7.17 बड़े परिमाणमें खेती
मार्क्सके अनुसार पूँजीवादद्वारा उद्योग-धन्धोंके विकास और पैदावारकी अन्य वृद्धिका एक रहस्य है। पैदावारको एक स्थानपर बड़े परिमाणमें करनेपर ही उसमें आधुनिक ढंगकी बड़ी मशीनोंका व्यवहार हो सकता है, खर्च घट सकता है और मनुष्यकी पैदावारकी शक्ति बढ़ सकती है। मनुष्य जितनी ही विकसित और बड़ी मशीनपर काम करेगा, उसी परिमाणमें उसकी पैदावारकी शक्ति बढ़ सकेगी। उद्योग-धन्धोंके क्षेत्रमें बड़े परिमाणमें पैदावार समाजकी पैदावार-शक्तिको बढ़ाती है, इस विषयमें किसीको भी सन्देह नहीं, परंतु खेतीके विषयमें पूँजीपतियोंकी राय इससे भिन्न है। पूँजीवादी-प्रणालीमें विश्वास रखनेवालोंका कहना है कि बड़े परिमाणमें खेती पैदावारको बढ़ानेकी अपेक्षा घटायेगी। उसके लिये दलीलके तौरपर कहा जाता है कि ‘खेतीको बड़े परिमाणमें करनेसे किसानकी भूमिके प्रति वह सहानुभूति और प्रेम नहीं रहेगा, जो छोटे परिमाणमें खेती करनेपर होता है।’ परंतु मार्क्सवादियोंका विश्वास है कि ‘और दूसरे उद्योगोंकी तरह खेती भी बड़े परिमाणमें ही होनी चाहिये। इसके बिना न तो खेतीकी पैदावार ही उचित मात्रामें बढ़ सकती है, न समाजमें ही खेतीकी और उद्योग-धन्धोंकी पैदावारका बँटवारा समान रूपसे हो सकता है और न किसानोंकी ही आर्थिक अवस्था सुधर सकती है।’
‘यदि उद्योग-धन्धोंसे काम करनेवाली श्रेणी मशीनसे पैदावार करेगी तो उसकी पैदावारकी शक्ति बढ़ जायगी। उसे अपनी मेहनतका अधिक फल मिलेगा, परंतु किसानोंके मशीनसे मेहनत न करनेपर उनकी पैदावारकी शक्ति न बढ़ेगी और उन्हें उनकी मेहनतका फल कम मिलेगा। इस प्रकार खेती और उद्योग-धन्धोंकी पैदावारका विनिमय समानरूपमें न हो सकेगा।’
‘पूँजीवादी लोग खेतीको बड़े परिमाणमें बड़ी मशीनोंसे करनेके पक्षमें इसीलिये नहीं हैं कि भूमिके छोटे-छोटे टुकड़ोंपर मशीनोंका व्यवहार नहीं हो सकता। उसके लिये मीलों लम्बे खेत चाहिये। ऐसे खेत बनानेमें अनेक जमींदारोंकी मिल्कियत मिट जायगी। उद्योग-धन्धोंमें जिस प्रकार पूँजीपति निजी पूँजीको बढ़ा सकता है, जमींदार अपनी भूमिको नहीं बढ़ा सकता। बड़े परिमाणपर खेती करनेके लिये या तो जमींदारोंका अधिकार भूमिपर अस्वीकार करना होगा या सैकड़ों जमींदारोंकी भूमिको एकमें मिलाकर उसे समाजके नियन्त्रणमें रखना होगा। मार्क्सवादियोंका कहना है कि खेतीको बड़े परिमाणपर करनेके सम्बन्धमें जितने भी एतराज किये जाते हैं, रूसके अनुभवसे वे सब निराधार प्रमाणित हो गये हैं।’
‘खेतीको संयुक्त रूपसे बड़े परिमाणपर करनेसे ही उसमें ट्रैक्टर आदि बड़ी-बड़ी मशीनों और सिंचाईका प्रबन्ध हो सकेगा। खेतीके सुधारके लिये बड़े परिमाणपर कर्जा मिल सकेगा और खेतीकी पैदावारको बेचनेवालोंमें परस्पर मुकाबला न होनेपर उसे ठीक समय और पूरे मूल्यमें बेचा जा सकेगा। खेतीकी पैदावारके विनिमयका काम संयुक्तरूपसे और बड़े परिमाणमें होनेपर उसे व्यवहारमें लानेवाली जनतातक पहुँचानेका काम व्यापारियों और साहूकारोंके हाथ न रह सकेगा। किसान अपने प्रतिनिधि-संगठनद्वारा उसे स्वयं कर लेगा, इस तरह किसानके श्रमका वह बड़ा भाग, जो इन व्यापारियोंकी जेबमें जाता है, किसानके उपयोगमें आयेगा। खेतीके बड़े परिमाणपर और संयुक्तरूपसे करनेपर किसानकी मानसिक उन्नतिका भी अवसर रहेगा। मशीनका व्यवहार करनेसे वह आज दिनकी तरह दिन-रात भूमिसे सिर मारनेके लिये विवश न होगा, बल्कि उसे शिक्षा और संस्कृति प्राप्त करनेके लिये समय मिल सकेगा और किसानोंके परस्पर सहयोगसे काम करनेपर उनमें श्रेणी-भावना और श्रेणी-चेतना भी उत्पन्न हो सकेगी, जिसका उनमें न होना उनके शोषणको पशुताकी सीमातक पहुँचा देता है। मशीनोंका व्यवहार खेतीमें होनेसे ही किसान, जो वास्तवमें मिल-मजदूरकी तरह खेत-मजदूर है, औद्योगिक धन्धोंमें काम करनेवाले मजदूरके समान उन्नति कर सकेगा।’
मार्क्सवादियोंका अन्तर्विरोधका रोग सर्वत्र दिखायी देता है। इसीसे उन्हें खेतीमें भी अन्तर्विरोध दिखायी देता है। धर्मनियन्त्रित रामराज्यवादी शासन आर्थिक सन्तुलनकी दृष्टिसे करोंमें संशोधन कर सकेगा। अत: न किसानको भूमि छोड़नेकी आवश्यकता पड़ेगी और न भूमि पूँजीपतियोंके ही हाथ जायगी। विकेन्द्रीकरण सरकारी लक्ष्य होनेपर पूँजी और भूमि सभीके केन्द्रीकरणपर प्रतिबन्ध रहेगा। सरकारीकरणके यन्त्रमें सबका खात्मा हो जानेके खतरेकी अपेक्षा सापेक्ष एवं सीमित नियन्त्रण सबको ही सुखकर होगा। रूसका अनुभव प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता। रूसी प्रचारद्वारा भले ही रूस स्वर्ग बन गया हो, परंतु वस्तुस्थिति इसके सर्वथा विपरीत है।
मशीनोंके अधिक व्यवहार करनेसे चेतन प्राणी भी स्वयं एक जड़ मशीन बन जाता है। पराधीनता भी बढ़ती जाती है—‘सर्वं परवशं दु:खं सर्वमात्मवशं सुखम्’ (मनु)-पराधीनता ही सब दु:ख है, स्वाधीनता ही सब सुख है। मशीनोंद्वारा सब कामसे छुट्टी पाकर मनुष्य शिक्षा आदि प्राप्त करनेमें समय लगायेगा। पर वह भोग-विलासमें समय न गँवायेगा—यह कौन कह सकता है? फिर शिक्षा-संस्कृतिके लिये भी तो कोई मशीन निकाली जाती है और तब बेकारी भी और अधिक बढ़ सकती है। श्रेणी-चेतना यदि संघर्षके लिये ही अपेक्षित होगी तो कोई भी बुद्धिमान् संघर्षको हानिकारक ही समझेगा। समझौता, सामंजस्य, समन्वय ही समाजके लिये अपेक्षित है। धर्मनियन्त्रित रामराज्य तो मुख्य रूपसे महायन्त्रोंपर प्रतिबन्ध लगानेके पक्षमें ही है। जबतक इसमें बिलम्ब है, तबतक अन्य औद्योगिक विकास एवं खेतीके विकासका सन्तुलन रखा जायगा।
सरकारीकरण होनेके पहले किसान अपनी जमीनमें खेती करनेमें स्वतन्त्र है। मजदूर तो वह तब बनेगा, जब सब खेतोंका सरकारीकरण हो जायगा। इसीलिये भारतका वर्तमान किसान-मण्डल भूमि-सम्बन्धी सरकारी नीतिसे चिन्तित है। वह सरकारीकरण नीतिका विरोध करनेके लिये प्रस्तुत है। कम्युनिष्टोंके तर्क वस्तुस्थितिके विरुद्ध हैं। किसानोंका प्रतिनिधि-संघटन भी कम्युनिज्ममें वास्तविक नहीं हो पाता; क्योंकि वहाँ स्वतन्त्र मत व्यक्त करना, स्वतन्त्र लेख प्रकाश करने आदिकी किसी प्रकारकी सुविधा नहीं है। कम्युनिष्ट सरकार जैसा चाहती है, वैसे ही प्रतिनिधि-संघटनका नाटक किसानोंको भी करना पड़ेगा। फिर भी अधिनायकत्व मजदूरोंका ही होगा, किसानोंका नहीं।
मार्क्सवादी पूँजीवादके दोषोंका वर्णन करते हुए मशीनोंपर लांछन लगाते हैं कि ‘मशीनोंके कारण ही अनेक प्रकारकी बेकारी फैली, स्वाधीन उद्योग-धन्धे नष्ट हो गये। कारीगरोंको मजदूर बना डाला गया’, किंतु स्वयं कम्युनिष्ट उन मशीनोंका मोह नहीं छोड़ सकते। समान वितरणके नामपर मशीनोंके दोष छिपानेका प्रयत्न करते हैं; रही-सही स्वाधीनताको समाप्त करके व्यक्तियोंको तानाशाही शासनका नगण्य कल-पुर्जा बना देना चाहते हैं।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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