10.6 भूत और शक्ति
मार्क्सवादी कहते हैं, ‘कुछ आधुनिक वैज्ञानिक अब रहस्यवादकी शरण लेते हैं। उन वैज्ञानिकोंका कहना है कि ‘भूत शक्ति ही है और शक्तिका पूर्णरूपसे बोध नहीं हो सकता।’ लेकिन यह बात सही नहीं है। यदि यह मान लिया जाय कि भूत बिजली ही है, तथापि इस बिजलीका परिमाण और वजन है; इसलिये भूतकी धारणा भले ही बदल जाय, इसका अस्तित्व नहीं मिट जाता। जैक्सनके शब्दोंमें ‘उन वैज्ञानिकोंकी, जो भूतको केवल शक्तिका ही संगठन मानते हैं, तुलना उस वीरसे की जा सकती है, जिसने केवल धारसे तलवार बनायी अथवा उन केवटोंसे जिन्होंने जालकी यह परिभाषा की कि यह सुतलीसे बँधा हुआ छेद है।’
आईंस्टीनके सापेक्षताके नियमका प्रारम्भ है कि निरपेक्ष गतिकी न तो धारणा की जा सकती है और न इसको मापा जा सकता है। किसी दी हुई रेखा या बिन्दुसे ही इसको मापा जा सकता है। इससे कुछ वैज्ञानिक इस नतीजेपर पहुँचे कि ‘गति वास्तविक नहीं है;’ किंतु यह हीगेलका ही सिद्धान्त है कि ‘अस्तित्व सम्बन्ध-बोधक है। किसी वस्तुको दूसरी वस्तुद्वारा ही मापा जा सकता है और किसी पदार्थका गुण किसी दूसरे पदार्थपर प्रतिक्रियाका नाम है।’ द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद प्रयोगको ही प्रथम स्थान देता है। निरपेक्ष गति हो या न हो, हमारे लिये घड़ी और स्थान दोनोंकी आवश्यकता है; इसलिये दोनों ही वास्तविक हैं।
वस्तुत: ईमानदार वैज्ञानिक ही कहीं भूतके रूपमें शक्ति मानते हैं और उसे दुर्ज्ञेय मानते हैं। पूर्वोक्त न्यायसे कहा गया है कि सूक्ष्मसे ही स्थूलकी उत्पत्ति होती है। धारसे तलवार तथा सुतलीसे बँधे हुए छेदसे और शक्तिसे भूतनिर्माणमें पर्याप्त अन्तर है। तन्तुसे पट बनता है, फिर भी पटका तन्तु है, यह भी व्यवहार होता है। मृत्तिकासे घट उत्पन्न होता है; फिर भी घटकी मृत्तिका है, यह भी व्यवहार होता है। आमतौरपर पृथ्वीका गन्ध, जलका रस, तेजका रूप, वायुका स्पर्श और आकाशका शब्द गुण माना जाता है। फिर भी सांख्य वेदान्त-सिद्धान्तानुसार शब्दतन्मात्रासे ही आकाश, स्पर्शतन्मात्रासे ही वायु, रूपतन्मात्रासे तेज, रसतन्मात्रासे जल तथा गन्धतन्मात्रासे पृथ्वीकी उत्पत्ति होती है। यह स्पष्ट है कि जिन भूतोंमें केवल शब्द है, वह सूक्ष्म आकाश है। वायुमें शब्द, स्पर्श दो गुणोंका उपलम्भ होता है। वह आकाशकी अपेक्षा स्थूल है। उत्तरोत्तर रूप, रस, गन्ध गुणोंकी जैसे-जैसे अधिकता होती है, वैसे ही तेज आदिमें स्थूलता उपलब्ध होती है। इस दृष्टिसे शब्दस्पर्शात्मक ही भूत है। उपनिषदोंके अनुसार सत्से आकाशादिकी उत्पत्ति होती है, फिर भी आकाशादिकी सत्ताका व्यवहार होता है। कारणसे कार्य उत्पन्न होनेपर मायाद्वारा प्रधान कारणकी अप्रधानता तथा अप्रधान कार्यकी प्रधानता हो जाती है, इसीलिये कार्य विशेष्य हो जाता है, कारण विशेषण हो जाता है। इसी कारण आकाशकी सत्ता, घटकी मृत्तिका, पटका तन्तु आदिका व्यवहार होता है। हर जगह शक्तिसे ही कार्य उत्पन्न होता है, मृत्तिकामें घट-शक्ति होती है, बीजमें अंकुर-शक्ति होती है। ऐसे ही सम्पूर्ण कार्योंके उत्पादनानुकूल उन-उन कारणोंमें शक्तियाँ रहती हैं, इस दृष्टिसे सत्में प्रपंचोत्पादिनी शक्ति रहती है। उसी सत्-शक्तिसे भूतोंकी उत्पत्ति होती है। सूक्ष्मरूपसे स्थूल भिन्न नहीं होता। सूक्ष्म कारण है, स्थूल कार्य है, यह कहा जा चुका है। घट कपालमात्र है, कपाल चूर्णरूप है, वह भी रजोमात्रा है। रज भी परमाणु रह जाता है। मृत्तिकासे भिन्न घट नहीं होता, रससे भिन्न जल नहीं, रूपसे भिन्न तेज नहीं। ऐसे ही धारसे भिन्न तलवार नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता। उसी तरह सुतलीसे भिन्न होकर सच्छिद्र जाल नहीं है; परंतु जालसे भिन्न होकर सुतली नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता; अत: विषम दृष्टान्त है। गति पदार्थकी आवश्यकता है, अवस्था अवस्थावान्से भिन्न नहीं। नाप-तौल तथा मार्क्सवादियोंका प्रयोग भी बिना ज्ञानके नहीं होता है, अत: प्रयोगवादको भी सर्वकारण परममूलका अन्वेषण तो करना ही चाहिये।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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