4.10 मानवसृष्टिका मूलस्थान ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.10 मानवसृष्टिका मूलस्थान

‘इसी तरह जब समस्त मनुष्य बन्दरोंसे उत्पन्न हुए हैं, तब जहाँ-जहाँ बन्दरोंका निवास है, वहीं मनुष्योंकी उत्पत्ति हुई और जब मनुष्योंकी उत्पत्ति वनमानुषोंसे हुई, तब वनमानुष जहाँ-जहाँ मिलते हैं, वहाँ मनुष्योंकी उत्पत्ति हुई। वनमानुष अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, मेडागास्कर, जावा आदिमें होते हैं। वहाँका नीग्रोदल सभ्यतामें अबतक भी मनुष्य-समुदायसे पीछे है। उनमें कई जातियाँ और दल ऐसे हैं, जो वनमानुषोंसे कुछ थोड़े उन्नत हैं।’ वैसे विकासवादके खण्डनसे सब मत खण्डित हो ही जाते हैं। इसके अतिरिक्त एक ही स्थानमें सृष्टि होनेपर भी देश, काल, सम्पर्कसे उनमें भेद प्रतीत होने लगता है। बीजके बिना कोई भी पौधा तैयार नहीं हो सकता। समुद्रके टापुओंमें भी जबतक बीज नहीं पहुँचता, मिट्टीमें लस नहीं आता, तबतक किसी तरहके पौधे उत्पन्न नहीं होते। कोई भी माली बीजोंसे पौधोंको ऐसी ही जगह तैयार करता है, जहाँ उसकी सुरक्षाके योग्य स्थान हो। आँधी, तूफान, जलप्लावन, अग्नि, भूकम्प आदिका उपद्रव जहाँ न रहा होगा, वहीं ईश्वरने मनुष्यादि सभी प्राणियोंको उत्पन्न किया होगा। कई लोग कहते हैं कि ‘अमेरिकामें बन्दर नहीं थे, अत: वहाँ मनुष्योंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती थी।’ पहले यूरोपका भी जलवायु मनुष्यकी उत्पत्तिके अनुकूल नहीं था। विद्वान् अन्वेषकोंका कहना है कि ‘स्तनधारी प्राणी एशियासे ही यूरोपमें आया है।’ वार्न साहब तथा उनकी पुस्तकसे प्रभावित होकर लोकमान्य तिलकने उत्तरी ध्रुवमें ही प्राणियोंकी सृष्टि मानी है। किंतु विद्वानोंका मत है कि ‘उत्तरी ध्रुवमें प्रति साढ़े दस हजार वर्षमें भीषण हिमपात होता रहा है, अत: वहाँ सृष्टिका होना सर्वथा असम्भव है।’ इंग्लैण्डके डॉ० एलेन्सनका कहना है कि ‘मनुष्यकी खालपर ध्रुव-प्रदेशनिवासी पशुओंके समान लम्बे बाल नहीं हैं, इसलिये मनुष्य वहाँका प्राणी नहीं है। मनुष्यके शरीरपर पसीना निकलनेके लिये छोटे-छोटे रोम-छिद्र होते हैं, अत: यह अतिशीत प्रदेशका प्राणी नहीं है।’ भूगोल-विशेषज्ञोंका यह भी कहना है कि ‘उत्तरी ध्रुवमें वनस्पतियाँ नहीं होतीं, वहाँ मनुष्योंका जी सकना ही मुश्किल था।’ अनेक विद्वान् एशियामें भी मनुष्योंकी उत्पत्ति मानते हैं। उनका कहना है कि ‘पश्चिमोत्तर एशियामें ही मनुष्योंकी उत्पत्ति हुई, वहींसे भिन्न-भिन्न श्रेणीके रूपमें लोग विभिन्न देशोंमें गये हैं।’ मैक्समूलरने मध्य एशियामें और स्वामी दयानन्दजीने तिब्बतमें मनुष्योंकी उत्पत्ति मानी है। उमेशचन्द्र दत्तके मतानुसार मंगोलियामें मनुष्योंकी उत्पत्ति हुई है। अन्यान्य विद्वान् विभिन्न स्थान मानते हैं।
संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, जेन्द आदि भाषाओंकी तुलना करनेपर भी अधिकांश विद्वान् इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि इन भाषाओंके भाषी लोग कभी एक भाषा-भाषी रहे होंगे। जैसे-जैसे वे एक-दूसरेसे दूर होते गये, वैसे-वैसे उनकी भाषामें कुछ भेद पड़ता गया। यद्यपि वे लोग इन भाषाओंको परस्पर भगिनी ही मानते हैं। उनकी जननी कोई अन्य भाषा रही होगी—ऐसी कल्पना करते हैं तथापि संस्कृत भाषा ही सब भाषाओंकी जननी है—यह अधिक प्रमाणसिद्ध है। आज भी संसारमें सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद माना जाता है। मोहेनजोदड़ो, हड़प्पाकी खुदाईसे मिलनेवाली वस्तुओंसे भी वैदिक सभ्यताकी अतिप्राचीनता विदित होती है। ‘वाचा विरूपनित्यया’—विरूप नित्य वेदलक्षण वाणीद्वारा आप सृष्टि करते हैं। इस वेद-वाक्यसे वेद अनादि सिद्ध होते हैं। मनु भी ‘अनादिनिधना नित्या वागुत्सृष्टा स्वयम्भुवा’—स्वयम्भूने अनादि-निधन-उत्पत्ति-नाशविवर्जित वेद-लक्षण वाणीका उत्सर्ग किया; सम्प्रदायप्रवर्तन किया—इस वचनसे वेदको अनादि बतलाते हैं। अत: सर्वप्राचीन भाषा संस्कृत भाषा ही सिद्ध होती है। उससे ही अन्य भाषाओंका उद‍्गम हुआ है। उन अनादि अपौरुषेय वेदों, मनुस्मृति, चरक आदि ग्रन्थोंसे मालूम पड़ता है कि सप्तद्वीपा मेदिनीमें जम्बूद्वीप श्रेष्ठ है और जम्बूद्वीपमें भी भारतवर्ष ही सर्वोत्कृष्ट है। चतुर्दश भुवनोंमें पृथ्वी और पृथ्वीमें भारतवर्ष विराट् पुरुषका हृदय-स्वरूप है। इसीमें आर्यावर्त्त, ब्रह्मावर्त्त एवं हिमालय हैं। इसीमें सांगोपांग सभी ऋतुओंका विकास होता है। इसीमें सभी रंगके मनुष्य भी मिलते हैं, अत: यहीं मनुष्योंकी उत्पत्ति हुई है—
तेषां कुरुक्षेत्रं देवयजनमास। तस्मादाहु: कुरुक्षेत्रं वै देवानां देवयजनम्।
(शतपथ)
यदनु कुरुक्षेत्रं देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनम्।
(रामोत्तरतापि० १।१; तारसार० २)
डॉक्टर ई० आ० एलंसका ‘मेडिकल’ पुस्तकमें कहना है कि ‘हिमालयमें वनस्पति, घास खूब होते हैं, अत: गाय, भैंस, बकरी, हाथी, कुत्ता आदि जानवर और मनुष्यका भी वहाँ होना संगत है। हिमालयमें प्राणियोंके बहुत पुराने शेषांश मिलते हैं।’ भाषाशास्त्री टेलर स्वर्गतुल्य काश्मीरको मनुष्य-जातिकी जन्मभूमि कहते हैं। पुरातत्त्वके विद्वान् अविनाशचन्द्र दासकी ‘ऋग्वेदिक इण्डिया’ में कहा गया है कि ‘आर्योंका आदिदेश काश्मीर ही है।’ उत्तरप्रदेशके मुख्यमन्त्री श्रीसम्पूर्णानन्दने अपनी ‘आर्योंका आदिदेश भारत’ पुस्तकमें भारतको ही आर्योंकी जन्मभूमि माना है। पाश्चात्त्य लोग गोरे, लम्बे, बड़े सिरवाले भारत, ईरान, योरोपवासियोंको आर्य कहते हैं, परंतु भारतीय कहते हैं कि ‘जो रूप-रंग, आकृति-प्रकृति, धर्म-कर्म, ज्ञान-विज्ञान, आचार-विचार तथा शीलमें सर्वश्रेष्ठ है, वही आर्य है’—
कर्तव्यमाचरन् काममकर्तव्यमनाचरन्।
तिष्ठति प्रकृताचारे: य: स आर्य इति स्मृत:॥
(वसिष्ठ-स्मृति)
न वैरमुद्दीपयति प्रशान्तं
न दर्पमारोहति नास्तमेति।
न दुर्गतोऽस्मीति करोत्यकार्यं
तमार्यशीलं परमाहुरार्या:॥
न स्वे सुखे वै कुरुते प्रहर्षं
नान्यस्य दु:खे भवति प्रहृष्ट:।
दत्त्वा न पश्चात् कुरुतेऽनुतापं
स कथ्यते सत्पुरुषार्यशील:॥
(महा० उद्यो० ३३।११२-११३)
वस्तुत: इस तरह भारतीय शास्त्रोंमें अभिगम्य और श्रेष्ठ अर्थमें ही ‘आर्य’ शब्दका प्रयोग आता है—
‘महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधव:।’
(अमरकोष २।७।३)
वैश्य एवं स्वामीमें ‘आर्य’ शब्दका प्रयोग न होकर ‘अर्य’ शब्दका ही प्रयोग होता है—
‘स्यादर्य: स्वामिवैश्ययो:।’
(अमरकोष ३।३।१४६)
जातिकी दृष्टिसे अपने यहाँ चातुर्वर्ण्यमें ‘हिन्दू’ शब्द और वैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि शब्द ही प्रयुक्त होते हैं।
‘मेनमार्या भाषन्ते’ इत्यादि वचनोंसे त्रैवर्णिकोंको आर्य कहा गया है। फिर भी बहुत-से विद्वान् विशिष्ट जातिमें आर्य शब्दका प्रयोग करते हैं।
हिमालयाभिधानोऽयं ख्यातो लोकेषु पावन:।
अर्धयोजनविस्तार: पञ्चयोजनमायत:॥
परिमण्डलयोर्मध्ये मेरुरुत्तमपर्वत:।
तत: सर्वास्समुत्पन्ना वृत्तयो द्विजसत्तम॥
ऐरावती वितस्ता च विशाला देविका कुहू:।
प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ॥
(महाभारत, वनपर्व)
इन वचनोंसे भी हिमालयपर ब्राह्मणादि आर्योंकी उत्पत्ति सिद्धकी जाती है।
‘शतपथ’ के ‘तदप्येतदुत्तरस्य गिरे: मनोरपसर्पणम्’ (१।२।१६)
इस वचनसे हिमालयपर ही मनुका जलप्लावन सिद्ध किया जाता है। महाभारतके—‘अस्मिन् हिमवत: शृङ्गे नावं बध्नीत मा चिरम्।’ (महा० वनपर्व १८७।४९)
—इस वचनसे हिमालयके शृंगमें जलप्लावनके समय नावका बाँधना सिद्ध होता है। कहा जाता है कि हिमालयके मानस स्थानपर मानसी सृष्टि हुई है, इसीलिये उसका नाम मानस पड़ा है। कुछ भी हो, हर दृष्टिसे एशिया एवं तदन्तर्गत भारतमें ही मनुष्यकी सृष्टि सिद्ध होती है। वैवस्वतमनुको हुए अबतक (संवत् २०१३ में) १२ करोड़ ५ लाख ३३ हजार तीस वर्ष होते हैं, परंतु सृष्टि उनसे भी पहलेकी है, अतएव सृष्टिको हुए १ अरब ९५ करोड़ ५८ लाख ८५ हजार ५७ वर्ष माने जाते हैं। ब्रह्माके एक दिनमें १४ मनु बीतते हैं, जिसमें कि ४ अरब ३२ करोड़ वर्ष होते हैं। १५ खरब ५५ अरब २० करोड़ मानववर्षका उनका एक वर्ष होता है। अबतक ब्रह्माके ५० वर्ष बीत चुके हैं, जिसमें ७ नील ७७ खरब ६० अरब वर्ष बीत गये। इस तरहके १०० वर्षोंकी ब्रह्माकी आयु होती है। विष्णु एवं शिवका कालमान इससे भी बड़ा है।
विकासवादी प्राय: प्राचीन वस्तुओंकी खोजसे अनुमान करते हैं कि ‘मनुष्य पहले बहुत जंगली हालतमें था; क्योंकि भूमिकी सबसे नीचेकी तहोंमें मनुष्योंके बनाये जो पदार्थ मिले हैं, वे पाषाण-सींग आदिके ही बने हुए हैं। इससे मालूम होता है कि तत्कालीन मनुष्योंको धातुओंका ज्ञान नहीं था। ऊपरी तहोंमें धातु-निर्मित शस्त्र मिलते हैं। इससे मालूम होता है कि उस समयके लोग पिछले लोगोंसे कुछ उन्नत तथा सभ्य थे, परंतु यह बात असत्य है; क्योंकि अबतक जहाँ-जहाँ खुदाई हुई है, वहाँ-वहाँ एक ही गहराईपर दोनों ही प्रकारके तथाकथित उन्नत एवं अवनत शस्त्र मिलते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि एक ही समयमें दोनों ही प्रकारकी अवस्थाएँ थीं। आज भी भिन्न-भिन्न ढंगकी अवस्थाएँ होती हैं। लोकमान्य तिलकने ‘आर्योंका उत्तरी-ध्रुव-निवास’ में लिखा है कि ‘यूरोपमें अनेक जगह प्राचीन छावनियों, किलोंकी दीवालों, श्मशानों, देवालयों, जलाशयोंके खोदनेसे पत्थर तथा धातुके हजारों शस्त्र मिलते हैं। इनमेंसे कितने ही स्वच्छ किये हुए, घुटे हुए और कितने ही अस्वच्छ एवं भद्दे हैं। पुरातत्त्ववेत्ताओंने इनके तीन विभाग किये हैं। पहले ‘पाषाणशस्त्र, जिनमें सींग, काष्ठ एवं हड्डियोंके शस्त्रोंका भी समावेश है। दूसरेमें काँसेके शस्त्र और तीसरेमें लोहेके शस्त्र माने गये हैं।’ परंतु इससे यह समझना भूल है कि एककी समाप्तिपर दूसरेका आरम्भ हुआ है। इस तरह तो ताँबे और राँगेसे काँसा बनता है, अत: एक ताम्रयुग भी मानना पड़ेगा; किंतु ताम्र-युगका पता नहीं चलता।’
वस्तुस्थिति तो यह है कि जिस समय यूरोपके लोग पाषाणयुगकी भूमिकामें थे, उसी समय ईसवी सन‍्से ६ हजार वर्ष पूर्व मिस्रवासी उच्चतम सभ्यता प्राप्त कर चुके थे। इसी तरह जिस समय यूनानी लोग ‘लौह-युग’ में थे, उस समयतक इटालियन ‘काँस्य युग’ में ही थे। यूरोपके पश्चिमी भागके लोग तो उस समय पाषाणयुगमें ही थे। इससे पाषाणादि युगोंकी कल्पना ही निराधार है। जैसे आज बैलगाड़ी और वायुयान दोनों ही हैं, वैसे ही उन्नत-अवनत सभी प्रकारके साधन सदा ही मिलते हैं।
किसीने एक ही जगह एक आधुनिक घड़ी और जंगली मनुष्योंकी चकमक पथरी पायी। घड़ी जंगलके अफसरकी थी और चकमक जंगलीका था। यदि यही चीजें दब जातीं और कालान्तरमें मिलतीं तो इससे यही अनुमान करना पड़ता कि सभ्यता और जंगलीपन दोनों साथ थे। फिर ‘ज्ञानका धीरे-धीरे विकास हुआ’ यह कथन कैसे सत्य माना जा सकता है?
पत्थरोंसे लोहा-ताँबा निकालना भी तो सामान्य बात नहीं। जिसको धातु विश्लेषणकी शिक्षा मिलती है, वही यह कार्य कर सकता है। अत: जिसे लोह-युग, जंगली युग नहीं कहा जा सकता, ऐसे हड़प्पा और मोहनजोदड़ोके खँडहरोंमें जहाँ सभ्यताके चिह्न मिलते हैं, वहीं पत्थरके शस्त्र—जंगलीपनके चिह्न भी मिलते हैं। इस तरह भूगर्भकी जाँचसे यह नहीं सिद्ध होता कि ज्ञानकी उन्नति क्रमसे हुई है। पीछे कहा जा चुका है कि एक जगहके धरातलमें जिस कालके पाषाण-शस्त्र मिलते हैं, उसी कालके दूसरे देशके धरातलमें पूर्ण सभ्यताके पदार्थ मिलते हैं। आज भी जो पढ़ता-लिखता है, सभ्य होता है, उसके पड़ोसमें बिना पढ़े-लिखे जंगली-जैसे लोग भी रहते हैं। बड़े-बड़े विद्वानोंके पुत्र-पौत्र मूर्ख निकलते हैं। अत: ज्ञानके क्रमिक विकासका पक्ष गलत है? जान्स बोसनने १९२३ के ‘न्यू एज’ में लिखा है कि ‘यदि मनुष्य-जातिका इतिहास उत्तरोत्तर विकासकी ओर है तो क्यों चीनी लोग ईसवी संवत‍्के पूर्व बारूद और कपास काममें लेते थे, परंतु पीछे चलकर वे उसे भूल गये? इसी तरह मिस्रमें पिरामिड बननेके समय वहाँके लोग रेखागणितकी चरम सीमापर पहुँचे थे, पर पीछे उन्हें वह विद्या भूल गयी।’ दिल्लीकी लोहेकी लाट भारतमें ही बनी, पर क्या आज यूरोप भी वैसी बना सकता है? इसलिये कहना पड़ता है कि संसारमें ह्रास, विकास दोनों चलते रहते हैं।
दीपकके पास पतंग आता है, आँच लगती है, भागता है, फिर आता है; बादमें कूदकर दीपकपर जल जाता है। यदि ज्ञानका विकास होता तो अनुभवसे पतंगोंको सबक सीखना था और दीपकके पास जाना बन्द करना था, परंतु ऐसा नहीं देखा जाता, अत: यही कहना पड़ेगा कि जहाँ ज्ञान-शिक्षाकी परम्परा कायम रहती है, वहाँ ज्ञान रहता है और जहाँ परम्परा टूट जाती है, वहाँ नष्ट हो जाता है। इसीलिये बिना सीखे ज्ञान नहीं होता। सृष्टिके आदिमें परमेश्वरसे ज्ञान प्राप्त होता है और अब भी पूर्वजों, अध्यापकों, आचार्योंसे ही ज्ञान सीखा जाता है। डिस्कार्टेका कहना है कि ‘ईश्वरसम्बन्धी ज्ञान मनुष्यके हृदयमें स्वत: उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि वह अनन्त है। ‘मैडम ब्लवेट्स्कीने ‘सिक्रेट डॉक्टरिन’ में लिखा है कि ‘कोई नवीन धर्मका प्रवर्तक नहीं हुआ। ‘आर्यों, सेमिटिकों, तुरानियोंने नया धर्म, नयी सभ्यताका आविष्कार किया था,’ इसका मतलब यही है कि वे धर्मके पुनरुद्धारक थे, मूल शिक्षक नहीं।’


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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