6.15 उत्पादन और समाज ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.15 उत्पादन और समाज

कम्युनिष्टोंकी प्रणालीके अनुसार ‘साधनोंपर समाजका अधिकार होनेसे सहयोगपूर्वक पैदावार तथा व्यावहारिक शिक्षाका विस्तार होगा। तभी हर व्यक्तिसे उसकी शक्तिके अनुसार काम लेने तथा उसकी आवश्यकताके अनुसार वस्तु देनेका सिद्धान्त चल सकेगा। जबतक आर्थिक, सामाजिक, शिक्षा-सम्बन्धी प्राचीन प्रणाली कायम रहेगी, तबतक वैसी व्यवस्था नहीं हो सकती। तबतक जो जितना काम करेगा, उतना ही उसे फल दिया जायगा। केवल शासनका कारबार चलाने एवं शिक्षा तथा अन्य कार्योंके लिये कुछ अंश काट लिया जायगा। काम करनेके घंटे नियत होंगे। जो जितनी देर काम करेगा, उसको एक प्रमाणपत्र दिया जायगा, जिसे दिखाकर वह उतना सामान ले सकेगा। वह जितना श्रम करेगा, उतना ही वह दूसरे रूपमें पा जायगा। व्यक्तिमें समानरूपसे योग्यता और शक्ति नहीं होती; इसीलिये वस्तुओंका बँटवारा असमान रूपसे होगा। जब सर्वांगपूर्ण कम्युनिष्ट समाजमें शारीरिक एवं बौद्धश्रमका अन्तर मिट जायगा, जब उत्पादन क्रिया ही जीवनकी सर्वप्रधान आवश्यकता हो जायगी, जब व्यक्तियों एवं उत्पादक-शक्तियोंका पूर्णरूपसे विकास हो जायगा—समाजके सभी सदस्योंके पूर्ण सहयोगसे चीजोंकी पैदावार खूब बढ़ जायगी। तभी पूँजीवादी समाजका स्वत्वसम्बन्धी विचार त्यागा जा सकता है और उसके स्थानपर समानताका सिद्धान्त लाया जा सकता है। यद्यपि श्रमजीवी आन्दोलनका अन्ताराष्ट्रिय होना आवश्यक है, तथापि राष्ट्रियताके आर्थिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक महत्त्वको भी भुलाया नहीं जा सकता। साधनोंपर समाजका अधिकार होनेसे सहयोगपूर्वक पैदावार तथा व्यावहारिक शिक्षाका विस्तार होगा। तब हर व्यक्तिसे उसकी शक्तिके अनुसार काम लेने और उसकी आवश्यकतानुसार वस्तु देनेका सिद्धान्त चल सकेगा।’ पर यह केवल व्यामोहक वाग्जाल है। व्यक्तिगत सम्पत्तियों तथा साधनोंपर कुछ मुट्ठीभर लोगोंका अधिकार-सम्पादनके लिये ही समाजका नाम लिया जाता है। वस्तुत: व्यक्तियोंके समुदायका ही नाम तो समाज है। यदि व्यक्ति निर्धन, नि:सत्त्व, नि:साधन हो जाते हैं तो समाज भी सुतरां नि:सत्त्व, नि:साधन हो जाता है। हाँ, समाजके नामपर मुट्ठीभर लोगोंको यह अवसर अवश्य मिल जाता है कि वे संसारको धोखा दे सकें। जो लोग सिवा मजदूरोंके बहुसंख्यक मध्यमश्रेणी तथा गरीब किसानोंको भी मिटा देना आवश्यक समझते हैं; वे भी समानताकी बात करें तो ‘किमाश्चर्यमत: परम्।’ कौन नहीं जानता कि मिलमालिकों, पूँजीपतियों एवं मजदूरों सबको भी भोजन-प्राप्ति किसानके श्रमका ही फल है। किसानके नष्ट हो जानेपर सभी भूखों मर जायँगे। यन्त्रीकरण या राष्ट्रियकरणके नामपर सबकी समानताकी बात उपहासास्पद है। जैसे रोगियोंको मारकर राष्ट्रको नीरोग करनेका फारमूला मूर्खतापूर्ण है, वैसे ही मजदूरोंसे भिन्न लोगोंको समाप्तकर समानताकी स्थापना भी मूर्खतापूर्ण मक्‍कारी है।
अन्तमें मालिक बन जानेपर मजदूर भी मजदूर न रह जायँगे। उनमें भी वही विषमता परिलक्षित होने लगेगी। कौन कह सकता है कि रूसी प्रधानमन्त्री, गृहमन्त्री या पार्टीके संचालक मजदूर होते हैं और उनका जीवनस्तर पदप्राप्तिके बाद मजदूरोंके तुल्य ही होता है? व्यक्तिको हानि-लाभका डर न होनेसे, पैदावार एवं शिक्षामें उन्नति होना असम्भव है। प्राय: इसके उदाहरणके रूपमें रूसका नाम लिया जाता है, परंतु वहाँकी वस्तुस्थिति कुछ और है, अतिरंजित वर्णन कुछ और ही। वहाँ भी व्यक्तिगत रुपयोंका कारखाना, सूद लेना गैर कानूनी नहीं है। प्रतियोगिताएँ भी चलती हैं। शक्ति एवं योग्यता रहते हुए भी ईमानदारी न होनेसे उनका उचित प्रयोग नहीं किया जाता, अत: शक्तिचौर्य भी चलता है। चेतन मनुष्य जडयन्त्रोंके तुल्य सर्वथा परेच्छया काम नहीं कर सकता। उसकी अपनी इच्छा, अपनी रुचि, अपना उत्साह जबतक न होगा, तबतक सुचारुरूपमें कार्य चलना सम्भव नहीं होता। मुट्ठीभर तानाशाहोंद्वारा संचालित शासन-यन्त्रके नगण्य कल-पुर्जे बनकर व्यक्तियोंमें इच्छा, रुचि, उत्साह आदिका सर्वथा अन्त हो जाता है।
धर्म-नियन्त्रित शासन-तन्त्र रामराज्यमें, प्रत्येक व्यक्तिको अपनी शक्ति एवं योग्यताका विशिष्ट फल मिलता है। इसीलिये वह शक्ति एवं योग्यतामें विशेषता लानेका यत्न भी करता है। वह अपनी कमाई अपनी पत्नी एवं पुत्र-पौत्रोंको छोड़ जाता है या अपने बूढ़े माँ-बापकी सेवामें लगा सकता है। अपना और अपने पूर्वजोंका नाम अमर करनेके लिये अनेक प्रकारका सामाजिक उपकारका काम करता है। यज्ञ, तप, दानके द्वारा अपना लोक-परलोक बनानेके लिये अपनी कमाईका उपयोग कर सकता है! इस दृष्टिसे उत्साहका और ही रूप रहता है। जो शुद्ध जडवादी, धार्मिक, आध्यात्मिक संस्कारोंसे शून्य होते हैं, वे ही चार्वाकप्राय मार्क्सवादियोंकी योजनाओंमें सन्तुष्ट रह सकते हैं। वे ही कह सकते हैं—
यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचर:।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:॥
(सर्वदर्शनसंग्रह १)
अर्थात् जबतक जीवन रहे सुखपूर्वक रहे, किसीको मार, धमका, कानून बनाकर उसकी वित्त, कलत्र, गृह-भूमि छीनकर सुरापान करना चाहिये। शरीर मरकर भस्म हो जायगा। लोक-परलोक—कुछ भी सत्य नहीं, फिर धर्माधर्मके चक्‍करमें क्यों पड़ा जाय? कुरान, पुराण, वेद, बाइबिल, गिर्जा, गुरुद्वारा, मन्दिर, मसजिद, राम, रहीम, गाड, अहुरमज्द, दोजख, बहिश्त, स्वर्ग, नरक कुछ भी नहीं। फिर किसी भी नियन्त्रण, सदाचार, दान, पुण्यकी क्या आवश्यकता रह जाती है? घंटेकी आवाजपर सामाजिक या सामूहिक कलकारखानों या सरकारी खेतोंमें काम करना, भोजनालयोंमें भोजन कर लेना, सरकारी औरतोंसे सरकारी बच्चे पैदा करना, सरकारी शिशु-पोषणालयोंमें उन्हें भेज देना, सरकारी अस्पतालोंमें बीमार होकर मर जाना; ऐसे यान्त्रिक जीवनमें न तो कोई उल्लास है, न उत्साह। न तो इसमें लौकिक ही सुख है, न परलोककी ही आशा। ऐसा नीरस, निरुत्साह जीवन उन्हें कथमपि पसन्द न होगा, जो कुछ भी दीन या ईमान मानते हैं, जिन्हें कुरान-पुराणादि उपर्युक्त वस्तुओंपर तनिक भी विश्वास है, ऐसा निराशापूर्ण जीवन वे कथमपि नहीं पसन्द कर सकते। ऐसे दीनदार, ईमानदार लोगोंके लिये धर्मसापेक्ष, पक्षपातहीन राज्य, रामराज्य ही श्रेष्ठ है, जहाँ लोक-परलोक सभी आशापूर्ण एवं उत्साहप्रद होते हैं।
इसी प्रकार आवश्यकताका भी निर्णय भोक्ता ही करे या सरकार? यह स्पष्ट है कि सरकारद्वारा भोक्ताकी आन्तरिक आवश्यकताका ध्यान रखे बिना किया हुआ निर्णय सन्तोषकारक नहीं होगा। भोक्ताओंकी दृष्टिसे ही यदि आवश्यकता निर्णय होगा, तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसकी शक्ति और आवश्यकताका सन्तुलन रहेगा। शक्ति एवं योग्यता कम होनेपर भी, काम न करनेपर भी आवश्यकता अधिक हो सकती है। फिर राज्य उसकी पूर्ति कैसे कर सकेगा? ‘काम करनेमें आलसी भोजनको होशियार।’ ‘अलसा: स्वादुकामाश्च।’ आलसी किंतु अच्छे भोजन वस्त्र, वाहन, मकानकी कामनावाले लोगोंकी कमी किसी देशमें नहीं है। पर यह सम्भव नहीं। अत:—
करम प्रधान बिस्व करि राखा।
जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥
यह भारतीय सिद्धान्त ही श्रेष्ठ है। जो जैसा करता है, वैसा ही फल पाता है। विश्वस्रष्टा परमेश्वर एवं विश्वहितैषी निष्काम महर्षियों या उनके भी सम्मान्य अनादि अपौरुषेय शास्त्रोंद्वारा ही कर्मफलका साध्य-साधनभाव जानना ठीक है। पारलौकिक कर्मों एवं फलोंका साध्य-साधनभाव जिस प्रकार शास्त्रों एवं शिष्टोंद्वारा जाना जाता है, वैसे ही शास्त्रों एवं शिष्टोंके आधारपर ही लौकिक कर्मों एवं उनके फलोंका भी साध्य-साधनभाव निर्णीत होना श्रेष्ठ है। कम-से-कम निर्धारित, सन्तुलित जीवनस्तर एवं तदनुसार ही काम-दामके अतिरिक्त कर्मोंको विशेषताके अनुसार ही फलोंमें विशेषताकी बात उपयुक्त होती है। इस पक्षमें आवश्यकताके अनुसार फलाकांक्षा होगी। फलाकांक्षाके अनुसार कर्ममें प्रवृत्ति होगी, परंतु शक्ति एवं योग्यता वहाँ नियामिका होगी। अत: शक्ति एवं योग्यतानुसार ही प्राणी कर्म कर सकेगा। तदनुसार ही फल पा सकेगा। अत: तदनुसार ही आवश्यकता भी बनानेका प्रयत्न करेगा। आवश्यकताका घटाना-बढ़ाना जितना सम्भव हो सकता है, शक्तिका घटाना-बढ़ाना उतना आसान नहीं है।
फिर प्रतिदिन मजदूरी करना, सर्टिफिकेट दिखाकर भोजन लेना, यह कोई सम्मानकी बात नहीं। जब बँटवारेमें असमानता स्वीकार है, तो फिर समानताकी बात केवल प्रलोभन नहीं तो और क्या है? फिर वहाँ भी ईमानदारीका प्रश्न खड़ा हो सकता है। अगर व्यवस्थापक ईमानदार हो, तब तो ईमानदारीसे कर्मानुसार वितरण कर सकेगा। यह भी तभी सम्भव है, जबकि व्यक्तिकी ईमानदारीपर विश्वास भी हो। पर यदि ऐसा विश्वास सम्भव ही है, तब तो व्यक्तिगत काम लेनेवाला भी ईमानदारीसे फल वितरण कर सकता है। यदि व्यक्तियोंकी ईमानदारीका विश्वास नहीं हो सकता तो व्यवस्थापकोंकी ईमानदारीपर भी कैसे विश्वास होगा? जो कहते हैं कि ‘बेईमान व्यवस्थापक हटा दिया जायगा,’ वह भी ठीक नहीं; क्योंकि सभी शक्तियोंके केन्द्रीकरण हो जानेसे, व्यक्तियोंके पास व्यवस्थापकोंको हटानेकी कोई शक्ति नहीं रहती।
सभी कम्युनिष्ट कभी समानरूपसे बौद्धिक, शारीरिक क्षमतायुक्त हो सकें तो उनका अन्तर मिट सकेगा। सभी समानरूपसे ईमानदार हो जायँ, शक्तिभर काम करें और अनिवार्य आवश्यकतासे कोई अधिक दाम या सामान न ले, यह सुख-स्वप्न जडवादियोंकी अपेक्षा अध्यात्मवादियोंके यहाँ कहीं अधिक संगत होता है। रामराज्यमें तो इस तरहके स्वप्न साकार भी हो चुके हैं—
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।
नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥
नाधिव्याधिजराग्लानिदु:खशोकभयक्लमा:।
मृत्युश्चानिच्छतां नासीद् रामे राजन्यधोक्षजे॥
(श्रीमद्भा० ९।१०।५४)
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपो।
नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुत:॥
(छान्दोग्योप० ५।११।५)
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन।
चरहिं एक सँग गज पंचानन॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥
जहाँ कोई किसीका शोषक न हो, दूसरेके पोषक तथा हितैषी ही हों, सभी सुखी, सम्पन्न, स्वधर्मनिष्ठ, ईश्वरपरायण, शिक्षित, उदार हों, जहाँ कोई चोर, सुरापी, कायर, स्वैरी, स्वैरिणी न हो, सभी आहिताग्नि, यज्वा, स्वधर्मनिष्ठ हों, ऐसा शासनतन्त्र तो अध्यात्मवादमें ही सम्भव होता है। जडवादमें तो इस सुखके पूरा होनेका स्वप्न दुराशामात्र ही है।
शासनके कारबारको चलानेके लिये तथा शिक्षा एवं अन्य कार्योंके लिये कोई भी सभा शासन कुछ अंश ही काटता है। अंग्रेज भारतपर शासन करते थे, वे भी आमदनी तथा खर्चका लेखा-जोखा बराबर दिखाते रहते थे। पर आजकल शासन, राष्ट्ररक्षणके नामपर, कितने गुप्तचर, पुलिस, पलटन एवं शस्त्रास्त्र अपेक्षित होते हैं, यह विज्ञोंसे तिरोहित नहीं है। प्राचीन भारतीय ढंगके धर्मनियन्त्रित शासनोंमें तो नियम यह था कि जैसे सूर्य तिग्मरश्मियोंसे पृथ्वीका जल खींचते हैं और समय आते ही उसे बरसाकर विश्व-कल्याण एवं रक्षण करते हैं, वैसे ही शासक भी प्रजाका कर उसके कुसमयमें वितरण कर देता था, उसे अपने उपभोगमें वह नहीं लाता था। कितने मुसलमान बादशाह भी टोपी सीकर, कुरान लिखकर, किताबें लिखकर, उन्हें बेचकर अपना निर्वाह कर लेते थे। ऐसे ही दूसरे राजा भी अपनी जीवन-यात्रा चलाते रहे हैं।
यदि लाखोंका सालाना वेतन पानेवाले भी शोषित हैं और उनका राज्य भी कल्याणकारी राज्य है, तो फिर जमींदारोंका ही राज्य क्या बुरा है? व्यावहारिक अनुभव तो यह है कि सूर्य भी उतना तापक नहीं होता; जितना तत्संसृष्ट बालुकानिकर (कण) तापक होता है।
कहा जाता है मजदूरोंको भूखे मरते हुए लाचारीसे अल्प मूल्यमें बहुत काम करना पड़ता है, परंतु उसी तरह किसी अवसरपर मजदूर भी अवसरका अनुचित लाभ उठाते ही हैं। रिक्शे, ताँगे तथा नाववाले कभी-कभी चार आनेके बदले आठ रुपये ले लेते हैं। किसी गरीबका लड़का बीमार है, अस्पताल जाना है, यदि मौके-बेमौके अन्य रिक्शे आदि तैयार नहीं तो वह बिना रहम किये गरीबसे मनमाना पैसा लेता है। लाचार होकर गरीबको देना ही पड़ता है। ऐसे अवसरसे डॉक्टर, इंजीनियर—सभी नाजायज फायदा उठाते हैं। इसी तरह टूटते हुए बाँध, वर्षाके समय गिरते हुए मकान, अचानक बिगड़े हुए कारखानोंको सुधारनेके लिये श्रमजीवी मनमाना दाम लेते हैं। मार्गमें बिगड़ी हुई मोटरको सुधारनेमें अतिशीघ्र सुधारनेकी आवश्यकता जानकर श्रमजीवी मनमाना दाम लेता है। कुम्भादिके अवसरपर मल्लाह दो पैसेके बदले गरीबों, धर्मभीरुओंसे बीस-बीस ले लेते हैं। फिर कम्युनिष्ट इनको शोषित ही कहेंगे और उनके इन कार्योंको उचित ही। इतना ही क्यों? वे चोरी और हत्या-जैसी चीजको भी उनकी गरीबी और लाचारीकी दुहाई देकर उचित कहनेका प्रयत्न करते हैं, फिर तो किसीके बलात्कार-व्यभिचारका भी कहकर समर्थन किया जा सकता है कि उसके पास स्त्री नहीं थी, कामातुर होकर उसने लाचारीसे बलात्कार किया है। वस्तुत: सर्वमान्य परम्परा-सिद्ध किसी भी शास्त्रीय नियमको मानकर कम्युनिष्ट अपने किसी भी सिद्धान्तको सिद्ध नहीं कर सकता। इसीलिये वह प्राचीन नियमोंका समूल परिवर्तन चाहता है। पुराने सत्य, न्याय, सिद्धान्त, नियम—सबका ही परिवर्तन चाहता है। यद्यपि यह स्वाभाविक बात है कि जिस चीजकी बहुलता हो और माँग कम हो, वह सस्ती हो जाती है, जिसकी माँग बहुत और मात्रा कम हो, वह मँहगी हो जाती है। यही स्थिति श्रम एवं मजदूरीके सम्बन्धमें भी लागू होती है तथापि राज्यके द्वारा समय-समयपर जैसे योग्यता, आवश्यकता एवं उत्पादनके अनुसार काम, दाम, आरामका एक स्तर निर्धारण करना आवश्यक होता है, वैसे ही मजदूरीका भी एक स्तर निर्धारण करना पड़ता है। सस्ती, मन्दीके भावोंपर भी नियन्त्रण करना पड़ता है। अन्यथा आन्दोलनोंसे मजदूर वेतन बढ़ायेगा, पूँजीपति दाम बढ़ायेगा। फिर किसानको कपड़े आदिके लिये ज्यादा पैसा चाहिये। अत: वह गेहूँ, चावल आदिका भी दाम बढ़ायेगा। तब मजदूरका वह बढ़ा हुआ वेतन इसी आटा, दाल, चावल, कपड़ा खरीदनेमें खतम हो जायगा और फिर वेतन बढ़ानेका आन्दोलन करेगा। फिर महँगी बढ़ेगी।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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