8.8 राष्ट्रियताका भाव
मार्क्सवादके अनुसार ‘राष्ट्रियता भी पूँजीवादसे ही सम्बन्धित है। यूरोपमें पूँजीवादके साथ-साथ राष्ट्रियताका उदय हुआ था। व्यापारिक स्पर्धाके फलस्वरूप पूँजीपतियोंमें राष्ट्रियताकी चेतना जागरित हुई। १५वीं सदीमें व्यापारियों और मल्लाहोंके प्रोत्साहनद्वारा यूरोपके देशोंने अन्य महाद्वीपोंकी खोज की, अंग्रेजोंने भारतवर्षमें व्यापारिक, राजनीतिक अधिकार स्थापित किया। अन्य देशोंके व्यापारियोंने व्यापारिक सुविधा प्राप्त न होनेके कारण अपनेको पिछड़े हुए देशका नागरिक समझा, इसलिये उन्होंने ब्रिटेन-जैसे समृद्ध देशोंके मुकाबलेके लिये अपने राष्ट्रको सुदृढ़ बनाया। राष्ट्रियताकी भावनाका, जिसका कि जन्म १४वीं शतीमें हुआ था, उन्होंने उपयोग किया। इसी स्पर्धाके फलस्वरूप राष्ट्रियताने उग्र रूप धारण किया। स्टालिनके मतानुसार ‘पूँजीपति राष्ट्रियताका पाठ बाजारमें ही सीखता है।’ उसके अनुसार भाषा, प्रदेश, आर्थिक जीवन और संस्कृतिका स्थायी सम्बन्ध राष्ट्रियताका आधार है। एक राष्ट्रमें इन सब विशेषताओंका होना आवश्यक है। इस दृष्टिसे इजराइलके यहूदी राष्ट्र बने। इसके पहले यहूदियोंका कोई एक राष्ट्र नहीं कहा जा सकता था; क्योंकि वे यूरोपके भिन्न देशोंमें फैले हुए थे। मध्यकालीन साम्राज्योंको भी राष्ट्र नहीं माना जाता था। सिकन्दरका साम्राज्य या अन्य साम्राज्य भी राष्ट्रके रूपमें नहीं थे। राष्ट्रियताकी आड़में ही आधुनिक साम्राज्योंका जन्म हुआ। इन साम्राज्योंमें भिन्न-भिन्न जातियाँ तथा राष्ट्र हैं। साम्राज्यवादी देश उन जातियों तथा राष्ट्रोंका शोषण करते हैं; फिर भी इस सम्बन्धमें वे अपनेको अधिक सभ्य मानते हैं। जारशाही रूसके साम्राज्यमें कई परतन्त्र राष्ट्र एवं जातियाँ थीं। जारशाहीके रूसी शासक इनका शोषण करते थे। यही स्थिति अन्य साम्राज्योंकी भी थी। इन परतन्त्र राष्ट्रोंमें धीरे-धीरे राष्ट्रिय चेतना जागरित हुई, राष्ट्रिय आन्दोलन आरम्भ हुए और इनका नेतृत्व पूँजीपतियोंने किया। १९वीं शतीमें यूरोपने और बीसवीं शतीमें एशियाके राष्ट्रोंने ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी, तुर्की आदिसे मुक्त होनेके लिये आन्दोलन छेड़े।’
रूसकी बॉलशेविक पार्टीने कहा कि ‘जबतक साम्राज्यवादका अन्त नहीं होता, तबतक राष्ट्रियताका प्रश्न हल नहीं हो सकता।’ कहा जाता है कि १९१७ की रूसी क्रान्तिके पश्चात् सोवियतराज्यकी स्थापना हुई। जारशाही साम्राज्यके सभी राष्ट्रों एवं जातियोंको आत्म-निर्णयका अधिकार मिला। कम्युनिष्ट पार्टीके अनुसार पूँजीवादी शोषणके साथ सभी प्रकारके शोषणका अन्त होना आवश्यक था। राष्ट्रिय-शोषण भी एक प्रकारका शोषण ही है। प्रत्येक राष्ट्रको सोवियत समाजवादीमत तथा संघमें रहने तथा न रहनेकी स्वाधीनता मिली। धीरे-धीरे साम्राज्यके अन्य राष्ट्रों एवं जातियोंने सोवियत-संघकी सदस्यताके पक्षमें निर्णय किया। आत्म-निर्णयके साथ-साथ प्रत्येक राष्ट्रको सांस्कृतिक स्वतन्त्रता प्राप्त हुई। स्टालिनका आदेश था कि ‘कोई भी कम्युनिष्ट किसी परतन्त्र राष्ट्रमें एक शासककी भाँति व्यवहार नहीं कर सकता। पार्टीके सदस्योंको चाहिये कि वे पिछड़े हुए राष्ट्रोंके जागरणमें सहयोग दें।’ फलस्वरूप रूसमें निरन्तर सांस्कृतिक उन्नति हो रही है। मार्क्सके मतानुसार ‘इस जागरणका मूल कारण शोषणका अन्त ही है।’
इस सम्बन्धमें भी मार्क्सवादी कल्पना मनगढ़त है। कुटुम्ब, कुल, जाति, सम्प्रदाय तथा समाजके समान ही राष्ट्रकी कल्पना भी प्राचीन है। महाभारतमें कई स्थलोंमें देशोंके सम्बन्धमें ‘राष्ट्र’ शब्दका प्रयोग आया है। वेदोंमें भी राष्ट्र शब्दका प्रयोग देशके लिये आता है, जैसा कि—‘आ ब्रह्मन्ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्य:।’ (यजु० सं० २२।२२)। इसीलिये धर्मनियन्त्रित रामराज्य-प्रणालीमें समष्टिके अविरोधसे व्यष्टिके अभ्युदयका विधान है। व्यक्ति कुटुम्बके अविरोधसे, कुटुम्ब कुलके अविरोधसे, कुल ग्रामके, ग्राम प्रदेशके, प्रदेश राज्यके और राज्य विश्वके अविरोधसे आत्मोन्नतिके लिये प्रयत्नशील हो सकते हैं। कुलके लिये एकका, ग्रामके लिये कुलका और जनपदके लिये ग्रामका त्याग किया जा सकता है—‘त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्। ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥’ अवश्य ही व्यक्तिवाद तथा जातिवादके तुल्य ही राष्ट्रवाद या देशवाद भी संघर्षसे ही उग्ररूप धारण करता है। सीमित शक्तिवाले लोग ही यदि सीमित क्षेत्रमें प्रयत्न करते हैं, तो वह प्रभावशाली सिद्ध होता है, अन्यथा समुद्रमें सत्तू घोलनेके तुल्य सीमित प्रयत्न अकिंचित्कर होता है। इसीलिये व्यक्तिगत, कुटुम्बगत, मण्डलगत, राज्यगत एवं राष्ट्रगत उत्तरोत्तर विकसित तथा विशाल प्रयत्न ही सफल होते हैं। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के अनुसार विश्वके तथा महाविराट्की उपासनाके अनुसार अनन्तकोटि ब्रह्माण्डात्मा महाविराट्के अभ्युदयके लिये भी प्रयत्न होता है, परंतु उसके लिये विशिष्टरूपसे उच्चकोटिकी भावनाओंका विकास अपेक्षित होता है। धर्मनियन्त्रित रामराज्य-प्रणालीकी सार्वभौम सत्तामें केवल समन्वय एवं सामंजस्यकी स्थापनाके लिये ही सार्वभौम सत्ताद्वारा विभिन्न जातियों एवं राष्ट्रोंका नियन्त्रण किया जाता है। फिर भी सभी धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों तथा राष्ट्रोंको पूर्ण विकासका अवकाश भी रहता है। उसी सार्वभौम सत्ताके द्वारा राष्ट्रों, जातियों तथा व्यापारियोंके संघर्ष रोके जाते हैं। जैसे व्यक्तिगत उन्नतिसे कुटुम्बोंकी उन्नति और कुटुम्बोंकी उन्नतिसे ग्रामों तथा नगरोंकी उन्नति होती है, वैसे ही ग्रामों तथा नगरोंकी उन्नतिसे मण्डलों, प्रान्तों एवं राज्यकी उन्नति होती है। राज्यों एवं राष्ट्रोंकी उन्नति विश्वकी उन्नतिमें अपेक्षित होती है। व्यक्तित्व एवं कुलीनताका अभिमान अनेक बार प्राणियोंको बुरे कर्मोंसे बचाता है। महाभारतमें आख्यान है कि ‘एक श्वान किसी महर्षिकी कृपासे वृक् (भेड़िया), व्याघ्र, सिंह एवं शार्दूलतक बन गया। फिर भी श्वानके संस्कार विद्यमान होनेसे श्वानके स्वभावानुसार उससे ऐसी दुश्चेष्टा हुई कि उसे पुन: श्वान ही बनना पड़ा।’ इसी तरह एक समय किसी ऋषिने एक मूषिकाको रूप-यौवनसम्पन्न दिव्य कन्या बना दिया। फिर उसे वर पसन्द करनेके लिये कहा गया। उसने सबसे श्रेष्ठ वर निश्चय करते-करते सूर्यको पसन्द किया। फिर सूर्यके आच्छादक बादलको श्रेष्ठ समझा। फिर बादलोंको उड़ानेवाले वायुको, फिर वायुको रोकनेवाले पर्वतोंको और अन्तमें पर्वतोंमें भी बिल कर देनेवाले मूषकको सर्वश्रेष्ठ समझकर उसे ही पति बनाया। निष्कर्ष यह है कि संस्कारोंमें उच्चता धीरे-धीरे आ सकती है, एकाएक नहीं, अत: कुलीनताका बड़ा महत्त्व है।
भारतीय राजनीतिज्ञोंने सेनामें कुलीन योद्धाओंका संग्रह आवश्यक बतलाया है। युद्धमन्त्री और प्रधानमन्त्रीकी नियुक्तिमें भी विशिष्टरूपसे कुलीनताका ध्यान आवश्यक बतलाया गया है। यहाँ कुलीनता तथा शालीनताका ध्यान केवल बुरे कर्मोंसे बचनेके लिये ही है, घमण्ड या अभिमानके लिये नहीं। दोषत्याग एवं गुणार्जनके लिये ही गौरवका उपयोग होता है। ‘श्रीमद्भागवत’ में बतलाया गया है कि ‘भगवद्विमुख, विविध गुणयुक्त ब्राह्मणकी अपेक्षा भगवद्भक्त चाण्डाल भी श्रेष्ठ है। भगवद्भक्त चाण्डाल अपने कुलसहित कृतार्थ हो जाता है, परंतु घमण्डी ब्राह्मण आत्मकल्याण करनेमें भी समर्थ नहीं होता।’ इसी अभिप्रायसे किसी शासकने एक ही अपराधमें पकड़े गये चार अपराधियोंको उनके कुल, संस्कार, योग्यता आदिके अनुसार चार प्रकारके दण्ड दिये। जिसे केवल सामने आते ही छोड़ दिया गया, उसकी न्यायालयसे बाहर निकलते-ही-निकलते हृदयगति अवरुद्ध होकर मृत्यु हो गयी। जिससे यह कहा गया कि ‘आप ऐसे और आपका यह काम!’ वह अपने-आप फाँसी लगाकर मर गया। जिसे कुछ भला-बुरा कहा गया, वह देश छोड़कर चला गया और जिसे दस बेंतकी सजा दी गयी, वह दस ही दिनोंके बाद पुन: उसी अपराधमें पकड़ा गया।
इस तरह कुल, जाति, राष्ट्र आदिके अभिमानसे कुल, जाति एवं राष्ट्रके गौरवस्वरूप आदर्शभूत महापुरुषोंके स्मरणसे, उनके आदर्शोंसे प्रेरणा प्राप्त होती है। हीन पुरुषोंके चिन्तनसे हीन प्रेरणा मिलती है और उत्तम पुरुषोंके चिन्तनसे उत्तम प्रेरणा मिलती है। यह प्रत्यक्ष है कि विशिष्ट संगीत सुनने तथा विशिष्ट संगीतज्ञके दर्शन या माहात्म्य-श्रवणसे संगीतमें प्रवृत्ति होती है। विशिष्ट वीर पुरुषोंकी वीरगाथा सुननेसे मनमें वीरताका संचार होता है। कामिनी-दर्शन या कामकलाके दर्शन, श्रवणादिसे काम-भावना जागरूक होती है। सर्प, व्याघ्रादि भीषण प्राणीके दर्शनसे भय उत्पन्न होता है। सत्पुरुषोंके दर्शन, श्रवणादिसे सद्भावना उत्पन्न होती है। परोपकारी, दयालु, देशभक्त आदिके दर्शन, श्रवणसे भी उस-उस ढंगके भाव उद्रिक्त होते हैं। विभिन्न राष्ट्रोंके विभिन्न ऐतिहासिक संस्मरण होते हैं। उनसे विभिन्न महापुरुषों, अवतारों, पैगम्बरों; तीर्थंकरों आदिके विशिष्ट सम्बन्ध होते हैं। वे स्थान, वे देश उन-उन अनुयायियोंके लिये तीर्थभूत होते हैं। मार्क्सवादी भी मार्क्स, एंजिल्सके चित्रों एवं कृतियोंका आदर करते हैं। रूसी लेनिन, स्टालिन तथा चीनी माओत्सेत्तुंग आदिका दर्शन-स्मरण तथा उनकी कृतियोंका आदर करते हैं। इन सबसे उन्हें प्रेरणा मिलती है। भगवान् शिव, विष्णु, भगवान् रामचन्द्र, कृष्णचन्द्र, बुद्ध तथा शंकराचार्य आदिसे संस्कारका, विशेषरूपसे भारतभूमिका विशिष्ट सम्बन्ध है। अयोध्या, मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन, यमुना, गंगा, चित्रकूट, रामेश्वर, द्वारका, जगन्नाथ, उज्जयिनी आदि विशिष्ट तीर्थ माने जाते हैं। इन हेतुओंसे विशिष्ट देशोंमें उन देशवासियोंकी विशिष्ट श्रद्धा होती है। उनकी रक्षा और समृद्धिके लिये उनके द्वारा विशिष्ट प्रकारकी प्रेरणाएँ मिलती रहती हैं। शास्त्रोंमें तो कहा गया है कि जननी और जन्मभूमि स्वर्गसे भी अधिक श्रेष्ठ होती है—‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’
आधुनिक इतिहास बतलाता है कि मार्क्सवादी नीतिके अनुसार बने हुए ‘अन्ताराष्ट्रिय मजदूर-संघ’ में यद्यपि १९०७ की स्टाटगार्टकी बैठकमें यह प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था कि ‘आगामी होनेवाले महायुद्धोंमें मजदूरोंको भाग न लेकर उनका जोरदार विरोध करना चाहिये और महायुद्धको गृहयुद्धके रूपमें परिणत करके साम्राज्यवादका अन्त करके समाजवादकी स्थापना करनी चाहिये।’ इसी प्रस्तावको सन् १९१० की कोपेनहेगेनकी बैठकमें पुन: दोहराया गया। फिर भी १९१४ में जब पहला महायुद्ध प्रारम्भ हुआ, तो सभी देशोंके मजदूरनेता राष्ट्रियताके स्वाभाविक प्रवाहमें बह गये और उन्होंने युद्धका समर्थन किया। कहावत है कि ‘पहले अपनी ही दाढ़ीकी आग बुझायी जाती है।’ दूसरे अन्ताराष्ट्रिय मजदूरसंघके बहुमतने उपर्युक्त प्रस्तावका उल्लंघन किया। फ्रांसके क्रान्तिकारी संघवादी भी इस राष्ट्रियताकी लहरमें बह गये और राष्ट्रियता के आधारपर एक देशके समाजवादी दल दूसरे देशके समाजवादी दलसे खुलकर लड़े। १९१९ में अन्ताराष्ट्रिय मजदूरसंघकी पुन: स्थापना करनी पड़ी और फिर उसका भी द्वितीय महायुद्ध-कालमें अन्त कर दिया गया, अब ‘कोमिन्फार्म’ नामकी संस्था बनी। ट्राटस्कीके अनुयायी तो स्टालिन एवं रूसोको मार्क्सवादी परम्पराके विपरीत समझते हैं और रूसी राज्यमें नौकरशाहीका बोलबाला मानते हैं। अन्य वामपन्थी लोग भी यही समझते हैं कि ‘सोवियत रूसने मार्क्सीय विश्वक्रान्तिका मार्ग छोड़ दिया है, उसमें नौकरशाही एवं स्टैलिनशाहीका ही एकाधिकार है; वह दुनियाके प्रतिक्रियावादियोंसे समझौता करके उन्हें प्रोत्साहन देता है।’
मार्क्सवादी इतिहासके आधारपर कहते हैं कि ‘सर्वहाराका राज्य आनेवाला ही है, स्वागतके लिये तैयार रहो।’ अराजकतावादी कहते हैं—‘वह राज्यहीन समाज आ ही गया है, स्वागतके लिये तैयार रहो!’ हॉब्स, लॉक, रूसो आदिकी भी एक ऐतिहासिक धारणा थी। कॉण्ट, ग्रीन, फिक्टे, हीगेल आदिकी दूसरी ही ऐतिहासिक धारणाएँ थीं। मार्क्स, एंजिल्सकी अलग ही ऐतिहासिक धारणा है। हॉब्सके मतमें ‘राज्यके जन्मसे पहले मनुष्य एक खूँखार जानवरके तुल्य भीषण था।’ लॉक एवं रूसोके अनुसार ‘राज्यके जन्मसे पहले मनुष्य एक श्रेष्ठ स्थितिमें था। फिर राज्यके पचड़ेमें क्यों पड़ा?’ इसके भी भिन्न-भिन्न प्रकारके उत्तर हैं। बहुतोंने अनुबन्ध या ‘सोशल-कन्ट्राक्ट’ को ऐतिहासिक कहा और बहुतोंने उसे सर्वथा अप्रामाणिक बतलाया। ये सभी लोग इतिहासका ही नाम लेते हैं। भविष्यके सम्बन्धमें भी ऐसी ही विभिन्न अटकलें हैं। रूसोका सामान्येच्छाका राज्य; ग्रीन, कॉण्टका आदर्श विश्वराज्य, हीगेलका आदर्श राज्य, मार्क्सका वर्गहीन राज्य, वाकुनिनका राज्यहीन समाज एक स्वप्निल जगत्की ही चीजें रह गयी हैं। फिर भी उसने अनुयायी अन्ध-विश्वास लिये उन्हीं लकीरोंको पीट रहे हैं, यद्यपि वे शास्त्रवादियोंको ही अन्ध-विश्वासी मानते हैं।
परंतु रामायण, महाभारतका इतिहास समाधिजन्य ऋतम्भरा प्रज्ञापर आधारित है। वह तार, टेलिप्रिन्टरके आधारपर या अटकलोंके आधारपर नहीं बना और न किसी मूर्ति, शिलालेख, स्तम्भों अथवा मुद्राओंके आधारपर ही बना है। इसीलिये रामायण, महाभारतादि इतिहास इतिवृत्तसम्बन्धी पात्रोंके हसित, भाषित, इंगित, चेष्टित, स्थूल, सूक्ष्म, संनिकृष्ट, व्यवहित—सभी घटनाओंका हस्तगत आमलकके समान प्रत्यक्ष आर्ष साक्षात्कार करके ही लिखे गये हैं। इसके अतिरिक्त आधुनिक इतिहासोंकी काल-सीमा छ: हजार वर्षकी ही तो है। इसीमें उनका ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक काल आ जाता है, परंतु रामायणादिकी दृष्टिसे तो वर्तमान सृष्टि लगभग दो अरब वर्षकी है। यदि संसारभरका एक वर्षका इतिहास एक पन्नेमें भी लिखा जाय तो भी दो अरब पन्नेका इतिहास होता है, फिर उसका कितने दिनोंमें अध्ययन हो सकेगा और कौन, कब तथा क्या निष्कर्ष निकाल सकेगा और कब उसे कार्यान्वित किया जायगा? इतिहासका अभिप्राय भी गड़े मुर्दोंको उखाड़नेके तुल्य पुरानी घटनाओंको दोहराना ही नहीं, किंतु उन अतीत घटनाओंसे धार्मिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक अभ्युदयोपयोगी शिक्षण (सबक) प्राप्त करना ही होता है। अतएव सभी घटनाओं या सभी व्यक्तियोंको इतिहासमें स्थान नहीं मिलता और न सबका उल्लेख ही इतिहासमें सम्भव है। कितने ही मनुष्य उत्पन्न होते है, कितने ही मरते हैं, कितनी ही घटनाएँ घटती रहती हैं। उनका इतिहासमें न तो उल्लेख ही होता है और न उल्लेख करना सम्भव ही है। नगरों, ग्रामोंमें मनुष्योंके जन्मने-मरनेका लेखा-जोखा होता है, फिर भी पशुओं, पक्षियों, मच्छरोंके जन्मने-मरनेका कोई लेखा-जोखा नहीं होता। इतिहासकी दृष्टिमें सामान्य मनुष्यों एवं घटनाओंका भी यही हाल है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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