7.14 व्यक्तिगत वैध भूमि
किसीकी भूमिपर यज्ञ या पितृश्राद्ध करनेपर भी भूमिपतिको कुछ देना आवश्यक समझा जाता है, अन्यथा भूमिपति उनके फलमें हिस्सेदार होगा। जिन्हें जड़ भौतिक प्रपंचोंसे पृथक् धर्म, परलोक अदृष्टपर भी विश्वास है, वे तो धर्मबुद्धिसे ही कर देना उचित समझते हैं। उसे वे शोषण नहीं समझते। जमींदारी, जागीरदारीके सम्बन्धमें कम्युनिष्ट आदिकी धारणाएँ सर्वथा मिथ्या हैं। राजतन्त्रके अनुसार राजाका ज्येष्ठ पुत्र राजा होता था, शेष पुत्रोंको गुजारेके रूपमें जागीरें मिलती थीं। इस क्रममें बहुत-सी जमींदारियाँ बनीं, संग्राम जीतनेसे पुरस्कारके रूपमें, कुछ मन्दिरों, आचार्यों, विद्वानोंको दानके रूपमें जागीरें मिलीं। बहुतोंने गाढ़े पसीनेकी कमाईसे खरीदकर जमींदारियाँ बनायी हैं। यह सब भूमि भारतीय शास्त्रोंके अनुसार वैध हैं। बहुत-से कर देनेवाले राजा भी जमींदार, ताल्लुकेदार हो गये।
शुक्रनीतिका मत है कि ‘वैध’ स्वामित्व, दातृत्व और धनिकत्व तपस्याका ही फल है। पर-पीड़न एवं शोषणसे होनेवाली धनिकता आदि तो नवीन पाप है, वह तपका फल नहीं। अर्थिता, दासता, दरिद्रता आदि पापका फल है। गुरुजनोंके प्रति दासता और त्यागमूलक दरिद्रता पापका फल नहीं; क्योंकि यह एक नयी तपस्या है—
स्वामित्वं चैव दातृत्वं धनिकत्वं तप:फलम्।
एनस: फलमर्थित्वं दास्यत्वं च दरिद्रता॥
(शुक्रनीतिसार १।१२१)
शुक्रने लिखा है कि प्रतिवर्ष जिसे एक लक्ष मुद्रासे लेकर तीन लक्षतक बिना प्रजापीडनके वैध ढंगसे आमदनी होती है, वह सामन्त कहलाता है—
लक्षकर्षमितो भागो राज्यतो यस्य जायते।
वत्सरे वत्सरे नित्यं प्रजानां त्वविपीडनै:॥
सामन्त: स नृप: प्रोक्तो यावल्लक्षत्रयावधि॥
(शुक्रनीतिसार १।१८२-१८३)
उससे ऊपर दस लक्ष मुद्रातक जिसकी आय हो, वह माण्डलिक राजा है, बीस लाखतक आयवाला राजा और पचास लाख आयवाला महाराजा होता है। करोड़ लाभवाला स्वराट् और दस करोड़वाला सम्राट् कहलाता है। यह सम्राट् राजसूययाजी राजराजसे भिन्न है। पचास करोड़वाला विराट् एवं सप्तद्वीपा मेदिनी जिसके नियन्त्रणमें हो, वह सार्वभौम कहलाता है—
तदूर्ध्वं दशलक्षान्तो नृपो माण्डलिक: स्मृत:।
तदूर्ध्वं तु भवेद् राजा यावद्विंशतिलक्षकम्॥
पञ्चाशल्लक्षपर्यन्तो महाराज: प्रकीर्तित:।
ततस्तु कोटिपर्यन्त: स्वराट् सम्राट् तत: परम्॥
दशकोटिमितो यावद् विराट् तु तदनन्तरम्।
पञ्चाशत्कोटिपर्यन्त: सार्वभौमस्तत: परम्॥
सप्तद्वीपा च पृथिवी यस्य वश्या भवेत् सदा।
(शुक्रनीतिसार १।१८३—१८६)
इनका उपर्युक्त सभी लाभ प्रजाके रक्षण-पोषणके ही काम आता है। जैसे ग्रीष्ममें अंशुमाली सूर्य भूमिसे जलका शोषण करता है, अपने यहाँ जमा रखनेके लिये नहीं, बल्कि वर्षामें मेघद्वारा वर्षणके लिये ही, ठीक वैसे ही प्रजापोषणार्थ ही राजाद्वारा कर-संग्रह है। शुक्रने तो सार्वभौम राजाको भी प्रजाका दास कहा है—
स्वभागभृत्या दास्यत्वे प्रजानां च नृप: कृत:।
ब्रह्मण: स्वामिरूपस्तु पालनार्थं हि सर्वदा॥
(शुक्रनी० १।१८७)
अर्थात् प्रजाके लाभसे षष्ठांश या अष्टमांश यथायोग्य राजाको दिलाकर ब्रह्माने उसे प्रजाके दासत्वमें नियुक्त किया है। सर्वदा प्रजाका सेवन-पालन करना ही राजाका परम कर्तव्य है। अरक्षिता राजा, अतपस्वी ब्राह्मण, अप्रदाता धनवान्को देवता नष्ट करके नीचे गिरा देते हैं।
अपनी आयुको नियन्त्रित करके राजा अपना व्यवहार शास्त्रानुसार ऐसा बनाये, जिससे इहलोक-परलोकमें सुख मिले। यौवन, जीवन, लक्ष्मी, छाया तथा राज्य—ये छ: वस्तुएँ अत्यन्त चंचल होती हैं। अत: इनसे प्रमत्त न होकर सदा धर्मनिष्ठ होना आवश्यक है। आन्वीक्षिकी वेदान्त-विचारसे आत्मसाक्षात्कार करके हर्ष-शोकसे मुक्त होकर त्रयीवेदादि शास्त्रोंके अनुसार आचरण करता हुआ राजा इहलोक-परलोकके सुखका भागी होता है। अनृशंसता प्राणीका परम धर्म है। अत: राजाको चाहिये कि अनृशंसता, मृदुता तथा सरलतासे दीन जनोंका पालन करे। राजाको चाहिये कि वह सदा ही आन्वीक्षिकी वेदादि शास्त्र तथा वार्ता एवं दण्डनीतिका अभ्यास करता रहे। कुसीद, कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य ये वार्ता शब्दसे व्यवहृत होते हैं। सबके प्रति दया, मैत्री और दान एवं मधुर वाणी तीनों लोकमें सर्वोत्कृष्ट आकर्षक गुण हैं। बलवान्, बुद्धिमान्, शूर, सावधान एवं पराक्रमी राजा वित्तपूर्ण महीमण्डलका भोक्ता होता है और वही भूप वास्तवमें भूपति होता है।
कौटल्यने धर्मको ही सुखका मूल माना है और धर्मका मूल अर्थको माना है। एतावता अर्थका मुख्य फल कामोपभोग नहीं, किंतु धर्म ही अर्थका फल है—
‘नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृत:।’
(श्रीमद्भा० १।२।९)
अर्थका मूल राज्य है, परंतु उसका भी मूल इन्द्रिय-जय ही है। उसका भी मूल विनय, विनयके लिये वृद्ध-सेवा और उसके लिये भी ज्ञान-सम्पादन आवश्यक समझा जाता है। प्रत्येक कार्यके लिये उन्होंने समकक्ष विचारकका ही सम्मान आवश्यक समझा है। निर्मत्सर होकर ही विचार करना आवश्यक बताया है।*
* सुखस्य मूलं धर्म:। धर्मस्य मूलमर्थ:। अर्थस्य मूलं राज्यम्। राज्यमूलमिन्द्रियजय:। इन्द्रियजयस्य मूलं विनय:। विनयस्य मूलं वृद्धोपसेवा। वृद्धसेवाया विज्ञानम्। विज्ञानेनात्मानं सम्पादयेत्। धर्मेण धार्यते लोक:। मानी प्रतिमानिनमात्मनि द्वितीयं मन्त्रमुत्पादयेत्। मन्त्रकाले न मत्सर: कर्तव्य:। (चाणक्यसूत्र)
हर कार्यमें लौकिक प्रयत्नके अतिरिक्त दैवका भी हाथ रहता है, अत: दैवकी अनुकूलता बिना सब प्रयत्न व्यर्थ होते हैं। दैव बिना सुसाध्य कार्य भी दु:साध्य होते हैं। देवताराधनसे दैवप्रतिकूलता दूर की जाती है। सत्पुरुषोंका मत अतिक्रमणीय नहीं होता। सुवृत्तता शत्रुको भी जीत लेती है, किसीका अपमान नहीं करना चाहिये। फलद्वारा प्रजानुराग सूचित होता है।१ सारा ऐश्वर्य प्रज्ञाका ही फल है, धैर्यहीन प्राणी महान् ऐश्वर्यको प्राप्त करके भी नष्ट हो जाता है। दया धर्मकी जन्मभूमि है, अधर्मबुद्धि आत्मनाशकी सूचना है। भले ही वस्तु सब अनित्य ही हो, तथापि अपनेको अमर ही मानकर अर्थार्जन करना चाहिये।२ पर-द्रव्यमें राग और उसका अपहरण आत्मनाशका मूल है। व्यवहारमें पक्षपात न करना चाहिये। परायत्त वस्तुमें उत्कण्ठा न करनी चाहिये। विश्वासघातीका कोई प्रायश्चित्त नहीं। सभी अनित्य है।
१. दैवं विनातिप्रयत्नमपि करोति यत्तद्विफलम्। दैवहीनं कार्यं सुसाध्यमपि दुस्साध्यं भवति। दैवकर्मणा तत्समाधानम्। सतां मतं नातिक्रमेत। शत्रुं जयति सुवृत्तता। कदापि पुरुषं नावमन्येत। अनुरागस्तु फलेन सूच्यते।
२. प्रज्ञाफलमैश्वर्यम्। महदैश्वर्यं प्राप्य अधृतिमान् विनश्यति। दया धर्मस्य जन्मभूमि:। आत्मनाशं सूचयति अधर्मबुद्धि:। अमरवदर्थजातमर्जयेत्। परविभवेष्वादरोऽपि नाशमूलम्। परद्रव्यापहरणमात्मद्रव्यनाशहेतु:। अधनस्य बुद्धिर्न विद्यते। यथा कुलं तथाचार:। व्यवहारे पक्षपातो न कार्य:। परायत्तेषु उत्कण्ठा न कुर्यात्। विश्वासघातिनो न निष्कृति:। सर्वमनित्यं भवति।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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