7.16 कृषकका अतिरिक्त श्रम और भूमि-कर
मार्क्सवादी कहते हैं—‘किसानसे छीन ली जानेवाली यह अतिरिक्त पैदावार किसानको इस योग्य नहीं रहने देती कि जितने दामकी फसल वह बाजारमें भेजता है, उतने दामका दूसरा सौदा बाजारसे लेकर खर्च कर सके। किसानके श्रमका यह फल या धन भूमिके मालिकोंकी जेबमें चला जाता है और वहाँसे पूँजीपतियोंके जेबमें। अथवा भूमिके मालिक स्वयं ही पूँजी इकट्ठी हो जानेपर उसे पूँजीवादियोंके व्यवसायोंमें सूदपर या पत्ती (साझेदारी हिस्सा)-के रूपमें लगा देते हैं। अतिरिक्त श्रमके रूपमें किसानका यह शोषण जिसे भूमि-कर या लगान कहा जाता है, किसानद्वारा की जानेवाली पैदावारमें लगा हुआ एक पम्प है, जो किसानके पास सिवा उसके परिश्रमकी शक्तिको कायम रखनेके और कुछ नहीं छोड़ता। किसानके संगठित न होने और अपने अधिकारके लिये आवाज न उठा सकनेके कारण उसके पास अपने परिश्रमका उतना भाग भी नहीं रह पाता, जितनेसे वह परिश्रम करने लायक स्वस्थ अवस्थामें रह सके। यह प्रत्यक्ष बात है कि इस देशका किसान न केवल इस देशके लिये बल्कि अनेक देशोंके उद्योग-धन्धोंके लिये कच्चा माल पैदा करनेके बावजूद स्वयं आधा पेट खाकर और शरीरसे प्राय: नंगा रहकर निर्वाह करता है। उसकी सम्पूर्ण पैदावार अतिरिक्त श्रम या पैदावारका रूप धारणकर इस देश तथा दूसरे देशके पूँजीपतियोंकी जेबमें चली जाती है। प्रत्यक्षमें किसानकी अतिरिक्त पैदावार उससे छीन लेनेको ही भूमि-करका नाम दिया जाता है।’
‘पूँजीवादके विकाससे भूमि-कर बहुत तेजीसे बढ़ता है; क्योंकि नये-नये उद्योगधन्धे जारी होनेसे नयी-नयी किस्मकी वस्तुएँ पैदा करनी पड़ती हैं, इसके लिये नयी भूमि तोड़ी जाती है, जो नयी भूमि तोड़ी जायगी, उसपर भी कर लगेगा। पूँजीपति या भूमिका मालिक नयी भूमि उसी समय तोड़ेगा, जब वह पहलेसे उपयोगमें आनेवाली भूमिपर लगनेवाले लगानको अधिक समझेगा। नयी भूमि तोड़नेसे पहले खेतीके काममें आनेवाली भूमिके लगानका दर बढ़ेगा और जब बढ़ा हुआ दर देनेकी अपेक्षा कोई व्यक्ति नयी भूमि तोड़ना ही पसन्द करेगा, तभी नयी भूमि तोड़ी जायगी। इस प्रकार भूमिके प्रत्येक नये भागको तोड़नेसे पहले, जोती जानेवाली पुरानी और अच्छी भूमिपर लगान बढ़ता चला जायगा और वह इस हदतक बढ़ेगा कि किसानके पास कठिनतासे निर्वाहमात्रके लिये उसके परिश्रमका एक बहुत छोटा-सा भाग रह जायगा।’
‘यदि भूमिके किसी भागकी पैदावारकी शक्ति सिंचाई आदिका प्रबन्ध करके बढ़ायी जाती है तो उसका लगान भी साथ ही बढ़ जाता है और पैदावारमें होनेवाली बढ़ती सब मालिकके पास पहुँच जाती है। किसानके परिश्रमका बहुत बड़ा भाग अतिरिक्त श्रम या भूमिके लगानकी सूरतमें उससे छीन लिये जानेके कारण ये किसानके पास अपनी भूमिकी अवस्था सुधारने या खेतीके नये वैज्ञानिक साधन व्यवहारमें लाने योग्य सामर्थ्य नहीं रहती और भूमिकी उपज घटने लगती है। परंतु लगान तथा करके पूँजीवादके साथ बढ़ते जानेके कारण भूमिकी कीमत बढ़ती जाती है। खेतीकी अवस्थामें यह अन्तर्विरोध संकट पैदा कर देता है। ऐसी अवस्थामें किसानोंके लिये भूमिके मालिकके सन्तोषके लायक लगान देना कठिन हो जाता है और किसान खेती करनेका काम छोड़ निर्वाहका कोई साधन और न देख मजदूर बननेके लिये चल देता है। उसकी ‘जोत’ की भूमि बिकने लगती है, परंतु भूमिका दाम तो लगानके बढ़नेके साथ बढ़ चुका है, इसलिये मामूली साधनोंके मालिकके लिये उसे खरीदना सम्भव नहीं होता। वह बिकती है बड़े-बड़े पूँजीपतियोंके हाथ। इस प्रकार पैदावारके दूसरे साधनोंकी ही तरह भूमि भी पूँजीपतियोंके हाथ चली जाती है।’
खेतीकी पैदावार बड़े परिमाणमें खेती करनेसे अवश्य अधिक बढ़ सकती है और तदर्थ सहकारिताके आधारपर सम्मिलित खेती होना अनुचित नहीं। यह पीछे कहा जा चुका है कि लगान या करकी दर मनमानी ढंगसे नहीं होनी चाहिये। यदि किसान और जमींदारके आपसी समझौतेसे उचित दरका निश्चय न हो तो निष्पक्ष पंचायत या अदालतोंद्वारा दरका निश्चय होना उचित है। किसी भी अनुचित कार्यको रोकनेके लिये सरकारी हस्तक्षेप भी अनिवार्यरूपसे मान्य है। कच्चे मालका भी उचित दाम किसानको मिलना चाहिये। संक्षेपमें राष्ट्रद्वारा निर्धारित नागरिक जीवनस्तरके अनुकूल प्रत्येक नागरिककी आयकी व्यवस्था होनी चाहिये। जीविकाके सभी साधनोंमें खेती, वाणिज्य, मजदूरी आदिके उक्त दृष्टिकोणको ध्यानमें रखना आवश्यक है। साथ ही इसे भी भूलना न चाहिये कि व्यक्तिगत हानिका भय तथा लाभका लोभ जितना प्राणीको प्रमाद एवं आलस्यसे बचाकर कार्यपरायण बनाता है, उतना दूसरे हेतु नहीं। जहाँ सरकारी तौरपर वैतनिक कर्मचारियोंद्वारा काम होते हैं, वहाँकी लापरवाही तथा भ्रष्टाचार अवर्णनीय होता है। भारतके प्रथम पंचवर्षीय योजनानुसारी बाँधों आदिमें भीषण भ्रष्टाचारके उदाहरण विद्यमान हैं। फिर जहाँ वेतनकी व्यवस्था नहीं है, केवल निर्वाह-सामग्री ही मिलनेकी बात होती है, वहाँ तो और भी अधिक लापरवाही होती है।
सामूहिक कामोंके प्रति ईमानदारोंकी भी सामान्य ही प्रवृत्ति होती है। शक्तिचोरोंका तो कहना ही क्या है? प्रसिद्ध है—
‘न गणस्याग्रतो गच्छेत् सिद्धे कार्ये समं फलम्।
यदि कार्यविपत्ति: स्यान्मुखरस्तत्र हन्यते॥’
(हितो० १।२९)
कल्याण चाहनेवालेको गणका अग्रगामी नहीं बनना चाहिये; क्योंकि कार्य सिद्ध होगा तो समान ही फल मिलेगा और यदि कार्यमें बाधा पड़ी तो मुखियाको ही संकटमें पड़ना होगा। इन्हीं कारणोंसे अक्टूबर (१९५५)-के किसी अंकमें ‘प्रवदा’ ने कुछ रूसी मन्त्रियोंकी लापरवाहीकी शिकायत की थी। इसके अतिरिक्त स्वतन्त्रता भी कोई वस्तु है। अपने इच्छानुसार अन्न, गन्ना, विविध फल आदि पैदा करना, फिर उसका अपने इच्छानुसार उपयोग करना सरकारी खेतीमें सम्भव नहीं। अत: कोई भी किसान उसे पसन्द नहीं कर सकता। अधिक क्या, पक्षी भी स्वतन्त्रतापूर्वक खट्टे फल खाना, खारा पानी पीकर जीवन व्यतीत करना ही ठीक मानता है। वह सुवर्ण-पिंजरमें रहकर मधुर फल खाकर भी पराधीनता पसन्द नहीं करता, इसी तरह जमींदारों, किसानोंकी भूमिका अपहरण भी व्यक्तिगत वैध-स्वत्वके विपरीत ही है। व्यक्तिगत उत्पादनमें भी प्रतियोगिता आदिद्वारा विकासमें सुविधा होती है। रामराज्यवादी तो बड़े-बड़े उद्योग-धन्धोंको भी विकेन्द्रित करनेके ही पक्षमें हैं। खेतीका विकेन्द्रीकरण उद्योग स्वावलम्बनका प्रतीक है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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