10. मार्क्सीय समाज-व्यवस्था
मार्क्सके अनुसार ‘समाज’ व्यक्तियों और परिवारोंका समूह है। समाजकी व्यवस्थामें आनेवाला कोई भी परिवर्तन व्यक्तियों और परिवारोंपर प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकता। परिवार—स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध समाजका केन्द्र है। समाजकी आर्थिक अवस्था मनुष्योंको जिस अवस्थामें रहनेके लिये मजबूर करती है, उसी ढंगपर मनुष्य परिवारको बना लेता है। कुछ देशोंमें बहुत बड़े-बड़े सम्मिलित परिवार होते हैं और कुछ देशोंमें छोटे-छोटे। कहीं परिवार पिताके वंशसे होते हैं और कहीं माताके वंशसे। स्त्री समाजकी उत्पत्तिका स्रोत है। इसके साथ ही वह कई तरहसे पुरुषसे शारीरिकरूपसे कमजोर भी है। इन सब बातोंका प्रभाव समाजमें स्त्रीकी स्थितिपर पड़ता है।
‘समाज जब बिलकुल आदि अवस्थामें था और मनुष्य जंगलोंमें घूम-फिरकर जंगली फलों और शिकारसे पेट भर लिया करते थे, या जब वे खेती और पशु-पालनद्वारा अपना निर्वाह करते थे, उस समय कबीलोंमें भूमिके भाग या इस प्रकारकी दूसरी चीजोंके लिये लड़ाइयाँ होती रहती थीं। इन लड़ाइयोंमें शारीरिक रूपसे स्त्रीके कमजोर होनेके कारण उसका अधिक महत्त्व नहीं था। इसके अलावा स्त्रीको लड़ाई लड़नेके लिये आगे भेजना खतरेसे खाली न था; क्योंकि स्त्रियोंके लड़ाईमें मारे जाने या उनके कैदी होकर शत्रुके हाथमें पड़ेनेसे कबीलोंमें पैदा होनेवाले पुरुषोंकी संख्यामें घाटा पड़ जाता था और कबीला कमजोर हो जाता था। इसलिये स्त्रियोंको लड़ाईमें पीछे रखा जाने लगा; बल्कि सम्पत्तिकी दूसरी वस्तुओंकी तरह उनकी भी रक्षा की जाने लगी। सम्पत्तिकी ही तरह उनका उपयोग भी किया जाता था। उस समय साधनोंका विकास न हो सकनेके कारण पैदावारके कामोंमें विशेष परिश्रम करना पड़ता था; क्योंकि स्त्रीकी अपेक्षा पुरुष पैदावारके कठिन कामको अधिक अच्छी तरह कर सकता था, इसलिये स्त्रीको पुरुषकी प्रधानता मानकर उसकी सम्पत्ति बन जाना पड़ा। उस समय वैयक्तिक सम्पत्तिका चलन न था, इसलिये स्त्री सम्पूर्ण कबीले या परिवारकी साझी सम्पत्ति थी।’
‘जब विकाससे वैयक्तिक सम्पत्तिका काल आया तो स्त्री भी पुरुषकी वैयक्तिक सम्पत्ति बन गयी, जिसका काम पुरुषके घरेलू कामोंको करना और उसके लिये संतानके रूपमें उत्तराधिकारी पैदा करना था, परंतु स्त्री दूसरे घरेलू पशुओंके ही समान उपयोगकी वस्तु न बन सकी। पुरुषके समान ही उसका भी विकास होनेके कारण या कहिये उसके भी पुरुषके समान ही मनुष्य होनेके कारण, पुरुषकी सम्पत्तिमें ठीक पुरुषके बाद उसका दर्जा मुकर्रर हुआ। आलंकारिक भाषामें इसे यों कहा गया कि वैयक्तिक सम्पत्ति या परिवारके राजमें पुरुष राजा है तो स्त्री मन्त्री। मनुष्य-जीवके विकासके नाते स्त्री और पुरुषमें कुछ भी अन्तर नहीं। मनुष्य-समाजकी रक्षाके लिये वे दोनों एक समान आवश्यक हैं। पुरुष यदि शारीरिक बलमें मस्तिष्कके कामोंमें अधिक सफलता प्राप्त कर सकता है, तो स्त्रीका महत्त्व पुरुषको उत्पन्न करनेमें कम नहीं है। पुरुष-समाजका जीवन स्त्रीके बिना सम्भव नहीं, इसलिये पुरुषकी सम्पत्ति होकर भी स्त्री पुरुषके बराबर ही आसनपर बैठती रही है।’
‘मार्क्सवादमें स्त्री-पुरुष-सदाचारका चाहे कितनी भी लीपा-पोतीके साथ महत्त्व गाया जाय, परंतु यह प्रश्न प्रमुखरूपसे बना ही रहेगा कि ‘क्या एक गिलास पानीके लिये गलेमें बाल्टी बाँधकर घूमते रहें? कहीं भी गिलासभर पानी मिल सकता है।’ व्यक्ति एवं परिवारका समूह ही समाज है और स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध परिवार और समाजका केन्द्र है। समाजमें सम्पत्ति-विपत्तिके कारण बहुत प्रकारके रद्दोबदल होते रहते हैं; फिर भी बहुत-से धार्मिक-सामाजिक नियम प्राकृतिक नियमोंके समान सुस्थिर होते हैं।’
मार्क्सवादियोंकी ऐतिहासिक कल्पनाएँ सर्वथा निराधार हैं। जगत्-प्रपंच निरीश्वर नहीं है। सर्वज्ञ ईश्वरकी सृष्टि लावारिस एवं निर्विवेक भी नहीं थी। आदिम कालके ब्रह्मा, वसिष्ठ, अत्रि, अंगिरा, भृगु, बृहस्पति, शुक्र आदि आधुनिक लोगोंकी अपेक्षा कहीं अधिक बुद्धिमान् और बलवान् थे। स्वार्थ-मूलक संघर्ष जैसे आज चलता है, वैसे ही कभी पहले भी चलता था। कठिन अवसरोंपर स्त्रियाँ भी लड़ाईमें शामिल होती थीं। इसका सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है दुर्गाके अनेक अवतारों—महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती आदिके द्वारा मधु-कैटभ, महिषासुर, शुम्भ, निशुम्भ, चण्ड-मुण्ड, धूम्रलोचनादि दानवोंका संहार। पत्नीरूपमें नारी पुरुषकी भोग्या है, परंतु माताके रूपमें वही पुत्रकी पूज्या है। शृंगाररसके लिये नारी कोमलांगी है, परंतु प्रचण्ड दैत्य-दर्प-दलनमें वही भीषण कराल कालिका है। भगवतीकी यह गर्जना मार्क्सवादियोंने कभी नहीं सुनी कि जो मुझे संग्राममें जीत ले, जो मेरा दर्प दूर कर सके और जो मेरे समान बलवान् हो, वही मेरा भर्ता हो सकता है—‘यो मां जयति सङ्ग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति। यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥’ (दुर्गासप्त० ५।१२०)। नारी सदासे ही शक्तिकी प्रतीक रही है और पुरुष शिवका प्रतीक रहा है। उसका ही रामके साथ सीतारूपमें, विष्णुके साथ लक्ष्मीरूपमें, ब्रह्माके साथ सरस्वतीरूपमें और कृष्णके साथ राधा-रुक्मिणीके रूपमें आदर होता रहा है। वह रणांगणमें प्रचण्डरूपधारिणी होनेपर भी शिवके विश्राम एवं विनोदके लिये ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ की प्रतिमा बनकर परम कोमलांगी एवं रक्षिणीरूपमें व्यक्त होती थी। वह साझेकी सम्पत्ति कभी नहीं रही। वह सदा ही गृहस्वामिनी एवं गृहलक्ष्मी रही है। द्रौपदी, मारिषाका उदाहरण विशेष वर-शापमूलक अपवादस्वरूप घटनाएँ हैं। वे आचारमें प्रमाण नहीं हैं। आचारमें उदाहरणका आदर न होकर विधि (काँस्टिटॺूशन)-का ही आदर होता है। उसके उदाहरण सती, सीता, सावित्री, दमयन्ती, अरुन्धती, अनसूया, लोपामुद्रा, शाण्डिली आदि पतिव्रताएँ हैं। क्वचित् स्त्रियोंके अनावृत होनेकी कहानियाँ अनादि, अपौरुषेय, समस्त पुंदोष-शंका-कलंकशून्य शास्त्रोंके विरुद्ध होनेसे सर्वथा तात्पर्यशून्य हैं। अपवादभूत विपत्कालिक नियोग-प्रवर्तनकी पशु-तुल्य प्रवृत्तियोंका समर्थन ही उन मिथ्यार्थ-बोधक अर्थवादोंका उद्देश्य था। मन्वादिकोंने पतिके मरनेपर भी पत्यन्तरवरणका वर्जन किया है और नियोग आदिको वेन-राज्यका विगर्हित पशुधर्म बतलाया है।
मार्क्सवादी कहते हैं—‘औद्योगिक युग आनेपर जब सम्मिलित परिवार आर्थिक कारणोंसे बिखर गये, जब पुरुषोंको प्रत्येक नगरमें जीवन-निर्वाहके लिये भटकना पड़ा, उस समय सम्पूर्ण परिवारको साथ लिये फिरना सम्भव न था। इसके साथ ही पैदावारके साधन, मशीनोंका विकास हो जानेसे ऐसे हो गये कि उनमें कठोर शारीरिक परिश्रमकी जरूरत कम पड़ने लगी और स्त्रियाँ भी उन कामोंको करने लगीं। बहुधा ऐसा भी हुआ कि जीवनके लिये उपयोगी पदार्थोंकी संख्या बढ़ जानेसे, जिसे दूसरे शब्दोंमें यों भी कहा जा सकता है कि जीवनका दर्जा Standard of living ऊँचा हो जानेसे अकेले पुरुषकी कमाई उसके परिवारके लिये काफी न थी, तब स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर मजदूरी करने लगे और घरका खर्च चलाने लगे। इन अवस्थाओंमें पुरुषका स्त्रीपर वह कब्जा न रहा, जो कृषि और घरेलू उद्योग-धन्धोंकी प्रधानताके जमानेमें था। ऊपर जिस ऐतिहासिक विकासका जिक्र हम करते आ रहे हैं, वह औद्योगिक विकासके साथ हुआ और चूँकि यह विकास यूरोपमें अधिक तेजीसे हुआ, इसलिये वहीं लोगोंने इसे अधिक उग्ररूपमें अनुभव भी किया। इस विकासका प्रभाव समाजके रहन-सहनके ढंगपर पड़नेसे स्त्रियोंकी अवस्थापर भी पड़ा। स्त्रियोंकी स्थिति पुरुषोंके बराबर होने लगी। उन्हें भी पुरुषोंके समान ही सामाजिक और राजनैतिक अधिकार मिलने लगे; परंतु वैयक्तिक सम्पत्तिकी प्रथा जारी रही; क्योंकि वह पूँजीवादके लिये आवश्यक थी। परिणाम-स्वरूप स्त्रीके एक पुरुषसे बँधे रहनेका नियम भी जारी रहा। अब स्त्रीको पुरुषका दास न कहकर उसका साथी कहा गया, जिसे यह उपदेश दिया गया कि परिवारकी रक्षाके लिये उसे एक पुरुषके सिवा और किसी तरफ न देखना चाहिये। मौजूदा पूँजीवादी-प्रणालीमें स्त्रीकी स्थिति इसी नियमपर है।’
‘फिर भी आर्थिक दृष्टिकोणसे जीवनके उपायोंको प्राप्त करनेके लिये स्त्री पुरुषके आधीन रही; क्योंकि परिवारके हितके ख्यालसे पुरुषने स्त्रीको अपने वशमें रखना आवश्यक समझा। जबतक समाज भूमिकी उपजसे या घरेलू धन्धोंसे अपने जीवन-निर्वाहके साधन प्राप्त करता रहा, स्त्रीकी अवस्था परिवार और समाजमें ऐसी ही रही; क्योंकि स्त्रीकी खोपड़ीमें भी पुरुषकी तरह सोचने-विचारने और उपाय ढूँढ़ निकालनेकी सामर्थ्य है; अत: पुरुष उसे गलेमें रस्सी बाँधकर नहीं रख सका। समाजने अपने कल्याण और हितके विचारसे स्त्रीको भी पुरुषकी तरह ही जिम्मेदार ठहराया; लेकिन स्त्रीके व्यवहारपर ऐसे प्रतिबन्ध लगाये गये, जो कि सम्पत्तिके आधारपर बने परिवारकी रक्षाके लिये आवश्यक थे। उदाहरणत: स्त्रीका एक समय एक ही पुरुषसे सम्बन्ध रखना ताकि उसके दो व्यक्तियोंकी सम्पत्ति बननेमें झगड़ा न उठे। पुरुषकी संतानके बारेमें झगड़ा न उठे कि संतान किसकी है, कौन पुरुष उस संतानको अपनी सम्पत्ति देगा? यह सब ऐसे झगड़े थे, जिनके कारण परिवारोंका नाश हो जाता। इसलिये स्त्रियोंके आचरणके बारेमें ऐसे नियम बनाये गये कि झगड़े उत्पन्न न हों। पतिव्रताधर्म—अर्थात् एक पुरुषसे सम्बन्ध रखनेको स्त्रीके लिये सबसे बड़ा धर्म बताया गया, ताकि व्यक्तिगत सम्पत्तिके आधारपर बना हुआ समाज तहस-नहस न हो जाय।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, स्त्री बुद्धिकी दृष्टिसे मनुष्यके समान ही सामर्थ्यवान् है, इसलिये पशुओंकी तरह उसके गलेमें रस्सी बाँध देनेसे काम नहीं चल सकता था। उसे समझाकर और विश्वास दिलाकर समाजमें मुख्य ‘पुरुष’ के हितके अनुसार चलानेकी जरूरत थी। इस कारण पुरुष और समाजके हाथमें जितने भी ऐसे साधन धर्म, नीति, रिवाज आदिके रूपमें थे, उन सबसे स्त्रीको पुरुषके आधीन होकर चलनेकी शिक्षा दी गयी। उसे समझाया गया, यहाँ चाहे वह पुरुषका मुकाबला भले ही एक ले, परंतु बादमें उसे पछताना पड़ेगा; क्योंकि उसकी स्वतन्त्रतासे भगवान् और धर्म नाराज होते हैं।’
वैयक्तिक सम्पत्तिके सम्बन्धकी भी मार्क्सीय प्रथा अप्रामाणिक है। ईश्वरकी सृष्टि उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति ही थी, उसीसे उत्तराधिकार-रूपमें वह उसकी संतानभूत विभिन्न प्राणियोंको मिली। जिस तरह आज अखण्ड भूमण्डलमें कोई भी पर्वत, वृक्ष, नदी, क्षेत्र, ग्राम, नगर बिना मालिकके नहीं हैं, उसी तरह संसारका कोई भी अंश कभी भी बिना मालिकके नहीं था। हॉब्स या लॉकके मतानुसार निरीश्वर राज्य कभी भी नहीं था और केवल किसी व्यक्तिके द्वारा सीमाकी एक रेखामात्र बना देनेसे ही कोई भूमि उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं बन गयी और न तो रिकार्डोंके अनुसार कुछ श्रममिश्रित हो जाने मात्रसे वस्तुओंपर व्यक्तिगत स्वत्वका जन्म ही हुआ। किंतु मुख्यरूपसे दायसे और फिर जय, क्रय, दान, पुरस्कारादिरूपमें भूमिसम्पत्ति आदिपर व्यक्तिगत अधिकार हुए हैं। अपने-अपने कर्मोंसे सुख-दु:ख एवं तत्तत्साधनोंका व्यक्तिगत सम्बन्ध हुआ है। कर्मोंके ही तारतम्यसे साधनोंकी भी तारतम्यरूपसे प्राप्ति होती है। कन्यापर उसके माता-पिताका स्वत्व रहता है। पिता जिसे देता है, वही कन्याका पति होता है। माता-पिताके न रहनेपर भाई आदिका उसपर स्वत्व होता है। वे जिसे देते हैं, वही उसका पति होता है। कन्याका भी अपनेपर स्वत्व होता है। अत: वह स्वयं भी जिसे आत्मसमर्पण करती है, वह उसका पति होता है। कन्या ऐसी वस्तु नहीं है कि जो भी चाहे उसे अपना ले या साझेदारीकी चीज बना ले। स्त्रीसम्बन्धकी मार्क्सीय ऐतिहासिक धारणा अत्यन्त भ्रमपूर्ण है। मनुकी दृष्टिसे तो जहाँ नारीकी पूजा होती है, वहाँ देवता एवं सभी सद्गुण रमते हैं और जहाँ उसकी पूजा नहीं होती, वहाँ सब क्रियाएँ निष्फल होती हैं—
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:॥
(मनु० ३।५६)
पुरुष सदासे ही नारीको मातारूपमें पूज्य एवं मार्गदर्शक मानता रहा है। पत्नीरूपमें प्राणोंसे भी अधिक प्रिय एवं हृदयेश्वरी बनाकर उसे अपना सर्वस्व समर्पण करके उसके रक्षण, पोषणके लिये, भूषण-आभरण जुटानेके लिये दिन-रात परिश्रम करता रहा है। इतना ही नहीं—नारीके इशारेपर ही पुरुष सब काम करता रहा है। प्रेमसे ही पुरुष स्त्रीको वशीभूत रखता था, प्रेमसे ही स्त्री भी पुरुषको अपने इशारेपर नचाती रही है। किन्हीं धार्मिक, आध्यात्मिक संस्कार-शून्य जंगली प्रदेशके लोगोंमें स्त्रीको गलेमें रस्सी बाँधकर रखनेकी प्रथा हो सकती है, पर वह भारतमें नहीं रही। स्त्रीका एक ही पुरुषके साथ सम्बन्ध शुद्ध धर्म-मूलक ही है, धर्म-नियन्त्रित स्नेह एवं अर्थ-व्यवस्था उसका आनुषंगिक फल है। यह पहले कहा जा चुका है कि पशुओंकी अपेक्षा मनुष्योंकी मनुष्यता एवं विशेषता ही यह है कि मनुष्य प्रत्यक्षानुमानसे अतिरिक्त आगम-प्रमाण भी मानता है और तदनुकूल वह धार्मिक होता है। धर्ममूलक ही उसमें पति-पत्नीका धार्मिक सम्बन्ध होता है। पति-पत्नीके असाधारण सम्बन्धसे ही पत्नी, पुत्री, भगिनी, माता आदिकी असाधारण व्यवस्था होती है। तदनुकूल ही उत्तराधिकारकी व्यवस्था भी चलती है। इसीलिये आस्तिकोंका कहना है कि प्रत्यक्षानुमानाश्रित मति जहाँतक दौड़ती है, वहाँतक ही चलनेवाले वानर आदि पशु होते हैं और प्रत्यक्षानुमानातिरिक्त आगमके अनुसार धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक व्यवस्था करके चलनेवाले लोग ही नर अर्थात् मानव होते हैं—
मतयो यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति वानरा:।
शास्त्राणि यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति ते नरा:॥
(तन्त्रवार्तिक)
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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