7.15 भूमि-कर
निष्कर्ष यह है कि धर्मनियन्त्रित राज्यतन्त्र एक शुद्ध शास्त्रीय सुव्यवस्था है। उसी व्यवस्थामें रामचन्द्र, हरिश्चन्द्र, दिलीप, शिबि, रन्तिदेव आदि लोकप्रिय आदर्श राजर्षि हुए हैं। वे भी योग्य मन्त्रियों, नि:स्पृह सभ्योंकी सभामें कार्याकार्यका विचार करके प्रजाहितार्थ स्वसर्वस्वकी बाजी लगानेके लिये हर समय प्रस्तुत रहते थे। पर लोलुपलोग उनकी शासन-सभाओंके सभ्य भी नहीं हो सकते थे। व्यवहारवेत्ता, प्राज्ञ, वृत्तशील, गुणान्वित, शत्रु-मित्रमें समान बुद्धि रखनेवाले, निरालस्य, धर्मज्ञ एवं सत्यवादी, काम, क्रोध, लोभको जीतनेवाले, प्रियंवद, वृद्ध सभ्य ही उन शासन-सभाओंके सभ्य होते थे और वे विभिन्न जातिके होते थे—
व्यवहारविद: प्राज्ञा वृत्तशीलगुणान्विता:।
रिपौ मित्रे समा ये च धर्मज्ञा: सत्यवादिन:॥
निरालसा जितक्रोधकामलोभा: प्रियंवदा:।
राज्ञा नियोजितव्यास्ते सभ्या: सर्वासु जातिषु॥
(शुक्रनी० ४।५३९-५४०)
उन्हें वर्गों तथा जातियोंका मिटाना अभीष्ट न था; किंतु योग्य एवं एक-दूसरेका पूरक—पोषक बनानेका ही प्रयत्न होता था। वेदमन्त्रके आधारपर राष्ट्रमें ब्रह्मवर्चस्वी ब्राह्मण, शूर, धनुर्धर, महारथी एवं लक्ष्यवेधी क्षत्रिय, दोग्ध्री गौ तथा भारवहन-समर्थ बलवान् वृषभ, शीघ्रगामी अश्वोंकी कामना की जाती थी। पतिगृहमें कुलपालिनी पतिव्रता स्त्री, विजयी प्रियदर्शी सभ्य युवक, यथेष्ट वृष्टि, फलयुक्त ओषधियों तथा योगक्षेमकी कामना की जाती थी—
आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्य: शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशु: सप्ति: पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठा: सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे न: पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधय: पच्यन्तां योगक्षेमो न: कल्पताम्॥ (शु० यजु० २२।२२)
राज्य-कर न केवल भूमिपर किंतु किसी प्रकारके आयपर भी लगानेका नियम अति प्राचीन है। क्रय-विक्रयके करको शुल्क नामसे कहा जाता है—
विक्रेतृक्रेतृतो राजभाग: शुल्कमुदाहृतम्।
शुल्कदेशा हट्टमार्गा: करसीमा: प्रकीर्तिता:॥
वस्तुजातस्यैकवारं शुल्कं ग्राह्यं प्रयत्नत:।
क्वचिन्नैवासकृच्छुल्कं राष्ट्रे ग्राह्यं नृपैश्छलात्॥
द्वात्रिंशांशं हरेद्राजा विक्रेतु: क्रेतुरेव वा।
विंशांशं वा षोडशांशं शुल्कं मूलाविरोधकम्॥
न हीनसममूल्यादि शुल्कं विक्रेतृतो हरेत्।
लाभं दृष्ट्वा हरेच्छुल्कं क्रेतृतश्च सदा नृप:॥
(शुक्रनीति, अध्याय ४।२१८-२२१)
बेचने-खरीदनेवालोंद्वारा देय राजभाग ही चुंगी या शुल्क है। बाजारों या देशोंकी सीमापर चुंगीघर होना चाहिये। एक वस्तुकी एक ही बार चुंगी या कर लेना उचित है। छल-छद्मसे अनेक बार चुंगी लेना अनुचित है। विक्रेता या क्रेतासे वस्तुका ३२वाँ भाग शुल्करूपमें ग्रहण करे अथवा लाभांशसे बीसवाँ या सोलहवाँ भाग ले। घाटावालेसे कुछ भी कर नहीं लेना चाहिये। खेतीके करोंके सम्बन्धमें भी शुक्रने लिखा है कि राजभाग एवं व्यय आदिकी अपेक्षा कम-से-कम दुगुना लाभ खेतीसे होना चाहिये। अन्यथा खेती दु:ख ही है—
राजभागादिव्ययतो द्विगुणं लभ्यते यत:।
कृषिकृत्यं तु तच्छ्रेष्ठं तन्न्यूनं दु:खदं नृणाम्॥
(शुक्र० ४।२२४)
मालाकार अथवा मधुमक्षिका जैसे पुष्पस्तबक आदिको नुकसान पहुँचाये बिना सार-संग्रह करके पुष्पमाला और मधु निर्मित कर लेती है, वैसे ही प्रजाको नुकसान पहुँचाये बिना राजाको कर ग्रहण करना चाहिये। अंगारकार जैसे वृक्षोंको काटकर कोयला बनाता है, उस प्रकार प्रजाको नष्ट करके शुल्क-संग्रह नहीं करना चाहिये—
मालाकार इव ग्राह्यो भागो नाङ्गारकारवत्।
बहुमध्याल्पफलत: तारतम्यं विमृश्य च॥
(शुक्रनी० ४।२२३)
तड़ाग, वापी, कूपसे तथा मेघजलसे, नदीजलसे जहाँ खेतकी सिंचाई हो, वहाँ-वहाँ लाभका तृतीय-चतुर्थ तथा आधा भाग क्रमसे लेना चाहिये। ऊषर या पत्थरवाली भूमिसे षष्ठांश ग्रहण करना चाहिये। राजाको जिस किसानसे १०० मुद्रा मिलती हो, उसमेंसे किसानके लिये राजा बीसवाँ भाग छोड़ दे—
तडागवापिकाकूपमातृकादेवमातृकात्।
देशान्नदीमातृकात्तु राजानुक्रमत: सदा॥
तृतीयांशं चतुर्थांशमर्धांशं तु हरेत्फलम्।
षष्ठांशमूषरात्तद्वत् पाषाणादिसमाकुलात्॥
राजभागस्तु रजतशतकर्षमितो यत:।
कर्षकाल्लभ्यते तस्मै विंशांशमुत्सृजेन्नृप:॥
(शुक्र० ४।२२५-२२७)
गौतमने लाभका दसवाँ, आठवाँ या छठा भाग राज्यांश माना है। खेतोंकी भिन्नतासे यह भेद मान्य है। पशु एवं हिरण्यकी वृद्धिमें पचासवाँ भाग राजाको मिलना चाहिये—
राज्ञे बलिदानं कर्षकैर्दशममष्टमं षष्ठं वा।
पशुहिरण्ययोरप्येके पञ्चाशद्भागम्॥
(गौ० सू० १०।१४-१५)
‘ये पशुभिर्जीवन्ति ये वा हिरण्यप्रयोक्तारो वार्धुषिका: तै: पञ्चाशत्तमो भागो राज्ञे देय: इत्येके। तद्यथा—यस्य पञ्चाशत्पशव: सन्ति स प्रतिसंवत्सरमेकं पशुं राज्ञे दद्यात्। यस्य वा पञ्चाशन्निष्कैर्वृद्धिप्रयोग: स प्रतिवत्सरमेकैकं निष्कं राज्ञे बलिरूपेण दद्यादिति।’ (गौ० ध० सू० मस्करी भाष्य)
विक्रय-लाभमें बीसवाँ भाग राजाका है—
‘विंशतिभाग: शुल्क: पण्ये’ (गौ० १०।१६)
‘यद् वणिग्भिर्विक्रियते तत्पण्यम्, तत्र विंशतिसमो भागो राज्ञे देयस्तस्यैव दीयमानस्य शुल्क इति संज्ञा। शुल्कप्रदेशा: प्रतिभाव्यं वणिक्शुल्कमित्यादय:।’ (मस्क० भा०)
मूल, फल, फूल, औषध, मधु, मांस, तृण, ईंधनोंके लानेका छठा भाग राजाको देना चाहिये—
‘मूलफलपुष्पौषधमधुमांसतृणेन्धनानां षष्ठ:’ (गौ० १०।१७)
‘मूलं हरिद्रादि, फलम् आम्रादि, पुष्पम् उत्पलादि, औषधं बिल्वादि, शिष्टानि प्रसिद्धानि एतेषु पण्येषु षष्ठो भागो राज्ञे देय: विक्रेत्रा।’ (मस्क० भा०)
करग्रहणमें तत्परता आवश्यक है—‘तेषु तु नित्ययुक्त: स्यात्।’
(गौ० सू० १०।१८)
‘बल्यादानेषु सर्वदा सत्यपि कार्यव्यग्रत्वे तत्परो भवेत्। तु शब्दो विशेषवाची। धर्मादनपेतेष्वन्येष्वपि द्रव्यार्जनोपायेषु तत्परो भवेत्। अत्र विशेषत इति।’ (मस्क० भा०)
शिल्पीलोग महीनेमें एक दिन काम कर दें, वही उनका कर है—‘शिल्पिनो मासि मासि एकैकं कर्म कुर्य:।’ (१०।२०)
‘शिल्पिनो लोहकारादयो मासि मासि एकैकम् अह: आत्मानुरूपं राज्ञ: कर्म कुर्यु:। तदेव तेषां शुल्कम्। नान्यत् किञ्चित्।’ (मस्क०भा०)
नट-नर्तकादि भी महीनेमें एक दिन राज्यकर्म करें; अन्यथा महीनेमें एक रजत मुद्रा दें—‘एतेनात्मोपजीविनो व्याख्याता:’ (गौ० सू० १०।२१)
‘आत्मोपजीविनो नटनर्तकादय:। तेऽप्येकमह राज्ञ: कर्म कुर्युरिति उशना। शिल्पिनो मासि मासि कर्मैकं प्रोक्तम्। तदभावे कार्षापणं वा दद्यात्॥’ (म० भा०)
सोना-चाँदीमें उपर्युक्त क्रम ही समझना चाहिये। ताम्रमें तृतीयांश छोड़े। लोह, बंग एवं सीसेकी उत्पत्तिमें चतुर्थांश एवं छठा भाग छोड़ना चाहिये—
स्वर्णादथ च रजतात्तृतीयांशं च ताम्रत:।
चतुर्थांशं नु षष्ठांशं लोहाद् बङ्गाच्च सीसकात्॥
(शु० नी० ४।२२८)
नाविक, कुम्भकार, बढ़ई, नाई, ब्याध आदि महिनेमें एक दिन काम करें अथवा उन्हें भी एक रजत मुद्रा देना चाहिये—‘नौचक्रीवन्तश्च’ (गौ० १०।२२)
‘चक्रं शकटम्, नौचक्राभ्यां य उपजीवन्ति बहुवचनाद् वर्धकिनापितादयो ग्राह्या:। चकाराद् वन्यमृगघातकादय:।’ (मस्क० भा०)
परंतु काम करनेवालोंको भत्ता राज्यसे मिलना चाहिये—‘भक्तं तेभ्यो दद्यात्।’ (गौ० १०।२३)
तेभ्य: शिल्पिप्रभृतिभ्यो राजा भक्तं दिवा भोजनं दद्यात्। (म० भा०)
राजाको अरिषड्वर्गको जीतकर इन्द्रियजय करके परस्त्री, परद्रव्य एवं हिंसाका वर्जन करना चाहिये तथा अर्थके अविरोधेन काम-सेवन करना चाहिये। जहाँ संस्था या धर्मशास्त्रसे शास्त्र तथा व्यवहारका विरोध हो, वहाँ धर्मशास्त्रके अनुसार अर्थशास्त्रका निर्णय करना चाहिये—
तस्मादरिषड्वर्गत्यागेनेन्द्रियजयं कुर्वीत। एवं वश्येन्द्रिय: परस्त्रीद्रव्यहिंसाश्च वर्जयेत्। धर्मार्थाविरोधेन कामं सेवेत।
संस्थया धर्मशास्त्रेण शास्त्रं वा व्यावहारिकम्।
यस्मिन्नर्थे विरुध्येत धर्मेणार्थं विनिर्णयेत्॥
(कौट० अर्थ० १।७।१, ३, ६; ३।१५६)
इसी प्रकार रत्न, लवणकी उत्पत्तिपर खानका खर्च काटकर आधा छोड़ना चाहिये। कर्षकको अधिक लाभ हो तो उसके अनुसार यथायोग्य तृतीय, पंचम, सप्तम या दशम भाग ग्रहण करना चाहिये। बकरी, भेड़, भैंस, घोड़ाकी वृद्धिमें अष्टमांश ग्रहण करना चाहिये। भैंस, बकरीके दूधका सोलहवाँ भाग ग्रहण करना चाहिये। गाय आदिका दूध, अन्न, फल जो कुटुम्बके खाने-पीने लायक ही हो, उससे कर नहीं लेना चाहिये। उपभोगके लिये खरीदे गये अन्न-वस्त्रोंपर भी कर नहीं होना चाहिये—‘गवादिदुग्धान्नफलात् कुटुम्बार्थाद्धरेन्नृप:। उपभोगो धान्यवस्त्रक्रेतृतो नाहरेत्फलम्॥’ जहाँ राजतन्त्र शासन नहीं है, वहाँ भी संसद्, कार्यपालिका, राष्ट्रपति या प्रधान मन्त्रियोंको भी धर्मनियन्त्रित होकर ही शास्त्रों तथा परम्पराके अनुसार कार्य करना चाहिये। प्रजा-पोषणके अनुकूल कार्य करना चाहिये। शास्त्रोंकी दृष्टिमें भौतिक भावनाओंद्वारा युगप्रवर्तन नहीं होता, किंतु धर्मात्मा, पराक्रमी, बुद्धिमान् राजासे ही युगप्रवर्तन होता है। राजा ही कालका कारण होता है, सत् तथा असत् गुणोंका भी प्रवर्तक राजा होता है। कठोरता एवं दण्डके द्वारा राजा ही प्रजाको धर्ममें प्रतिष्ठित करता है। अधर्मके कारण वेन आदि राजा नष्ट हो गये। धर्मसे पृथुकी वृद्धि हुई, अत: धर्मको पुरस्कृत करके ही राजाको काम करना चाहिये—
कालस्य कारणं राजा सदसत्कर्मणस्त्वत:।
स्वक्रौर्योद्यतदण्डाभ्यां स्वधर्मे स्थापयेत्प्रजा:॥
वेनो नष्टस्त्वधर्मेण पृथुर्वृद्धस्तु धर्मत:।
तस्माद्धर्मं पुरस्कृत्य यतेतार्थाय पार्थिव:॥
(शुक्र० १।६०,६९)
राजाका कर्तव्य है कि दण्ड, विष्टि, करके बोझसे संकटग्रस्त कृषिकी रक्षा करे। डाकू, सर्प तथा दूसरी विषैली वस्तुओं तथा व्याधियोंसे पशुओंको बचाये। अपने प्रिय कर्मचारियों, सीमारक्षकों, डाकू तथा बनैले पशुओंसे क्षीयमाण व्यापारियोंकी रक्षा करे। कौ० अर्थ० (२।१।४५) मात्स्यन्यायसे पीड़ित प्रजाने सर्वप्रथम वैवस्वत मनुको राजा बनाया तथा धान्यका छठा एवं पण्यका बीसवाँ भाग उस राजाको देना निश्चित किया था।
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘भूमिपर वसूल किये जानेवाले करद्वारा ही भूमिके मालिककी आमदनी होती है और इसी करद्वारा खेतीके लिये मेहनत करनेवाले किसानका शोषण होता है। इसलिये करके अनेक रूपों और भेदोंको समझ लेना जरूरी है।’
‘खेतीकी सम्पूर्ण भूमिपर कर होता है। यह कर या लगान कहीं अधिक होता है कहीं कम। यदि भूमिके सबसे कम करको ‘आवश्यक कर’ (ऐब्सोल्यूट रेन्ट) मान लिया जाय तो अधिक उपजाऊ या शहरके समीपकी भूमिपर जो अधिक कर वसूल किया जाता है, उसे ‘विशेषकर’ (डिफरेंसल रेन्ट) कहा जायगा। भूमिके प्रत्येक टुकड़ेपर कुछ-न-कुछ कर होनेका कारण यह है कि पैदावारके औद्योगिक साधनोंको जिस प्रकार शहरसे दूर आवश्यकतानुसार बढ़ाया जा सकता है, नजदीक इस प्रकार नहीं बढ़ाया जा सकता। उन उपजाऊ या शहरसे दूरकी भूमिको छोड़कर उपजाऊ और शहरकी भूमि आवश्यकतानुसार तैयार नहीं की जा सकती। इसलिये भूमिके किसी भी टुकड़ेको जोतनेकी आवश्यकता होनेपर उसपर कर देना ही पड़ेगा। जो भूमि अधिक उपजाऊ होगी या शहरके अधिक समीप होगी, जहाँ सिंचाई आसानीसे हो सके, ऐसी भूमिपर विशेष लगान या कर वसूल किया जाता है। इस प्रकारकी अच्छी जमीनपर जो विशेष कर या लगान वसूल किया जाता है, वह भूमिके मालिकके जेबमें ही चला जाता है, परंतु भूमिको अच्छी बनाने या भूमिके शहर या जलके समीप होनेमें भूमिके मालिकको कुछ परिश्रम नहीं करना पड़ता।’
‘सभी पूँजीवादी देशोंमें भूमिके दो मालिक होते हैं। प्रथम तो सरकार, जो खेतीके काम आनेवाली भूमिके प्रत्येक टुकड़ेपर कर या मालगुजारी लगाती है। दूसरा मालिक होता है भूमिका मालिक समझा जानेवाला व्यक्ति, जो भूमिका कर सरकारको अदा कर उसे किसानसे जुतवाता है और अपना लगान किसानसे वसूल करता है। सरकारी कर और जमींदारी लगान अदा किये जाते हैं खेतीकी उपजसे; परंतु खेतीकी उपजमें न तो जमींदार न सरकार ही कुछ परिश्रम करती है। परिश्रम सब करता है किसान और किसानके परिश्रमसे की गयी पैदावारसे जमींदार और सरकारका भाग निकाला जाता है। यदि किसानके परिश्रमको बाँटकर देखा जाय तो उसके दो भाग हो जाते हैं। एक भाग वह जिसे वह स्वयं खर्च करता है, ताकि उसके शरीरमें परिश्रमकी शक्ति कायम रह सके और दूसरा भाग वह, जिसे भूमिका मालिक किसानसे ले लेता है और आगे सरकारको कर देता है। किसान अपनी सम्पूर्ण उपज अपने लिये पैदा करता है। यदि किसान जितना अपने और अपने परिवारके लिये खर्च करता है, उतना ही पैदा करे तो उसे बहुत कम स्थानपर खेती करनी होगी और बहुत कम परिश्रम करना होगा। वर्तमान व्यवस्थामें किसानको जितना वह खर्च करता है, उससे बहुत अधिक पैदा करना पड़ता है। मजदूरकी अवस्थाके साथ तुलना करनेपर हम कहेंगे कि किसानको काफी मात्रामें अतिरिक्त या फालतू पैदावार करनी पड़ती है, जो जमींदार और सरकारके व्यवहारमें आती है।’
पूर्वोक्त विवेचनसे यह स्पष्ट है कि शासनसार राजा, करद राजा, गुजारेदार, इमानदार या दानदार आदि भूमिके अधिकारी कई ढंगके होते हैं। करद राजा तथा सामन्त आदि प्रजासे कर लेते हैं और स्वयं भी राजाको कर देते हैं। यही लगान मालगुजारी आदि रूपसे प्रसिद्ध होता है। जैसे मनुष्य अपनी कमाईका हकदार होता है, वैसे ही पिता-पितामह आदिकी कमाईका भी हकदार होता है। पिता-पितामह आदिकी सम्पत्ति पुत्रादिको दायके रूपमें प्राप्त होती है—‘दीयते पित्रा पुत्रेभ्य: स्वस्य यद्धनं तद्दायम्’—पिताद्वारा अपने पुत्रको जो धन दिया जाता है, वह दाय कहलाता है। उसमें ज्येष्ठ कनिष्ठ आदि भेदसे पुत्रोंको भिन्न-भिन्नरूपसे दाय मिलता है। विद्या एवं कर्ममें संलग्नको अन्य पुत्रोंसे अधिक मिलना चाहिये—‘विद्याकर्मरतस्तेषामधिकं लब्धुमर्हति’ (बृह० स्मृ० गा० २६।१९) यह भी एक पक्ष है कि ज्येष्ठ ही पिताके धनका मालिक हो, शेष भ्राता पितृतुल्य मानकर उसीका अनुसरण करें—
ज्येष्ठ एव तु गृह्णीयात् पित्र्यं धनमशेषत:।
शेषास्तमुपजीवेयुर्यथैव पितरं तथा॥
(मनु० ९।१०५)
कम्युनिष्टोंके सम्पूर्ण तर्कोंका एकमात्र आधार है—बाप-दादाकी सम्पत्तिमें पुत्रादिकोंका बपौती अधिकार न मानना, परंतु यह तर्कों, शास्त्रों तथा व्यवहार एवं परम्पराओंसे सर्वथा विरुद्ध है। व्यक्तिगत भूमि, सम्पत्ति, खानों-कारखानोंको न माननेसे सब कामोंका अधिकारी काम करनेवाला ही हो सकता है, परंतु दूसरोंके खेती करने, दूसरोंकी पूँजीसे वस्तु बनाने, दूसरोंके वृक्षोंसे फल तोड़ने वा संग्रह करनेपर भी फललाभका भागी केवल काम करनेवाला नहीं हो सकता। उसे परिश्रमका फल कुछ वेतन अवश्य मिल सकता है। हाँ, यदि वह खेतको खरीदकर या पूँजी उधार लेकर वस्तु बनाता है, वृक्षोंको खरीदकर या ठेकापर ले लेता है, तब अवश्य वह लाभका भागी हो सकता है।
पिछले प्रकरणोंमें भूमि-सम्पत्ति आदिपर व्यक्तिगत वैध अधिकार दिखलाया जा चुका है। मजदूरोंके श्रममें जैसे दो भेद निरर्थक एवं निराधार हैं, वैसे ही किसानोंकी भी दो प्रकार श्रमकल्पना निरर्थक एवं निराधार है। खेती करके अन्न आदि पैदा करनेका परिश्रम अभिन्न ही है। वह उसमेंसे ही कुछ अंशसे कर चुकाता है, कुछ अंशसे अपनी जीविका चलाता है। हाँ, कर अधिक होनेकी शिकायत हो सकती है। उसके औचित्यका निर्णय निष्पक्ष सरकार या न्यायालय अथवा पंचायतद्वारा किया जाना उचित हो सकता है। पैदावार किसानसे छीनी नहीं जाती, किंतु भूमि-मालिक और किसानके समझौतेसे स्वयं किसान ही करके रूपमें देता है। किसानने कर देना स्वीकार करके ही खेती करना आरम्भ किया है। जैसे कोई कम्युनिष्ट राज्य ही किसी राज्यसे कोई भूमि या कारखाना अमुक वस्तु देनेके शर्तपर लिया हो तो वह अपनी शर्तके अनुसार देगा ही; उस देनेको लेनेवालेद्वारा छिनना नहीं कहा जायगा। इसी तरह यह भी समझ लेना चाहिये कि खेतीमें उत्पन्न होनेवाली वस्तु भी केवल श्रमका फल नहीं है, किंतु श्रमविशिष्ट भूमिका ही फल है। अत: कुछ फल श्रमवालेको मिलना चाहिये और कुछ भूमिपतिको भी अवश्य मिलना चाहिये। यदि किसानोंको व्यक्तिगत खेती करनेकी छूट होगी, तब तो कम्युनिष्ट राज्योंको भी राज्य-व्यवस्थाके लिये भूमिसे कुछ-न-कुछ कर लेना ही पड़ेगा। यदि वहाँ व्यक्तिगत खेती न होकर सरकारी ही खेती होगी, तब भी राज्यव्यवस्थाके लिये कुछ-न-कुछ अंश निकालना ही पड़ेगा। परिश्रमवालोंको ही सब फल दे देना सम्भव नहीं; क्योंकि फलमें परिश्रमकी अपेक्षा भूमि और बीजका प्रमुख हाथ है। परिश्रम और भूमिकी अपेक्षा भी भूमिका अधिक महत्त्व है। एक-एक बीजके बदले सैकड़ों-सैकड़ों बीज भूमिके अंशसे बनते हैं। कहीं-कहीं जल और खाद आदिका भी दाम देना पड़ता है; क्योंकि उनका भी उत्पादनमें हाथ होता है। इन वस्तुस्थितियोंको समझकर ही किसान सहर्ष कर देता है और वह छीना-झपटीके कम्युनिष्ट आन्दोलनसे पिण्ड छुड़ानेके लिये भी प्रयत्न करता है।
अपने देश या विदेशके लिये कच्चा माल दाम लेकर ही किसान देता है। दामके औचित्य-अनौचित्यका निष्पक्षतासे विचार करनेके लिये तो सदा ही द्वार खुला रहना चाहिये। भूमिपर कर घटने-बढ़नेकी व्यवस्था लाभपर ही निर्भर करती है। यदि कल-कारखानोंके लिये किसी वस्तुकी अधिक माँग हुई तो उस वस्तुका दाम भी अधिक बढ़ेगा। तब जैसे श्रमका दाम बढ़ जायगा, वैसे ही भूमिका भी दाम बढ़ जाना उचित ही है। हाँ, जहाँ श्रमकी अधिकतासे ही उत्पादन बढ़ा है, जैसे उसी पड़ोसकी, उसी ढंगकी भूमिसे परिश्रम कम होनेसे कम फल हुआ, परिश्रम अधिक होनेसे प्रकृत भूमिमें उत्पादन अधिक हुआ है, तो उस अधिक फलको परिश्रमका ही फल मानना चाहिये।
यदि सिंचाईका प्रबन्ध भूमिके मालिकने किया है तो अवश्य ही उसके अनुपातसे भूमिका कर बढ़ना उचित है। यदि किसानने ही कूप आदि बनाये हैं तो उसका फल किसानको ही प्रधानरूपसे मिलना चाहिये। सरकारी विभागमें या किसी अन्य ठेकेदारने अगर नहर आदिका प्रबन्ध किया है तो वह सिंचाई-कर आदि भी लेगा। फिर भी कर देनेवालेको ही उसका फल भोगना उचित है। धर्मनियन्त्रित शासनका यह कर्तव्य है कि भूमिपतिकी आयके पाँचवें अंशसे, जो कि अर्थके ही लिये है तथा अन्य सहायताओंसे खेतीके सुधारकी व्यवस्था करे। असाधु, कर्तव्यविमुख लोगोंकी अधिक सम्पत्तिका अपहरण कर तथा कर्ज लेकर भी खेती-सुधारकी व्यवस्था हो सकती है। बढ़नेवाली आमदनीके आधारपर कर्ज चुकाया जा सकता है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें