7.22 मार्क्सवाद एवं युद्ध ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

7.22 मार्क्सवाद एवं युद्ध

मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘युद्ध जंगलीपनका चिह्न है। स्वयं कमाकर खानेके बजाय दूसरोंसे छीनकर पेट भरना ही युद्धका स्वरूप है। सामाजिक भावना एवं सहयोगकी बुद्धि होनेसे परिवारके रूपमें संगठित होते ही आपसी लड़ाई बन्द हो गयी। एक परिवारके आदमी एक हित समझकर आपसमें न लड़कर दूसरे परिवारसे लड़ने लगे फिर लड़ाईके बजाय परिवारोंमें भी सहयोगकी भावना हुई। फिर गाँवभरका एक हित समझनेकी बुद्धि हुई तो परिवारोंका भी युद्ध बन्द होकर गाँवोंका युद्ध होने लगा। मनुष्यकी आवश्यकताओं एवं पैदावार-साधनोंके बढ़नेसे आत्मीयताका क्षेत्र बढ़ गया और फिर देशका संगठन होने लगा, परंतु अब तो वैज्ञानिक विकासके युगमें कोई भी देश दूसरे देशकी सहायताके बिना अकेले रह नहीं सकता। सभी देशोंके परस्पर सम्बन्ध हैं, अत: उनमें भी सहयोगका सम्बन्ध होना चाहिये। इतिहासके क्रमको देखते हुए अब वह समय आ गया है कि देशों एवं राष्ट्रोंको मिटाकर सम्पूर्ण संसार एक राष्ट्रका रूप धारण कर सके। पूँजीवादी-प्रणालीमें साम्राज्यवादके रूपमें देशोंके संगठनका प्रयत्न होता है; परंतु उसके मालिक दूसरे-दूसरे देशों एवं उपनिवेशोंका शोषणकर स्वार्थसिद्धिकी चेष्टा करते हैं। अत: अन्य देशोंके असन्तोष एवं बगावतकी भावना बनी ही रहती है। अत: समाजवादी प्रणालीके आधारपर ही यह संगठन सम्भव है। इसीलिये अन्ताराष्ट्रिय कम्युनिष्ट-संघकी चेष्टाएँ सभी राष्ट्रोंमें चलती रहती हैं। संसारके प्रत्येक देशको विश्वव्यापी समाज और राष्ट्रका अंग बन जाना चाहिये और उनका परस्पर सहयोग होना चाहिये। इस तरह युद्धोंका भय सदाके लिये दूर हो सकता है। एक देशके किसानों-मजदूरोंमें दूसरे देशके किसानों-मजदूरोंसे कोई द्वेष नहीं रहता, अत: उनका ही राज्य होना ठीक है।’
इस सम्बन्धमें रामराज्यवादीका कहना है कि ‘युद्धका खतरा मिटे, विश्वव्यापी संघटन बने, विश्व सरकार बने’, यह सब बात अच्छी है, परंतु वह समाजवादकी ही सरकार हो, ऐसा आग्रह क्यों? भौतिकवादी अपना विचार सभी राष्ट्रों एवं सभी व्यक्तियोंपर लादना चाहते हैं, परंतु संसारमें आज भी अरबों मनुष्य ईश्वर, धर्म एवं अपने वेद, बाइबिल, पुराण, कुरान, अवेस्ता एवं मन्दिर, मसजिद, गिरजा, गुरुद्वारामें विश्वास रखते हैं। अपने शास्त्रोंके अनुसार अपने धर्म, कर्म, संस्कृति, सभ्यताका पालन करते हैं। वे अपने पूर्वजोंके ऐतिहासिक गौरव तथा अपनी बपौती, मिल्कियतके स्वामी होनेका विश्वास रखते हैं तथा अपनी कमाई अपने बेटों-पोतोंके लिये छोड़ना उचित समझते हैं। फिर सबको तिलांजलि देकर अपनी सभ्यता, संस्कृति, सम्पत्तिसे हाथ धोकर जडवादकी पराधीनता स्वीकार करना किसे अभिमत हो सकता है, जहाँ अपना विचार व्यक्त करने, प्रचार करनेकी भी स्वाधीनता नहीं है और न प्रेस-पत्र, भूमि, सम्पत्ति आदि सामग्री ही है। वस्तुत: पारिवारिक-संगठनमें भी व्यक्ति मिट नहीं जाता, उसे कभी भी पृथक् रहनेकी स्वाधीनता रहती है। इसीलिये बृहस्पतिने भी सम्मिलित कुटुम्ब-प्रथाका पोषण करते हुए भी कहा है कि सम्मिलित कुटुम्बमें पृथक्-पृथक् व्यक्ति अग्निहोत्र, बलिवैश्वदेव, श्राद्ध आदि नहीं कर सकता। एक गृहपति—घरका पुरखा ही सब करता है—
एकपाकेन वसतां पितृदेवद्विजार्चनम्।
एकं भवेद् विभक्तानां तदेव स्याद् गृहे गृहे॥
(बृहस्प० स्मृ० गायक० सं० २६।५)
अत: पृथक् धर्मानुष्ठानकी दृष्टिसे पृथक् भी रह सकते हैं।
एवं सह वसेयुर्वा पृथग् वा धर्मकाम्यया।
पृथग् विवर्धते धर्मस्तस्माद् धर्म्या पृथक्‍क्रिया॥
(मनु० ९।१११)
वस्तुत: वृक्षोंका समुदाय ही वन होता है। ऐसे ही व्यक्तियोंका समुदाय ही समाज होता है। वृक्षोंके कटनेसे वन कट जाता है, अत: व्यक्तियोंके परतन्त्र एवं जडप्राय होनेसे समाजकी भी वही दशा होगी। केवल समाजके नामपर कुछ तानाशाहोंके हाथमें ही विश्वका जीवन डाल देना कौन बुद्धिमान् ठीक समझेगा? अत: इसकी अपेक्षा रामराज्यकी व्यवस्थता कहीं श्रेष्ठ होगी, जिसमें सभी व्यक्तियों, जातियों, सम्प्रदायों एवं राष्ट्रोंके अपने विश्वासके अनुसार अपना धर्म, ईश्वर एवं शास्त्र मानने, विचार व्यक्त करनेकी पूर्ण स्वाधीनता होगी।
पुराण, कुरान, वेद, बाइबिल, मन्दिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारा—सबका सम्मान रहेगा। सभी अपने तीर्थों, देवस्थानोंका आदर कर सकेंगे। सभीका अपनी बपौती—मिल्कियतपर अधिकार रहेगा। अपने विचारका प्रचार करने, संगठन, प्रेस-पत्र आदि स्थापित करनेकी सबको छूट होगी, अर्थात् व्यष्टि एवं समष्टि सभीको लौकिक, पारलौकिक अभ्युत्थान एवं परम नि:श्रेयस प्राप्त करानेकी सुविधा उपस्थित की जायगी। समष्टि व्यष्टिका उपोद्वलक होगा। व्यष्टि समष्टिके अविरोधेन आत्मोन्नतिके लिये प्रयत्न करते हुए समष्टि-सेवामें स्वेच्छासे ही प्रवृत्त होंगे। जैसे कुटुम्बका विश्वासभाजन, ईमानदार, निष्पक्ष, सर्वहितैषी व्यक्ति गृहपति (घरका पुरखा) होता है, इसी प्रकार, मण्डल, राज्य, राष्ट्र एवं विश्वका पालन करनेवाले व्यक्तियों या व्यक्तिसमूहोंको भी सबका विश्वासभाजन, निष्पक्ष, सर्वहितैषी एवं ईमानदार होना अनिवार्य होगा। फिर भी यह भूलना न चाहिये कि परिवार बन जानेपर भी परिवारके सदस्योंमें लड़ाई होती है, ग्राम बन जानेपर भी ग्रामीणोंमें लड़ाई होती है, राष्ट्र बननेपर भी राष्ट्रके भीतर सब उपद्रव होते हैं। रूसमें भी एक-दूसरेको हटाकर अधिकारारूढ़ होनेका प्रयत्न करते ही हैं, उसी तरह आगे भी यह संघर्ष रहेगा। अत: जबतक अविवेक, अविचार, अभिमान, अधर्मको रोकनेके लिये सत्य एवं सात्त्विक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि गुणों तथा शास्त्रों एवं आध्यात्मिक जीव-ब्रह्मादिकी भावना दृढ़ न होगी, तबतक कुटुम्बका भी संगठन असम्भव है, विश्व-संगठनकी बात तो दूर है।
वस्तुत: इस मार्गसे ही राष्ट्र एवं विश्वका संघटन सम्भव है। रामराज्यका तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का सिद्धान्त है ही। किं बहुना, अनन्तकोटि ब्रह्माण्डात्मक विश्वको ममताका आस्पद बनाकर अभेद-भावना करके उसे आत्मस्वरूप समझना एक उदात्त उपासना है। फलत: तदनुसार चेष्टा ठीक ही है। समष्टि-अविरोधेन राष्ट्र, समाज या व्यक्तिका अपने विकासकी स्वाधीनता होनेसे उनपर जिम्मेदारी होगी, अपनी हानि और लाभकी बातें सोचना, आलस्य-प्रमादका छोड़ना, सावधानी-तत्परताके साथ पुरुषार्थके लिये अग्रसर होना सम्भव हो सकेगा। तभी विश्वकी उन्नति और शान्ति होगी। तानाशाही-शासन यन्त्रका कल-पुर्जा बन जानेसे सभी व्यक्ति या देश जड—यन्त्रवत् हो जायँगे। उनका विकास रुक जायगा। समाजवादी कहते हैं कि ‘अपने लाभके लिये ही परिश्रम करना, शक्तिसंचय करना, यह मनुष्यकी प्रकृति नहीं है—यह तो एक अभ्यास है, जो मनुष्यकी परिस्थितियोंके अनुसार बन जाती है। प्राचीन कालमें युद्ध होनेपर हारनेवाले व्यक्तियोंको मारकर खा जाते थे। बलवान् कमजोरोंके धन, स्त्रियाँ आदि छीन लेते थे। स्त्रियोंके लिये राजा लोग चढ़ाई करते थे। उस समय समाजका यही अभ्यास था, परंतु आजका मनुष्य इसे नहीं सहन कर सकता। असभ्य लोगोंमें आज भी लूटपाट चलती रहती है, परंतु आज मनुष्यका स्वभाव बदल गया है।
अत: हानिके डर एवं लाभके लोभसे काम करनेकी आदत बदल सकती है। आज दिन प्राणी कमाता है। खर्च करनेसे अधिक बटोरकर भी रखता है; क्योंकि उसे भय है कि उसे आगे शायद पदार्थ न मिल सके, पर यह ठीक नहीं, इसका उत्तर पीछे विकासवादके खण्डनमें विस्तारसे आ चुका है।’


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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