7.5 उपयोगी वस्तु और सौदेकी वस्तु
कहा जाता है कि ‘उपयोगी पदार्थोंकी पैदावार आवश्यकता पूर्ण करनेके लिये होती है। सौदेकी पैदावार विनिमयके लिये होती है, आवश्यकता पूर्ण करनेके लिये पैदावार करनेमें मुनाफा उद्देश्य नहीं रहता। विनिमयके लिये पैदा करनेमें पैदावारका उद्देश्य उपयोग नहीं, किंतु मुनाफा कमाना ही रहता है। पूँजीवादीका सब पैदावार विनिमयके लिये होता है। लेनिनने पूँजीवादकी यही परिभाषा की है कि ‘समाजके सभी पदार्थोंको सौदेके रूपमें विनिमयके लिये उत्पन्न करना और परिश्रमकी शक्तिको भी विनिमयकी वस्तुकी तरह खरीदकर व्यवहारमें लाना पूँजीवादकी अवस्था है।’ मार्क्सने भी कहा है कि पूँजीवादी प्रणालीमें सभी पदार्थ विनिमयके लिये तैयार किये जाते हैं, परिश्रमकी शक्ति बाजारमें बेची जाती है और मेहनत करनेवालोंसे अतिरिक्त श्रम या अतिरिक्त मूल्यके रूपमें मुनाफा उठाकर पूँजीद्वारा पूँजी कमायी जाती है।’
वस्तुत: पैदावारके ये दो भेद व्यर्थ हैं। अध्यात्मवादी अर्थव्यवस्थाके प्राय: प्रत्येक कार्य इसी दृष्टिसे होते हैं कि समाजकी आवश्यकताकी पूर्ति भी हो और कार्य-संलग्न लोगोंकी जीविकाका भी प्रश्न हल हो जाय। जैसे ब्राह्मण मस्तिष्कद्वारा याजन, अध्यापन एवं प्रतिग्रह करता है। इससे समाजकी आवश्यकता भी पूर्ण हो सकती है और उसकी जीविकाका प्रश्न भी हल होता है। क्षत्रियकी शासन तथा शस्त्रास्त्रदक्षता, संग्रामदक्षता सम्पादन आदि कार्यसे समाजकी आवश्यकता भी पूरी होती है और उसकी जीविकाका भी प्रश्न हल होता है। इसी तरह वैश्यका व्यापार कार्य है। उससे विभिन्न देशोंमें अपेक्षित पदार्थको पहुँचाने एवं आवश्यक पदार्थ उत्पादनद्वारा समाजकी आवश्यकता पूरी होती है और उनकी जीविकाके लिये लाभ भी प्राप्त होता है। इसी प्रकार शूद्र शिल्प-सेवा आदिके कार्योंके द्वारा अपनी जीविका लाभ भी करते हैं, समाजकी आवश्यकता भी पूरी होती है। शरीरमें मुख, बाहु, उदर एवं पदका जैसे अपने कार्योंके द्वारा समष्टि शरीरकी आवश्यकता भी पूरी होती है और उनका काम भी चलता है, उदर जिस प्रकार भोजन आदि संग्रह करता है और रस इत्यादि उत्पन्न कर शरीरके विभिन्न अवयवोंको लाभ पहुँचाता है, वही स्थिति व्यापारी, उद्योगपति वैश्योंकी भी है। अत: समाजकी आवश्यकता पूर्ण हो, उद्योगपतिको लाभ हो—इन दोनों ही उद्देश्योंसे उत्पादन होता है और यही उचित है। अध्यात्मवादियोंमें ‘एका क्रिया द्वॺर्थकरी’ का दृष्टान्त प्रसिद्ध है—
एको मुनि: कुम्भकुशाग्रहस्तो
ह्याम्रस्य मूले सलिलं ददाति।
आम्राश्च सिक्ता: पितरश्च तृप्ता
एका क्रिया द्वॺर्थकरी प्रसिद्धा॥
(पद्मपुराण सृष्टिखण्ड ११।७५)
एक मुनि हाथमें घड़ेका जल तथा कुश लेकर आम्र-मूलमें पितृतर्पण करता है, इससे आम्रका सिंचन तथा पितृतर्पण दोनों ही कार्य सम्पन्न होता है। राजनीतिमें तो एक-एक कार्यसे अनेकों प्रयोजन सिद्ध किये जाते हैं। रामचन्द्रने लोकाराधनके लिये सीताको वनवास दिया। लोकराधन भी हुआ, सीताकी वन जानेकी इच्छा-पूर्तिद्वारा दोहद पूर्ति भी। राम और सीता दोनोंका ही संयत आध्यात्मिक तपोमय जीवन सम्पन्न हुआ। सीताके निष्कलंक यशकी प्रख्याति एवं लवकुशकी आर्ष-ढंगसे दिव्य शिक्षाकी व्यवस्था भी हो गयी। इसीलिये कहा जाता है—
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु।
कोउ न राम सन जान जथारथु॥
उपयोगी पदार्थोंको उत्पन्न कर सकनेकी शक्तिको ही मार्क्स परिश्रमकी शक्ति कहता है। उसका यह भी कहना है कि ‘अपने परिश्रमका फल मुनाफा ही कहा जा सकता है। इस कमाईसे बड़ी मात्रामें पूँजी जमा नहीं हो सकती। अत: बड़े परिमाणमें मुनाफा कमानेके लिये दूसरोंके परिश्रमका भाग मुनाफेके रूपमें ले लिया जाता है। इसके लिये आवश्यक है कि दूसरी ऐसी श्रेणी हो, जिसके पास पैदावारके साधन न हों; क्योंकि जिसके पास पैदावारके साधन होंगे, वह कभी भी यह पसन्द न करेगा कि उसके परिश्रमका फल दूसरा ले ले। साधनहीन लोगोंद्वारा मशीनकी सहायतासे बहुत अधिक काम कराकर थोड़ी-सी मजदूरी उनको देकर उनके परिश्रमका फल वह स्वयं रख लेता है। इसका कारण यही है कि साधनहीन लोगोंके पास साधन नहीं है, है भी तो साधारण, जो बड़ी मशीनोंके सामने टिक नहीं सकता। इसीलिये साधनहीन या घटिया साधनवालोंकी शारीरिक शक्तिकी पैदावारका दाम बहुत कम रह जाता है।’
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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