रभाव हीगेल एवं मार्क्सपर पड़ा था। उसके मतानुसार भी ‘उपयुक्त कार्य करनेमें मनुष्यकी स्वतन्त्रता ही स्वतन्त्रता है। इससे भिन्न स्वतन्त्रता आत्महत्याकी स्वतन्त्रता-जैसी है। स्वतन्त्रता आन्तरिक-बाह्य दो प्रकारकी होती है। आन्तरिक स्वतन्त्रताद्वारा व्यक्ति निजी प्रेरणाओंसे मुक्त होता है अर्थात् स्वच्छ विवेकके अनुसार कार्य करता है। बाह्य स्वतन्त्रताका अर्थ है व्यक्तिके कार्योंमें किसी अन्य व्यक्तिका हस्तक्षेप न होना। फिक्टेके मतानुसार आन्तरिक स्वतन्त्रता ही सच्ची स्वतन्त्रता है, इससे मनुष्य तुच्छ प्रेरणाओंको पराजित कर विवेकके अनुसार जीवन-यापन करता है। व्यक्तिवादियोंके अनुसार ऐसी स्वतन्त्रता व्यक्तिस्वतन्त्रताद्वारा ही सम्भव हो सकती है।’ वह कहता है—‘राज्यका कर्तव्य है कि शिक्षा आदि साधनोंद्वारा नागरिकको आन्तरिक या नैतिक स्वतन्त्रता-प्राप्तिके योग्य बनाये।’ फिक्टेने राष्ट्रिय राज्य-संचालनके लिये भाषाकी एकता, आर्थिक राष्ट्रियता एवं समाजपर सम्पूर्ण नियन्त्रण आवश्यक बतलाया। कहा जाता है कि फिक्टेकी इसी विचारधारासे हिटलर एवं मुसोलिनीका जन्म हुआ। फिक्टेके मतसे राज्यद्वारा आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाका संचालन होना चाहिये। उसने समाजको किसान, शिल्पी एवं व्यापारी—इन तीन विभागोंमें बाँटा है। उसके आदर्श-राज्यमें वस्तुओंका मूल्य राज्यद्वारा निर्धारित होगा। वह बेरोजगारीका पूर्ण विरोधी था, पर साथ ही व्यक्तिगत सम्पत्तिका समर्थक। वह व्यक्तिको स्वतन्त्र छोड़ देनेका भी विरोधी था। फिक्टे पहले जनवादी था, परंतु धीरे-धीरे वह अधिनायकवादी और फिर शुद्ध राजतन्त्रवादका समर्थक हो गया। वह पैतृक शासनप्रथाको सर्वश्रेष्ठ कहता था। उसके मतमें राजतन्त्रपर न धारासभा और न निर्वाचक-मण्डलका ही नियन्त्रण होना चाहिये। यद्यपि उसके गुरु काण्टके मतमें राज्यमें व्यवस्थापिका सभाका ही प्रमुख स्थान था। फिक्टेके अनुसार मानवप्रगति शूरवीरों एवं विद्वानोंके कार्योंसे हुई है। भविष्यके आदर्श राज्यमें भी इन्हींकी प्रधानता होगी। तभी शुद्ध विवेकके साथ नियम-निर्माण हो सकेगा। ऐसे नियमोंसे ही नागरिककी नैतिक एवं आन्तरिक स्वतन्त्रता सम्भव होगी। विश्वमें सत्यके आधिपत्यके लिये असभ्योंपर सभ्य लोगोंका शासन होना चाहिये। इस तरह विद्वान्, शिक्षक भी हों, शासक भी हों—यह फिक्टेका आदर्श है। कहा जाता है, हिटलरका नाजीदल इन्हीं भावनाओंके प्रभावसे बना था।
फिक्टेका विचारतत्त्व बाह्य वस्तुओंसे प्रभावित नहीं होता; अर्थात् वेदान्तियोंके नित्यबोधस्वरूप ब्रह्मके समान निर्विकार है, अन्त:करण-वृत्तिरूप नहीं। उसीसे विश्वकी उत्पत्ति होती है। यह मत भी वेदान्तियोंसे मिलता है। वस्तुत: विचार स्वयं मानस क्रियारूप होता है। उसका भासक अखण्ड भान ही तात्त्विक पदार्थ है। उसी अर्थमें फिक्टेका ‘विचार’ शब्द प्रवृत्त होता है। फिक्टेकी प्राकृतिक स्थितिमें स्वर्णयुग था, यह कल्पना कृतयुगकी स्थितिसे मिलती है। तदतिरिक्त प्राचीन एवं भविष्यके सम्बन्धमें फिक्टेकी ऐतिहासिक कल्पना उसकी भावनापर ही निर्भर है। अतीत-कल्पना आर्ष इतिहासोंके विरुद्ध है। भविष्य-कल्पना आधुनिक प्रत्यक्ष अनुभवोंके विरुद्ध है। उसकी आन्तरिक स्वतन्त्रता अवश्य महत्त्वपूर्ण वस्तु है। वस्तुत: इसके बिना बाह्य स्वतन्त्रता पशुओंकी स्वतन्त्रता-जैसी ही है। राष्ट्रियताकी भावना महत्त्वपूर्ण है, परंतु समष्टि अविरोध ही नहीं, अपितु समष्टिका अभ्युदय भी उसका लक्ष्य होना चाहिये। इसी त्रुटिसे हिटलरकी राष्ट्रियतामें अहंकार, अभिमान एवं परावमान, परावमर्दन बढ़ा और अन्तमें पतन हुआ। राजतन्त्र भी धर्मनियन्त्रित होकर कल्याणकारी होता है। फिर भी वास्तविकरूपसे धर्मनियन्त्रित न होनेपर उसे पदच्युत करनेकी व्यवस्था तभी सम्भव हो सकेगी, जब धारासभा या निर्वाचकमण्डलका अस्तित्व होगा।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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