9.14 उत्पत्तिके साधन और न्याय
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘न्याय भी सदा एक-सा नहीं रहता; किंतु उसमें रद्दोबदल होता रहता है। जैसे प्राचीन भारतमें शूद्रोंका विद्या पढ़ना अन्याय और एक पुरुषको दो पत्नियाँ रखना न्याय था। विधवाका सती होना महापुण्य था, परंतु आज वह अपराध है। न्याय क्या है, इसका निर्णय रहता है उन लोगोंके फैसलेपर, जिनके हाथमें शक्ति रहती है। जिस श्रेणीके हाथमें पैदावारके साधन होते हैं, वही न्याय-अन्यायका निर्णय करती है। जिससे उनके हितोंकी रक्षा हो, उनके हाथमें शक्ति बनी रहे, उसी ढंगके तरीकोंको वे न्याय कहा करते हैं। पूँजीवादी समाजमें जिस तरह पूँजीपतिके कब्जेमें पूँजी बनी रहे, वही न्याय है। वे व्यक्तिकी पूँजी छीननेको महापाप बतलाते हैं। समाजमें मुनाफा कमाकर पूँजी बढ़ानेके अधिकारको न्याय कहते हैं। कम मूल्यमें सौदा खरीदकर अधिक दाममें बेचने, सौ रुपयेका काम कराकर नौकरको पचास रुपया देनेको भी न्याय कहते हैं। रूस इन सब बातोंको अन्याय समझता है। पूँजीवादी देशोंमें पूँजीपतिके हितकी बात न्याय है और रूसमें मजदूरोंके हितकी बात न्याय है।’
वस्तुत: ऐसी ही भ्रान्त धारणाओंके कारण भौतिकवादी अपने विरोधियोंको कुचलनेके लिये अमानवताका व्यवहार करते हैं और उसे भी न्याय समझते हैं। समाजके नामपर व्यक्तियोंकी भूमि-सम्पत्ति छीनकर विचार-स्वातन्त्र्यपर प्रतिबन्ध लगाकर व्यक्तियोंके शरीर, वाणी एवं मस्तिष्कपर ताला लगा देने-जैसे बुरे-से-बुरे पापको अपनी हित-रक्षाका साधन समझकर उसे न्याय कहते हैं। भारतमें विद्या, ज्ञान, जानकारीपर कभी भी प्रतिबन्ध नहीं था। विदुर, धर्मव्याध, मूक आदि शूद्र एवं अन्त्यज भी परम ज्ञानवान् थे और समाजमें आदरणीय थे। बड़े-बड़े ब्राह्मण, ऋषि-महर्षि भी धर्मव्याधके पास धार्मिक परामर्शके लिये जाते थे। जिन वेदादि ग्रन्थोंका विधिपूर्वक अध्ययन पुण्यविशेषकी दृष्टिसे जिन वर्णोंके लिये विहित है, उनका अध्ययन उन्हींके लिये आज भी है, तब भी था। जो वेदादि शास्त्रके अनुसार अदृष्ट अर्थमें विश्वास रखते हैं, वे तदनुसारी नियम प्रसन्नतासे ही मानते हैं। यहाँ किसी श्रेणीके स्वार्थका प्रश्न ही नहीं उठता। जो वेदोंको किसी दूसरी श्रेणीके स्वार्थकी चीज समझते हैं, वे पुण्यकी दृष्टिसे उनका अध्ययन करना ही क्यों चाहेंगे? फिर उनके लिये निषेधका प्रश्न ही क्यों उठेगा? जो विधिपूर्वक वेदाध्ययनसे जिस आधारपर किसीके लिये पुण्य मानेगा, उसी आधारपर किसीके लिये उसे पाप भी मानना ही पड़ेगा।
आजकल मूर्तिपूजाके सम्बन्धमें भी यही बात है। पाषाणादि मूर्तिमें देवताका अस्तित्व माननेपर ही मूर्तिपूजाका प्रश्न उठता है। जो मूर्तिमें देवताकी सत्ता नहीं मानता, उसके लिये मूर्तिपूजाका प्रसंग ही नहीं आता। प्रत्यक्षानुमानादिके आधारपर मूर्तिमें देवता सिद्ध हो, तब तो कम्युनिष्ट भी अवश्य ही मूर्तिपूजक बन जायँगे। अत: कहना होगा कि प्रत्यक्षानुमानसे मूर्तिमें देवताका अस्तित्व एवं उसकी पूजासे लाभ सिद्ध नहीं होता। केवल शास्त्रप्रमाण माननेसे ही मूर्तिमें प्रतिष्ठाविधिके द्वारा देवताका आवाहन-प्रतिष्ठापन होता है, तभी उसकी पूजासे पुण्यकी बात उठती है। फलत: मूर्तिप्रतिष्ठा पूजादिविधायक शास्त्रोंमें विश्वास रखनेवाला जब मूर्तिपूजामें प्रवृत्त होगा तो उसे उस शास्त्रकी अन्य बातें भी माननी पड़ेंगी। यदि शास्त्रोंके अनुसार ही मन्दिरस्थ प्रतिष्ठित मूर्तिमें और म्यूजियममें रहनेवाली मूर्तियों तथा आपणस्थ (बाजारमें बिकनेवाली) मूर्तियोंमें विशेषता सिद्ध होती है, तो उन्हीं शास्त्रोंके अनुसार यह भी मानना होगा कि अमुक-अमुक हेतुओंसे मूर्तिसे देवत्व नष्ट हो जाता है और अमुकको मूर्तिपूजासे कुछ लाभ न होगा, किंतु उलटा नुकसान होगा। यह सब बातें भी उन्हीं शास्त्रोंसे माननी पड़ेंगी। शास्त्रोंकी दृष्टिसे न्याय-अन्यायका निर्णय किसी श्रेणीके हित या अहितकी दृष्टिसे नहीं होता। ब्राह्मणको राजसूय करना अधर्म कहा गया है, क्षत्रियके लिये वही धर्म है। वैश्यके लिये वाजपेय करना अधर्म कहा गया है, वही ब्राह्मणके लिये धर्म है। इसी तरह वैश्यस्तोम, निषादस्थपति इष्टि वैश्य एवं शूद्रविशेषके लिये धर्म है, अन्यके लिये अधर्म। यहाँ उन अनुष्ठाताओंके हिताहितकी दृष्टिसे धर्माधर्मका निर्णय किया गया है, शासक या धनवान् श्रेणीकी दृष्टिसे नहीं।
औषध-विशेषके सेवनका विधि-निषेध रोगियोंके हिताहितसे सम्बन्ध रखता है, शासक-शासित श्रेणियोंसे नहीं। किसी अवस्थामें किसी रोगीको किसी औषधसे लाभ हो सकता है और किसी औषधसे हानि। उसी दृष्टिसे विधि-निषेध होता है। हर जगह श्रेणी-स्वार्थकी बात जोड़ना कलुषित मनोवृत्तिका ही परिचायक है। इसी तरह अवस्था-विशेषमें दो पत्नीका होना तब भी धर्म था और अब भी धर्म है। अवस्था-विशेषमें वही तब भी अधर्म था और अब भी अधर्म है। यदि सन्तानके लिये, पिण्ड-श्राद्धके लिये, अपने पूर्वजोंका नाम चलानेके लिये, पूर्व पत्नीकी सम्मतिसे ही दूसरा विवाह किया जाय तो इसमें अन्याय-जैसी कोई बात नहीं। कोई विधवा सती न होकर वैधव्य-धर्म पालन करे, तब भी उसकी सद्गति शास्त्रसम्मत है। वह धर्म उसपर लादा नहीं जाता, उसकी इच्छापर निर्भर है। यहाँ उसीके हिताहितका सम्बन्ध है, अन्यका स्वार्थ नहीं। अथ च विधवाका सती होना तब भी धर्म था और अब भी धर्म है। कानून बन जानेमात्रसे धर्म-अधर्ममें भेद नहीं पड़ता। ईश्वरीय धर्माधर्ममें सरकारें रद्दोबदल, हस्तक्षेप करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं; क्योंकि धर्माधर्मका वास्तविक फल देना सरकारोंके हाथकी बात ही नहीं है। इसी तरह रूसी कानूनसे व्यक्तिगत सम्पत्ति छीनना भी धर्म नहीं हो सकता।
वस्तुत: जो कानून स्वार्थकी दृष्टिसे बनाये जाते हैं, कोई भी तटस्थ विवेचक उन कानूनोंको न्याय नहीं कह सकता। न्याय स्व-पर-पक्षपातविहीन होता है, जिसके आधारपर रामचन्द्रने एक विद्वान् बलवान् धनवान् ब्राह्मण एवं नगण्य श्वानके विवादमें अपराधी ब्राह्मणको ही दण्ड दिया था। धोबीके मुकाबले सीतातकको वनवास दिया था। शाहजहाँने हकीकतरायके मृत्युदण्डके बदलेमें काजीको भीषण दण्ड दिया, जो उसकी ही श्रेणीका था। सगरने अपने पुत्र असमंजसको देशबहिष्कृत कर दिया था। अपराधी पुत्रको भी दण्ड देना, निरपराध शत्रुको भी दण्ड न देना ही न्याय कहलाता है। विश्वासघात, मित्रद्रोह, चोरी, व्यभिचार, परपीड़न आदि अधर्म-अन्याय हैं।
इसी प्रकार औचित्य-अनौचित्य, सत्य एवं सिद्धान्तोंके सम्बन्धमें भी मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘ये कोई भी स्थिर नहीं होते।’ पर यदि सर्वसम्मत प्रमाण, न्याय, औचित्य, सत्यको आधार न माना जाय तो फिर कोई सिद्धान्त स्थिर करनेके लिये पुस्तकादि लिखनेका प्रयास भी मार्क्सने क्यों किया? फिर तो उचित-अनुचित, प्रमाण-अप्रमाण, सत्तर्क-असत्तर्कसे कोई भी कुछ भी सिद्ध कर सकता है। फिर जब सभी सिद्धान्तों, सत्योंकी यही हालत है, तब मार्क्सद्वारा प्रचारित सिद्धान्तोंकी भी यही हालत होगी।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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