7.9 श्रम और मुनाफा
कहा जाता है कि ‘पूँजीपतिके हाथमें पूँजी होनेके कारण पैदावारके साधन उसके हाथमें चले जाते हैं। पूँजीसे पूँजी ही पैदा होती है। यह पूँजी भी शोषणसे इकट्ठी होती है। बड़े परिमाणमें मुनाफेके लिये पैदावार आरम्भ होनेसे पहले मामूलीरूपसे व्यापार चलता है, उपयोगकी वस्तुओंको सस्ते दामसे खरीदकर अधिक दाममें बेचकर मुनाफा कमाया जाता है, उन्हीं व्यापारोंसे पूँजी एकत्रित होती है। सस्ता खरीदकर महँगा बेचनेका अर्थ होता है या तो सौदेका दाम उचित नहीं दिया गया या उचित मूल्यसे अधिक मूल्य लिया गया। इस तरह मुनाफेकी अधिक गुंजाइश नहीं रहती, परंतु परिश्रम करनेकी शक्ति ही ऐसी वस्तु है, जिसके खरीदनेके बाद और बेचनेसे पहले वह बढ़ जाती है अथवा अधिक उपयोगी पदार्थ पैदा करती है।’
‘बाजारमें बिकनेवाली हर वस्तुका दाम होता है और वह उस वस्तुकी तैयारीमें खर्च किये गये परिश्रमके समयसे निश्चित होता है। इसी आधारपर बाजारमें बिकनेवाली मजदूरी या परिश्रम-शक्तिका भी दाम निश्चित होता है। मजदूरको उस श्रमशक्तिको प्राप्त करनेके लिये अन्न, वस्त्र, सौदा—खरीदना पड़ता है, जिसके बिना परिश्रम सम्भव नहीं होता। यद्यपि मजदूर अपने जीवनके लिये अधिक भी खर्च कर सकता है, परंतु उसे अधिक खर्च करनेको मिलता ही नहीं। मालिक लोग कम-से-कम दाममें उसे खरीदनेका प्रयत्न करते हैं। इस तरह मालिक लोग मजदूरको कम देकर उससे ज्यादा-से-ज्यादा काम लेते हैं। मजदूरद्वारा खर्च किये गये सौदे और मजदूरद्वारा पैदा किये गये सौदेके दाममें जो अन्तर है, वही पूँजीपतिका मुनाफा बन जाता है।’
शक्ति एवं उसके परिणाममें भेद है। मजदूरको जीवनरक्षाके लिये कम-से-कम जरूरी सौदेका दाम ही परिश्रम-शक्तिका दाम होता है। मालिक जितने दिनतक मजदूरकी परिश्रम-शक्तिको अपने काममें लाना चाहता है, उतने दिनतक जीवित रखनेके लिये सौदेका मूल्य देनेके लिये विवश है। वह कहीं एक रुपया रोज, कहीं पाँच रुपया रोज मजदूरी पाता है। वही परिश्रमशक्तिका मूल्य है। वेतनमें दिया हुआ धन ही दत्त समझा जाता है। दबाव या बलात्कारसे बाध्य होकर देनेपर भी वह अदत्त ही समझा जाता है। उसे न्यायालयद्वारा लौटाया जा सकता है—
भृतिस्तुष्टॺा पण्यमूलं स्त्रीशुल्कमुपकारिणे।
श्रद्धानुग्रहसम्प्रीत्या दत्तमष्टविधं स्मृतम्॥
(या० स्मृ० २।१७६ की वीरमित्रोदय टीकामें उद्धृत बृहस्पतिका वचन)
दत्तधन आठ प्रकारका होता है, भृति अर्थात् वेतनके रूपमें मिला हुआ, तुष्टिसे मिला हुआ, सौदेके दामरूपसे मिला हुआ, स्त्रीशुल्करूपसे दिया हुआ, उपकारीको दिया हुआ, श्रद्धासे दिया हुआ, अनुग्रहसे दिया हुआ और प्रसन्नतासे दिया हुआ। इन्हें लौटाया नहीं जा सकता। कहीं-कहीं सात प्रकारके दान अप्रत्यावर्तनीय कहे गये हैं और सोलह प्रकारके दान प्रत्यावर्तनीय—
दत्तं सप्तविधं प्रोक्तमदत्तं षोडशात्मकम्।
पण्यमूल्यं भृतिस्तुष्टॺा स्नेहात्प्रत्युपकारत:।
स्त्रीशुल्कानुग्रहार्थं च दत्तं दानविदो विदु:॥
अदत्तं तु भयक्रोधशोकवेगरुजान्वितै:।
तथोत्कोचपरीहासव्यत्यासच्छलयोगत:॥
बालमूढास्वतन्त्रार्तमत्तोन्मत्तापवर्जितम्।
कर्ता ममेदं कर्मेति प्रतिलाभेच्छया च यत्॥
अपात्रे पात्रमित्युक्ते कार्ये चाधर्मसंहिते।
यद्दत्तं स्यादविज्ञानाददत्तमिति तत् स्मृतम्॥
(नारदस्मृति ४।३, ७—१०)
खरीदी हुई वस्तुका दिया हुआ मूल्य दत्त है, अप्रत्यावर्तनीय है। काम करनेवाले नौकरको दिया हुआ वेतन, बन्दी-मागधादिको प्रसन्नतासे दिया हुआ, पिता-पुत्रादिको स्नेहसे दिया हुआ तथा उपकार करनेवालेको जो प्रत्युपकाररूपसे दिया जाता है, विवाहके लिये जो कन्यापक्षवालोंको दिया जाता है, जो किसीपर कृपा करके दिया जाता है—ये सभी दान दत्त ही हैं, लौटाये नहीं जा सकते। भयसे, क्रोधसे, शोकावेशसे तथा असाध्यरोगादिसे पीड़ित दशामें, परिहासवश, व्यत्यास (उल्टा-पल्टा) से, छलयोगसे, बाल (नाबालिक) सोलह वर्षसे कम उमरवालेद्वारा, मूढ़ (लोकव्यवहारानभिज्ञ), अस्वतन्त्र (पुत्र, दासादि), आर्त्त (रोगाभिभूत), मत्त (मादक द्रव्यसे, मतवाला), उन्मत्त (वातिक, उन्मादग्रस्त) द्वारा दिया हुआ, किसी कार्य करानेके प्रतिलाभकी इच्छासे, अपात्रको पात्र बतला देनेसे, अवेदविद्को वेदविद् कहनेसे, यज्ञके नामसे धन लेकर जुए आदिमें खर्च करनेवालेको जो दिया गया हो—ये सोलह प्रकारके दान दत्त भी अदत्त ही समझे जाने चाहिये। जो अदत्तको लेता है और जो अदेय वस्तुको देता है—ये दोनों ही दण्डॺ हैं।
भूमिपर भूमिपतिका अधिकार भी शास्त्रोंने माना है। किसीकी भूमिपर मकान बनाकर जो भाड़ा देकर रहता है, वह यदि वहाँसे हटे तो अपना तृण, काष्ठ, इष्टिका (ईंट) आदि ले जा सकता है, परंतु जो भाड़ा बिना दिये किसीकी भूमिमें घर बनाकर रहता है, वह हटनेके समय घास, लकड़ी या ईंटोंको नहीं ले सकता।
परभूमौ गृहं कृत्वा स्तोमं दत्त्वा वसेत्तत:।
स तद् गृहीत्वा निर्गच्छेत्तृणकाष्ठानि चेष्टकाम्॥
स्तोमाद् विना वसित्वा तु परभूमावनिश्चित:।
निर्गच्छंस्तृणकाष्ठादि न गृह्णीयात् कथञ्चन॥
(कात्यायनस्मृ० सारोद्धार)
मार्क्सके अनुसार ‘परिश्रमका दाम मालिकका मुनाफा ही है। पूँजीपति इमारत बनाकर, मशीन लगाकर, कच्चा माल खरीद लेता है, फिर भी जबतक मजदूरकी परिश्रमशक्ति उसमें नहीं लगती, तबतक काम आरम्भ नहीं होता। अत: वह मजदूरके शरीरको किरायेपर लेकर उससे सौदा बनवाता है। यदि पाँच दिनतक सौदा बनानेका काम हुआ और उतने समयमें इमारत और मशीनका किराया, कच्चे मालका दाम तथा अन्य कामोंमें जो खर्च हुआ है, वह तीन हजार घंटेके बराबर था। पूँजीपतिने बीस मजदूरोंको प्रतिदिन दस घंटे कामपर लगाया और सौदा तैयार होनेपर सौदेका दाम बाजारमें चार हजार घंटे परिश्रमके दामके बराबर पड़ा, तो तीन हजार घंटेके परिश्रमका दाम पूँजीपतिने खर्च किया ही है। मकान, मशीन आदिके किराये आदिपर और एक हजार घंटेके परिश्रमके दामकी बचत होती है, यह बचत ही परिश्रमका दाम है। उसमेंसे मालिक मजदूरको एक हजार घंटे जीनेके लायक ही नौकरी देता है। यह एक हजार घंटेतक परिश्रम करानेकी शक्तिका दाम होगा और उसे जो बाजारमें मिला, वह एक हजार घंटे परिश्रमका दाम है।’
‘यदि पूँजीपति मजदूरको पाँच दिनतक दस घंटे परिश्रम करनेकी शक्तिका दाम ढाई दिनके परिश्रमके बराबर देता है तो उसे प्रति मजदूर ढाई दिनका परिश्रम मुनाफेमें बच जाता है। उसका कुल मुनाफा चार दिनके परिश्रमका परिणाम हो जाता है। अर्थात् पूँजीपतिने अपने बीस मजदूरोंको उतना रुपया दिया, जिसमें वे पाँच दिन जीवित रहे और मजदूरोंने मालिकको उतना रुपया दिया, जितना कि बीस आदमियोंकी पाँच दिनकी मेहनतसे पैदा होता है।’
‘जैसे घोड़ेके दिनभर परिश्रम करनेके योग्य बनाये रखनेके लिये घास-दानामें जो खर्च होता है, वह उसकी परिश्रमशक्तिका दाम है। घोड़ेकी दिनभरके परिश्रमसे जो कमायी होती है, वह उसके परिश्रमका दाम होता है। दोनोंमें जो अन्तर है, वही मुनाफा है। परिश्रमशक्तिको बनाये रखनेमें जो खर्च होगा, वह परिश्रमके दामसे कहीं कम होता है। इसी तरह मजदूरकी परिश्रमशक्तिका पूरा दाम मिलनेपर भी परिश्रमके दामसे वह बहुत कम होता है, परंतु मजदूरोंकी संख्या बाजारमें अधिक होती है। आधा पेट खाकर परिश्रम-शक्तिका दाम भी उचित (मुनासिब)-से कम लेकर मजदूरी करते हैं। सौदेकी पैदावारसे मजदूरको जितना ही कम मिलता है, उतना ही मालिकका मुनाफा बढ़ता है।’
देशकालके भेदसे भावोंमें भेद हो जाता है। जिस देशमें जिस वस्तुकी अधिक आवश्यकता या माँग होती है, अन्यत्र कम दाममें खरीदी वस्तु वहाँ अधिक दाममें बिकती है। दिखाया जा चुका है कि किसी देशकालमें पानी भी कीमती हो जाता है, इसीलिये कालान्तरमें खरीदी वस्तु कालान्तरमें और देशान्तरमें खरीदी वस्तु देशान्तरमें बेचनेकी लाभके ही लिये पद्धति चलती है। बुद्धिकी विशेषतासे भी लाभमें विशेषता होती है।
कथासरित्सागरकी कथा है कि एक व्यक्तिने एक मृत मूषिकाको, जो सामान्य दृष्टिसे व्यर्थ ही कही जाती है, लेकर व्यापार करनेका निश्चय किया। किसीने एक आना पैसा देकर उसे अपनी बीमार बिल्लीके लिये खरीद लिया। वह उसी पैसेसे भूना चना खरीदकर शीतल जल लेकर मार्गके किसी वृक्षकी ठण्ढी छायामें बैठ गया। लकड़ीका बोझ लेकर आते हुए भूखे-प्यासे लकड़हारोंने वहीं रुककर और चना खाकर जलपान किया तथा बदलेमें वे उसे थोड़ी-थोड़ी लकड़ियाँ देते गये। उन लकड़ियोंके बेचनेसे उसे पाँच रुपये प्राप्त हो गये। उसमें उसने कुछ तो अपने भोजनमें व्यय किया और शेषका पुन: चना खरीद लिया। इसी प्रकार उनसे उसे पुन: लकड़ियाँ मिलीं और शनै:-शनै: वह महाधनवान् हो गया। फिर जिसके पास पूँजी हो, उससे तो वह बहुत कमा सकता है।
जब कोई व्यापार न कर अपना धन बैंकमें जमा करता है तो वहाँ भी सूदके रूपमें कुछ-न-कुछ आमदनी होती है। फिर श्रमपूर्वक व्यापार तो कुछ अधिक लाभके लिये किया ही जाता है। देश-विशेष तथा काल-विशेषमें माँग बढ़ जानेसे दाम बढ़ जाता है। इसमें श्रमका संनिवेश नहीं होता। पूर्वोक्त कथामें मृतमूषिकाके व्यापारमें श्रमकी कोई बात नहीं आयी, पर अवसर-विशेषपर ऐसी वस्तुओंका भी दाम मिल जाता है। इसी तरह खेतीसे तथा अन्य उपयोगी वस्तुओंको बनाकर बेचनेसे भी लाभ होता है। यहाँ सौदेका दाम कम देने अथवा उचितसे ज्यादा दाममें बेचनेका कोई प्रश्न ही नहीं उठता; क्योंकि देश तथा कालकी महिमासे दाममें चढ़ाव-उतार होता ही रहता है।
इसी तरह ‘प्रत्येक वस्तुका दाम वस्तुकी तैयारीमें खर्च किये गये परिश्रमके समयसे निश्चित होता है’, यह कथन भी असंगत है; क्योंकि आम्रादि फलोंका दाम उनकी मधुरता, हृद्यता आदि गुणोंपर तथा दुर्लभता, सुलभता आदि एवं माँगके आधारपर ही निश्चित होता है। परिश्रम समान होनेपर भी घटिया आमोंका उतना दाम नहीं होता। अत: उपकारकता तथा दुर्लभताके तारतम्यका ज्ञान ही वस्तुके मूल्यमें कारण होता है। हीरा-जैसी वस्तुमें भी उपकारकत्व दुर्लभत्वका ज्ञान न होनेसे अल्पमूल्यता या हेयताका व्यवहार हो सकता है। बकरी एवं गर्दभ, उष्ट्रके पालनमें श्रम एक-सा होनेपर भी वस्तुओंकी विशेषतासे ही दाममें विशेषता कहनी पड़ती है। इसी तरह परिश्रमके समयके आधारपर भी दामका निर्णय असंगत है। एक मजदूर अधिक समयतक कठोर-से-कठोर काम करता है, तब भी उसे थोड़ा ही पैसा मिलता है, परंतु एक इंजीनियर, डॉक्टर, वकील मिनटोंमें हजारों रुपया प्राप्त कर लेता है। अत: यहाँ भी परिश्रमकी विशेषता तथा दुर्लभताके आधारपर ही दाममें विशेषता मान्य होनी चाहिये।
वस्तुत: सफल कर्म ही श्रम है। देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकारकी हलचल ही कर्म है तथा च फलोत्पादनानुकूल उपयोगी हलचल ही श्रम है। यह स्वयं ही अपने प्रकारकी होती है, एक रूप नहीं है। एक विशिष्ट वकीलकी वाणीकी हलचल बहुत लाभदायक होती है, अत: उसका दाम बहुत ज्यादा होता है। एक साधारण वकील या वक्ताकी वाणीसे उतना लाभ नहीं होता, अत: उसका साधारण ही दाम मिलता है। इसी तरह इंजीनियर, डॉक्टर आदिके सम्बन्धमें भी कहा जा सकता है। विशिष्ट बुद्धि, विशिष्ट वाणी, विशिष्ट हस्तपादादि क्रियाओंसे होनेवाले फलोंके आधारपर उनके दामोंमें भी कमी-वेशी होती रहती है। दुर्लभता एवं माँगकी विशेषता ही सर्वत्र दामका कारण हुआ करती है। जैसे विशिष्टबुद्धियुक्त शारीरिक हलचल अधिक लाभदायक होती है, उसी तरह मशीन कच्चा माल तथा विशिष्टबुद्धियुक्त शारीरिक हलचल (श्रम) और लाभदायक होती है। जिसके पास उपर्युक्त साधनोंमें जितनी कमी है, उतना ही उसे कम लाभ होता है। जैसे इस जन्म या जन्मान्तरके शुभ कर्मसे जिसके पास उत्तम बुद्धि एवं कायिक, वाचिक उत्तम कर्म होते हैं, उसको केवल कायिक कर्मवालोंकी अपेक्षा अधिक फल मिलता है। इस तरह इस जन्म या जन्मान्तरके शुभ कर्मसे भूमि, मशीन, कच्चा माल आदि जिसके पास है, उसे और भी बड़ा फल प्राप्त होता है। किसीके पास बुद्धि नहीं है, केवल स्थूल श्रम है, उसे थोड़ा ही फल मिलता है। किसी वकील, डॉक्टर, इंजीनियर आदिमें बाह्य श्रम अत्यल्प है, केवल बुद्धिके ही बलपर उन्हें पर्याप्त धन मिलता है। किसीके पास मशीन, भूमि आदि बाह्य साधनोंकी प्रधानता है, वे उसके सहारे साधारण बुद्धि, वाणी एवं शरीरके कर्मसे ही बड़ा फल पा लेते हैं। इसमें भी अवसरका महत्त्व होता है। किसी अवसरपर कोई वाणी, कोई औषध, कोई क्रिया लाभदायक होती है। किसी अवसरपर वही हानिकारक भी हो जाती है। शास्त्रीय कर्मोंमें भी अवसर तथा जानकारीका विशेष महत्त्व है। डॉक्टर, इंजीनियर, गणक, वकील आदिके भी जानकारी तथा कर्मोंकी विलक्षणताके समान ही वैदिक, तान्त्रिक, ज्योतिष्टोम, अश्वमेध, षडध्वशोधनादि कर्मोंमें भी ज्ञानक्रिया आदिकी विलक्षणता होती है। पाठ, जपमें श्रम समान होनेपर भी किसी मन्त्र-स्तोत्रके जप, पाठसे सामान्य फल होता है, किसी मन्त्र-स्तोत्रके जप-पाठसे विशिष्ट फल होता है। यहाँ श्रमकी विशेषता न होकर वस्तुकी विशेषतासे ही फलमें विशेषता मान्य होती है।
परिश्रम, शक्ति एवं परिश्रमका भेद भी अवास्तविक तथा अनुपयुक्त है। वस्तुत: खरीदगार फलके आधारपर ही दाम देता है। फलोत्पादक शक्तिका कुछ भी दाम नहीं होता। काम न करनेवाले या अन्यका काम करनेवाले श्रमिकके पास भी शक्ति है, परंतु जिसके लिये उसका फल नहीं है, उसके लिये वह व्यर्थ है। अत: उसका कुछ भी दाम नहीं देता। अत: परिश्रमशक्ति एवं परिश्रमके पृथक् फलकी कल्पना निराधार है। जितनेसे परिश्रमशक्ति बनी रहे, उतना दाम परिश्रमशक्तिका दाम है, यह नियम भी व्यभिचरित है; क्योंकि वकीलों, डॉक्टरों आदिके श्रमशक्ति बनाये रखनेसे कहीं बहुत अधिक दाम मिलता है; अत: उस दामको परिश्रमशक्तिका दाम नहीं कहा जा सकता। ऐसे स्थानोंमें परिश्रमका दाम दूसरा क्या हो सकता है? क्योंकि यहाँ तो कोई वस्तु बाजारमें जानेवाली नहीं है, जिससे लागत खर्च निकालकर सौदेके दामको परिश्रमका फल कहा जा सके। वकीलके परिश्रमका परिणाम न्याय-प्राप्ति कहा जा सकता है, उसके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले भूमि, हिरण्य आदिमें भले वकीलके परिश्रमको भी हेतु कहा जाय, परंतु वह वादी आदिकी निजी वस्तु ही है। उसे प्राप्त होनी ही चाहिये। तभी उसके पक्षमें न्याय हुआ है। ‘अत: वह सब वकीलके श्रमका फल है, उसे ही मिलना चाहिये’, यह नहीं कहा जा सकता। बहुत-सी ऐसी भी मजदूरी होती है, जिसके द्वारा बाजारमें जानेवाला कोई सौदा नहीं बनता। उदाहरणार्थ अपने ही कुटुम्बके काम चलानेके लिये लोहार, दर्जी, बढ़ई, मकान बनानेवाले कारीगरसे उपयोगके लिये काम कराये जाते हैं, वहाँ धोबी, नाई, भंगीके श्रमोंका क्या दाम होगा? यहाँ कोई बाजारमें बिकनेका सौदा नहीं बनता। अत: वहाँ बाजार भावके आधारपर श्रमका दाम निश्चित करना पड़ेगा। अवश्य ही वह दाम कामके अनुरूप तथा राष्ट्रिय नागरिकोंके जीवनस्तरके अनुरूप होना चाहिये। इसके विपरीत जहाँ कथंचित् मजदूरोंका जीवन चलानेके लिये नितान्त आवश्यक जो कम-से-कम मजदूरी देते हैं, वे अन्याय करते हैं। उनपर नियन्त्रण आवश्यक है। फिर भी सौदा बनानेवाले मजदूरोंकी उचित मजदूरी या नौकरीसे अतिरिक्त लागत खर्च निकालकर सौदेके सब दाममें भी मजदूरोंका अधिकार है, यह नहीं सिद्ध हो सकता। कोई कारण नहीं कि उपयोगार्थ काम करनेवाले मजदूरोंके परिश्रमका दूसरा दाम हो और सौदा बनानेवाले मजदूरोंके परिश्रमका दूसरा। बाजारमें गेहूँ खानेके लिये खरीदें या दानके लिये खरीदें अथवा बेचनेके लिये खरीदें, पर दाममें कोई अन्तर नहीं आता।
कच्चा माल, मशीन और पूँजी तथा पूँजीपतिकी बुद्धि, साहस, चेष्टा आदि सब मिलकर लाभमें हेतु हैं। यदि मजदूरोंके परिश्रमका भेद मानकर परिश्रमका दाम भी पृथक्-पृथक् माना जाय तो मशीनोंके सम्बन्धमें भी कहा जा सकता है कि जितनेसे मशीन कामलायक बनी रहे, वह उनकी कार्यक्षमताका दाम होगा। मजदूरकी नौकरी आदि लागत खर्च निकालकर अवशिष्ट सौदेका दाम मशीनकी क्रियाका परिणाम है। लाखों मजदूरोंका काम करनेवाली मशीनके सम्बन्धमें वे सभी न्याय लागू होने चाहिये, जो मजदूरके सम्बन्धमें लागू होते हैं। अत: लाखों मजदूरोंकी श्रमशक्ति एवं श्रमका जो भी फल है, वह सब मशीनके मालिकको मिलना चाहिये। कच्चा माल तो सौदेका उपादान-कारण ही होता है। रूई ही सूत बनती है, सूत ही कपड़ा बनता है, अत: रूई तथा सूतके मालिकको जो दाम दिया गया है, उसे भी अपूर्ण ही कहा जा सकता है। रुपया निश्चल पड़ा रहे तो उसका कुछ भी फल नहीं होता, परंतु बैंकमें जाता है तो व्याजरूपसे उससे कुछ आमदनी होती है। व्यापार-उद्योगमें लगानेसे उससे और बड़ी आमदनी होती है। इसलिये व्यापारमें पूँजी लगायी जाती है। यदि लागत खर्चके अतिरिक्त सौदेका दाम मजदूरके परिश्रमका ही फल है और वह सब मजदूरको ही मिलना चाहिये, तब तो कच्चे माल खरीदने, मकान, मशीन बनाने, मजदूरोंको बटोरकर काम कराने, मजदूरी देनेमें पूँजी लगाकर उसे खतरेमें डालना व्यर्थ ही होगा। उसकी अपेक्षा तो बिना खतरा उठाये ही बैंकमें रुपया रखकर लाभ उठाया जा सकता है। अत: जैसे श्रमिकको श्रम लगानेका फल मजदूरी मिलती है, वैसे ही पूँजीपतिके पूँजी लगानेका फल मुनाफा मिलना चाहिये। हाँ, वह सीमित होना चाहिये। समाज तथा मजदूरोंको नुकसान पहुँचानेवाला न होना चाहिये।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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