10.5 व्यभिचारका उन्मूलन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

10.5 व्यभिचारका उन्मूलन

मार्क्स लिखता है कि ‘हम स्त्रीको पुरुषकी सम्पत्ति बनाने और धर्मके भयसे जकड़ देनेके पक्षमें नहीं हैं। यह भी हमें स्वीकार नहीं है कि संतान उत्पन्न करनेके लिये किसी स्त्रीका एक पुरुष-विशेषकी दासी या सम्पत्ति बन जाना जरूरी है। वह स्त्री-पुरुषके सम्बन्धको स्त्री-पुरुषकी शारीरिक आवश्यकताका सम्बन्ध मानता है; परंतु इसके लिये वह दोनोंमेंसे एक-दूसरेका दास बन जाना आवश्यक नहीं समझता। इस सम्बन्धमें वह कानूनके भी दखल देनेकी जरूरत नहीं समझता; परंतु इसके साथ ही वह स्त्री-पुरुषके सम्बन्धकी उच्छृंखलताको भी स्वीकार नहीं करता। किसी स्त्री या पुरुषका दूसरोंके शारीरिक भोगके लिये अपने शरीरको किरायेपर चढ़ाना वह अपराध समझता है। समाजवादी और समष्टिवादी समाजमें जीविकाके साधन अपनी योग्यता और अवस्थाके अनुसार सभीको प्राप्त होंगे, इसलिये जीविकाके लिये व्यभिचारसे धन कमानेकी आवश्यकता हो नहीं सकती और जो लोग पूँजीवादी-समाजके संस्कारोंके कारण ऐसे करेंगे, वे अपराधी होंगे। संक्षेपमें स्त्री-पुरुष और विवाहके सम्बन्धमें मार्क्सवाद समाजके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यके विचारसे पूर्ण स्वतन्त्रता देता है, परंतु उच्छृंखलता, गड़बड़ या भोगको पेशा बना लेनेको और इसके साथ ही अपने भोगकी इच्छाके लिये दूसरे व्यक्तियों और समाजकी जीवन-व्यवस्थामें अड़चन डालनेकी वह भयंकर अपराध समझता है। स्त्री-पुरुषके सम्बन्धमें मार्क्सवादका रुख लेनिनकी एक बातसे स्पष्ट हो जाता है। लेनिनने कहा था—स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध शरीरकी दूसरी आवश्यकताओं—भूख, प्यास, नींदकी तरह ही एक आवश्यकता है। इसमें मनुष्यको स्वतन्त्रता होनी चाहिये, परंतु प्यास लगनेपर शहरकी गन्दी नालीमें मुँह डालकर पानी पीना उचित नहीं। उचित है स्वच्छ जल, स्वच्छ गिलाससे पीना। स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध मनुष्योंकी शारीरिक, मानसिक-तुष्टि और समाजकी रक्षाके लिये होना चाहिये न कि स्त्री-पुरुषोंको रोग और कलहका घर बना देनेके लिये। अबतकके पारिवारिक और विवाह-सम्बन्धी बन्धन पूँजीवादी आर्थिक संगठनपर कायम हैं, जिनमें स्त्रीका निरन्तर शोषण होता रहा है; इसलिये अब समाजको इसे बदलकर स्त्री-पुरुषकी समानतापर लाना चाहिये।’
यह सही है, कि मार्क्सवादमें जीविकाके लिये स्त्रियोंको व्यभिचार न करना पड़ेगा, परंतु काम-प्रेरणासे होनेवाले व्यभिचारपर मार्क्सवादमें क्या रोक है? गन्दी नालीका पानी पागल ही पीता है, अन्य सभी स्वास्थ्यकर स्वच्छ ही जल पीना चाहते हैं। क्या मार्क्सवादमें अपने पति या अपनी पत्नीसे अन्य स्त्री-पुरुषसे सम्बन्ध गन्दी नालीके जल पीनेके तुल्य मान्य है? किसी भी मार्क्सवादी ग्रन्थमें ढूँढ़नेपर भी स्त्री-पुरुषके स्वेच्छापूर्वक सम्बन्धोंमें कोई रुकावटकी बात नहीं दिखलायी देती, सिर्फ दूसरेकी इच्छाके बिना या पेशा किंवा जीविकाके लिये व्यभिचार करना अपराध माना गया है, परंतु शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्यके विचारसे नितान्त स्वेच्छापूर्ण स्त्री-पुरुष-सम्बन्धकी मार्क्सवादमें पूरी स्वाधीनता है। फिर इससे भिन्न और उच्छृंखलता या गड़बड़ क्या है? स्त्री-पुरुष दोनोंमें किसीकी जिसमें अनिच्छा न हो, जो पेशेके लिये न हो, जो शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्यके प्रतिकूल न हो; ऐसे स्वेच्छापूर्ण मनमाने सम्बन्धमें कोई रुकावट नहीं है। फिर जब पाप-पुण्यका प्रश्न है ही नहीं, तब ऐसे सरल, सुखकर कामसे पेशेपर ही रुकावट क्यों हो? किन्हीं मार्क्सवादी वाक्योंसे भी चारित्रिक जीवनका समर्थन नहीं मिलता और पुलिस एवं गुप्तचरकी आँखोंमें धूल डालकर, अदालतको धोखा देकर कोई दुराचार कर सके तो क्या होगा?
अध्यात्मवादीकी दृष्टिमें तो प्रथम संयतात्मा सावधान व्यक्तियोंका गुरु ही शास्ता है, उनके लिये राज्यशासन आवश्यक ही नहीं है, परंतु दुरात्मा प्राणीका नियन्त्रण करनेके लिये राजा शास्ता होता है। किंतु जो प्रच्छन्न पातकी होते हैं, जो पुलिस एवं अदालतको चकमा देकर पाप करते हैं, उनका शासक वैवस्वत यम ही हैं। (नारदस्मृ० १८।१०८; विदु० नी०) एक जडवादीके मतमें यदि निर्विघ्न रूपसे दूसरेका धन या दूसरेकी सुन्दर कलत्र प्राप्त हो जाय, तो उससे बचना, उसे अस्वीकार कर देना या वह जिसकी है, उसके पास सही-सलामत पहुँचा देना शुद्ध मूर्खता ही कही जायगी; क्योंकि उसके सिद्धान्तानुसार किसीकी व्यक्तिगत सम्पत्ति जायज नहीं है, सब सम्पत्ति राज्यकी ही है। स्त्री-पुरुष कोई भी किसीकी वस्तु नहीं है, सब समाजकी वस्तु है, उसके लेनेमें पाप-पुण्यकी कोई बात ही नहीं है, परंतु एक अध्यात्मवादी, परान्न, पर-वित्तको स्वीकार करना जघन्य कृत्य समझता है। वह कहता है कि पर-वित्त, परान्न यदि मार्गमें पड़ा हो, चाहे घरमें, अपना वैध स्वत्व हुए बिना उसे कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये, यही सत्पुरुषका लक्षण है—‘परान्नं परद्रव्यं वा पथि वा यदि वा गृहे। अदत्तं नैव गृह्णीयादेतद् ब्राह्मणलक्षणम्॥’ अपने यहाँ पति-पत्नी, माता-पुत्र आदिका सम्बन्ध धार्मिक एवं सांस्कृतिक, शास्त्र एवं परम्परामूलक समझा जाता है, जब कि मार्क्सवादी सम्पूर्ण धार्मिकताओं, परम्पराओंको मिटाकर शुद्ध अर्थमूलक सम्बन्धको ही क्रान्तिके लिये लाभदायक मानते हैं। इनके मतानुसार ‘अपनी शारीरिक प्रेरणाओंसे ही स्त्री-पुरुष सम्बन्धित होते हैं, उनसे तीसरा व्यक्ति बतौर ‘एक्सिडेंट’ (आकस्मिक घटना)-के उत्पन्न हो जाता है। माँका दूध पिलाना भी उसके लिये अनिवार्य है, बिना स्तनसे दूध निकले उसे कष्ट हो सकता है, इसीलिये माँ बच्चेको दूध पिलानेके लिये बाध्य होती है।’ अत: ‘माता पितासे सहस्रगुणित पूज्य है’—‘सहस्रं तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते’ (मनु० २।१४५) का मार्क्सवादमें कोई महत्त्व नहीं है। सीता, सावित्री, दमयन्ती, अरुन्धती आदिके पातिव्रत्यका भी मार्क्सवादमें कोई गौरव नहीं, केवल भूख-प्यासकी तरह शारीरिक आवश्यकताकी पूर्तिमात्र ही वहाँ स्त्री-पुरुषके सम्बन्धका आधार है। राम-राज्यमें पातिव्रत्य सर्वधर्मसार है और सीता, सावित्री आदि उसके उच्च आदर्श एवं मार्गदर्शक हैं।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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