7.20 समाजवादी सब्जबाग
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता यदि अच्छी वस्तु है, उससे इतना बड़ा लाभ हुआ, तो कुछ दोष होनेसे ही वह हेय नहीं होती। बिजलीसे प्रकाश फैलाया जा सकता है, मशीन भी चलायी जा सकती है और आत्महत्या भी की जा सकती है। अत: बुद्धिमानोंका कर्तव्य है कि वे ऐसा मार्ग निकालें, जिससे व्यक्तिगत स्वतन्त्रताकी रक्षा हो और गतिरोध भी मिटे। वैसे भी समाजवादी शासनमें ही नहीं, किंतु सभी ढंगके शासनोंमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एक सीमाके भीतर है। भाई-बहन और पिता-पुत्रीका परस्पर शादी करने तथा आत्महत्या करनेमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता मान्य नहीं है। इस प्रकार समाजका अहितकर काम करनेकी स्वतन्त्रता किसीकी भी मान्य नहीं। समष्टिके नामपर व्यक्तिको पंगु बना देना भी ठीक नहीं, साथ ही व्यक्तिगत स्वाधीनताके नामपर समष्टि-विरोधी कार्यवाही करनेकी छूट व्यक्तिको देना भी ठीक नहीं। इसी आधारपर व्यक्तिगत वैध-बपौती मिल्कियत या वैध धनोंका अपहरण बिना किये भी समष्टि-हितके अनुकूल कानून बनाये जाते हैं। आज भी सभी शासनों एवं राष्ट्रोंमें संग्राम आदि संकटकालमें बहुत कुछ व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओंमें संकोच मान्य होता है। अमेरिका आदिने भी अपने ढंगसे उक्त गतिरोध रोका ही है।
रामराज्यशासनमें समष्टि-हितकी दृष्टिसे इस प्रकारकी व्यवस्था होती है कि किसीके दरिद्र होने या अपने परिश्रमका पूरा फल न पानेका प्रश्न ही नहीं उठता। मार्क्सवादियोंका कहना है कि ‘पूँजीपतियोंके हाथसे भूमि-सम्पत्ति, कल-कारखानोंको छीन लेनेसे मजदूर ही पैदावारके साधनोंके मालिक हो जायेंगे। फिर जो भी पैदा करेंगे, वह सब उन्हींके काम आयेगा। इससे उनके भूखे-नंगे रहनेका डर ही न रहेगा और पूँजीपतियोंका इकट्ठा किया हुआ धन-वैभव भी इन्हींके काममें आयेगा; फिर खरीदनेकी शक्ति बढ़ जायगी और काम करनेवाले अधिक-से-अधिक पदार्थ पैदा करेंगे तथा दूसरे पदार्थोंसे विनिमय करेंगे। पूँजीपतियोंके पास मजदूरोंकी मेहनतका बहुत बड़ा भाग न जा सकेगा और मजदूरोंकी अवस्था उन्नत होगी, जैसे रूसी किसानोंकी उन्नति पहलेसे तेरह गुनी अधिक हो गयी है। इस तरह मजदूर, इंजीनियर, डॉक्टर आदिका भी अन्तर मिट जायगा। कठोर एवं अप्रिय कार्योंके लिये मशीनें बन जायँगी, जिससे किसीको कोई भी काम कठोर और अप्रिय नहीं प्रतीत होगा। सब कामकी शिक्षा देकर सभीको सब कामके योग्य बना दिया जायगा। किसीको किसी कामके लिये बाध्य नहीं किया जायगा। यदि मशीनोंकी उन्नतिसे हजार मजदूरोंका काम दस ही मजदूरोंसे हो सकेगा तो भी मजदूर बेकार नहीं होंगे; क्योंकि उनसे अन्य काम कराया जायगा। मजदूरोंके लिये अच्छे फर्नीचर, अच्छे मकान बनाये जायँगे। आजकी तरह मजदूर दस घण्टे काम न करके बारी-बारीसे एक या दो घण्टे काम करेंगे, बाकी समयमें मौज लेंगे।’
इस तरह काल्पनिक सुख-स्वप्नका वर्णन करके समाजवादी धरातलमें स्वर्गधाम उतार देनेकी बात करते हैं, परंतु वस्तुस्थिति यह है कि जगत्की विचित्रताके साथ ही मनुष्योंमें भी विचित्रता होती है। सभी सब कामकी न सर्वांगीण शिक्षा ही प्राप्त कर सकते हैं, न सब कामके विशेषज्ञ ही हो सकते हैं और न सब प्रमाद-आलस्यशून्य होकर शक्ति-चौर्य-बिना ईमानदारीसे शक्तिभर परिश्रम ही कर सकते हैं। यह भी नहीं हो सकता कि सब अनिवार्य आवश्यकता-भर ही पदार्थ लें, अधिकका संग्रह न करें। सभी व्यक्ति स्वतन्त्र ब्यूक, हम्बर, रॉल्स मोटरकी इच्छा कर सकते हैं, सभी प्राइवेट हवाईजहाज चाह सकते हैं। सभी फर्स्टक्लासके मकान, फर्नीचर चाहेंगे, सभी वकील, जज या प्रधानमन्त्री होना चाहेंगे, फिर साधारण कार्यों एवं वस्तुओंसे कोई क्यों सन्तुष्ट होगा? अगर यह दशा सम्भव है तो किसी भी सिद्धान्तवादीको इसमें क्या आपत्ति होगी।
आमतौरपर कोई भी ईमानदार मानवताके नाते अपनी वैध सम्पत्तिसे सन्तुष्ट रहता है। अत्यन्त ग्राम्य लोगोंका भी यही विश्वास है कि अपनी वैध कमाईसे सूखी रोटीमें सन्तुष्ट रहना अच्छा है। दूसरोंकी वस्तुका अपहरण करके सुख-भोग महत्त्वकी बात नहीं है। पंजाबी ग्रामवासियोंका कहना है कि ‘बाजरेदां डोंडा चंगा ठगींदा परोठा मंदा’ दूसरोंके साधन एवं धन-वैभवको छीनकर सुखी बन जाना बड़ा सरल है, परंतु यह सुख, यह धन परिणामत: हितकारक नहीं है। भारतीय नीतिशास्त्रका तो कहना है कि ‘अतिक्लेशेन ये ह्यर्था धर्मस्यातिक्रमेण च। शत्रूणां प्रणिपातेन मा च तेषु मन: कृथा:॥’ (विदुर०) अति क्लेशसे, धर्मातिक्रमणसे, शत्रु-चरण-चुम्बनसे जो अर्थ प्राप्त होता है, वह सुखोदर्क नहीं होता। चोरीसे, डाकासे, छलछद्मसे, छीना-झपटीसे सुखी बन जाना, धनी बन जाना निन्द्य है। इन्हीं सब मान्यताओं, औचित्यानौचित्य, न्याय-अन्यायका विचार मिटानेकी दृष्टिसे कम्युनिष्ट कहते हैं, ‘पुराना औचित्यानौचित्य, न्याय-अन्याय आजके कामका नहीं है।’ क्या कुछ डाकू भी यही नहीं कह सकते हैं कि परवित्तापहरणको अपराध मानना पुराने जमानेकी बात थी, आज यह अपराध नहीं है। फिर भी न्याय एवं धर्मयुक्त मार्गसे बेकारी एवं आर्थिक असन्तुलन दूर करनेका प्रश्न सबके सामने अनिवार्यरूपसे है ही। रामराज्यवादी उसे सहर्ष स्वीकार करता है। सहायता प्राप्त करके कर्तव्यपालन, बहिर्मुखोंका वित्तापहरण करके अतिरिक्त आयका पंचधा विभाजन, दानका प्रोत्साहन, ज्योतिष्टोम, सर्वस्वदक्षिणा आदि यागों तथा आतिथ्य-सत्कारका प्रचार एवं नियम बनाकर तथा वेतनकी उचित दर एवं कामके घण्टोंका उचित निर्धारण एवं मुनाफेकी भी उचित सीमा निर्धारण करना आदि कार्य उचित कहे जा सकते हैं। साम्यवादी सरकारोंको भी सरकारी काम तथा शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा, गुप्तचर, पुलिस, पलटन आदिका काम चलानेके लिये कर या मुनाफाका आश्रय लेना ही पड़ेगा। सब लोग जितना कमायें उतना खा-उड़ा जायँ तो उपर्युक्त काम कैसे चलेगा? एक व्यक्तिकी स्वतन्त्रताकी सीमा वहींतक है, जहाँतक कि दूसरोंकी स्वतन्त्रतामें बाधा न पड़े। यह सभी सभ्य शासन मानते हैं, यह मार्क्सकी कोई नयी बात नहीं है, परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि परस्परका सेव्य-सेवकभाव या उपकार्य-उपकारकभाव समाप्त हो जाय। सभी सैनिक यदि निजी स्वतन्त्रताकी बराबरीका दावा करें तो सेनापतिकी आज्ञा ठुकरा सकते हैं, फिर तो सैनिक-संगठनका उद्देश्य ही समाप्त हो जाय। समाजवादी किसी अन्यके चक्रवर्तित्वकी तो समालोचना करते हैं, पंरतु मजदूर तानाशाही सम्पूर्ण विश्वपर कायम करनेके लिये आकाश-पातालका कुलाबा भिड़ा रहे हैं। आखिर सोवियतसंघके सभी राष्ट्र मास्कोके कुछ तानाशाहोंके इच्छानुसार ही चल रहे हैं, विश्व कम्युनिष्ट-संघ आखिर सम्पूर्ण संसारमें कम्युनिष्ट शासन-स्थापनका प्रयत्न करता ही है। फिर राम-जैसे जितेन्द्रिय, सदाचारी, धर्म-नियन्त्रित, चक्रवर्तीके निष्पक्ष शासनमें सम्पूर्ण विश्वमें शान्ति हो, छीना-झपटी बन्द हो, सब सुखी हों तो क्या आश्चर्य है? अपने विश्वासके अनुसार सब अपना धर्म पालन करें, अपनी शक्ति एवं बुद्धिके अनुसार अर्थोपार्जन करें, अपनी कमाई अपने इच्छानुसार अपनी संतानोंको दे सकें, दान-पुण्य कर सकें, लोक-परलोक बना सकें, कोई किसीके धर्म एवं सम्पत्तिपर हमला न करे, सभी उन्नत सभी सुखी हों—यही तो रामराज्य है।
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘दिखायी पड़नेवाले व्यक्तियोंमें सम्पत्ति एवं योग्यताकी असमानता मौजूद है। अध्यात्मवादी इस असमानताका दूर होना असम्भव मानते हैं, परंतु मार्क्सवादी इस असमानताको दूर कर सकनेका दावा करते हैं। असमानता दूर होनेकी ही अवस्थाका नाम कम्युनिज्म या समष्टिवाद है। इसमें यथासम्भव असमानता दूर कर देनेके बाद संघटनका सिद्धान्त होगा, प्रत्येक मनुष्य अपनी सामर्थ्यभर परिश्रम करेंगे और प्रत्येक मनुष्यको अपनी आवश्यकताके अनुसार पदार्थ मिलेगा। एतदर्थ योग्यता एवं शिक्षाकी असमानता दूर होनी आवश्यक है।’ मार्क्सवादी जन्मान्तरीय कर्मोंकी विचित्रतासे असमानता नहीं मानते। वे परिस्थितियोंको ही इसका मुख्य कारण मानते हैं। सबको शिक्षा, मस्तिष्क एवं स्वास्थ्यकी उन्नतिका समान अवसर देकर दिखायी देनेवाली असमानता दूर की जा सकती है। जन्मसे ही अल्पबुद्धि एवं दुर्बल, गरीबोंकी ही संतान होती है। अमीरोंकी संतानें अधिक स्वस्थ एवं बुद्धिमान् होती हैं। मार्क्सवादके अनुसार सबको समान अवसर मिलनेसे नयी पीढ़ीके लोगोंमें असमानता बहुत कुछ कम हो जायगी। कुछ पीढ़ीतक समान परिस्थितियोंमें मनुष्यका जन्म होनेसे प्राय: सब एक-से ही बलवान्, बुद्धिमान् होंगे। यदि पशुकी नस्लमें उन्नति की जा सकती है तो मनुष्यका सुधार क्यों नहीं होगा? भले ही कुछ लूले-लँगड़े, अन्धे भी हों, फिर भी नियम तो जन-साधारणकी दृष्टिसे ही बनते हैं।
वस्तुत: यह तर्क बहुत ही नि:सार है। ‘अमीरोंके लड़के बुद्धिमान्, बलवान् होते हैं’, यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि प्राय: देखा जाता है कि अमीरोंके लड़के अधिक निर्बुद्धि एवं निर्बल होते हैं। व्यवहारमें धनवानोंको ही लक्ष्मीका वाहन अर्थात् उलूक कहा जाता है। अधिकांश धनवान् विलासी होते हैं। निर्वीर्य होनेसे पहले तो उन्हें संतान ही कम होती है, जिससे इनमें दत्तकोंकी भरमार चलती है। संतानें उत्पन्न भी होती हैं तो निर्बल एवं निर्बुद्धि। हम पहले कह चुके हैं कि व्यापारकी दक्षता, शोषणके हथकण्डे, जाल-फरेबकी सब बातें राजाओं, जमींदारोंके दीवान या कारिन्दे तथा सेठोंके मैनेजर-गुमास्ता लोग ही करते थे या करते हैं। आज भी ऐसे-ऐसे धनवान् हैं कि केवल धनके कारण ही उनका सम्मान किया जाता है। यदि उनको धन न होता तो कौड़ी-कीमतका भी उन्हें कोई न पूछता। हाँ, जहाँ सावधानीसे प्रयत्न किया जाता है, वहाँ धनवान्, बलवान्, बुद्धिमान् एवं धर्मनिष्ठ भी होते हैं। शास्त्रोंमें इसे पूर्वजन्मकी तपस्याओं एवं योगाभ्यासका फल बताया है—‘शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।’ (गीता ६।४१) योगभ्रष्ट अर्थात् योगकी पूर्ण सिद्धि—मुक्ति पानेके पहले मरनेवाले लोगोंका पवित्र श्रीमानोंके घरमें जन्म होता है। हरिश्चन्द्र, दिलीप, मान्धाता, अज, दशरथ, युधिष्ठिर, अर्जुन आदि इसके उदाहरण हैं। प्राय: लक्ष्मी-सरस्वतीका विरोध ही समझा जाता है। किसी ही पुण्यशालीके यहाँ लक्ष्मी-सरस्वतीका सहवास होता है, परंतु इससे भी उच्च पक्ष महातपस्या, महासौभाग्यसे अरण्यवासी विरक्तों, निष्किंचनों, उंछशिलवृत्तिवालोंके यहाँ जन्म होना माना गया है; क्योंकि वहाँ बुद्धि-विवेककी बहुत ही प्रधानता रहती है—
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्।….
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
(गीता ६।४२, ४३)
भारतके जितने भी विशिष्ट विद्या, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, शिल्प, साहित्य तथा नीति आदि सम्बन्धी ग्रन्थ हैं, सबके रचयिता अरण्यवासी कन्द-मूल-फलाशी वल्कलवसनधारी निष्किंचन लोग ही हुए हैं। वेदान्त, सांख्य, न्याय, मीमांसा, वैशेषिक, योग, भारत, रामायण, योगवासिष्ठ तथा शुक्र, बृहस्पति, कणिक, कौटिल्य, कामन्दक आदि नीतिग्रन्थ हैं, सबके निर्माता अकिंचन लोग ही हैं, धनवान् या पूँजीपति नहीं। शंकराचार्य, उदयनाचार्य, भट्टपाद, श्रीहर्ष, वाचस्पति मिश्र, रामानुजाचार्य, तुलसीदास, सूरदास आदि कोई भी धनवान् आदमी नहीं थे। आजके भी विभिन्न देशोंके विभिन्न नेता उन्हीं वर्गोंमें हैं तथा यहाँतक कि मार्क्स भी अमीर नहीं था। सभी अकिंचन सरस्वतीके उपासक विद्वान् ही मान्य हैं। लक्ष्मीके उपासक सदा ही उनका अनुगमन करते थे। मान्धाता, हरिश्चन्द्र, रामचन्द्र आदि भी वसिष्ठ आदि ऋषियोंके ही नियन्त्रणमें रहते थे। अतएव यहाँ उच्च शास्त्र-ज्ञानवाला निर्धन ब्राह्मण ही सर्वोत्कृष्ट माना गया है। फिर यह भी तो देखते हैं कि एक ही अमीरके चार पुत्रोंको समान अवसर मिलनेपर भी कोई बहुत चतुर निकलता है, कोई भोंदू निकलता है। जगत्की विचित्रताका आधार कर्मको मानना ही पड़ेगा। जहाँ इस जन्मके कर्म-वैचित्र्यसे उपपत्ति न हो, वहाँ जन्मान्तर-कर्मका वैचित्र्य मानना अनिवार्य है। उष्ट्र, गर्दभ, मनुष्यादिके वैचित्र्यका भी क्या कारण है? इस प्रश्नका जन्मान्तरीय कर्मके सिवा अन्य कोई समाधान नहीं है। जो इन विचित्रताओंका कारण स्वभावको कहते हैं, उनसे प्रश्न होगा, स्वभाव क्या है?—सत् या असत्? असत् कहें तो उसमें कार्य-क्षमता नहीं हो सकती, सत् है तो भी वह चेतन है या अचेतन? अचेतनमें भी विवेकाभावात् विचित्र कार्यकरत्व नहीं हो सकता। चेतन कहें तो भी अल्पज्ञ या सर्वज्ञ? अल्पज्ञमें भी विविध वैचित्र्योपेत विश्वका व्यवस्थापकत्व नहीं बन सकता। सर्वज्ञ कहें तो प्रश्न होगा कि वह सापेक्ष विचित्र सृष्टि करता है या निरपेक्ष? निरपेक्ष कहें तो उसमें वैषम्य, नैर्घृण्य दोष आयेगा। सापेक्ष कहें तो वही कर्म-सापेक्षता माननी पड़ेगी। सदा ही अध्यापकों, इंजीनियरों, डॉक्टरों, जजों, प्रधानमन्त्रियोंके स्थान थोड़े ही रहेंगे। मजदूरों, छात्रों, न्यायार्थियों तथा गरीबलोगोंकी संख्या ही अधिक रहेगी। अत: चीटींको कनभर और हाथीको मनभरका सिद्धान्त बिना माने काम चलना सर्वथा ही असम्भव होगा। फिर भी समता या विषमता असन्तुलित न रहना आवश्यक है। अति विषमता, अति समता दोनों ही अव्यवहार्य हैं। जैसे अंगमें भी सब बराबर नहीं होते, हाथकी अंगुलियाँ भी सब एक-सी नहीं होती हैं। फिर भी उनकी समता-विषमता सन्तुलित रहती है। यही स्थिति समाजकी भी उचित है। यदि कम्युनिष्ट काल्पनिक समताके आधारपर सिद्धान्त बनाना चाहते हैं तो अध्यात्मवादीके यहाँ आत्मा ही वास्तविक समानता स्वतन्त्रता भ्रातृताकी आधारभित्ति है। इतना ही नहीं, अध्यात्मवादी ही ऐसी भी अवस्थाका आना अनिवार्य मानते हैं, जब सभी परमानन्द ब्रह्मस्वरूप ही होंगे, विषमताकी गन्ध भी कहीं उपलब्ध नहीं होगी, परंतु व्यवस्था तो करनी है वर्तमान स्थितिकी, अत: हम कल्पनाओंको छोड़कर उपस्थित अवस्थामें क्या हो सकता है, यही विचार करना उचित समझते हैं। वैधानिक साधनों एवं धार्मिक, आध्यात्मिक साधनोंसे समष्टि जगत्को उच्च-से-उच्च स्तरपर पहुँचाना रामराज्यका आदर्श है। ‘राम भगति रत नर अरु नारी। सकल परम गति के अधिकारी॥’ ‘हृष्ट: पुष्ट: प्रमुदित:’ ‘नाकुण्डली नास्रग्वी।’ इत्यादि श्लोकोंमें कहा गया है कि ‘रामराज्यमें सभी हृष्ट-पुष्ट, प्रमुदित रहते थे। सभीके गृहोंमें हीरकादिजटित स्वर्णमय कपाट लगे रहते थे।’ फिर भी वास्तविकता यह है कि पदार्थोंकी उत्पत्तिकी कुछ सीमाएँ हैं। यदि सभी स्वतन्त्र हवाईजहाज, सभी हम्बर, रॉल्स, ब्यूक मोटर चाहें, सब-के-सब उच्चस्तरीय साधन चाहेंगे तो उसकी पूर्ति तो हजारों नहीं लाखों वर्षतक हो सकना सम्भव नहीं। गली-गलीमें बिजलीका फैल जाना या मिलोंके द्वारा कपड़ा जितना सरल है, उतना भारतके करोड़ों-करोड़ आदमियोंको एक-एक वायुयान, एक-एक ब्यूक मिलना सरल नहीं। इसी तरह केसर, कस्तूरी, हीरा आदिका मिलना भी सम्भव नहीं है। जब सभी लोग सब चीज बना नहीं सकते तो विनिमयद्वारा वस्त्वन्तर प्राप्त करनेकी आवश्यकता रहेगी ही। फिर वस्तुओंकी विनिमय-सुविधाके लिये रुपया या मुद्राका व्यवहार आवश्यक होगा। स्थानान्तरसे वस्तु स्थानान्तरमें पहुँचाना आवश्यक होगा। इसपर कुछ व्यय एवं श्रम भी होगा। व्यक्ति या सरकार जो भी यह कार्य करेगा, कुछ-न-कुछ लाभ अवश्य चाहेगा। हाँ, यह ठीक है कि मुनाफा सीमित हो, अव्यवस्था फैलानेवाला न हो। आजके विस्तृत यातायात-सम्बन्धोंका यह भी एक महान् लाभ है कि संसारके किसी कोनेमें कोई वस्तु क्यों न उत्पन्न हो और कहीं भी किसी वस्तुकी कमी क्यों न हो, फिर भी देशान्तरकी वस्तु देशान्तरमें पहुँचनेमें कोई कठिनता नहीं। अतिवृष्टि, अनावृष्टिसे कहीं भी भुखमरी नहीं हो सकती। परंतु यदि क्रय-विक्रयका व्यवहार मिट जायगा तो यह सब सम्भव न होगा। अनेक रोजगारोंके समान ही क्रय-विक्रय भी एक धन्धा है। लाभ बिना उसे कौन अपनायेगा? हाँ, लाभ सीमित हो, उसपर नियन्त्रण हो, यह तो आवश्यक ही है। भुखमरी मिटाना अमीर, गरीब सबके ही अभ्युदयका प्रयत्न करना अपेक्षित वस्तुओंका उत्पादन बढ़ाना अत्यावश्यक है ही।
समाजवादी कहते हैं कि ‘रूसमें रोटीकी कमी नहीं है। सम्भव है कुछ ही दिनोंमें वहाँ रोटी सबको मुफ्त मिलने लगे, जैसे होटलोंमें पानी मुफ्त मिलता है।’ परंतु रामराज्यका तो आदर्श यह था कि किसी भी जगह पानी माँगनेपर दूध ही पिलाया जाता था। देनेवाले सदा ही देनेकी कोशिश करते थे, परंतु लेनेवाले अपनी गाढ़ी कमाईका ही खाना पसन्द करते थे। प्रतिग्रहसे हर तरहसे बचनेका प्रयत्न करते थे। रूसी तो फिर भी यह कहते रहेंगे कि जो काम न करे, उसको खाना मिलना ही न चाहिये। फिर जहाँ लोगोंकी व्यक्तिगत सम्पत्ति ही न रहेगी, वहाँ काम लेकर रोटी देनेका प्रसंग ही क्या है? रामराज्यमें वृद्ध, बालक, काम न कर सकनेवालोंको भी भोजनादिकी सुविधा रहेगी। जिस व्यक्तिगत सम्पत्तिमें सबकी कमाई नहीं सम्मिलित है, उसके द्वारा लोगोंको मुफ्त रोटी देनेकी विशेषता ही मुख्य विशेषता है। साम्यवादी व्यवस्थामें तो सबकी कमाई सम्मिलित ही रहती है। रामराज्यकी सभ्यता ही थी कि रोटी एवं दूध आदिका कोई गृहस्थ विक्रय करना पाप समझता था। क्षीर-विक्रय, रस-विक्रय तो स्पष्ट निषिद्ध है। रामराज्यमें आवश्यक उपयोगी पदार्थ सबको सरलतासे सुलभ करना ध्येय ही है। समाजवादी कहते हैं कि गैरसमाजवादी देश व्यापारमें होड़ करते हैं। दूसरे देशोंके बाजारोंपर कब्जा करना चाहते हैं, जिससे सबको युद्धके लिये तैयार रहना पड़ता है। पूँजीवादी शासन-प्रणाली रहते-रहते यदि कोई देश नि:शस्त्र हो जाय तो खूँखार पूँजीवादी देश उसे झपट लेते हैं। युद्धकी तैयारीमें लगे रहनेसे पैदावारमें बाधा पड़ती ही है। प्राय: सभी देशोंकी आमदनीका बहुत बड़ा भाग शस्त्रास्त्र एवं फौजोंपर खर्च हो जाता है। धनके इस भागका फल मिलता है भय, कष्ट एवं अकालमृत्यु। यह सब धन मनुष्योंकी हालत सुधारनेमें लगानेसे बहुत लाभ हो सकता है। लाखों बलवान् जवान युद्धकी तैयारीमें फँसे रहते हैं, पैदावारका काम नहीं कर सकते। इनका सम्पूर्ण समय मरना, मारना, सीखने-सिखानेमें ही खर्च होता है। यदि मुनाफा कमानेकी भावना छोड़कर उपयोगके लिये ही माल तैयार किया जाय तो अन्ताराष्ट्रिय पूँजीवादी होड़ समाप्त हो जायगी। फिर न दूसरे देशोंके बाजारोंकी जरूरत रहेगी और न युद्ध आवश्यक होगा।
आधुनिक पूँजीवादी या समाजवादी सभी शासन धर्महीन होनेका ही महत्त्व समझते हैं। इसीलिये व्यक्तिगत स्वार्थकी इतनी प्रधानता हो गयी है कि एक-दूसरेकी हत्या उनकी दृष्टिमें साधारण-सी बात होती है। धर्मनियन्त्रित रामराज्यमें युद्धकी अपेक्षा शान्तिका ही सर्वातिशायी महत्त्व होता है। साम, दाम, भेद तीनों नीतियोंसे ही सब काम चलाना श्रेष्ठ है, परंतु सर्वथा तीनों नीतिके विफल होने एवं अनिवार्य होनेपर ही चतुर्थ दण्ड-नीतिका प्रयोग करना उचित बतलाया गया है। अहिंसा एवं सत्यसे सम्पूर्ण व्यवहार चलाया जाय, विरोधियोंका भी भाव ही बदलनेका प्रयत्न उचित है, परंतु फिर भी तो आखिर समाजवादी रूसको भी तो द्वितीय महायुद्धमें कूदना पड़ा ही और लालसेनाके करोड़ों सैनिकोंको भरती करना ही पड़ा। परमाणु बम, हाइड्रोजन बम आदि घातक अस्त्र-शस्त्रोंपर अरबों रुपये खर्च करने पड़ रहे हैं। आखिर जो युद्ध अनुचित समझता है, उसकी इस प्रकारकी चेष्टा क्यों? जैसे समाजवादी कहते हैं कि ‘जब विश्वभरमें कम्युनिष्ट राज्य कायम हो जायगा, तब कोई खतरा न रहेगा, तब युद्ध-तैयारी बन्द की जा सकेगी। उसके पहले तैयारी न रखनेसे तो पूँजीवादी राष्ट्र रूसको हड़प लेंगे।’ किंतु यह तो कोई भी कह सकता कि ‘जब विश्वभरमें एक चक्रवर्ती सरकार बन जायगी, तब युद्ध आवश्यक न रहेगा’ परंतु प्रश्न तो यह है कि जबतक दोनोंके मनोरथ नहीं पूरे होते, तबतक क्या होना चाहिये? वस्तुत: इस समय क्या पूँजीवादी, क्या समाजवादी अपना-अपना गुट बलवान् बनानेमें लगे हैं। इस समय उपनिवेशवाद समाप्त हो रहा है; परंतु अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्रके विस्तारमें सब लगे हैं। अमेरिका अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ा रहा है, रूस अपना। इसके लिये ही शस्त्रास्त्रकी तैयारी एवं कूटनीतिक दाँव-पेंच दोनों ओरसे चले जा रहे हैं; परंतु रामराज्यवादी इस सम्बन्धमें व्यापक दृष्टिकोणसे विचार करते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदिके नियम विश्वव्यापी एवं विश्वके हितार्थ हैं। प्रत्येक व्यक्तिको समाज, राष्ट्र एवं विश्वके हानिकारक किसी काममें नहीं प्रवृत्त होना चाहिये। समष्टिके अविरोधेन ही व्यष्टिकी चेष्टा आदरणीय है। अहिंसा आदि समष्टि सामाजिक समझौतेका आदर सबको करना चाहिये।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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