7.6 लाभ या मुनाफा
कहा जाता है कि ‘बिक्रीके लिये माल या सौदा तैयार करनेवाला मनुष्य माल बनानेके लिये कुछ सामान खरीदता है। खरीदे हुए सामानको अपनी मेहनतसे बिक्रीयोग्य माल या सौदा तैयार करके उसे बाजारमें बेचनेसे जो दाम मिलता है, उसमेंसे खरीदे हुए सामानका दाम निकाल देनेपर बाकी बचा हुआ दाम लाभ या मुनाफा कहलाता है, वह शुद्धरूपसे मेहनतका ही फल है। इसी प्रकार जब पूँजीपति बड़े पैमानेपर सौदा तैयार कराता है, तब भी लागत खर्चसे अधिक जो भी दाम मिलता है, वह लाभ या मुनाफा मजदूरोंकी मेहनतका ही फल है। सौदेके मूल्यमेंसे कच्चे मालका मूल्य निकाल लेनेपर केवल सौदेका खर्च और मेहनतका ही मूल्य बच जाता है, पर पूँजीपति मेहनतका पूरा फल मजदूरको दे देता है तो मुनाफेकी कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। अत: मजदूरकी मेहनतका जितना फल उसको मिलता है, उतना ही पूँजीपतिको अधिक लाभ होता है।’
पर यह विचार एकांगी दृष्टिकोणसे ही है। लाभ या मुनाफा केवल मेहनतका फल नहीं हो सकता, किंतु वह कच्चे माल एवं मेहनत दोनोंका ही फल है। यदि मेहनत बिना कच्चा माल अल्प मूल्यका था, तो कच्चे माल बिना मेहनत भी व्यर्थ थी। फिर तो जैसे पूँजीपतिने दाम देकर कच्चा माल खरीदा, वैसे ही दाम देकर श्रम भी खरीदा। दोनोंके खरीदनेमें खर्च हुए दामसे अधिक दाम जो मुनाफाके रूपमें मिला, वह पूँजीपतिका ही होता है। जैसे श्रमवाला अपने श्रमका फल चाहता है, वैसे ही कच्चा मालवाला अपने कच्चे मालका फल चाहता है। जैसे किसी-किसी अवसरपर कच्चे मालमें तेजी-मन्दी आती रहती है, वैसे ही श्रममें भी सस्तापन और मँहगापन आता रहता है। दुर्लभता एवं माँगकी अधिकता होनेपर कच्चा माल मँहगा हो जाता है, वैसे ही दुर्लभता एवं माँगके अनुसार ही श्रम भी महँगा हो जाता है। कभी बाजारमें सस्ते दाममें कच्चा माल भी मिलता है, कभी सस्ते दाममें श्रम मिलता है। कहा जा सकता है कि ‘कच्चे मालका जो दाम मिल गया, वह उसका दाम है’ परंतु इसी तरह यह भी तो कहा जा सकता है कि मजदूरोंको भी श्रमका वेतन उन्हें मिल गया। इसी तरह श्रम और कच्चा माल दोनों ही श्रमिकका होता तो दोनोंका ही फल उसे ही मिलता या कच्चा माल खरीदनेका दाम और श्रम दोनों ही श्रमिकके होते तो भी सब फल उसीको मिलता। किंतु जब श्रम श्रमिकका है, कच्चा माल और उसका दाम दूसरेका है, तब तो जैसे श्रमका फल श्रमिकको मिलना चाहिये, वैसे ही कच्चे मालका भी फल उसके मालिकको मिलना ही चाहिये। जैसे श्रमिक मिलनेवाली मजदूरीको कम कहता है, वैसे ही कच्चे मालका विक्रेता भी अपने मालके मिलनेवाले दामको कम कहता है। इन दोनोंको जो अपने पैसेसे इकट्ठा करता है, दोनोंका प्रबन्ध करता है, यद्यपि लाभकी आशा ही करता है, तथापि कभी-कभी अनुमानके विपरीत उसे नुकसान भी होता है। जो इन सब खतरोंको अपने सिरपर झेलता है, उसे उसके पैसे, परिश्रम, साहस, हानि एवं खतरा उठानेका आखिर क्या फल होगा? अत: कच्चे मालके दाम निकालकर बचे हुए सौदेका दाम श्रमका ही फल है, यह कहना गलत है।
हाँ, कच्चे माल एवं श्रमके उचित मूल्यका निर्धारण करना आवश्यक है। इसपर भारतीय शास्त्रोंने पर्याप्त प्रकाश डाला है। इससे पूँजीपतिके आयपर भी नियन्त्रण हो जाता है। शास्त्रोंने मजदूरी या वेतनके सम्बन्धमें मुख्यरूपसे यही नियम माना है कि मालिक और नौकरका जो आपसी सम्मतिसे तय हुआ हो, वही उसकी मजदूरी है। भृतककी मिताक्षरामें इस प्रकार व्याख्या की है—
‘मूल्येन य: कर्म करोति स भृतक:।’
(याज्ञ० स्मृति, मिता० व्यव० १८३)
मजदूरी या नौकरीको भृति शब्दसे कहा गया है।
भृतिकी परिभाषा यों है—
यत्र यादृशी भृति: परिभाषिता स्वामिभृत्याभ्यां तादृशी तत्र भृतिर्भृत्येन लभ्यते। (याज्ञ० स्मृति, वीरमित्रोदय टीका १७३)
वहीं ‘मिताक्षरा’ में नारद-स्मृतिका यह वचन उद्धृत किया है—
भृत्याय वेतनं दद्यात् कर्मस्वामी यथाक्रमम्।
आदौ मध्येऽवसाने वा कर्मणो यद्विनिश्चितम्॥
(नारदस्मृति ६।२)
भृत्य एवं स्वामीद्वारा निश्चित मूल्य ही वेतन है। हाँ, जहाँ वेतन बिना निश्चित किये ही मालिक श्रम कराता है, वहाँ वाणिज्य, पशु तथा सस्य (फसल)-से होनेवाले लाभका दसवाँ भाग नौकरको राजाद्वारा दिलाया जाना चाहिये—
भृतिमपरिच्छिद्य य: कर्म कारयति तं प्रत्याह—
(मिता०)
दाप्यस्तु दशमं भागं वाणिज्यपशुसस्यत:।
अनिश्चित्य भृतिं यस्तु कारयेत् स महीक्षिता॥
(याज्ञ० स्मृ० २।१९४)
खाली हल चलानेवाला उससे होनेवाली आमदनीसे तीसरा भाग पा सकता है। यदि उसे भोजन-वस्त्र भी मिलता हो, तो उसे लाभका पाँचवाँ भाग मिलना चाहिये—
त्रिभागं पञ्चभागं वा गृह्णीयात् सीरवाहक:।
भक्ताच्छादभृत: सीराद् भागं भुञ्जीत पञ्चमम्॥
(बृहस्पतिस्मृ०)
परंतु जो नौकर देशकालानुसार विक्रय, कर्षण आदि कार्य ठीक-ठीक नहीं करता और प्रकारान्तरसे लाभ उठाता है, वहाँ स्वामीकी इच्छा ही मुख्य है। अर्थात् उसे सम्पूर्ण वेतन नहीं देना चाहिये। अधिक लाभ करता है, तो दशमांशसे अधिक देना चाहिये—
देश कालं च योऽतीयाल्लाभं कुर्याच्च योऽन्यथा।
तत्र स्यात् स्वामिनश्छन्दोऽधिकं देयं कृतेऽधिके॥
(याज्ञ० स्मृ० २।१९५)
अनेक मजदूर जहाँ मिलकर काम करते हैं, वहाँ उनके कामके अनुसार वेतन मिलना चाहिये। कोई नौकर दो आदमीका काम करे तो उसे दुगुना तथा कोई यदि एक आदमीसे भी कम करे तो उसे कुछ कम वेतन भी मिलना चाहिये। यथा निश्चय अथवा मध्यस्थद्वारा निर्णीत वेतन मिलना उचित है, सभीको समान नहीं—
यो यावत् कुरुते कर्म तावत्तस्य तु वेतनम्।
उभयोरप्यसाध्यं चेत् साध्यं कुर्याद्यथाश्रुतम्॥
(याज्ञ० स्मृ० २।१९६)
गोपालन करनेवाले गोपालकी मजदूरीका रूप मनुने लिखा है कि ‘जो भोजन-वस्त्र नहीं पाता, ऐसा गोपाल यदि दस गौओंका पालन करता हो, तो एक गायका दूध उसे मजदूरीके रूपमें मिलना चाहिये’—
गोप: क्षीरभृतो यस्तु स दुह्याद् दशतो वराम्।
गोस्वाम्यनुमते भृत्य: सा स्यात् पालेऽभृते भृति:॥
(मनु० ८।२३१)
राजकीय कर्मचारियोंके लिये दूसरे ढंगका भी वेतन है। दस ग्रामपर शासन करनेवालेके लिये एक कुलका लाभ मिलना चाहिये। बीस गाँवोंपर शासन करनेवालेको पाँच कुलका, शताध्यक्षको एक ग्राम एवं सहस्राध्यक्षको पुरका लाभ मिलना चाहिये। ग्रामवासी जो अन्न-पान, ईंधन आदि राजाको देते हैं, वह उस कर्मचारीको मिलना चाहिये। यह सब अधिकार, शिक्षा, योग्यता आदिके आधारपर समझना चाहिये—
दशी कुलं तु भुञ्जीत विंशी पञ्चकुलानि च।
ग्रामं ग्रामशताध्यक्ष: सहस्राधिपति: पुरम्॥
(मनु० ७।११९)
कौटल्यने वेतन-निर्णयके प्रसंगमें सूत्र कातनेके लिये कहा है कि ‘सूतकी चिक्कणता, स्थूलता, मध्यता आदि जानकर वेतन निर्धारण करे’—
‘श्लक्ष्णस्थूलमध्यतां च सूत्रस्य विदित्वा वेतनं कल्पयेत्।’
(कौटलीय अर्थशास्त्र २।२३।३)
अच्छा काम देखकर वेतनसे अतिरिक्त तेल, उबटन आदि देकर मजदूरोंको सम्मानित करे—‘सूत्रप्रमाणं ज्ञात्वा तैलामलकोद्वर्तनैरेता अनुगृह्णीयात्’ (कौट० अर्थ० २।२३।५) काममें कमी हो, तो वेतनमें कमी होनी चाहिये—‘सूत्रह्रासे वेतनह्रास:’ (वही ७)। वेतनका समय बीत जानेपर मध्यम वेतन देना चाहिये—‘वेतनकालातिपाते मध्यम:’ (वही १६)।
तीसरे अधिकरणके १४वें अध्यायमें कौटल्यने मजदूरोंके सम्बन्धमें बहुत कुछ कहा है। उससे भी प्राय: मालिक एवं नौकरद्वारा वेतन और कामका परिणाम निश्चित होता है। इसीलिये कहा गया है कि मालिकद्वारा निर्धारित कामसे अधिक करनेपर उतनी मेहनत व्यर्थ ही समझनी चाहिये—‘सम्भाषितादधिकक्रियायां प्रयासं मोघं कुर्यात्’ (३।१४।१३) इस प्रकरणमें याजकों तथा ऋत्विजोंके वेतनपर विचार किया गया है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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