8.3 भौतिकवादी व्याख्या ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

8.3 भौतिकवादी व्याख्या

कहा जाता है कि हीगेलके ऐतिहासिक आदर्शवादके मुकाबलेमें ही मार्क्सने अपनी प्रणालीका नाम ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ रखा था। इस प्रणालीद्वारा मार्क्स विभिन्न परिवर्तनों, क्रान्तियों एवं मानसिक, सामाजिक घटनाओंको उत्पन्न करनेवाले मूलस्रोतोंका पता लगाना चाहता था, इसलिये इतिहास-संचालन करनेवाले नियमोंका उसने पता लगाया। उसका कहना था—‘मनुष्योंके विवेक एवं विचारोंमें परिवर्तन करनेवाली तथा विभिन्न सामाजिक प्रणालियों और पारस्परिक विरोधकी सृष्टि करनेवाली प्रधानशक्ति, विचारों, भावनाओं या विश्वव्यापी ज्ञानसे अथवा सर्वव्यापी आत्माके ज्ञानसे नहीं हुआ, किंतु वह जीवनकी भौतिक अवस्था एवं नियमोंद्वारा ही हुआ है। इसलिये मनुष्यजातिके इतिहासका आधार भौतिक है, अर्थात् जिस मार्गसे मनुष्य एक सामाजिक प्राणीकी हैसियतसे, प्राकृतिक परिस्थितियों, आन्तरिक, शारीरिक और मानसिक शक्तियोंकी सहायतासे अपने सांसारिक या भौतिक जीवनका निर्माण करता है और अपनी आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये वस्तुओंको उत्पन्न करता, बाँटता और बदलता है, वही नियम, मार्ग या तरीका जीवनका भौतिक विषय या अवस्था है।’
पर यहाँ यह विचारणीय है कि यदि विभिन्न परिवर्तनों, क्रान्तियों, मानसिक-सामाजिक रचनाओंको उत्पन्न करनेवाला कोई मूल स्रोत ढूँढ़ना आवश्यक है और उसका कारण मार्क्सके मतानुसार भौतिक अवस्था और भौतिक नियम ही है, तो भौतिक अवस्था एवं भौतिक नियमोंका भी कारण क्या है—यह भी जिज्ञासा स्वाभाविक तथा अनिवार्य है। व्यावहारिक बात तो यह है कि विचारशील, विवेकी पुरुष ही जड भौतिक वस्तुओंमें रद्दोबदल करता रहता है; जड वस्तु स्वयं न अपनेको जान सकती है, न अन्यको ही। हिताहित सोचना, किसी उद्देश्यसे प्रवृत्त होना—यह शुद्ध चेतनका ही धर्म है, अचेतनका नहीं। इसीलिये जैसे रेल, तार, रेडियो, वायुयान, विभिन्न शस्त्रास्त्र, कल-कारखाने, बड़े-बड़े बाँध, पुल, महान् दुर्ग—सब चेतनके विचार एवं इच्छाके ही परिणाम हैं, इसी प्रकार अन्यान्य आकाश, पृथ्वी आदिकी उत्पत्ति एवं उसके नियम एवं अवस्थाओंमें भी अवश्य ही किसी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् समष्टि चेतनकी इच्छा एवं विचारोंको कारण मानना अनिवार्य है। किसी भी विचारमें विचार्य कुछ भौतिक वस्तुएँ एवं उनकी अवस्थाएँ भी कारण हो सकती हैं, परंतु इसका अभिप्राय इतना ही है कि जैसे घटज्ञानमें विषयरूपसे घट भी हेतु है, परंतु इतने मात्रसे चक्षुसे घटका संनिकर्ष तथा मन या अन्त:करणका चक्षुद्वारा घटाकार परिणत होना और चेतन आत्माद्वारा उन सबका प्रकाश होना गौण या मुख्य है—यह नहीं कहा जा सकता है, किंतु ज्ञानमें तो ज्ञाता ही मुख्य है, ज्ञेय एवं प्रमाण आदि ज्ञाताके अंग होकर ही ज्ञानके साधन हैं।
विवेकी ज्ञाता जीवनकी भौतिक अवस्थाओंमें रद्दोबदल करता ही रहता है। यद्यपि भौतिकवादी किसी भी सिद्धान्त, सत्य, न्याय, धार्मिक या सामाजिक नियमको शाश्वत या नित्य नहीं मानते, फिर भी अचेतन भूतोंमें अनेक शाश्वत नियम मानना अनिवार्य है, पृथ्वीका गन्धवत्त्व एवं विभिन्न बीजोंद्वारा विभिन्न प्रकारकी वस्तुओंका उत्पन्न होना, विविध प्रकारके बीजोंसे विभिन्न पुष्प, स्तवक, कुड्मल, वृक्ष एवं विभिन्न रूप, रस, गन्धसे युक्त फलोंका उत्पन्न होना, जलका निम्न प्रदेशकी ओर बहना, अग्निका ऊर्ध्वमुख प्रज्वलन, वायु एवं आकाशके निश्चित धर्म शाश्वत ही हैं। समुद्रमें विभिन्न तिथियोंमें नियन्त्रित समयपर ज्वारभाटाका आना, चन्द्रमाका नियमित ह्रास-विकास कितना शाश्वत है—यह सुस्पष्ट है। जिस प्रकार भौतिक नियम शाश्वत हैं, वैसे ही ज्ञाता, चेतन एवं ईश्वरादिके नियम शाश्वत हैं, अतएव धार्मिक, सामाजिक एवं न्यायसम्बन्धी अपरिगणित धर्म भी शाश्वत है। ईश्वरीय नियम, धार्मिक सिद्धान्त, न्याय एवं सत्यके अनुसार विवेकी प्राणी शारीरिक, मानसिक एवं भौतिक परिस्थितियोंकी सहायतासे अपनी आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये वस्तुओंको उत्पन्न करता, बाँटता तथा रद्दोबदल भी करता है, परंतु जहाँ आध्यात्मिक धार्मिक दृष्टिसे तथा विवेकके विरुद्ध शारीरिक मानसिक तथा बाह्य भौतिक परिस्थितियाँ, परस्त्री, परधन-हरणके अनुकूल भले ही हों, तथापि एक विवेकी पुरुष उनका विरोध ही करता है। नदीके तीव्र प्रवाहमें पड़ा हुआ मुर्दा ही निर्विरोध धाराका अनुसरण करता है, परंतु जीवित प्राणी अवश्य ही विरोध करता है, प्रवाह चीरकर लक्ष्यकी ओर बढ़ता है। प्रवाहका किंचित् अनुसरण भी प्रवाह अतिक्रमणके ही अभिप्रायसे करता है। समुद्रमें नाव डालकर वायुके अनुसार भटकनेवाला प्राणी निरुद्देश्य ही होता है। जिसका कोई लक्ष्य होता है, वह विरुद्ध भीषण झंझावातका मुकाबला करके लक्ष्यकी ओर बढ़ता है, यदि उसमें सर्वथा असमर्थ रहा तो उसी जगह लंगर डालकर नावको रोक देता है—‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी दीजै’ का दुरुपयोग करनेवाले अवसरवादी सर्वथा अविश्वसनीय ही हुआ करते हैं।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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