8.9 इतिहासका वर्ण्य-विषय ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

8.9 इतिहासका वर्ण्य-विषय

मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘राजाओं, महाराजाओं, वीरपुरुषोंका वर्णन करना इतिहासका लक्ष्य न होकर समष्टि जनताकी स्वाभाविक जीवनस्थिति, उत्पादन-साधन और उनके परस्पर सम्बन्ध तथा उनके परिणामोंका निरूपण ही इतिहासका मुख्य विषय होना चाहिये।’ तदनुसार ही मार्क्सवादी प्राथमिक वर्गहीन समाज, फिर मालिक और गुलाम, फिर सामन्त एवं किसान-गुलाम, फिर पूँजीपति और मजदूर, फिर मजदूर राज्य तथा पुन: वर्गविहीन समाजकी स्थापनाका इतिहास सिद्ध करके दिखलाते हैं। दूसरे लोग पाषाण-युग, लौह-युग, यन्त्र-युग आदिकी कल्पना करते हैं। इतिहासके गोरखधन्धेसे अपने-अपने मतलबकी चीज सभी निकालते हैं, विशेष प्रामाणिक आधार खोजे बिना ही कल्पनाके महल खड़े किये जाते हैं। फिर ये सभी कल्पनाएँ हजार, दो हजार वर्षके इतिहासके भीतर ही हैं। विशेषत: मार्क्सवादी विवेचन अधिकांश रूपसे ४००वर्षोंकी ही घटनाओंपर निर्भर है। लाखों-करोड़ों वर्षोंके इतिहासकी कौन-कौन-सी घटनाएँ आधुनिक कल्पनाओंमें साधक हैं, कौन-कौन-सी बाधक हैं—इससे उनका कुछ भी मतलब नहीं। यही स्थिति अराजकतावादियोंकी भी है। घटनाएँ सब सकारण होती हैं। फिर भी सब घटनाएँ परस्पर एक-दूसरेकी कारण नहीं होतीं। कई स्थलोंपर तो घटनाएँ अव्यवहित होनेपर भी उनमें कार्य-कारण-भाव नहीं माना जाता। कौवेका बैठना और ताड़का गिरना व्यवधानशून्य होनेपर भी कार्य-कारण-सम्बन्धसे शून्य होता है। इसी आधारपर बहुत-सी घटनाओंके सम्बन्धोंको काकतालीय ही माना जाता है। इसके अतिरिक्त प्राणियों, देश तथा संसारके सौभाग्य-दौर्भाग्य दोनों ही चलते हैं। दौर्भाग्यसे बुरी घटनाएँ और सौभाग्यसे अच्छी घटनाएँ भी घटती हैं। अच्छी घटनाओंके मूलमें सौभाग्यके अतिरिक्त सत्प्रयत्नका भी हाथ होता है। बुरी घटनाओंमें दुर्भाग्यके अतिरिक्त प्रमाद, आलस्य, दुराचार, दुष्प्रयत्नका भी हाथ रहता है। रावणके हाथों भी बहुत-सी घटनाएँ हुईं। युधिष्ठिर एवं दुर्योधनादिके द्वारा भी अनेक ढंगकी घटनाएँ घटीं। देवों-असुरोंसे सम्बन्धित घटनाओंके बारेमें भी यह बात कही जा सकती है। बुरी घटनाओंका वर्णन बुरे कामोंसे बचने और सावधान होनेके लिये होता है तथा अच्छी घटनाओंका वर्णन गुणग्रहण एवं प्रोत्साहनके लिये होता है। इसीलिये रामायणके अध्ययनसे यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि राम-भरत आदिके समान बर्तना चाहिये, रावणादिकी तरह नहीं। महाभारत पढ़कर यह पाठ सीखना चाहिये कि युधिष्ठिरादिके समान बर्तन करना चाहिये, दुर्योधन आदिके समान नहीं—‘रामादिवद् वर्त्तितव्यं न तथा रावणादिवत्। युधिष्ठिरादिवद् वर्त्तितव्यं न दुर्योधनादिवत्॥’
सदाचार, सद्धर्म, सत्कर्म, सदुद्योग, सद्धनार्जन एवं सदुपायोंका शिक्षण ऐतिहासिक सद्घटनाओंसे सीखा जा सकता है। सत्पुरुषोंके भी कुत्सित आचारोंका अनुसरण नहीं किया जा सकता। ‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:’ यह स्वभावोक्ति है। प्राणीकी स्वाभाविक प्रवृत्ति श्रेष्ठ पुरुषोंके अनुकरण करनेकी होती है, अत: श्रेष्ठ पुरुषोंको शास्त्रानुसारी सदाचार-पालनका विशेष ध्यान रखना चाहिये। प्राणियोंको भी श्रेष्ठोंके शास्त्रानुसारी सुचरितोंका ही अनुकरण करना चाहिये, दुश्चरितोंका नहीं। इसीलिये वैदिक ऋषिने कहा है कि जो हमारे सुचरित हों, उन्हें ही तुम आचरणमें लाओ, दुश्चरितोंको नहीं—‘यान्यस्माकॸ सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि’ (तैत्तिरीयोपनिषद् १।११।२)। अध्यात्म-दृष्टिसे विज्ञान-वैराग्यकी विवक्षासे ही विभिन्न महापुरुषोंकी घटनाओंका वर्णन किया जाता है। उक्त प्रयोजनसे भिन्न वाग्वैभवसे अन्य कोई परमार्थ नहीं है। श्रीशुकदेवजीने परीक्षित‍्को बतलाया था कि मैंने जो संसारमें यश फैलाकर स्वर्ग जानेवाले महापुरुषोंकी कथाएँ कहीं हैं, उनका अभिप्राय विज्ञान, वैराग्यके प्रतिपादनमें ही है। कितना ही बलवान्, बुद्धिमान्, धनवान् सम्राट् क्यों न हो, सबको ही कालके गालमें जाना पड़ता है। स्वधर्मानुष्ठान, परोपकार एवं साक्षात्कार ही जीवनका सार है। प्रपंचका अधिष्ठान आत्मा ही सत् है। इस प्रकार वैराग्य, विज्ञान-सम्पादनके अतिरिक्त वाग्वैभवको छोड़कर कोई परमार्थता नहीं है। हाँ, जगत‍्कारण सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् चेतन भगवान‍्की कथाओंका वर्णन तो भक्तिके लिये भी उपयोगी है—
कथा इमास्ते कथिता महीयसां
विताय लोकेषु यश: परेयुषाम्।
विज्ञानवैराग्यविवक्षया विभो
वचोविभूतीर्न तु पारमार्थ्यम्॥
यस्तूत्तमश्लोकगुणानुवाद:
सङ्गीयतेऽभीक्ष्णममङ्गलघ्न:।
तमेव नित्यं शृणुयादभीक्ष्णं
कृष्णेऽमलां भक्तिमभीप्समान:॥
(भागवत १२।३।१४-१५)
मार्क्सवादियोंके मतानुसार ‘वर्ग-संघर्ष, वर्ग-विद्वेष एवं वर्ग-विध्वंसका इतिहास ही इतिहास’ माना जाता है, परंतु वस्तुत: वही मानवका इतिहास नहीं है। वाद, प्रतिवाद, संवादका भी यही ध्येय नहीं है, किंतु आत्मसाक्षात्कार, स्वधर्मानुष्ठान, क्षमा, दया, परोपकार, त्याग, तपस्या आदि ही इतिहासका ध्येय है। अवश्य ही खाने-कमाने, लड़ाई-झगड़े और संघर्षकी भी घटनाएँ होती हैं, परंतु वे आदर्श एवं अनुकरणीय नहीं हैं। उनके द्वारा उत्थानानुकूल रचनात्मक शिक्षा नहीं ग्रहण की जा सकती। मनुष्योंमें ही क्यों, पशु-पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ोंमें भी खाने-पीने, विषयोपभोगके लिये संघर्ष चलता है। कइयोंमें तो खूब जमकर लड़ाई होती है। बन्दरों, मुर्गों, तीतरों, भेड़ों आदिमें भी गहरी लड़ाई होती है। उनमें भी जातिभेदके आधारपर प्राबल्य-दौर्बल्य होता है। मुर्गोंमें यह प्रसिद्ध है। किसी भी लड़ाईमें दो गुट हो सकते हैं। मजदूरोंकी ही आपसमें जब कभी लड़ाई होने लगती है, तब उनमें दो गुट बन जाते हैं। कभी जातिभेदसे संघर्ष होता है, कभी धर्मभेदसे, कभी जीविकाभेदसे और कभी सिद्धान्तभेदसे भी संघर्ष चलता है। कई कूटनीतिज्ञोंद्वारा कृत्रिम गुट बना डाले जाते हैं। आजकल तो स्त्री-पुरुषोंमें भी संघर्ष उत्पन्न करनेकी चेष्टा चल रही है।
घटनाएँ चेतनके परतन्त्र होती हैं, किंतु चेतन घटनाओंके परतन्त्र नहीं होता। चेतनकी परतन्त्रता इसी प्रकार अस्थायीरूपसे सम्भव होती है। जैसे एक दौड़नेवाले चेतन व्यक्तिने अपने आप स्वतन्त्रतापूर्वक स्वेच्छासे दौड़ना प्रारम्भ किया। वह दौड़ने, न दौड़ने या बैठ जानेमें पहले स्वतन्त्र है; किंतु बादमें दौड़नेसे उत्पन्न होनेवाले वेगके बढ़ जानेपर वह परतन्त्रताका अनुभव करता है। फिर उसे ठहरना होता है तो कुछ पहलेसे ही उसे अपनी गति मन्द करनेका प्रयत्न करना पड़ता है। मोटर आदिका दौड़ना रोकनेके लिये तो और भी पहलेसे गति मन्द करनेके लिये प्रयत्न करना पड़ता है। मनन करनेवाला मन्ता चेतन मनका प्रयोक्ता है, वह स्वतन्त्र है, परंतु मननजन्य वेगके बढ़ जानेपर मननको सहसा रोक देना मन्ताके वशकी बात नहीं होती। मनन रोकनेके लिये मन्ताको यमनियमादि-अष्टांगयोग करने पड़ते हैं। आये दिन हम देखते हैं कि मनुष्य परिस्थिति बनाता है और उसका सामना करता है। यदि ऐसा न हो, प्राणी परिस्थितिका एक जडयन्त्र ही हो, तब तो पुरुषार्थके लिये स्थान ही न रह जाय। वैज्ञानिक कितनी ही बार यन्त्रोंके निर्माणमें तथा संचालनमें असफल होते हैं, कितनी ही बार रेल, मोटर एवं वायुयानोंकी दुर्घटनाएँ होती हैं; फिर भी हिम्मती लोग घबराते नहीं, संकटपूर्ण परिस्थितिका मुकाबला करते हैं।
सम्पत्ति-विपत्ति, अनुकूलता-प्रतिकूलता—सभीमें वाद, प्रतिवाद, संवादकी कथा जुड़ सकती है। उन्नति भी पाप-पुण्य, भलाई-बुराई दोनोंकी होती है। शैतानवर्गकी भी उन्नति एवं अवनति होती है। इसी तरह एक सज्जन और सज्जनवर्गकी भी उन्नति एवं अवनति हो सकती है। सभीका समर्थन इतिहाससे मिल सकता है। फिर भी सज्जन लोग सज्जनोंके इतिवृत्तसे ही शिक्षा ग्रहण करेंगे और सज्जनोचित उपायसे ही उन्नतिका प्रयत्न करेंगे। आर्ष, प्रामाणिक रामायण, महाभारत आदि इतिहासोंके आधारपर तो बतलाया जा चुका है कि कृतयुगमें सत्त्वप्रधान धर्मनियन्त्रित मनुष्य राज्य, राजा तथा दण्ड-विधान आदिके बिना ही एकमात्र धर्मसे नियन्त्रित होकर सब काम आपसमें ही चला लेते थे। उस समय सत्त्व-प्रधान एवं धर्म-नियन्त्रित होनेके कारण अपराधी भी कोई नहीं होता था। इसका कारण यह भी था कि सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् स्वच्छ परमेश्वरके अधिक संनिहित प्राणियोंमें स्वच्छता अधिक थी। जो वस्तु स्वच्छ कारणसे अधिक सन्निहित होती है, वह उतनी ही स्वच्छ होती है। जैसे आकाशसे उत्पन्न वायु पृथ्वीकी अपेक्षा अधिक स्वच्छ है। तेज वायुकी अपेक्षा कुछ कम, किंतु जलादिकी अपेक्षा अधिक स्वच्छ है। तेजकी अपेक्षा जल कुछ कम स्वच्छ है, परंतु पृथ्वीकी अपेक्षा अधिक स्वच्छ है। पृथ्वी पार्थिव प्रपंचकी अपेक्षा अधिक स्वच्छ है। इसी तरह परमेश्वरसे उत्पन्न ब्रह्मा और ब्रह्मासे उत्पन्न वसिष्ठादि महर्षि अधिक स्वच्छ, सात्त्विक एवं सर्वज्ञ थे। परमेश्वरसे उत्तरोत्तर दूर परम्परा सृष्ट प्राणियोंके सत्त्वमें तथा सर्वज्ञता आदिमें भी उत्तरोत्तर न्यूनता आती गयी। तदनुकूल ही रजस्तमोगुणकी वृद्धि होनेसे पाप एवं अपराधकी भी वृद्धि होती गयी। जहाँ सत्त्व एवं धर्मकी प्रधानता है, वहाँ धर्मनियन्त्रण ही पर्याप्त है। जहाँ सत्त्व एवं धर्मकी न्यूनता होती है, वहाँ बाह्य नियन्त्रण भी अपेक्षित होता है। जलकी जैसे निम्न प्रदेशकी ओर स्वभावत: प्रवृत्ति होती है, वैसे ही इन्द्रियोंकी अपने विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धकी ओर स्वाभाविकी प्रवृत्ति होती है। सुन्दर शब्द, सुन्दर स्पर्श, सुन्दर रूप, सुन्दर रस, सुन्दर गन्ध, सुन्दर भूषण-वसन, सुन्दर स्त्री आदिकी ओर इन्द्रियोंका स्वाभाविक खिंचाव होता है। इन्द्रियाँ और मन सुन्दरतामात्र देखकर किसी वस्तुकी ओर प्रवृत्त होते हैं। ‘यह मेरा है या पराया, यह ग्राह्य है या त्याज्य’, यह विवेक तो धर्मनियन्त्रित, शास्त्रसंस्कृत मन ही कर सकता है। मनके अधिक विषयप्रवण एवं रागी हो जानेपर उसके नियन्त्रणके लिये फिर शास्त्रके अतिरिक्त नरक एवं राजदण्ड आदिका भय भी अपेक्षित होता है। यही कारण है कि जब सत्त्व-धर्ममें कमी हुई, रजोगुण, तमोगुणकी वृद्धि हुई और अधर्मका विस्तार हुआ, तब इन्द्रियोंपर नियन्त्रण भी कम हो गया। फिर तो राग-प्रवण मन सुन्दर परधन तथा परकलत्रादिके अपहरणमें प्रवृत्त होने लगा। तभी मात्स्यन्याय फैला और प्रजा उद्विग्न होकर नियन्त्रण एवं व्यवस्था चाहने लगी। तभी परमेश्वरानुगृहीत, चन्द्र-सूर्यादि अष्टलोकपालोंके अंशोंसे युक्त राजाका प्रादुर्भाव हुआ और उसपर भी धर्मका नियन्त्रण हुआ।
धर्मनियन्त्रित राजा धर्म-प्रसार, दण्ड-विधान आदिद्वारा मात्स्यन्यायको हटानेमें समर्थ हुआ। वैवस्वत मनु, इक्ष्वाकु, मान्धाता, दिलीप, गाधि, अलर्क, शिबि, रन्तिदेव, हरिश्चन्द्र, रामचन्द्र, युधिष्ठिरादि राजा पूर्ण धर्मनियन्त्रित, दयालु, परोपकारी और प्रजारक्षणार्थ अपना सर्वस्व बलिदान करनेवाले हो गये हैं। रामचन्द्रका प्रजारंजनार्थ सर्वत्याग प्रसिद्ध है। शिबि, रन्तिदेव आदि नरेन्द्रोंने केवल प्रजाके ही नहीं, पशु-पक्षियोंतकके हितार्थ अपने राज्य, धन, प्राण—सब कुछका त्याग किया है। इन्हें शोषक एवं अन्यायी कहना शुद्ध उच्छृंखलताका ही प्रदर्शन करना है। धर्मनियन्त्रित राजा, जनप्रतिनिधियोंका शासन ही ऐहिक, आमुष्मिक, अभ्युदय और परम नि:श्रेयसका मार्ग प्रशस्त कर सकता है। उसके बिना मात्स्य-न्याय फैलता है। सभीका शासनमें भाग लेना सम्भव न होनेसे प्रतिनिधिकी कल्पना करनी पड़ती है। प्रतिनिधि मुख्यसे भिन्न होता ही है, किंतु वह मुख्यका अपेक्षित एवं निश्चित कार्यकारी होता है। स्वेच्छात्मक संस्थाओं या अराजकतावादी संघको भी तो यूरोप या संसारके लिये प्रतिनिधि निश्चित करना ही पड़ता है। हाँ, प्रतिनिधि योग्य होना उचित है। अराजकतावादकी नींव है व्यक्ति और मार्क्सवादकी नींव है समाज। प्रथम पक्षमें समूहकी स्वाधीनताकी पहली सबसे बड़ी शर्त है व्यक्तिकी स्वतन्त्रता। तदनुसार सब कुछ व्यक्तिकी स्वाधीनताके लिये ही होना चाहिये। दूसरे पक्षमें स्वाधीनताकी सबसे बड़ी शर्त है जनताकी स्वाधीनता, अत: सब कुछ जनताके लिये ही होना चाहिये। रामराज्यवादीकी दृष्टिमें व्यष्टि और समष्टिका अभेद है, अतएव दोनोंका समन्वय ही सिद्धान्त है। समष्टिके द्वारा व्यष्टिको अभ्युदयकी सुविधा मिलती है और व्यष्टि द्वारा समष्टिका निर्माण होता है।
समाजवादी तथा अराजकतावादी दोनोंहीके सिद्धान्तोंके आधारभूत इतिहास अल्पदेशीय हैं। मार्क्सके अनुभवका क्षेत्र इंग्लैण्डका श्रमिक आन्दोलन ही था। अधिक-से-अधिक फ्रांस, जर्मनी तथा इंग्लैण्डके, तत्रापि लगभग ४०० वर्षतकके ही इतिहासपर उसका सिद्धान्त प्रतिष्ठित है। अत: उसका क्या प्रामाण्य?


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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