9.13 धर्म और अर्थ ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

9.13 धर्म और अर्थ

मार्क्सवादी कहते हैं कि धर्म, प्रेम या परोपकारके नामपर सर्वस्व लुटा देने या प्राण न्योछावर कर देनेका भी आधार आर्थिक ही है; क्योंकि सब कुछ सन्तोष-तृप्तिके लिये ही किया जाता है। अन्यायके विरोधमें आत्मबलिदान करता हुआ भी प्राणी सब कुछ स्वार्थके उद्देश्यसे करता है, परंतु यहाँ स्वार्थका अर्थ व्यक्ति न समझकर श्रेणी समझना उचित है। समाजमें व्यवस्था एवं शान्ति न रहनेसे समाजके नुकसानके साथ व्यक्तिका भी नुकसान होता है। समाजकी रक्षामें ही व्यक्तिकी भी रक्षा होती है; परंतु जडवादमें उपर्युक्त बातें संगत नहीं होतीं। जो देहमात्रको आत्मा मानता है, देहके नष्ट हो जानेपर आत्माका नाश मानता है, वह आत्मनाशके काममें कभी भी प्रवृत्त नहीं हो सकता। आत्माके नष्ट हो जानेपर समाजकी रक्षासे फिर किसकी रक्षा होगी? जिसकी रक्षाके लिये समाजकी रक्षा करनी है, जब उसका नाश सामने ही है, तो उसकी रक्षाके लिये समाज-रक्षाकी बात ही कहाँ उठती है? शान्ति या सन्तोषके लिये त्याग भी वहींतक किया जा सकता है, जहाँतक जिसे शान्ति-सन्तोष चाहिये, वह बना रहे। जब शान्ति-सन्तोषका भोक्ता ही नष्ट हो जायगा तो शान्ति-सन्तोषका सुख कौन भोगेगा? अध्यात्मवादी देहादिके नष्ट हो जानेपर भी सुख-शान्ति-सन्तोष भोगनेवाली आत्माको अमर मानते हैं। अत: उनका त्याग, बलिदान बन सकता है। आत्म-कल्याणके लिये धर्मार्थ, परोपकारार्थ प्राणत्यागतक करना उनकी दृष्टिसे उचित हो सकता है।
अध्यात्मवादमें भी दो प्रकारका स्वार्थ होता है—एक संकुचित और दूसरा वास्तविक। जहाँ ‘स्व’ शब्दका अर्थ देहादि ही माना जाय, वह संकुचित स्वार्थ है। वहाँ रोटी-कपड़े आदि लौकिक अभीष्ट वस्तुओंकी प्राप्ति ही स्वार्थ गिना जाता है, परंतु जहाँ ‘स्व’ शब्दका अर्थ देहादिभिन्न नित्य आत्मा माना जाता है, वहाँ स्वार्थका अभिप्राय वस्तुभूतस्वरूप परमेश्वरका साक्षात्कार, परमेश्वरप्राप्ति, अनर्थनिवृत्ति तथा परमानन्दस्वरूप मोक्षप्राप्ति ही है। यह सच्चा स्वार्थ कहा जाता है—‘स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा। मन क्रम बचन राम पद नेहा॥’ इसी वास्तविक स्वार्थके अभिप्रायसे कहा गया है कि ‘सब कुछ आत्माके लिये ही होता है। सर्वभूत, सर्वलोक, सर्वदेव आदिकोंमें प्रेम सर्वभूत, सर्वलोक, सर्वदेवके लिये नहीं, किंतु आत्माके लिये ही होता है। ‘न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवत्यात्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।’ (बृहदा० उ० २।४।५) परंतु यहाँ प्रबोध होनेपर व्यष्टि-समष्टि दो नहीं रह जाते। अविद्या-दशामें ही सर्वस्वरूप आत्मामें असर्वता अध्यारोपित है। बोध होनेपर अध्यारोपित असर्वताके बाधित होनेपर स्वाभाविक सर्वता ही व्यक्त हो जाती है। अत: वास्तविक स्वार्थ समष्टि-व्यष्टिका एक ही होता है; परंतु जडवादमें यह सब सम्भव नहीं।’
किसीके पैदावारका साधन छीनना सदासे सभी पाप समझते रहे। परान्न-परद्रव्य मार्गमें पड़ा हो या अपने घरमें ही कोई डाल गया हो तब भी नहीं लेते थे—‘परान्नं परद्रव्यं वा पथि वा यदि वा गृहे। अदत्तं नैव गृह्णीयादेतद‍्ब्राह्मणलक्षणम्।’ दायभागमें प्राप्त अपनी बपौती सम्पत्तिको ही अपनी सम्पत्ति मानते थे। दान-पुरस्कार तथा परिश्रमार्जित सम्पत्तिको ही अपनी वैध सम्पत्ति मानते थे। फिर छीनने, अपहरण करनेका उनसे सम्बन्ध ही क्या हो सकता था? लोक, परलोक, ईश्वर, धर्म न माननेवाला जडवादी ही दूसरोंकी सम्पत्ति लेनेकी सलाह दे सकता है। आस्तिक दूसरेकी गिरी हीरेकी माला या लाखोंका नोटका बण्डल जिसके हैं, उन्हींको लौटा देनेकी सलाह देगा, परंतु एक कम्युनिष्ट ऐसी सलाह दे ही कैसे सकता है? आस्तिककी दृष्टिमें सब मनुष्य ही नहीं; किंतु सभी प्राणी परमेश्वरकी संतान हैं। फिर भी शिष्य गुरुको, पुत्र माता-पिताको, पत्नी पतिको, नौकर मालिकको पूज्य और अपनेको सेवक मानते हैं। पूज्यको सेव्य समझते हैं। व्यवहारमें वह सेव्य-सेवक-भाव मान्य होता है। अतएव आस्तिक किसीको गुलाम नहीं मानता। मनुष्य-मनुष्यमें सेव्य-सेवकभाव चलता है। यह अब भी है और सदा रहेगा। नाम भले बदल जाय, पर वस्तु कभी नहीं बदल सकती। मिस्रके पिरामिडों, यूनान एवं भारतकी विशाल इमारतोंके बनानेमें गरीबोंको रोजी और नौकरी मिली है, उनका पोषण हुआ है। उनकी सम्पत्ति छीनकर ये सब चीजें नहीं बनायी गयीं। सब सम्पत्ति गरीबों, मजदूरोंकी ही होती, तो वे गरीब और मजदूर ही क्यों होते? मजदूरोंने पैदावारमें हाथ बँटाया तो उसके बदलेमें वेतन पाया। कमाईका सारा फल मजदूरका ही है, यह सिद्धान्त असिद्ध है। हाँ, उनका जीवन उन्नत और समृद्ध हो, इसके लिये आस्तिकोंका सदा प्रयत्न रहा। फलस्वरूप वे सुखी भी रहे। देशमें कोई दरिद्र, दुखी, अविद्वान् नहीं रहता था। ‘न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यप:।’ ‘नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥’
सभ्यता, संस्कृति, शिल्प, संगीतका विकास अमीर, गरीब सबके ही हितकी चीज है। रूसी विद्वान् साहित्य, संगीत, ज्योतिषके अध्ययनमें संलग्न हो रहे हैं, एतावता क्या वे भी शोषक हो जायँगे? वैज्ञानिक लोग अनेक प्रकारके आविष्कारमें लगे हैं, वे भी तो किसान-मजदूरोंकी ही कमाई खाते हैं? पर क्या वे शोषक कहे जायँगे? वस्तुत: जो भी अपने कर्तव्यका पालन करते हैं, वे शोषक नहीं कहे जाते। शासक, शिक्षक, अन्वेषक यदि शोषक नहीं तो शिल्प, संगीत, साहित्यके अभ्यासमें लगे लोग भी शोषक कैसे कहे जा सकते हैं? श्रमके अतिरिक्त प्राकृतिक साधनोंका भी उत्पादनमें प्रमुख हाथ रहता है। अत: श्रमवालोंको यदि लाभका अंश मिलता है, तो साधनवालोंका भी लाभमें हिस्सा होना अनिवार्य है। श्रमवालेको उचित पारिश्रमिक मिलना चाहिये और साधनवालोंको लाभ। शरीर, मस्तिष्क, श्रमशक्ति भी वस्तुत: प्राकृतिक ही वस्तु है। मनुष्योंने इतर यन्त्रोंके समान मस्तिष्क एवं देहोंका निर्माण नहीं किया। जैसे इन प्राकृतिक साधनोंसे मनुष्य लाभ उठाता है, वैसे ही अन्य प्राकृतिक साधनोंसे दूसरोंको भी लाभ उठानेका अधिकार है। मशीनों, कल-कारखानोंके विस्तारसे उत्पादनमें वृद्धि, वस्तुओंकी बहुलतासे दाममें कमी होना, कम मजदूरोंका उपयोग, अधिकोंकी बेकारी आदिका होना तो अनिवार्य है, परंतु बच्चों एवं स्त्रियोंसे काम लेना, चार घण्टेके बदले मजदूरोंसे बारह घण्टे काम लेना, कम मजदूरी देना और उन्हें असहाय छोड़ देना आदि जुर्म है। यह कहीं भी हो, इसका समर्थन नहीं किया जा सकता। यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक इतिहासकी बात नहीं। अन्यान्य अनाचारोंके समान यह भी शुद्ध उपद्रव ही है, जो सर्वथा हेय है। यह अतिरंजित बीभत्स वर्णन एक वर्गके प्रति घृणा फैलानेके उद्देश्यसे भी हो सकता है। वैसे रूसमें विरोधियोंके साथ लोग इससे भी अधिक भीषण दुर्व्यवहारकी बात करते हैं।
भौतिकवादी ईश्वर एवं धर्मके सम्बन्धमें बहुत उलटा प्रचार करते हैं और कहते हैं कि ‘इस पक्षमें सब कुछ ईश्वरकी इच्छासे ही होता है। मनुष्यके विचार भी ईश्वरप्रेरणाके ही अधीन होते हैं। ईश्वरवादी संसारको मिथ्या मानकर उससे भागनेके लिये ही फेरमें रहते हैं।’ वे कहते हैं कि ‘इतिहास इस पक्षका समर्थन नहीं करता,’ परंतु ये बातें बहुत ही छिछली हैं। लाखों-करोड़ों वर्षका इतिहास वस्तुत: ईश्वरवादका ही समर्थक है। ईश्वरवादियोंने ही बड़ा-बड़ा पुरुषार्थ किया है। समुद्रमें सौ योजनका पुल ईश्वरवादियोंने ही तैयार किया है। अखण्ड भूमण्डलका साम्राज्य, पुष्पकविमान-जैसे वायुयान, हाइड्रोजनबमसे करोड़ों गुना अधिक शक्तिशाली ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र ईश्वरवादियोंने ही प्रकट किये हैं। मनुष्योंके अतिरिक्त दिव्य शक्तियोंके साथ प्रत्यक्ष व्यवहार भी उन्होंने ही किया है। एक देहात्मवादी उसी बड़े काममें हाथ लगा सकता है, जिसका फल वह जीवनमें देख सके। उसके जीवनमें जिसका फल सम्भव नहीं, उस काममें वह किस उद्देश्यसे प्रवृत्त होगा? परंतु आत्मवादी आत्माको अमर मानता है, वह जानता है कि ‘इस जन्ममें नहीं तो जन्मान्तरमें मेरे प्रयत्नका फल होगा ही।’ वह कोटि-कोटि जन्मतक भी किसी बड़े कामको पूरा करनेका दृढ़ संकल्प कर सकता है—‘जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी।’ कई पीढ़ीके प्रयत्न करनेसे गंगाके लानेका प्रयत्न भी इसी कोटिका था। जैसे अंकुरोत्पत्तिमें पर्जन्य साधारण कारण है, अंकुरके रूप, रस, फल आदि विचित्रताका असाधारण कारण पर्जन्य नहीं, किंतु बीजकी निजी विशेषता है, वैसे ही ईश्वर सर्व प्रवृत्तियोंमें कारण हैं। तत्तद्विशिष्ट फलोंकी प्राप्तिमें प्राणियोंके पुरुषार्थ ही मुख्य कारण हैं। प्राणियोंके अपने पुरुषार्थ-प्रमादके अनुसार ही सफलता-असफलता चलती है। योगवासिष्ठ आदिसे पुरुषार्थका जितना जबर्दस्त समर्थन है, जडवादी कभी भी उतने पुरुषार्थकी कल्पना नहीं कर सकते।
कई लोग आजकल कहते हैं कि ‘आस्तिकलोग जीने-मरने, स्वर्ग-नरककी ही चिन्तामें परेशान रहते हैं। इसीलिये उन्होंने लौकिक-भौतिक उन्नतिमें सफलता नहीं पायी। भौतिक लोग स्वर्ग-नरककी चिन्तासे मुक्त थे, अत: वैज्ञानिक उन्नतिमें बढ़ गये, परंतु यह उनका भ्रम है, हम भौतिक वैज्ञानिक उन्नतिकी चर्चा कर आये हैं। अलबत्ता आत्मा-परमात्मा माननेवाला, स्वर्ग-नरकविश्वासी प्राणियोंको परमेश्वरका अंश मानकर उन्हें सतानेमें सकुचायेगा। कोई प्राणी एक कारीगरके बनाये हुए खिलौनेको बिगाड़नेमें सकुचाता है, फिर कोई समझदार ईश्वरके बनाये प्राणियोंको सताने या मौतके घाट उतारनेसे अवश्य सकुचायेगा। भौतिकवादी पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरकसे डरते नहीं, अत: भीषण-से-भीषण नरसंहारमें, प्राणिसंहारमें उन्हें कुछ भी संकोच नहीं। उनका स्वार्थ भीषण-से-भीषण घृणित-से-घृणित कार्यसे भी सम्पन्न हो तो भी वे स्वार्थ-साधनके लिये तैयार हो जाते हैं। मार्क्सके दर्शन, जीव-विकास एवं मृत्यु आदिकी समालोचना पिछले प्रकरणमें की जा चुकी है। डार्विन, हैकल आदिके सिद्धान्त भारतीय दर्शनोंकी कसौटीपर मिनटभर भी नहीं ठहरते।’
बहुत-से समाजवादी मार्क्सवादी भी मार्क्सके अर्थसम्बन्धी दर्शनसे सहमत होते हुए भी उसके अध्यात्मविचारसे सहमत नहीं होते। अनेकों लोग समाजवादी होते हुए भी ईश्वर एवं धर्ममें विश्वास रखते हैं। विशेषत: भारतमें हजारमें नौ सौ निन्यानबे समाजवादी धार्मिक एवं ईश्वरवादी होते हैं, परंतु मार्क्सवादी दृष्टिकोणसे वे गलत रास्तेपर ही समझे जाते हैं। यह दुरंगा ढंग उनकी दृष्टिमें सर्वथा अवैज्ञानिक है। उनका कहना है कि जब आत्मा-परमात्माका अस्तित्व विज्ञान एवं तर्कद्वारा सिद्ध नहीं होता तो वह क्यों माना जाय? ईश्वर इन्द्रियोंका विषय नहीं, किंतु अनुभवका विषय है। ऐसे विश्वासोंको अन्ध-विश्वास ही कहते हैं। उनके मतानुसार भूत-प्रेतकी कल्पनाके समान ही ईश्वरकी कल्पना है। वे कहते हैं कि विज्ञानकी उन्नतिके लिये मनुष्यने ईश्वरकी कल्पनामें भी उन्नति कर ली है। आरम्भकालकी भूत-प्रेतकी कल्पना ही मध्यकालमें परिष्कृत होकर देवी-देवताके रूपमें प्रकट होती है। अधिक प्रगतिशील युगमें देवी-देवताकी कल्पना भी परिष्कृत होकर एक ईश्वरका रूप ले लेती है और परिष्कृत होकर वही कल्पना अद्वैत निर्गुण-निराकार ब्रह्मका रूप धारण कर लेती है। मार्क्सका कहना है कि जो वस्तु है ही नहीं, उसपर विश्वास करनेसे क्या लाभ? और झूठी कल्पनासे मनुष्यको क्या आश्रय मिलेगा? और क्या उत्थान होगा? सबसे बड़ी अड़चन यह है कि अध्यात्मवादियोंके मतानुसार आत्मा परमात्मामें परिवर्तन नहीं होता। सुतरां ईश्वरनिर्दिष्ट धार्मिक-सामाजिक नियमोंमें भी रद्दोबदल नहीं हो सकता, परंतु मार्क्सके मतानुसार कोई धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक नियम शाश्वत नहीं है। उनमें रद्दोबदल होता ही रहता है। तभी उसका राष्ट्रीकरण समाजीकरण चल सकता है। ईश्वर मानना एवं उसके निर्दिष्ट नियमको न मानना यह अर्धजरतीयन्याय कैसे चलेगा? अपरिवर्तनीय ईश्वर एवं धर्मको मानते हुए व्यक्तिगत सम्पत्ति-भूमिका समाजीकरणके नामपर छीनना कथमपि नहीं हो सकता। मार्क्सवादी कहते हैं कि धार्मिक, आध्यात्मिक विचारवाले समाजकी प्रगतिका सदा ही विरोध करते हैं। फ्रांसके वाल्टेयरने कहा था कि यदि परमेश्वर नहीं है तो हमें स्वयं परमेश्वर गढ़ लेना चाहिये; क्योंकि उसका भय मनुष्योंको उचित मार्गपर चलानेमें सहायक होता है, परंतु मार्क्स ऐसे काल्पनिक भयसे लाभकी अपेक्षा हानि ही देखता है। उसे भय है कि ईश्वर माननेवाला व्यक्ति ईश्वरीय शास्त्र एवं ईश्वरीय नियमोंको भी माननेके लिये बाध्य होता है। फिर उसे श्रेणी-संघर्ष एवं किसी व्यक्तिगत सम्पत्ति एवं भूमिके छीन लेनेके सिद्धान्तमें विश्वास जमना असम्भव हो जायगा।
वस्तुत: ईमानदारीकी बात यही है कि मार्क्सवादी, ईश्वरवादी दोनोंका समन्वय हो नहीं सकता। अन्तत: जो ईश्वरवादी हैं, उन्हें मार्क्सवाद छोड़ना ही पड़ेगा। मार्क्सकी अर्थनीति ईश्वर एवं धर्मके रहते-रहते चल ही नहीं सकती। ईश्वरवादी मार्क्सवादी बनकर या तो मार्क्सवादियोंको धोखा देते हैं या अपनेको धोखा देते हैं। जब भौतिक सूक्ष्म वस्तुओंके ज्ञानमें अणुवीक्षण आदि अनेक साधन अपेक्षित होते हैं, तब परमाणु एवं आकाशसे भी परम सूक्ष्म अहं महान् अव्यक्त एवं इन सबसे परम सूक्ष्म स्वप्रकाश सत्स्वरूप परमेश्वर बिना साधनोंके कैसे बुद्धॺारूढ़ हो सकता है। स्वधर्मानुष्ठानद्वारा शुद्धान्त:करण प्राणी विवेक, वैराग्य, शान्ति, दान्ति, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा-समाधान एवं मुमुक्षुत्व आदिसे युक्त होकर उपनिषद्, गीता, ब्रह्मसूत्रका विचार करनेसे परमेश्वरको समझ सकता है। शंकराचार्य-उदयनाचार्यके तर्कोंको सुनकर कोई समझदार पुरुष नहीं कह सकता कि ईश्वर भीरु मस्तिष्ककी कल्पना है या अन्धविश्वासकी चीज है। अभय सत्त्वशुद्धि ज्ञानयोगव्यवस्थितिपूर्ण तर्क एवं योगाभ्यासजनित एकाग्रता आदि जिसके समझनेके साधन हैं, उसे अन्धविश्वासकी बात समझना बड़ी भयंकर मूर्खता है। भूत-प्रेतकी कल्पनाने ही परिष्कृत होकर निर्गुण ब्रह्मकल्पनाका रूप ले लिया, यह कथन भी अनभिज्ञतामूलक है, लाखों बरस पहलेसे ही सबकी मान्यता साथ-साथ चली आ रही है। तामस प्राणियोंके लिये भूत-प्रेत, सात्त्विकोंके लिये देवी-देवता एवं सर्वोच्च अधिकारीके लिये सगुण परमेश्वर एवं साक्षात्कार सम्पन्न अत्यन्त अन्तर्मुखके लिये निर्गुणब्रह्मका उपदेश है। तत्त्वविद् भी व्यावहारिक दृष्टिसे सबका सम्मान करता है। कर्मकाण्ड, देवता आदिकी व्यावहारिक सत्ता तत्त्ववित‍्को ही नहीं, अपितु सर्वज्ञशिरोमणि ईश्वरको भी मान्य है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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