9.7 गुण-परिवर्तन
‘पूँजीवादमें समाज और प्रकृतिका विरोध तो विद्यमान रहता है; लेकिन इस विरोधके विशिष्टरूपका निराकरण होता है भौगोलिक परिवेष्टनके गुणोंद्वारा नहीं; बल्कि पूँजीवादके विकासके मूल नियमोंके द्वारा। समाज अपने आन्तरिक नियमोंसे और अपनी उत्पादक-शक्तियोंके विकाससे हर विशेष सामाजिक संगठनोंके विशेष साधनोंद्वारा अपने भौगोलिक परिवेष्टनमें परिवर्तन करता है। जंगलोंकी कमी हो गयी है, पेड़ोंके लगाने और गिरानेपर नियन्त्रण रखा जाता है। कोयला काफी नहीं है, पेट्रोलियम उसके स्थानपर इस्तेमाल किया जाता है। चमड़ा, रेशम, ऊनकी कमी है, अत: ये कृत्रिम उपायोंसे बनाये जाते हैं। हवामें नमीकी कमी है, आबपाशीसे काम लिया जाता है। पशु और वनस्पति जगत्में नये रूपमें प्राप्त होते हैं; क्योंकि इनके नये किस्मकी सृष्टि होती रहती है। यदि इतना होते हुए भी पूँजीवादी समाजमें प्राकृतिक परिवर्तन इतना सीमित है तो इसका कारण प्रकृति और समाजके विरोधमें नहीं मिलेगा, बल्कि पूँजीवादी उत्पादक सम्बन्धोंमें मिलेगा, जो उत्पादक-शक्तियोंका पूरा-पूरा विकास नहीं होने देता। समाजवादमें ही यह प्राकृतिक परिवर्तन पूर्णरूपमें सम्भव है, जिसमें मुनाफाके लिये नहीं, उपभोगके लिये पदार्थ बनाये जाते हैं।’
‘किसी वस्तुकी मूल गति ही उसके गुणका निर्देश करती है। भूत अपनी गतिसे ही असंख्य गुणोंकी सृष्टि करता है। मनुष्य, सामान्य जीवनकोष, जड पदार्थ—सभी एक ही भौतिक विकासकी चढ़ती सीढ़ीके कदम हैं और ये कदम भिन्न गुणसम्पन्न हैं। प्रत्येक गतिमें यान्त्रिक गति सम्मिलित है और इसके कारणभूत कणोंकी सजावटमें भिन्नता आ जाती है। इन यान्त्रिक गतियोंको समझना विज्ञानका पहला काम है; लेकिन यह केवल पहला ही कदम है। यान्त्रिक गतिसे व्यापक गतिका अन्त नहीं हो जाता। गति केवल स्थान-परिवर्तनमात्र नहीं है। यन्त्र-राज्यसे ऊपर यह गुणका भी परिवर्तन है। यान्त्रिक गति हर उच्च प्रकारकी गतिका एक आवश्यक अंग है, यद्यपि यह गतिके और गुणोंकी भी सृष्टि करती है। रासायनिक क्रियाके साथ उत्ताप और वैद्युतिक परिवर्तनका निरन्तर संयोग है। सावयव जीवन बिना यान्त्रिक, कणिक, रासायनिक उत्ताप और बिजली-सम्बन्धी परिवर्तनोंके असम्भव है। लेकिन प्रत्येक क्षेत्रोंमें इन समवर्तमान रूपोंसे मूलरूपके तत्त्वका भण्डार चुक नहीं जाता।’
‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि विशिष्ट गुणसम्पन्न भूतकी नयी अवस्थाका आविष्कार गतिके एक नये प्रकारका आविष्कार होगा। परिणामकी वृद्धिसे वस्तुविशेषका गुण अपने विपरीतमें परिवर्तित हो जाता है। जैसे, निर्विरोध प्रतियोगिता पूँजीवादका और साधारणत: पण्य-उत्पादनका मौलिक गुण है। एकाधिकार इसका ठीक उलटा है। लेकिन हम अपनी आँखके सामने प्रतियोगिताको एकाधिकारमें रूपान्तरित होते देख रहे हैं, जिससे बड़े पैमानेपर उत्पादनकी सृष्टि होकर छोटी फैक्टरियाँ दबती जा रही हैं और उत्पादन बड़े-से-बड़े पैमानेपर होकर अन्तमें पूँजी और उत्पादनका इस प्रकार एकत्रीकरण हो जाता है कि इसका परिणाम एकाधिकार हो जाता है।’ (लेनिनका साम्राज्यवाद)
वस्तुत: समाज और प्रकृतिमें विरोध नहीं होता; क्योंकि प्रकृतिद्वारा समाजका विकास एवं उपोद्वलन होता है; प्रकृतिसे ही सम्पूर्ण प्रकारकी सुविधा प्राप्त होती है। समाजद्वारा उपयोग करते-करते जो प्राकृतिक वस्तुओंकी कमी होती है, इसे विरोध नहीं कहा जा सकता। पृथ्वीसे घटादिका निर्माण होता है, मृत्तिकाका उपयोग होता है; फिर भी घटादि कार्य प्रकृतिविरोधी नहीं समझे जाते। कारणसे कार्यकी उत्पत्ति होती है, किंचित् कारणांशका उसमें उपक्षय भी होता है। माता-पितासे सन्तानोंकी उत्पत्ति होती है, वहाँ भी किंचित् उपक्षय होता है, तथापि यहाँ विरोध नहीं समझा जाता। जंगलोंकी कमी रोकनेके लिये पेड़ लगाना तथा गिरानेपर नियन्त्रण करना, कोयलेकी कमी होनेपर पेट्रोलियमका प्रयोग आदि समाज अपना काम चलानेके लिये करता है, इसे विरोध-निराकरण नहीं कहा जा सकता। अन्तत: प्राकृतिक परिवर्तनोंसे उन-उन कमियोंकी पूर्ति होती है, जैसे खेतोंकी उर्वराशक्ति अधिक फसल उपजानेसे नष्ट हो जाती है, तदर्थ कृत्रिम खाद डालने आदि उपायोंसे उर्वराशक्ति बढ़ायी जाती है, परंतु कुछ समयतक फसल न उपजानेसे या बाढ़ आदि प्राकृतिक परिवर्तनसे पुन: उर्वराशक्तिकी वृद्धि हो जाती है। इसी तरह अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, महामारी, युद्ध, खण्ड प्रलयादिद्वारा प्राकृतिक परिवर्तन होता है। काल-क्रमसे कितने ही अरण्य नगर तथा नगर अरण्य हो जाते हैं। इन परिवर्तनोंकी दृष्टिसे शताब्दि तथा सहस्राब्दिका काल अत्यल्प है।
पशुओं तथा वनस्पतियोंके कृत्रिम कलम एवं नस्ल-सुधारद्वारा नया रूप प्राप्त होता है, यह मनुष्यकी कृतिकी विशेषता है। इसमें भी प्रकृतिके सहयोगसे ही काम चलता है। वस्तुत: ईश्वरका अंश ही जीव है। ईश्वरकी ज्ञान-क्रिया-शक्तिका ही अंश जीवकी ज्ञान-क्रिया-शक्ति है; इसीलिये ईश्वरके तुल्य अनेक वस्तुओंकी निर्माणशक्ति मनुष्य आदि जीवोंमें भी उपलब्ध होती है। इस तरह प्राकृतिक वस्तुओंकी कमी होनेपर मनुष्य प्राकृतिक वस्तुओंके सहारे प्रकारान्तरसे कमी पूरी करनेका प्रयत्न करता है।
उत्पादक-शक्तियोंके विकासके मूलमें समाजवाद या पूँजीवाद नहीं है। किंतु आवश्यकताकी अनुभूति तथा तदनुकूल प्रयत्नपरायणता ही है। इसीलिये वेदों, पुराणोंसे विदित होता है कि आध्यात्मिक धार्मिक विस्तारके समय भी उत्पादकशक्तियोंका पर्याप्त विकास था। फिर भी बेकारी आदिका कारण होनेसे उसे अधिक सार्वजनिक रूप नहीं दिया गया। आज भी समाजवादी रूसकी अपेक्षा पूँजीवादी अमेरिकामें उत्पादक-शक्तियोंका कम विकास नहीं कहा जा सकता। समाजके उपभोगको ही लक्ष्य बनाकर उत्पादन-साधनोंका विकास रामराज्यप्रणालीमें मान्य होता है, किंतु उससे मुनाफा आनुषंगिक रूपमें ही प्राप्त होता है। उपभोगसे अधिक माल बननेसे मालकी खपतमें कमी होनेसे सुतरां उद्योगपतियोंकी अन्य अपेक्षित वस्तुओंके उत्पादनमें प्रवृत्ति स्वाभाविक है।
भूतोंकी स्वयं गति असिद्ध है। अचेतनकी प्रवृत्ति चेतनसे ही अधिष्ठित होती है। सत्त्व, रज आदि गुण; वायु, तेज, जल आदि भूतोंकी स्वयं गति निर्विवाद नहीं है। चेतनाधिष्ठित भूतोंकी गतिका भी गुणात्मक परिणाम सीमित है; निस्सीम नहीं। इसीलिये तैजस परिणाम चक्षुसे ही रूपका दर्शन होता है, पार्थिव घ्राणेन्द्रियसे नहीं। इसीलिये भूतोंका गुणात्मक परिणाम होनेपर भी भूतोंसे चैतन्यकी उत्पत्ति नहीं होती है। जैसे पटात्मक परिणामके लिये तन्तुमें ही शक्ति है, वायुमें नहीं। तिलसे ही तेल होता है, बालूसे नहीं। उसी तरह जड भूतोंका शब्दादि गुण-परिणाम सम्भव है, किंतु चैतन्यभूतोंका परिणाम नहीं सिद्ध होता। भले ही भूत तथा भौतिक देह, दिमाग, मस्तिष्क आदिके होनेपर ही चैतन्यका उपलम्भ होता है, तथापि इतने मात्रसे चैतन्य भूतका धर्म नहीं सिद्ध हो सकता; क्योंकि यदि अन्वयमात्रसे ही गुण-धर्मनिर्णय हो, तब तो आकाशके रहनेपर भी सब कार्य होते हैं, फिर तो गन्धादि भी आकाशके धर्म समझे जाने चाहिये। अत: अन्वय-व्यतिरेक—दोनोंके घटनेपर ही कारण-कार्य-भाव या धर्म-धर्मीभावका निर्णय होता है। प्रस्तुत प्रसंगमें अन्वय व्यभिचरित है। घटादिमें एवं मृत शरीरमें भूत रहता है, किंतु वहाँ चैतन्यका उपलम्भ नहीं होता।
‘विशिष्ट अवस्थायुक्त अन्नसे मदशक्तिकी तरह विशिष्ट अवस्थावाले भूतोंसे ही चैतन्यकी उत्पत्ति होती है’, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अन्नमें मदशक्ति पहले भी रहती है। यह अनशनके पश्चात् अन्न लेनेसे स्पष्ट प्रतीत होता है। यदि बालूमें तेलकी तरह वह पहले न हो तो किसी भी अवस्थामें उसका प्राकटॺ नहीं हो सकता। भूतोंमें चैतन्यका अस्तित्व होता तो अवश्य ही वह घटादिमें भी उपलब्ध होता। व्यतिरेक तो सर्वथा ही संदिग्ध रहता है। भूतोंके न रहनेपर चैतन्य रहता ही नहीं, इसीलिये अनुपलम्भ है अथवा रहता हुआ भी अभिव्यंजक भूत न होनेसे अनुपलम्भ होता है? सुस्पष्ट है कि लोहा, लक्कड़, तार आदि पार्थिव जलीय पदार्थ अग्निके अभिव्यंजक हैं। अतएव उनके न रहनेपर अग्निके रहते हुए भी अभिव्यक्ति नहीं होती। इसी तरह देह, दिल, दिमाग आदि आत्मचैतन्यके व्यंजक हैं; अतएव उनके न रहनेपर आत्मचैतन्यकी रहते हुए भी अभिव्यक्ति नहीं होती।
भूतोंकी यान्त्रिक गति और व्यापक गतिमें वास्तविक भेद नहीं है। व्यष्टि चेतन मनुष्यादिद्वारा यान्त्रिक गति बनती है। समष्टि ईश्वर चेतनद्वारा व्यापक गति बनती है। सर्वथापि चेतनके बिना भूत या गुण किसीकी स्वाभाविक गति नहीं हो सकती। गुणात्मक परिवर्तन भी यन्त्र-राज्यके बहिर्भूत नहीं है। तन्तुसे पट, जलसे बर्फ या भाप आदिका निर्माण यान्त्रिक गतिसे सम्पन्न होता ही है। वस्तुत: प्रत्यक्षानुमानद्वारा विदित भूत ही प्रकृति नहीं है। किंतु प्रत्यक्षानुमानसे अज्ञात अपौरुषेय तथा आर्षशास्त्रोंसे विज्ञात भूत एवं उससे भी अधिक उच्च स्तरकी सत्त्व, रज, तम आदिकी साम्यावस्थारूप प्रकृति अत्यधिक सूक्ष्म है और उसका भण्डार सचमुच अखण्ड है। उसीसे सबकी कमियोंकी पूर्ति होती रहती है। उसी कारण धरतीसे अगणित अपरिमित अन्नोंके उपजानेपर भी उसका भण्डार नहीं टूटता।
उत्ताप एवं वैद्युतिक परिवर्तन सबकी यान्त्रिक गतिपूर्वक ही है। यह जैसे मान्य है, वैसे ही अन्य परिवर्तनोंमें भी ईश्वरीय या मानवीय यान्त्रिक गति ही काम देती है। इसीलिये विशिष्ट गुणसम्पन्न भूतकी प्रत्येक अवस्था चेतनद्वारा ही आविष्कृत होती है। विपरीत गुणमें परिवर्तन भी यान्त्रिक गतिका ही परिणाम है। निर्विरोध प्रतियोगिता या एकाधिकार अपनी-अपनी सीमामें गुण है। राम-राज्य-प्रणालीमें जहाँ विकासके लिये प्रतियोगिता गुण है, वहाँ वह नि:सीम भी नहीं है। इसीलिये तो महायन्त्रोंके निर्माणपर प्रतिबन्ध आवश्यक समझा गया है। प्रतियोगितापर भी नियन्त्रण अपेक्षित माना गया है, उत्पादनके केन्द्रीयकरणकी अपेक्षा विकेन्द्रीकरणको रामराज्य-प्रणाली अधिक महत्त्व देती है, परंतु समाजवादमें उलटा महायन्त्रोंका अधिकाधिक विकास करके छोटी फैक्टरियोंका अस्तित्व सर्वथा ही समाप्त कर दिया जाता है। समाजवादियोंका फैसला तो बन्दरबाँटका फैसला है। मजदूरों तथा छोटी फैक्टरियोंका पक्ष लेकर मिलमालिकों एवं बड़े-बड़े कल-कारखानोंको भला-बुरा कहते-कहते बड़े-छोटे सब कारखानों, मालिक-मजदूर, किसान, जमींदार सभी भूमि-सम्पत्ति, उद्योग-धन्धोंको राष्ट्रियकरणके नामपर छीन लेते हैं। समाजवादी समाजके नामपर ऐसा भीषण तानाशाही एकाधिकार स्थापित करते हैं कि सबकी भूमि, सम्पत्ति, कल-कारखानोंको छीनकर लेखन, भाषणकी स्वतन्त्रता छीनकर सभीको परतन्त्रताके बन्धनोंमें जकड़ देते हैं।
कहा जाता है कि ‘गुणसे परिणामके परिवर्तनका साधारण उदाहरण है अच्छा बीज, जिसके बोनेसे उपजका परिमाण बहुत बढ़ जाता है। इसी तरह रूसकी सामूहिक खेती इसका दूसरा उदाहरण है, जिसके कारण भी उपजका परिमाण बहुत बढ़ जाता है। लेवीने गुणपरिवर्तनके सम्बन्धमें वस्तुओंको दो श्रेणियोंमें विभक्त किया है। कणिक (वैयक्तिक, आटोमैटिक) तथा सामूहिक (स्टैटिस्टिकल) और गुण-परिवर्तनको चार श्रेणियोंमें विभक्त किया है।’
१-कणिक-से-कणिक (वैयक्तिक-से-वैयक्तिक)। २-सामूहिक-से-सामूहिक। ३-कणिकसे सामूहिक। ४-सामूहिकसे कणिक।
उदाहरण १-(क) मनुष्यकी बाल्यावस्थासे वृद्धावस्था।
(ख) खनिज पदार्थ—प्राकृतिक अवस्थासे व्यावहारिक वस्तुके रूपमें।
(ग) जमीनका टुकड़ा जिसका व्यावहारिक मूल्य सामाजिक विकासके कारण बढ़ गया हो।
२-आस्ट्रेलियामें भेजा गया खरगोशका पहला जोड़ा, जहाँ अब उनका ढेर एक उत्पात बन गया है।
३-एक धूपका ‘दिन’, बहुत-से धूपके दिन सूखा।
४-इसमें सभी वे उदाहरण हैं, जिसमें समूह टूटकर अलग-अलग हो जाते हैं, जैसे एक परिवारका टूटना।
‘परिवर्तनकी कल्पनाके लिये ये उदाहरण सहायक हैं, लेकिन यह ध्यान रहे कि सभी उदाहरण द्वन्द्वात्मक परिवर्तनके उदाहरण नहीं। इसी प्रकार लेवीने उद्भिज्जराजके दो उदाहरण दिये हैं। १—जंगलमें सोतोंके पास एक प्रकारकी काई जमती है स्फैगमनसास, जो धीरे-धीरे जंगलको उजाड़ देती है। २—एक झील है। उसकी तहपर उद्भिज्ज सड़ते रहते हैं। तह ऊपरको उठती है और उसकी सतहपर लता तैरने लगती है। झील दलदल बन जाती है। लताओंकी जड़ें जमकर धीरे-धीरे घासका मैदान बन जाती है। हवाके झोंकोंसे बीज उड़कर लगनेसे पेड़-पौधे जम जाते हैं, फिर एक जंगल बन जाता है।’
अच्छे बीजसे, अच्छे खेतसे, अच्छी खादसे भी उपजके परिमाणका बढ़ना सर्वसम्मत है, परंतु यहाँ भी बीजादिके अच्छाईरूप गुणसे उपजका विस्तार होता है। यहाँ गुणका परिमाणके रूपसे परिवर्तन नहीं कहा जा सकता। गुण, गुण ही रहता है, वह गुण रहकर ही उपजके परिमाणकी वृद्धिका कारण बनता है। दूसरी दृष्टिसे बीजादिकी अच्छाईसे उपजकी अच्छाई होती है, उपजकी अच्छाईके स्वरूपमें ही वस्तुकी अच्छाई और संख्यावृद्धि आ जाती है।
लेवीके गुण-परिवर्तनके कणिकसे कणिकका उदाहरण भी कोई चीज नहीं है। मनुष्यकी बाल्यावस्थासे वृद्धावस्था, खनिज पदार्थोंका प्राकृतिक अवस्थासे व्यावहारिक अवस्थाके रूपमें परिवर्तन होना, सामाजिक विकासके कारण भूमिके टुकड़ेका व्यावहारिक मूल्य बढ़ जाना आदिका षड्भाव-विकारमें अन्तर्भाव हो जाता है। बाल्यावस्थासे वृद्धावस्थाका परिवर्तन, वृद्धि और विपरिणामके भीतर ही है। दूसरा उदाहरण भी इसी तरहका है। तीसरा उदाहरण तो माँगपूर्तिके सिद्धान्तानुसार माँग बढ़ जानेसे मूल्य बढ़ जाना है।
आस्ट्रेलियाके खरगोशके जोड़ेसे बहुत-से खरगोशोंका उत्पन्न हो जाना भी कौन-सी नयी बात है? अनुकूल परिस्थिति मिलनेसे कुत्ते, शूकर, मुर्गे आदि किसी भी जोड़ेसे सामूहिक विस्तार होता है। कणिकसे सामूहिक परिवर्तनका उदाहरण भी इसी ढंगका है। ‘एक धूपका दिन साधारण है, परंतु वही परिमाणकी वृद्धिसे होकर बहुत-सा धूपका दिन सूखा बन जाता है,’ यह भी कोई चमत्कृति नहीं है। दीपक आदिरूपमें छोटी अग्नि वायुसे बुझ जाती है, बड़ी अग्निका वायु सहायक बन जाता है। मृदु आतप रोचक होता है, तीव्र हो जानेपर वही उद्वेजक हो जाता है। अग्निका एक सीमाका संनिधान अनुकूल होता है, अन्य प्रकारका संनिधान मारक हो जाता है। सामूहिकसे कणिकका उदाहरण, समूह टूटकर अलग-अलग हो जाना, परिवार टूटकर पृथक्-पृथक् हो जाना आदि भी किसी सिद्धान्तका साधक नहीं है। विभाजनसे समूहका विशरण होना प्रसिद्ध है।
इसी प्रकार लेवीका जंगलकी काईसे जंगलके उजड़ जानेका उदाहरण भी कोई अपूर्व नहीं है। शरीरसे ही उत्पन्न रोगके द्वारा शरीरका नाश हो जाता है। कई लताओंके आश्रित होते ही वृक्ष नष्ट हो जाते हैं। किसी वृक्षपर एक बाँदाकी शाखा उत्पन्न होनेसे वृक्ष नष्ट हो जाता है। इसी प्रकार झीलका जंगल बन जानेका उदाहरण भी साधारण ही है। इतना ही क्यों, भौगोलिक परिवर्तनोंसे जलमें स्थल, स्थलमें जल, पहाड़में समुद्र, समुद्रमें पहाड़ादि बनते ही रहते हैं। इन आधारोंपर केवल कारणोंकी अपेक्षा कार्योंमें अनिर्वचनीय विलक्षणतामात्र सिद्ध होती है; परंतु इनसे यह सिद्ध नहीं होता कि कारणमें अत्यन्त अविद्यमान कोई वस्तु कार्यरूपमें व्यक्त होती है। अतएव भूतसे चैतन्यकी अभिव्यक्ति आदि भी नहीं सिद्ध हो सकती।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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