3.16 टी० एच० ग्रीन
टी० एच० ग्रीन (१८३६-८२) ब्रिटेनका आदर्शवादी दार्शनिक था। उसने ग्रीक (यूनानी) दर्शन एवं आदर्शवादी दर्शनका अध्ययन किया और एक नया दर्शन (ऑक्सफोर्डदर्शन) निर्मित किया। वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयमें दर्शनका प्रोफेसर था। वह अफलातून, अरस्तूकी तरह राजनीतिशास्त्रको आचारशास्त्रका एक अंग मानता था। रिची, ब्रेडले, बोसांके, लिण्डसे, बार्कर आदि ग्रीन परम्पराके अनुयायी हुए हैं। ग्रीन भी उनके समान ही मनुष्यके सामाजिक प्राणीराज्यको प्राकृतिक संस्था मानता था। उसके अनुसार ‘आदर्श राज्यको नैतिक जीवनका सच्चा सहायक होना चाहिये।’ काण्टके समान उसके दर्शनमें उदारवाद और आदर्शवादका समन्वय मिलता है। वह क्रामवेलका, जिसने इंग्लैण्डमें कुछ कालके लिये गणतन्त्र स्थापित किया था, वंशज था। वह ‘प्यूरिटेन’ और ‘नानकन्फार्मिस्ट’ (आत्मसंयमी और स्वतन्त्र) मनोवृत्तिका था। इसीलिये वह ‘स्वतन्त्रता’ और ‘नैतिकता’ का प्रेमी था। उसके समयमें मिलकी ‘स्वतन्त्रता’ और ‘अर्थशास्त्र’ का पर्याप्त प्रभाव था। अत: वह व्यक्तिगत स्वतन्त्रताका पोषक था। ग्रीन राज्यको ‘संघोंका संघ’ मानता था। इन संघोंका जन्म राज्यके पूर्व हुआ था, राज्य इनका जन्मदाता नहीं। इनका समन्वय करना राज्यका कर्तव्य है। ग्रीन वास्तविक अधिकार राज्यकी देन मानता था। सामाजिक प्रगति तथा नैतिकताकी वृद्धिमें सहायक अधिकार ही वास्तविक अधिकार होते हैं। वह बाहुबलद्वारा राज्यका संचालन और मानवके अधिकारोंकी रक्षा मानता है, परंतु वह बाहुबलको राज्यके व्यक्तिगत अधिकारोंका जन्मदाता नहीं मानता। वह व्यक्तिगत अधिकारोंका स्रोत राज्य और राज्यका आधार जनस्वीकृति मानता है। ग्रीन स्वतन्त्रताका प्रेमी था; परंतु व्यक्तिवादियोंके समान वह स्वेच्छानुसार कार्य करनेको स्वतन्त्रता नहीं मानता था। वह सामाजिक, नैतिक दृष्टिकोणसे प्राप्तियोग्य वस्तु या सुखके लिये कार्य करनेको ही स्वतन्त्रता समझता था। नैतिकताकी वृद्धि सामाजिक भलाईके कार्यकी स्वतन्त्रता ही स्वतन्त्रता है। ग्रीन अनुबन्धवादको इतिहास एवं तर्कके दृष्टिकोणसे मिथ्या कहता है।
‘जनस्वीकृति राज्यका आधार है, बाहुबल नहीं’ ग्रीनका यह ऐतिहासिक वाक्य है। फिर भी यह लॉकके समान अनुबन्धवादी नहीं था। जनस्वीकृतिपर आधारित राज्य सामान्येच्छासे होना चाहिये। सामान्य भलाईकी सामान्य चेतना उसकी सामान्येच्छाका अर्थ है। जो राज्य ऐसा नहीं, उसका अन्त निश्चित है। ग्रीनकी सामान्येच्छा रूसोके समान जनतन्त्रीय नहीं; किंतु उसके मतानुसार राज्यतन्त्र भी सामान्येच्छाका प्रतिनिधित्व कर सकता है। व्यक्तिगत सम्पत्तिके सम्बन्धमें वह पूँजीपतिका अस्तित्व उचित मानता था; किंतु जमीनदारका नहीं। वह उत्पादनमें जमीनदारोंका हाथ नहीं मानता। अत: वह जमीनदारी प्रथाका विरोधी था। ग्रीनके अनुसार राज्य आदर्श संस्था अवश्य है, परंतु व्यक्ति राज्यका दास नहीं। समाज-हितके लिये नागरिक राज्यका विरोध कर सकता है, परंतु बहुमत उसके पक्षमें होना चाहिये। इस तरह राज्यका विरोध किया जा सकता है, परंतु शर्तें कठिन हैं। वह युद्धविरोधी और विश्वसंघद्वारा संसारमें शान्ति स्थापनाका समर्थक था। उसके अनुसार समाजहितका राज्यहितसे अधिक महत्त्व है। राज्य समाजका प्रतिनिधि है, स्वामी नहीं। अत: राज्यको विश्वसमाजकी सामान्य नैतिक चेतनाके अनुसार संचालित होना चाहिये। यह सामान्य चेतना शान्तिका पोषक है। उसके मतानुसार ‘आदर्श राज्यका ध्येय विश्वशान्ति और सामाजिक प्रगति है।’ इस ध्येयकी पूर्तिमें असफल होनेपर राज्यका नागरिकोंद्वारा विरोध न्याय-संगत है।
ग्रीनके अनुसार ‘सामाजिक हितका स्थान व्यक्तिगत इच्छाओं एवं स्वार्थोंसे ऊँचा है।’ व्यक्तिवादियोंके नैसर्गिक अधिकारोंका वह विरोधी था। ‘समाजहितद्वारा ही व्यक्तिहित हो सकता है।’ काण्टके अनुसार ही ग्रीन भी राज्यके नियमोंको रुकावटोंकी रुकावट मानता था। अर्थात् नैतिक जीवनकी रुकावटोंको रोकना राज्यके नियमोंका उद्देश्य है। अज्ञानता, दरिद्रताकी हालतमें सच्ची स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। ग्रीनका कहना है कि ‘राज्य प्रत्यक्ष तो नहीं; किंतु परोक्षरूपसे ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकता है, जिसके द्वारा व्यक्तिकी स्वतन्त्रता और नैतिकताकी वृद्धि हो सके। स्वतन्त्रता एवं नैतिकताके प्रतिरोधक तत्त्वोंको दूर करना राज्यका कर्तव्य है। अनिवार्य शिक्षा, मद्यविक्रयादि-निषेध ग्रीनकी दृष्टिमें अज्ञान एवं प्रमादका निवारक होनेसे अत्यावश्यक है। उसके मतानुसार एक मद्यप स्वतन्त्र नहीं परतन्त्र ही है; क्योंकि इससे वह अपने विवेकका समुचित प्रयोग नहीं कर सकता। स्वच्छ स्वास्थ्यवर्धक गृहनिर्माणके लिये राज्य नागरिकोंको बाध्य कर सकता है। श्रमिकोंकी दयनीय दशाका सुधार भी राज्यका कर्तव्य है।’
वर्तमान यान्त्रिक विकास एवं उसके द्वारा होनेवाले आर्थिक असंतुलन तथा क्रयशक्तिका ह्रास और मालकी अधिक उपज तथा माल खपतके लिये बाजारोंका अभाव आदि समस्याओंका समाधान ग्रीनकी व्यवस्थासे सम्पन्न नहीं होता। अत: उसके लिये अतिरिक्त आयके वितरण और यान्त्रिक विकासके अवरोध आदिके लिये रामराज्यवादका आश्रयण अनिवार्य है। रामराज्यकी दृष्टिमें भी जनसम्मति अवश्य अपेक्षित है; क्योंकि लोकरंजन राजाका मुख्य कार्य है तथापि जन-स्वीकृतिके विषय सीमित ही हैं, निस्सीम नहीं। अनेकविध धर्म, दर्शन, शिल्प, कला आदि विषयोंमें जनसम्मतिकी अपेक्षा नहीं होती। यद्यपि परम्पराप्राप्त राज्य-प्राप्तिमें जन-स्वीकृति मूल नहीं। फिर भी जनरंजनकी दृष्टिसे अपने कार्योंमें जन-सम्मति या जन-स्वीकृति लेना आवश्यक है।
इसी तरह जिस न्यायसे ग्रीन व्यक्तिगत पूँजीकी सत्ता मानता है, व्यक्तिगत भूमिकी सत्ता माननेमें भी वही न्याय क्यों न माना जाय? रामराज्यवादकी दृष्टिसे तो भूमि, सम्पत्ति, कल-कारखाना तथा उद्योग-धन्धे आदि सभी विषयोंमें ‘सप्तवित्तागमा धर्म्या’ के अनुसार, व्यक्तिगत वैध अधिकार मान्य हैं। शर्त यही है कि अन्याय, अत्याचार, शोषण आदिद्वारा उनकी प्राप्ति न की गयी हो; किंतु पितृपितामहादि परम्पराके दायसे तथा गाढ़े पसीनेकी कमाई एवं मान-पुरस्कारादिसे प्राप्त की गयी हो। इसकी उपपत्ति पीछे की जा चुकी है अन्य अंशोंमें ग्रीनका मन्तव्य रामराज्य-सम्मत ही है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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