10.7 क्या मनुष्यकी इच्छाशक्ति स्वाधीन है?
‘मनुष्यकी इच्छा स्वतन्त्र है या नहीं’, यह दार्शनिक क्षेत्रमें एक प्राचीन प्रश्न है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी इसका उत्तर देते हैं—‘नहीं, इस प्रश्नका मूल भी धर्मविद्यामें है। यदि मनुष्यका कर्म उसकी स्वेच्छासे नहीं है, तो वह पाप-पुण्यके भारसे मुक्त हो जाता है तथा स्वर्ग और नरकका कोई अर्थ नहीं रह जाता। यही कारण है कि धर्म-विद्या मनुष्यकी इच्छाको स्वतन्त्र मानती है। ‘इस प्रश्नका यों विचार कीजिये। सारा संसार कार्य-कारणके नियमसे बँधा हुआ है। क्या मनुष्य इस संसारका अंश नहीं? केवलमात्र मनुष्यकी इच्छा ही क्या इस प्राकृतिक नियमसे परे है? सब वस्तुओंकी तरह मनुष्यकी इच्छा भी कारणजनित है। उसकी इच्छाके प्राकृतिक तथा सामाजिक कारण हैं। मनुष्य ऐसा सोचता अवश्य है कि वह अपनी इच्छानुसार ही सब कुछ करता है। लेकिन वास्तविकता यह नहीं है। कविने उदाहरण दिया है कि प्रत्येक वारिबिन्दु भी यह सोचता है कि अपनी इच्छासे ही वह जमीनपर गिरता है। मातृ-स्तन पीते समय बच्चा भी यह सोचता है कि अपनी इच्छाको ही वह पूरी कर रहा है। यदि हमारी इच्छा स्वाधीन नहीं है तो बाध्य होनेपर ही हम कोई काम करते हैं। इस बाध्यताके सम्बन्धमें हीगेलने लिखा है—‘बाध्यता उसी हदतक दृष्टिहीन है, जहाँतक हम इसको समझते नहीं।’ इसपर टीका करते हुए एंजिल्सने लिखा है कि ‘प्रकृति और मनुष्यके समाजमें ही स्वतन्त्रताका निवास है और इसकी बुनियाद है प्रकृतिकी मजबूरियोंका ज्ञान।’ इसका खण्डन करते हुए यह कहा जाता है कि—जहाँ हम मजबूरीके सामने सर झुकाते हैं वहाँ स्वतन्त्रता कहाँ?’ यहाँपर मजबूरीके अर्थपर हमें गौर करना चाहिये।
‘अरस्तूने इस अवश्यम्भाविवाद या नियतिवादके विभिन्न अर्थोंपर बहुत पहले ही विचार किया था। यदि हमें रोगमुक्त होना है तो हम दवा लेनेके लिये बाध्य हैं। जीवनधारणके लिये श्वास लेना आवश्यक है। किसी स्थलमें दिये गये ऋणकी वसूलीके लिये वहाँ जाना जरूरी है, यह प्रयोजनीयता अवस्थापर निर्भर है, एक अवस्था दूसरी अवस्थापर निर्भर है, जैसे जीवन-धारण श्वास लेनेपर निर्भर है। मनुष्यको बाह्य प्रकृतिके सम्बन्धमें इसी तरहकी मजबूरियोंका सामना करना पड़ता है। फसल काटनेके लिये फसलका बोना जरूरी है। इसमें कुछ लोगोंको पराधीनताकी गन्ध आती है। निस्सन्देह मनुष्य अधिक स्वतन्त्र होता, यदि बिना परिश्रम ही उसकी आवश्यकताएँ पूरी हो जातीं। जब वह प्रकृतिको अपना मतलब पूरा करनेके लिये बाध्य करता है, तब भी वह प्रकृतिका अनुवर्ती है। लेकिन यह अनुवर्तिता ही उसकी स्वतन्त्रताकी शर्त है। प्रकृतिका अनुगामी बनकर प्रकृतिपर वह विजय पाता है और इस प्रकार वह अपनी स्वतन्त्रताके राज्यका विस्तार करता है।’ अब हीगेलके इस वाक्यका अर्थ स्पष्ट हो जाता है कि ‘प्रयोजनकी स्वीकृति ही स्वतन्त्रता है।’
किंतु यह ठीक नहीं है। ज्ञानसे इच्छा होती है, इच्छानुसार ही प्राणीकी कृति होती है। भले ही संसार कार्य-कारणके नियममें बँधा हो और भले ही मनुष्य तथा उसकी इच्छा भी संसारका अंश ही हो तथापि उसी संसारमें तो स्वतन्त्रता-परतन्त्रताका व्यवहार चलता है। जो प्राणी किसी अन्यकी प्रेरणा या आशासे काम करता है, वह परतन्त्र कहा जाता है। अपरप्रेरित अपनी इच्छासे काम करनेवाला स्वतन्त्र कहा जाता है। रहा यह कि इच्छा भी कारणजनित ही होती है। सो तो ‘ज्ञानजन्या भवेदिच्छा’ ज्ञानसे इच्छा होती है, यह सिद्धान्त है। अन्यान्य प्राकृतिक तथा सामाजिक भी कारण रह सकते हैं। फिर भी स्वेच्छाधीन कार्य करनेवाला स्वतन्त्र कहा जाता है। इसमें विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती। तभी स्वेच्छाधीन भला बुरा काम करनेवाला मनुष्य निग्रह या अनुग्रहका भागी होता है। बिन्दुकी पृथ्वीपर गिरनेकी इच्छा तो काल्पनिक ही है; क्योंकि इच्छा चेतनका धर्म है, अचेतनका नहीं। फिर भी ‘नद्या: कूलं पिपतिषति’ (नदीका कगार गिरना चाहता है), इस प्रकारकी इच्छाएँ वस्तुत: काल्पनिक हैं। आसन्नपतनता देखकर ऐसा व्यवहार किया जाता है। मातृस्तन पीनेकी इच्छा तो चेतनकी इच्छा है, वह क्षुधासे भी होती है। फिर भी इष्ट-साधनता-ज्ञानसे ही इच्छा मुख्य है। रोगमुक्त होनेके लिये भी एक तो स्वेच्छासे ओषधि खायी जाती है, दूसरे अभिभावकोंद्वारा बाध्य किये जानेपर भी ओषधि खायी जाती है। इसी प्रकार जीवन-धारण करनेके लिये श्वास लेनेकी भी बात है। वस्तुत: प्रयोजनकी स्वीकृति ही स्वतन्त्रता है। इस परिभाषासे ‘स्वतन्त्र: कर्ता’ यह पाणिनिकी परिभाषा ही श्रेष्ठ है, जिसका आशय है ‘क्रियामें स्वतन्त्ररूपसे विवक्षित अर्थ ही कर्ता होता है।’
स्वेतर समस्त कारकोंका प्रयोजक होकर स्वयं किसीसे प्रयुक्त न होना ही स्वतन्त्रता है। व्यवहारमें भी जितने विधि-निषेध होते हैं, सभी स्वतन्त्रके ही होते हैं। जिसके हाथ-पैर हथकड़ी-बेड़ीसे जकड़े हों, ऐसे परतन्त्र व्यक्तिको जल लाने या दौड़नेको कौन आदेश दे सकता है? यों कोई भी बुरा काम करता है तो परिस्थितियोंसे बाध्य होकर ही करना पड़ता है। काम, क्रोध, लोभ—सभी परिस्थितियोंके अनुसार ही होते हैं। चोरी कोई तभी करता है, जब वह परिस्थितियोंसे उसके लिये बाध्य हो। तो भी क्या समाजसे चोरी करनेको अपराध मानना बन्द हो जाना चाहिये? संसारमें सभी कार्य कामना या इच्छापूर्वक ही होते हैं। इच्छामें भी जब प्राणी सदा परतन्त्र ही है, तब तो फिर किसी बुरे कामसे हटनेका उपदेश या प्रयत्न व्यर्थ ही होंगे। इसी तरह किसी अच्छे काममें प्रवृत्त होनेका उपदेश और प्रयत्न भी व्यर्थ है। अत: सुस्पष्ट है कि परिस्थितियोंसे सम्बन्ध होते हुए भी इच्छाके अनुसार होनेवाले कार्योंको स्वाधीनतापूर्वक कर्म कहा जाता है। तभी शुभाशुभ कर्मोंके अनुसार प्राणीको निग्रह एवं अनुग्रहका भागी होना पड़ता है, अन्यथा यह तो कोई भी अपराधी कह सकता है कि ‘अमुक परिस्थितियोंने ही हमसे यह काम कराया है, अत: दण्ड उन परिस्थितियोंको मिलना चाहिये या परिस्थिति उत्पन्न करनेवालेको मिलना चाहिये।’ परिस्थिति उत्पन्न करनेवाले भी यही कह सकते हैं कि ‘हमने भी परिस्थितिवश ही ऐसा किया है।’
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘श्रेणी-विभाजन समाजमें जितना ही सुदृढ़ होता गया, शासक श्रेणी उतनी ही उत्पादनशक्तियोंसे दूर हटती गयी। कृषिकार्यका भार, कारखाना चलानेका भार होता है गुलामोंके ऊपर, मजदूरोंके ऊपर। पूँजीपति सोच-विचारकर समाजव्यवस्थाके नीतिविधानकी रचनामात्र करते हैं, वस्तुजगत्का उनसे कोई सम्पर्क नहीं। हाथ-पैरसे काम करनेके लिये हैं मजदूर, मिस्त्री या इंजीनियर; लाभकारी आविष्कारके लिये हैं वैज्ञानिक। यहाँतक कि पूँजीपतिको देखभालकी आवश्यकता नहीं। ईरानमें तेलकी खानें चलती हैं और लाखों मील दूर बैठकर पूँजीपति मुनाफा कमाता है। धनिक वस्तुजगत्के जिस अंशका भोग करता है, वहाँ वह देखता है कि वही कर्ता है, वह स्वाधीन और सर्वेसर्वा है और उसीकी आज्ञासे सब चलता है। इसलिये आधुनिक संस्कृति और दर्शनमें इच्छा-स्वाधीनताका दावा सहज ही मंजूर हो जाता है।’
‘वर्तमान आदर्शवादी दार्शनिक इच्छा-स्वतन्त्रताके दावेके प्रमाणके लिये आधुनिक विज्ञानकी शरण लेते हैं। आइसनवर्गके—‘प्रिंसिपुल ऑफ मिनेसी’ में उनको एक सहारा मिलता है। संक्षेपमें इसका सिद्धान्त यह है कि ‘कोई इलेक्ट्रॉन दूसरे मुहूर्तमें क्या करेगा, यह निश्चित नहीं है। इलेक्ट्रॉन एक कक्षसे दूसरे कक्षको कूद रहा है, लेकिन कौन इलेक्ट्रॉन कूदेगा, इसका निश्चय नहीं।’ जैम्स, एलिंगटन, शोडिंगगेर इसीकी इच्छा—स्वतन्त्रताके प्रमाणके रूपमें सादर अभ्यर्थना करते हैं। यहाँपर दो बातें जान लेनेकी हैं; एक यह कि किसी एक इलेक्ट्रॉनकी गतिविधिको लक्ष्य करनेके लिये उसके ऊपर जो आलोक पार किया जाता है, उसीसे उसका स्थान परिवर्तन हो जाता है। दूसरी बात यह है कि मोरके ‘करसपाण्डेंस प्रिंसिपुल’ के अनुसार परमाणुओंके संख्याधिक्यसे उनकी गतिकी निश्चयता बढ़ जाती है। इस प्रकार आधुनिक विज्ञान भी कारणविहीन स्वतन्त्रताका अन्त कर देता है।’
परंतु यह बात भी ठीक नहीं है। इच्छा-स्वतन्त्रताका प्रश्न केवल पूँजीपतियोंसे ही नहीं है; क्योंकि इच्छा और तदनुसार विविध चेष्टाओंका प्रश्न तो सभीके साथ रहता है, भेद होता है, इच्छापूर्तिमें। जिनके पास पर्याप्त साधन है, उनकी इच्छाओंकी पूर्ति होती है, जिनके पास साधन नहीं हैं, उनकी इच्छापूर्तिमें बड़ी कठिनाई पड़ती है। जबतक पूँजीपतियोंके पास साधन हैं, उनकी इच्छापूर्तिमें सरलता रहेगी। जब मजदूरोंके हाथमें साधन हो जायँगे, तब फिर उनकी इच्छापूर्तिमें सरलता हो जायगी, यद्यपि साधनोंके मिलनेके साथ-साथ इच्छाएँ भी बढ़ती जाती हैं। शास्त्रकारोंका तो कहना है कि संसारमें विवेक-वैराग्यके बिना भोगप्राप्तिसे कभी कामनाओं और इच्छाओंकी पूर्ति नहीं हो सकती। जैसे घीकी आहुतिसे अग्निज्वाला बढ़ती है, वैसे ही भोगप्राप्तिसे इच्छाएँ बढ़ती हैं—‘न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते॥’ (विष्णुपुराण १०।१०।२३) यहाँतक कि संसारभरकी सम्पूर्ण धन-धान्य, हिरण्य आदि सम्पत्तियाँ मिल जायँ, तब भी एक पुरुषकी भी तृप्ति सम्भव नहीं—‘यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशव: स्त्रिय:॥ नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत्।’ (लिंगपुराण पूर्व० ६७।१७-१८)। संसारकी सभी स्वतन्त्रताएँ तो सीमित ही हैं। अविद्या-काम-कर्मके परतन्त्र प्राणीमें स्वतन्त्रताकी भी एक सीमा होती है, पूर्ण स्वतन्त्रता तो निरुपाधिक स्वप्रकाश आत्मामें ही है। जिनमें ‘जायते, वर्धते, अस्ति, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति’—ये छ: विकार होते हैं, उनकी पूर्ण स्वतन्त्रता कभी कैसे हो सकती है? षड्भावविकारवर्जित कूटस्थ आत्मा ही सर्वथा स्वतन्त्र है, फिर भी आपेक्षिक स्वतन्त्रता तो रज्जुमुक्त गोवत्सादिकी भी स्वतन्त्रतामें व्यवहृत होती है। वैसे कारागारमें बन्द प्राणी भी बहुत अंशोंमें स्वतन्त्र कहा जाता है। यों राष्ट्रकी पराधीनतासे भी प्राणी पराधीन कहा जाता है। वेदान्तकी दृष्टिसे स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीरत्रयवर्जित होनेपर ही पूर्ण स्वतन्त्रताका व्यवहार होता है।
कार्योंकी सुविधाके लिये श्रेणीविभाजन अनिवार्य ही है, सभीको सब कामका उत्तरदायित्व देनेसे कोई भी सुव्यवस्था नहीं बन सकती। वकील, इंजीनियर, चिकित्सक आदिसे कृषिका कार्य या मिलोंके करघे चलानेका काम करानेसे हानि ही है। इसीलिये प्राचीन कालमें प्रधानरूपसे ज्ञानार्जन, ज्ञानवितरणका काम ब्राह्मणोंपर; बलार्जन, बलवितरण, राष्ट्ररक्षण आदिका काम क्षत्रियोंपर; कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य आदिद्वारा धनार्जन, धनवितरण आदिका काम वैश्योंपर, राष्ट्रोपयोगी विभिन्न कर्मों, शिल्पादि कलाओंके अर्जन, रक्षण आदिका भार शूद्रोंपर डाला गया था। इससे उन-उन विषयोंके लोग निरन्तर विशेषता-सम्पादनके लिये प्रयत्नशील रहते थे। आज भी शिल्प, चिकित्सा आदि विविध विषयोंमें विशेषज्ञता-सम्पादनके लिये ‘स्पेशलिष्ट’ तैयार किये जाते हैं। आज भी संग्राम लड़नेवाले सिपाही अलग होते हैं, विचारकर युद्धनीति निर्धारित करनेवाले अन्य होते हैं, वैज्ञानिक अनुसंधान करनेवाले दूसरे लोग होते हैं और अनुसंधानके फलभूत विविध यन्त्रोंके निर्माण तथा संचालन करनेवाले दूसरे लोग हुआ करते हैं। जैसे कोई अपने शारीरिक बलसे लाभ उठाता है, वैसे ही बौद्ध-बलसे फायदा उठानेका बुद्धिजीवियोंका अधिकार है ही। व्यावहारिक भौतिक-जगत्में कारण-विहीन निरपेक्ष स्वतन्त्रता तो अध्यात्मवादी कभी नहीं मानते, इसके लिये विज्ञानकी खोज व्यर्थ है, किंतु सापेक्ष सकारण होनेपर भी इच्छा तथा कर्मोंकी स्वतन्त्रता अवश्य मान्य है, जिससे इच्छानुसार कर्तापर उत्तरदायित्व होता है और अपनी इच्छाओं तथा कर्मोंके सुपरिणाम-दुष्परिणामको वह भोगता है। जहाँतक किसी ढंगकी राज्यव्यवस्था होगी, वहाँतक अपराध एवं दण्डविधानकी भी आवश्यकता रहेगी। फिर उन-उन अपराधियोंकी इच्छाके आधारपर होनेवाले अपराधोंका उत्तरदायित्व भी उनपर मानना पड़ेगा, तभी दण्डविधान न्यायपूर्ण कहा जा सकेगा। ऐसी स्थितिमें इच्छाओं एवं कर्मोंमें स्वतन्त्रता स्वीकार किये बिना निग्रहानुग्रहकी कोई भी व्यवस्था नहीं चलेगी। सभी लोग परिस्थितियोंके ही जिम्मे सब दोष डालकर बरी हो जानेका प्रयत्न करेंगे।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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