7.18 आर्थिक संकट ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

7.18 आर्थिक संकट

मार्क्सवादके दृष्टिकोणसे ‘पूँजीवादी समाजमें पैदावारका काम समाजके सभी लोग मिलकर करते हैं, परंतु प्रत्येक पूँजीवादी अपने ही लाभको सामने रखता है। इसलिये सम्मिलित तौरपर समाजकी आवश्यकताओंका न तो सही अनुमान ही हो सकता है और न उसके उपयुक्त पैदावार ही। पूँजीवादी समाजमें उत्पादक अपने व्यवहारके लिये नहीं, बल्कि उसे बेचकर मुनाफा कमाननेके लिये पैदावार करते हैं। पैदावार करनेवालोंको समाजकी आवश्यकताओं और खपतकी शक्तिका अंदाजा ठीक नहीं हो सकता, इसलिये समाजमें पैदावारके बड़े-बड़े साधनोंसे जो पैदावार की जाती है, उसकी खपत नहीं हो पाती। इसका अर्थ यह नहीं कि समाजको उस पैदावारकी जरूरत नहीं। हाँ समाजके पास उसे खरीदनेकी शक्ति नहीं रहती। यदि यह पूँजीपतिके मुनाफेको ही समाजका उद्देश्य न मानकर समाजकी पैदावार और खपतपर विचार करे, तो दो प्रश्न उठते हैं। प्रथम पैदावार कौन करता है? दूसरे समाजमें पैदावारको कौन खपा सकता है? पहले प्रश्नका उत्तर है—समाजमें पैदावार मेहनत करनेवाले करते हैं। दूसरे प्रश्नका उत्तर है—समाजमें तैयार सामानकी खपत समाजमें मेहनत करनेवाले करते हैं।’
‘इससे हम इस परिणामपर पहुँचते हैं कि समाजमें जो लोग पैदावारके लिये परिश्रम करते हैं, वे ही पैदावारको खर्च करनेवाले भी हैं। यदि पैदावारके लिये परिश्रम करनेवालोंको अपने परिश्रमका (केवल परिश्रमकी शक्तिको कायम रखनेका नहीं) फल मिल जाय तो पैदावार फालतू पड़ी नहीं रह सकती। परंतु ऐसा होता नहीं; इसलिये पैदावार पड़ी रह जाती है और पैदावारका क्रम टूट जाता है।’
‘मुनाफेके रूपमें पैदावारके लिये परिश्रम करनेवालोंका जो श्रम निकालकर एक तरफ रख दिया जाता है, वह पैदावार करनेकी शक्तिको बढ़ा देता है, परंतु समाजकी खर्च करनेकी शक्तिको घटा देता है। इसलिये एक तरफ तो पैदावारके अम्बार लग जाते हैं और दूसरी ओर जनताकी आवश्यकताएँ पूरी न हो सकनेके कारण, बिलखते रहनेपर भी पैदावारको खर्च नहीं कर सकती; क्योंकि उसके पास खरीदनेकी शक्ति नहीं। खर्च करनेकी शक्ति तो मुनाफेके रूपमें उससे छीन ली गयी है। पैदावारके खर्च न हो सकनेके कारण उसे कम करनेकी जरूरत अनुभव होती है। इसका अर्थ होता है—मजदूरीके रूपमें खरीदनेकी शक्ति जनताके पास और कम हो जाय। अर्थात् बेकारी बढ़े, मेहनत कर सकनेवालोंकी संख्या घटे और साथ ही खर्च कर सकनेवालोंकी संख्या भी घटे और पैदावारको और भी कम किया जाय। परिणामत: खर्च करनेकी शक्ति और भी घट जाती है, इस प्रकार यह चक्‍कर समाजमें पैदावार और खर्चके दायरेको कम करता हुआ समाजकी एक बड़ी संख्याको भूखे और नंगे रहकर मरनेके लिये छोड़ देता है।’
‘कहा जाता है कि पूँजीवादमें उत्पादन-शक्तियोंमें निरन्तर प्रगति होती रहती है। नये-नये साधनोंका आविष्कार एवं प्रयोग होता रहता है, परंतु सामाजिक सम्बन्धोंमें परिवर्तन नहीं होता। अर्थात् पूँजीपति और श्रमिकका सम्बन्ध ज्यों-का-त्यों रह जाता है। पूँजीपति श्रमिकोंको कम-से-कम वेतन देना चाहते हैं। फलत: प्रति दसवें वर्ष आर्थिक संकट उपस्थित होता है। उत्पादनशक्तियोंके बढ़नेसे लाखों मजदूरोंके बदले सैकड़ों मजदूरोंसे ही उत्पादन हजारों गुना ज्यादा बढ़ता जाता है। वस्तुओंकी बहुतायतके साथ मजदूरोंकी बेकारी बढ़ती जाती है और उनकी क्रयशक्ति घटती जाती है। अत: बाजारमें वस्तुओंकी खपत कम हो जाती है। यह क्रम उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है। इस तरह पूँजीपतिके भी सामने प्रश्न खड़ा होता है कि वह अपना माल कहाँ बेंचे? इसका पहला मार्ग खोजा गया साम्राज्यवाद। निर्भीक होकर पूँजीपति दुनियाके कोने-कोनेमें पहुँचे। विश्वविजयका मार्ग अपनाया। औपनिवेशिक युद्ध किये। भारत, अमेरिका, कनाडामें बाजार बनाया। वहाँसे सस्ता कच्चा माल प्राप्त किया। किसी देशके निवासियोंको पराजित किया। किसी देशके निवासियोंको मिटा भी दिया। यूरोपके पूँजीपतियोंने दुनियाको अपना बाजार बना लिया।’
कहा जाता है—‘लार्ड डलहौजीके समय भारतमें जो सुधार हुए, मार्क्सकी दृष्टिसे वे सुधार हुए ही नहीं, किंतु उस समय औद्योगिक क्रान्तिके कारण इंग्लैण्डमें रेल, तार आदिके सामान पर्याप्त बन गये थे। इस मालकी खपतके लिये पहले यूरोप और अमेरिकाके बाजार थे, किंतु कुछ समयके बाद और नये बाजारोंकी आवश्यकता हुई। तब भारतके द्वारा इस समस्याकी पूर्ति की गयी। भारतमें रेल-तारका सामान महँगे-से-महँगे दामोंपर बेंचा गया। फिर रेलोंद्वारा भारतवर्षका कच्चा माल इंग्लैण्डमें भेजनेके लिये सुगमतासे एकत्रित किया जा सकता था। इंग्लैण्डका माल भी भारतके कोने-कोनेमें पहुँच गया। औद्योगिक क्रान्ति सर्वप्रथम (१७५०-१८५०) इंग्लैण्डमें हुई। अत: उसने सर्वश्रेष्ठ साम्राज्य स्थापित कर लिया। बादमें फ्रांस और जर्मनीमें औद्योगिक उन्नति हुई। अत: वे साम्राज्य-निर्माणमें पिछड़ गये।’
पूर्वोक्त रामराज्य-प्रणालीके अनुसार कहा गया है कि मजदूरोंकी संख्या-वृद्धि, वेतनमें वृद्धि, कामके घण्टोंमें कमी होनेसे न तो बेकारी बढ़ेगी और न तो क्रयशक्ति ही घटेगी। फलत: मालकी खपतमें भी कमी न होगी। अत: आर्थिक संकट भी नहीं आयेगा। पूँजीपतियोंने लाभके लोभसे राज्य फैलाया, बाजार बनाया, अपनी चीजोंको संसारके कोने-कोनेमें पहुँचाया सही, परंतु उनपर रामराज्यका धर्मनियन्त्रण न होनेसे उनमें शोषणकी मात्रा बढ़ गयी। फिर भी उनके रेलों, तारों, यन्त्रोंके कारण भौतिक दृष्टिसे पिछड़े हुए देशोंकी भी प्रगति हुई। जडयन्त्रवादमें यदि शासक सावधान एवं नियन्त्रित होकर राज्य-संचालन करता है तो लाभ होता है, अन्यथा नुकसान तो होता ही है। इसी तरह धर्मनियन्त्रित ईमानदार शासन होता है, तभी यान्त्रिक आविष्कार प्रगतिका साधन होता है अन्यथा विश्व-संहार ध्रुव है। सावधान न रहनेपर अपने ही द्वारा आविष्कृत विद्युत् या यन्त्रके द्वारा वैज्ञानिक अपनी ही हत्या कर बैठता है। इस तरह विज्ञानका, यन्त्रोंका फैलाव नवीन साधनों एवं वस्तुओंका विस्तार लाभदायक भी हुआ, परंतु उसपर धर्मनियन्त्रण न रहनेसे उससे जन-शोषण युद्ध आदि अनर्थ भी हुए। विज्ञानपर धर्मका नियन्त्रण ठीक होनेसे अनर्थ-अंश दूर हो जाता है। धर्मनियन्त्रित शासनतन्त्रमें महती स्वतन्त्रता एवं आत्मनिर्भरताके लिये तथा बेकारीकी समस्या हटानेके लिये ही महायन्त्रोंके निर्माणपर प्रतिबन्ध लगाया जाता है। इससे बाजारों, कोयला, पेट्रोल तथा कच्चे मालोंको प्राप्त करनेके लिये होनेवाले युद्धों, संहारोंपर भी रोक लग जाती है। अत: रामराज्यमें महायन्त्रोंके निर्माणपर प्रतिबन्ध भी आवश्यक होगा ही। परमाणुबम, हाइड्रोजनबम एक महत्त्वपूर्ण खोज होनेपर भी जन-हितकी दृष्टिसे उसपर प्रतिबन्ध आवश्यक समझा जा रहा है। उसी तरह महायन्त्रोंका आविष्कार महत्त्वपूर्ण होनेपर मानवशान्ति, सदाचार एवं धर्मकी रक्षाके लिये महायन्त्रोंपर प्रतिबन्ध अत्यावश्यक है। यदि रामराज्यके इन सिद्धान्तोंको अपनाया गया होता तो गत दोनों महायुद्ध भी न होते और संसारकी प्रगति भी अधिकाधिक हुई होती।
लेनिनने पूँजीवादके तीन स्तर बताये हैं—(१) व्यापारिक, (२) व्यावसायिक और (३) महाजनी। उसके अनुसार आधुनिक युग महाजनी पूँजीवादका है। इसमें यूरोप और अमेरिकाके पूँजीपति पिछड़े हुए देशोंमें पूँजी लगाते हैं और उस पूँजीके सूदद्वारा धन एकत्रित करते हैं। पूँजीसे तात्पर्य बड़े-बड़े कारखानोंसे है। इनका संचालन उपनिवेशों या अन्य देशोंके पूँजीपतियोंद्वारा होता है। कारखानोंके मूलका सूद साम्राज्यवादी पूँजीपतिको मिलता है। लेनिनके अनुसार साम्राज्यवादी स्तर पूँजीवादकी मरणासन्न स्थिति है। इसमें अन्तर्विरोध चरमसीमामें पहुँचा होता है। पहला विरोध है पूँजी और श्रमके बीच। उद्योगप्रधान देशोंमें पूँजीवादियोंके ट्रस्टों, सिंडिकेटों, बैंकों, बैंकमालिकोंका देशकी पूँजी और व्यवसायोंपर पूरा प्रभुत्व रहता है। इस स्थितिमें श्रमिकोंका वैधानिक संघर्ष स्थिति सुधारनेके लिये पर्याप्त नहीं होता। इजारेदार बैंकशाह वैधानिक संघर्षोंसे प्रभावित होकर श्रमिकोंकी दशा सुधारनेके लिये प्रस्तुत नहीं हो सकते। (यहाँ वैधानिक विरोधका तात्पर्य है—मजदूर-सभाओं, सहयोगसमितियों एवं संसदीय दलोंके आन्दोलनसे) अत: मजदूरोंको क्रान्तिका मार्ग अपनाना पड़ता है। क्रान्तिद्वारा पूँजीवादका अन्त करनेसे ही श्रमिकोंकी दशा सुधर सकती है।
‘दूसरा विरोध बैंकशाहोंके विभिन्न गुटों तथा साम्राज्यवादी शक्तियोंके बीच होता है। यह विरोध विभिन्न देशोंके पूँजीवादके असमान विकासके कारण होता है। यूरोपमें सर्वप्रथम इंग्लैण्डमें औद्योगिक क्रान्ति हुई। फ्रांसने इस क्षेत्रमें उसीका अनुसरण किया। १९वीं सदीमें कच्चे मालके स्रोत एवं तैयार मालके खपतके लिये बाजारोंकी आवश्यकता पड़ी। तब उन्होंने दुनियामें साम्राज्य स्थापित किया। तबतक जर्मनी भी औद्योगिक क्षेत्रमें अग्रसर हुआ। उसे भी साम्राज्यकी अपेक्षा हुई, किंतु साम्राज्य-स्थापनाके क्षेत्रमें इंग्लैण्डका एकाधिकार था। फलत: साम्राज्य-स्थापनामें पिछड़ा हुआ मध्य यूरोप पुराने साम्राज्यवादी फ्रांस एवं इंग्लैण्डको युद्धद्वारा पराजित करके ही साम्राज्यमें हिस्सा बँटा सकता था। इसीलिये जर्मनी, इटली तथा जापानने युद्धके लिये तैयारियाँ कीं और साम्राज्यवादी लोगोंमें भी अस्थायीरूपसे दो शिविर हो गये। युद्धों, महायुद्धोंद्वारा किसीका विनाश होता है, किसीका आधिपत्य होता है। फिर भी साम्राज्यवादी संघर्षका अन्त नहीं होता, किंतु आन्तरिक विरोध हावी रहता है। तीसरा विरोध सभ्य कहे जानेवाले साम्राज्यवादी राष्ट्रों और पराधीन राष्ट्रोंके बीच होता है। साम्राज्यवादी निर्बल राष्ट्रोंका शोषण करते रहते हैं। साम्राज्यवादी शोषणको संघटित करनेके लिये पराधीन देशोंमें रेल-तार आदिके कारखाने खोलते हैं। जनता इनसे मुक्त होनेकी इच्छासे इनके विरुद्ध मोर्चा स्थापित करती है। समयकी प्रगतिसे शोषण बढ़ता है। राष्ट्रिय संघर्ष भीषण बन जाता है। साम्राज्यवादी देशोंके भी शोषित श्रमिकोंकी सहानुभूति पराधीन देशोंके शोषितोंके साथ होती है। बन्धु-भावसे प्रेरित होकर दोनों साम्राज्यवादियोंके विरुद्ध बगावत करते हैं।’
यह हम कई बार कह चुके हैं कि घटनाएँ संसारमें भली भी होती हैं और बुरी भी। अच्छी घटनाओंका अनुसरण उचित है, बुरी घटनाओंका नहीं। व्यवहारके लिये विधानका ही उपयोग किया जाता है, इतिहासका नहीं। जगद‍्गुरु भारतकी दृष्टिसे सम्राट् एवं सार्वभौमका अभिप्राय देशके केन्द्रीय शासन एवं विश्व-सरकारसे होता था। छोटी-छोटी शक्तियाँ परस्पर टकराकर अपने और संसारके अकल्याणका कारण बनती हैं। इसलिये एक परम समर्थ धर्मनियन्त्रित शासकका नियन्त्रण संसारपर होना आवश्यक होता है। जिसने राजसूययज्ञ किया हो, जो राजमण्डलका ईश्वर हो और अपनी आज्ञासे राजाओंका भी नियन्त्रण करता हो, वही सम्राट् है—
येनेष्टं राजसूयेन मण्डलस्येश्वरश्च य:।
शास्ति यश्चाज्ञया राज्ञ: स सम्राट्…॥
(अमरकोष २।८।३)
‘सर्वभूमेरीश्वर: सार्वभौम:’—अखण्ड भूमण्डलका धर्मनियन्त्रित शासक ‘सार्वभौम’ होता है।
व्यापारका कार्य वैश्यका था, सम्राट्का नहीं। फिर भी यूरोप आदि देशोंमें पूँजीपति व्यापारियोंसे शासन प्रभावित रहता था, अत: पूँजीवाद और साम्राज्यवादका अभेद सम्बन्ध माना जाने लगा। आधुनिक सभ्यताके विस्तारमें (जिसका मार्क्सवादी बड़ा महत्त्व मानते हैं) इस साम्राज्यवादका प्रमुख हाथ है। इसी कारण संसारके कोने-कोनेमें रेल, तार, रेडियो, वायुयान, कल-कारखानोंका विस्तार हुआ। यह पूँजीवाद एवं साम्राज्यवाद यदि धर्मनियन्त्रित, ईमानदार होता तो उससे संसारका कल्याण ही होता, अकल्याण नहीं। धर्म-नियन्त्रण न होनेसे अथवा धर्मकी ओटमें स्वार्थ-साधकोंकी प्रधानता होनेसे लाभके साथ-साथ शोषण भी चलता रहता है। इसी प्रकार धर्महीन स्वार्थ साधक आन्दोलनकारियोंद्वारा संचालित आन्दोलन भी संघर्ष, वैमनस्य एवं सर्वनाशका ही कारण होता है। भारतके समान वैध अहिंसात्मक आन्दोलनद्वारा मजदूरोंकी दशा सुधारी जा सकती है, परंतु मार्क्सवादियोंको तो दशा सुधारनेके बहाने विश्वमें सर्वहाराके अधिनायकत्वके नामपर कुछ तानाशाहोंका राज्य बनाना अभीष्ट है। पूँजीवादके कारण संसार एक इकाई बन जाता है। यातायात-यन्त्रोंद्वारा पूँजीपति संसारको अपने मालका बाजार बना लेता है। पिछड़े हुए देशोंमें भी प्राचीन अर्थतन्त्र नष्ट होकर नयी व्यवस्था चल पड़ती है। यह परिवर्तन व्यक्तिकी इच्छासे नहीं, किंतु परिस्थितिके अनुसार होता है। इस कारण ही पूँजीवादके विरुद्ध श्रमिक वर्गका अधिक संख्यामें एकत्रित होना सम्भव होता है। मार्क्सने पूँजीवादको आवश्यक ही नहीं, किंतु सर्वहाराके अधिनायकत्वके समान ही अनिवार्य भी बताया है। आमतौरपर गुण-वर्णन ग्रहणके लिये होता है और दोष-वर्णन परित्यागके लिये। यही गुण-दोष-वर्णनका प्रयोजन है—
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने।
संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥
जो पूँजीवाद इतना महत्त्वपूर्ण आवश्यक एवं अनिवार्य वस्तु है, जिसके बिना साम्यवादका मूलमन्त्र पूर्ण यन्त्रीकरण ही सम्भव नहीं, उसके दोषोंको जानकर दोष मिटाना न्यायसंगत है, परंतु मार्क्स पुनरुत्थानका विरोधी है; उसके मतानुसार दोष मिटाना मुख्य नहीं, किंतु दोषवान‍्को ही मिटाना ठीक है। अतएव वह शोषण मिटानेके पक्षमें नहीं है; किंतु शोषकवर्गका ही मिटाना आवश्यक समझता है। वह वर्गोंका विरोध अमिट मानता है, परंतु व्यावहारिक बात यह है कि संसारके कल-पुर्जोंमें दोष आते हैं, शरीर एवं मस्तिष्कमें दोष आते हैं; इसी प्रकार मनुष्यसमूहमें भी दोष आते हैं। दोषोंके मिटानेके विधान भी हैं। चिकित्साशास्त्र दोष ही मिटानेके लिये है। उत्थान-पतन संसारका स्वभाव है। जिसका उत्थान हुआ, उसका पतन भी हो सकता है। जिसका पतन हुआ, उसका पुनरुत्थान भी हो सकता है—‘नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण।’ (मेघदूत) चक्रके अरेके समान कभी नीचे और कभी ऊपर जाना-आना लगा ही रहता है। सूर्य-चन्द्रकी उदयास्तपरम्परा भी विचारणीय है। शास्त्रीय दृष्टिसे उपजीव्य-विरोध एक मुख्य दोषोंमें है, जिसमें कार्यद्वारा कारणका विरोध उपजीव्य-विरोध समझा जाता है। जैसे पितासे उत्पन्न पुत्रका पितृ-घातक होना उपजीव्य-विरोध है। उपकारके प्रति कृतज्ञता मानवताका सर्वप्रथम लक्षण है।
मार्क्सके अनुसार ‘पूँजीवादी सभ्यता एवं संस्कृतिका आधार एकमात्र अर्थवाद ही होता है। इसके अनुसार पुरानी सभ्यता एवं सम्बन्धोंका अन्त हो जाता है। पिता-पुत्र, पत्नी-पति, शिक्षक-शिष्य आदिकोंके परम्परागत सम्बन्ध टूट जाते हैं, केवल अर्थमूलक ही सबके सम्बन्ध हो जाते हैं। इससे परम्पराकी आड़में वर्गसंघर्षको छिपनेका अवकाश नहीं होता। वर्गसंघर्ष सीधा और स्पष्ट हो जाता है, जो कि सर्वहारा क्रान्तिमें अत्यन्त आवश्यक है।’
वस्तुत: जिसे मार्क्सवादी गुण कहते हैं, विचारकोंकी दृष्टिमें वह दोष है। धार्मिक, सांस्कृतिक परम्पराओंके नष्ट हो जाने तथा सर्वत्र अर्थकी प्रधानता हो जानेसे मनुष्य शुद्ध पशु ही बन जायगा। पिता-पुत्रका, पति-पत्नीका सम्बन्ध धर्ममूलक न होकर अर्थमूलक होना क्या गुण है? पैसेके लाभकी सम्भावना न होनेपर पत्नी पतिको छोड़ दे, पुत्र पिताको छोड़ दे, शिष्य गुरुको पैसेके लोभसे मार दे—क्या यह सभ्यता भी मानव-सभ्यता कही जा सकती है? क्षमा, दया, स्नेह, वात्सल्य, पातिव्रत्य आदि वे पवित्र गुण हैं, जिनके सामने अर्थका कुछ भी महत्त्व नहीं। पिताके आज्ञानुसार राज्य छोड़कर रामका वनमें जाना, रामसे परित्यक्ता होनेपर भी सीताका पतिव्रता बनकर रहना, भरतादि भ्राताओंकी भ्रातृवत्सलता आदिके सामने अर्थवादकी नगण्यता स्पष्ट बतलाती है कि असाधुकी ही अर्थ-सम्पत्ति इस दानव-युगको ला सकती है। साधु (सत्) पुरुषोंकी अर्थ-सम्पत्ति तो धर्म, सभ्यता एवं परम्पराकी रक्षाका ही कारण बनती है।
मार्क्सके अनुसार ‘श्रमिक-वर्ग पूँजीवादकी कब्र खोदते हैं। पूँजीपति उसे कम-से-कम वेतन देता है। वेतन-वृद्धिके लिये श्रमिक संघटन करता है, तोड़-फोड़का मार्ग अपनाता है। राष्ट्रका धन थोड़ेसे पूँजीपतियोंके पास इकट्ठा हो जाता है। अधिकाधिक लोगोंमें दरिद्रता फैल जाती है। श्रमिक धीरे-धीरे संघटित होते हैं। वे कारखाना-संघ, जिला-संघ, राज्य-संघ, विश्व-संघ आदि बनाते हैं और उन्हें यह समझाया जाता है कि पूँजीवादी व्यवस्थामें उनकी दशा कभी भी सन्तोषजनक न होगी। पूँजीवादका अर्थ है; साम्राज्यवृद्धि, शोषण, युद्ध, महायुद्ध, गरीबी, हत्या आदि। आधुनिक राज्य पूँजीपतिका राज्य है। जब कभी हड़ताल होती है, मजदूर मारे जाते हैं, जेल भेजे जाते हैं। पूँजीपतियोंके पक्षमें ही न्यायालयोंके निर्णय होते हैं। इस आधारपर श्रमिक समझने लगता है कि पूँजीवादी राज्यका अन्त होना ही उसकी सुख-समृद्धिका कारण है और वह महायुद्ध अथवा संकटके समय क्रान्ति करके राज्यको उलट देनेका प्रयत्न करता है। इसी आधारपर (१९१४—१९१८)-के महायुद्धमें लेनिनने श्रमिकोंको उकसाकर रूसमें गृह-युद्ध शुरू करा दिया। मजदूर ही पलटनमें भरती होकर सैनिक बनकर युद्ध-कला सीखता है। उस युद्ध-शिक्षाका प्रयोग वह क्रान्तिमें करता है। मार्क्सके मतानुसार श्रमिक-वर्ग ही पूँजीवादका विरोध कर सकता है। वही समझता है कि हमारे पास न धन है न जमीन, केवल श्रमके बलपर ही हमें जीना है। अन्य किसान आदिका पूँजीवादसे कुछ-न-कुछ स्वार्थ रहता है। वे पूँजीवादका विनाश नहीं, किंतु सुधार चाहते हैं। अत: क्रान्तिका नेतृत्व मजदूरके ही हाथमें होना उचित है। पूँजीवादके नाशसे मजदूर केवल एक चीज ही खोता है और वह है गुलामी। हाँ, श्रमिकवर्ग परिस्थितियोंके अनुसार अन्य वर्गकी भी सहानुभूति प्राप्त करता है।’
संक्षेपमें कहा जा सकता है कि सद्भावना एवं मनुष्यताको दूर फेंककर शुद्धरूपसे ईर्ष्या, द्वेष एवं लोलुपताको उत्तेजितकर कुछ मुट्ठीभर कूटनीतिज्ञ सर्वहारा राज्यके नामपर तानाशाही राज्य-स्थापनाका प्रयत्न करते हैं। इसीलिये वे सुधार और समझौतेको क्रान्तिमें बाधक समझते हैं। मालिकोंके पैसेसे पेट भरना, मालिकोंके कारण ही एकत्रित होना, उन्हींके प्रसादसे युद्ध-कला सीखना और उन्हींका संहार करना, जब कि ईमानदार शत्रु भी दगा नहीं कर सकता, ऐसे ऐन मौकेपर विश्वासघात करना ही उन्हें सिखाया जाता है। इस मतको ‘सिद्धान्त’ या ‘दर्शन’ कहना सिद्धान्त या दर्शनके स्तरको बहुत नीचे गिराना है। दगाबाजी, विश्वासघातके आधारपर किसी भी समाज या राष्ट्रका कभी भी कल्याण नहीं हो सकता। जिन रूस, चीन आदिमें दगाबाजी—विश्वासघातसे समृद्धि दिखायी देती है, वह भी स्थायी नहीं हो सकती। यों तो मनुका भी कहना है कि अधर्मसे पहले प्राणीकी समृद्धि, विजय एवं कल्याण होता हुआ-सा मालूम पड़ता है, परंतु अन्तमें उसका नाश ध्रुव है—
अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।
तत: सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति॥
(मनु० ४।१७४)
इनका कूटनीतिक सिद्धान्त भी स्थिर नहीं। मार्क्सने बतलाया था कि ‘क्रान्तिका नेतृत्व श्रमिकोंके ही हाथमें हो सकता है, अन्य वर्गका अधिनायकत्व नहीं हो सकता। इसपर विविध तर्कोंके द्वारा बल दिया गया, परंतु मार्क्सवादी चीनने ही किसानोंके द्वारा क्रान्ति करके पिछले मतको मिथ्या सिद्ध कर दिया। मार्क्सवादी इसे कुछ विशेष परिस्थितियोंके कारण अस्थायी परिवर्तन बतलाते हैं। चीनकी कम्युनिष्टपार्टीने किसानोंकी सहायतासे ही क्योमितांग (चीनकी राष्ट्रिय संस्था)-को पराजितकर नयी राज्य-व्यवस्था कायम की। चीनकी क्रान्ति किसानोंद्वारा हुई; मजदूरोंद्वारा नहीं; यह पुराने मार्क्सवादके विरुद्ध है। अब आधुनिक मार्क्सवादी ग्रन्थोंमें मजदूरोंके स्थानमें ‘किसान-मजदूर’ कहा जाने लगा। माओत्सेतुंग चीनकी क्रान्तिको समाजवादी क्रान्ति नहीं मानते, किंतु पूँजीवादी जनतन्त्रीय क्रान्ति बुर्जुवा डेमोक्रेटिक रीवोल्यूशन कहते हैं। इसके द्वारा सामन्तशाहीका अन्त किया गया है, पूँजीवादका नहीं। मार्क्सने कम्युनिष्टपार्टीके नेतृत्वमें सर्वहाराकी क्रान्ति कहा था। लेनिनने कहा था कि ‘पिछड़े हुए सामन्तवादी अथवा पूँजीवादी देशमें (जैसा चीन या जारशाही रूसमें था) पूँजीवादी जनतन्त्रीय क्रान्ति शीघ्र ही समाजवादी क्रान्तिके रूपमें परिणत की जा सकती है।’ परंतु चीनमें ऐसा नहीं हुआ। माओत्सेतुंगके मतानुसार ‘चीनकी पूँजीवादी जनतन्त्रीय क्रान्ति पुरानी क्रान्तियोंसे भिन्न है।’
कहा जाता है ‘रूसी क्रान्तिके प्रथम फ्रांस आदिकी क्रान्तियोंका नेतृत्व पूँजीवादियोंके हाथमें था। श्रमिकवर्गका उसमें सहयोग था। क्रान्तियोंके बाद समाजपर पूँजीवादियोंका ही एकाधिपत्य हुआ। श्रमिकोंकी हीन दशा ज्यों-की-त्यों बनी रही, परंतु रूसी क्रान्तिके पश्चात् श्रमिकवर्ग सतर्क हो गया। अत: अब फ्रांस-जैसी पूँजीवादी जनतन्त्रीय क्रान्ति (१७८७) जिसमें श्रमिकोंका कोई स्थान न रहे, सम्भव नहीं। चीनकी क्रान्ति कम्युनिष्टपार्टीके नेतृत्वमें हुई थी, इसलिये चीनके पूँजीपति अपना एकाधिकार स्थापित नहीं कर सके। पूँजीवादको रखते हुए माओका कहना है कि किसान-मजदूरोंके हित पूर्णतया सुरक्षित रहेंगे।’
इस तरह यह नहीं कहा जा सकता कि ‘मार्क्सने जो कह दिया, वह ब्रह्माक्षर हो गया; गलत नहीं होगा। मार्क्सवादी भी इसे मार्क्सवादकी पुनर्व्याख्या मानते हुए साम्यवादको पुराने मार्क्सवादसे भिन्न मानते हैं। इससे पुनरुत्थान नहीं हो सकता, पूँजीवादमें सुधार नहीं हो सकता’, यह पक्ष खण्डित हो जाता है। पूँजीवादके रहते हुए भी किसान-मजदूरोंका हित सुरक्षित रह सकता है—यह चीनी क्रान्तिसे स्पष्ट ही है।
मार्क्सका कहना था कि ‘पिछली क्रान्तियाँ एक शोषक-वर्गके नेतृत्वमें दूसरे शोषकवर्गको पदच्युत करनेके लिये हुई थीं। फ्रांसकी ऐतिहासिक राज्यक्रान्ति पूँजीपतियोंने सामन्तशाहीके विरुद्ध की थी। ब्रिटेनके गृहयुद्ध (१६४२-४९) और रक्तहीन क्रान्ति (१६८८)-का भी यही सार है। इन क्रान्तियोंसे शोषणका अन्त नहीं हुआ, किंतु सर्वहारा-क्रान्तिद्वारा वर्गों तथा शोषणका अन्त होगा। शोषणके अन्तके लिये ही श्रमिकोंकी क्रान्ति होती है।’
शोषणकी मनोवृत्ति बदलनेसे ही शोषणका अन्त होता है। ईमानदार शासकोंके शासनका उद्देश्य ही शोषण या मात्स्यन्यायका अन्त करना राज्यसंस्थाकी स्थापनाका उद्देश्य ही यही है। बिना ईमानदारीके श्रमिक-क्रान्तिसे भी शोषणका अन्त नहीं होता। अपने विरोधियोंको कुचल डालनेकी तीव्र भावना कम्युनिष्टोंमें सर्वाधिक होती है। पूँजीवादियोंमें परस्पर जैसे संघर्ष होता है, वैसे ही किसानों तथा मजदूरोंके भी परस्पर संघर्ष आये दिन होते ही रहते हैं, जिनमें एक-दूसरेके शोषणके लिये वे प्रयत्नशील रहते हैं।
मार्क्सने यह भी कहा था कि ‘समाज तभी बदलता है, जब उसका अन्तर्विरोध चरम सीमापर पहुँच जाता है, प्रगति असम्भव हो जाती है, पूँजीवादी उत्पादनकी वृद्धिसे बाजारोंकी खोज होती है। जहाँतक बाजार मिलते रहते हैं, प्रगति होती रहती है, परंतु जैसे ही नये बाजारोंका अभाव होता है, फिर पूँजीवादकी प्रगति समाप्त हो जाती है। पूँजीवाद एवं उसके भीषण संकटका अन्त क्रान्तिसे होगा। पुराने समाजके अन्त एवं नये समाजके जन्मके लिये क्रान्ति नितान्त आवश्यक है।’
रामराज्यकी दृष्टिसे सदिच्छा, सद‍्बुद्धि तथा सद्धर्मकी भावना फैलाकर एक वर्गको दूसरे वर्गका पोषक बनाया जा सकता है। चीनी कम्युनिष्ट पूँजीवादको रखते हुए भी उन्नति सम्भव समझते ही हैं। मार्क्सने भी ब्रिटेन और अमेरिका-जैसे जनवादी देशोंमें क्रान्ति बिना भी संसदीय नीतिसे सामाजिक परिवर्तन सम्भव माना है। रामराज्यकी निर्दिष्ट प्रणालीके अनुसार क्रान्ति एवं सामाजिक परिवर्तन बिना भी गतिरोध दूर हो जाता है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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