10.8 द्वन्द्वन्याय और अन्तिम सत्य
कहा जाता है ‘द्वन्द्वमान किसी भी अन्तिम सत्यको नहीं मानता, इसके विपरीत आदर्शवादी दर्शन हर समय एक अन्तिम सत्यकी खोज करता रहता है। यह सत्य अनादि, अनन्त और निर्विकार है; लेकिन द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इस परिवर्तनशील जगत्में अपरिवर्तनीय सत्यकी खोज नहीं करता। इस दृष्टिकोणकी कहीं अन्तिम समाप्ति नहीं है। भूत-जगत् निरन्तर प्रवहमान है, कहीं विराम नहीं। हम व्यावहारिक सुविधाकी दृष्टिसे और प्रकृतिको विचारबद्ध करनेकी दृष्टिसे वस्तुजगत्की किसी एक दिशाकी विशेषताओंको अलग कर लेते हैं, लेकिन सनातन युक्तिका अनुसरणकर इनको अपरिवर्तनीय नहीं मानते। परमाणु गतिशील तरंगकी तरह है, लेकिन यह केवल वस्तु-जगत्के एक विशेष क्षेत्रके लिये ही सत्य है। दूसरे जगत्में यही ठोस पदार्थका आकार ग्रहण करता है। चेतन और अचेतन पदार्थको हम ‘पृथक् रूपमें देखते हैं और इस पार्थक्यकी आपेक्षिकताको भी देखते हैं। चेतन पदार्थके बीच भी अचेतन पदार्थका उपादान है, भूत-जगत्के अन्तर्निहित विरोधी गुण ही कभी चेतन और कभी अचेतन पदार्थकी सृष्टि करते हैं। एक अवस्थामें परमाणु अविभाज्य और मौलिक दीखता है और फिर यही अपनी शक्तिसे टूटकर नये परमाणुको जन्म देता है। पंचेन्द्रियकी क्षमताकी सीमाको हम देखते हैं, पुन: ये ही यन्त्रकी सहायतासे अदृश्यको दृश्यमान करते हैं। ‘इनफ्रारेड’ फोटो-प्लेटमें कुहरेके भीतरसे १५, २० मील दूरकी तस्वीर उतर जाती है।’
‘वस्तु जगत्के गतिप्रवाहमें कोई विराम नहीं है, एक ही वस्तुकी विरोधी शक्ति उसको एक जगहसे दूसरी जगह ले जाती है, कणिकासे तरंग और अचेतनसे सचेतन हो रही है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद इसी प्रकार वैज्ञानिक परीक्षाके क्षेत्रमें प्रमाणित हो रहा है। ‘बँधी पगडण्डीपर चलनेवाले बुर्जुआ, बुद्धिजीवी अवज्ञाके साथ कहते हैं कि विज्ञानके सिद्धान्त तो रोज बदलते रहते हैं, उनकी सत्यता कहाँ? नासिकाग्रपर दृष्टि स्थिरकर जो योगबलसे सब कुछ जान लेते हैं, उनके सिद्धान्त नहीं बदलते; क्योंकि उन्होंने तो अन्तिम सत्यपर अधिकार जमा लिया है, लेकिन वैज्ञानिक सिद्धान्त तो बदलते रहते हैं। व्यवहारमें इन सिद्धान्तोंकी जाँच होती रहती है और यहींपर वैज्ञानिक सिद्धान्तकी सार्थकता है।’
अध्यात्मवादमें भौतिक पदार्थोंकी सत्यताके अनेक तारतम्य हो सकते हैं, परंतु भौतिक प्रपंचका आधारभूत स्वप्रकाश चेतन आत्मा तो परमार्थ सत्य ही है। अत्यन्ताबाध्यता ही पारमार्थिक सत्यता है। सर्वाधिष्ठान, सर्वसाक्षी, अत्यन्ताबाध्य है ही। साक्षीविहीन बाध भी सिद्ध नहीं होता। जब सर्वबाधका साक्षी होना अनिवार्य है ही और उस साक्षीका कोई बाधक प्रमाण सिद्ध नहीं है, तब त्रिकालाबाध्य परमार्थसत्का अपलाप कौन कर सकता है? व्यावहारिक सत्य भी ऐसा ढुलमुल नहीं है, जैसी मार्क्सवादियोंकी धारणा है। मार्क्सवादियोंका टूटनेवाला, विभक्त होनेवाला परमाणु अध्यात्मवादियोंको मान्य नहीं है। यहाँ तो जिसका विभाग न हो सके, उसी अन्तिम अवयवको परमाणु कहा जाता है। किसी तरह भी जिसका विभाजन हो सकता है, वह परमाणु है ही नहीं। परिवर्तनशील जगत् है, इस सिद्धान्तको तो सत्य मानना ही चाहिये। इसी प्रकार चेतन-अचेतन भूत-जगत्के अन्तर्निहित विरोधी गुण हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि वस्तुको भी चेतन या अचेतन किसीमें अन्तर्निहित करना पड़ेगा। अचेतनसे चेतनकी उत्पत्तिकी अपेक्षा चेतनसे अचेतनकी उत्पत्तिमें अधिक युक्तियाँ हैं, यह बात कही जा चुकी है। पंचेन्द्रियोंकी क्षमताकी सीमामें साधनोंके साहित्य, राहित्यसे अन्तर पड़ सकता है। फिर भी उनकी इस सीमामें कोई अन्तर नहीं होता कि श्रोत्रसे शब्दका ही ग्रहण होता है, रूपका नहीं; घ्राणसे गन्धका ही ग्रहण होता है, शब्दका नहीं; इत्यादि।
‘अचेतनसे चेतनकी उत्पत्ति होती है’ इस सम्बन्धमें कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। विज्ञानमें परिवर्तन आये दिन होता ही रहता है। इसका अपलाप प्रौढिवादसे नहीं हो सकता। जैसे बुर्जुआलोग बँधी पगडण्डीके अन्धविश्वासी हैं, वैसे ही मार्क्सवादी राजमार्गको छोड़कर विपथगामी होनेके अन्धविश्वासी हैं। कोई भी मार्ग हो आखिर मार्ग ही है, उसपर चलनेसे वैज्ञानिक जाँच होती रहे; परंतु इसीसे एकान्तनिश्चित सिद्धान्त परित्याग नहीं किया जा सकता। धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक कोई भी कार्यपद्धति अनिश्चित अवस्थामें नहीं चल सकती। एक निश्चित चिकित्सापद्धतिको छोड़कर कोई बुद्धिमान् अपने शरीरको नवसिखिये वैज्ञानिकोंकी प्रयोगशाला बनानेको प्रस्तुत न होगा। जिस आध्यात्मिक, धार्मिक सत्य-निर्णयसे लौकिक, पारलौकिक कल्याणका सम्बन्ध है, उसे अनिश्चित अवस्थामें डालकर कोई भी बुद्धिमान् सन्तुष्ट नहीं हो सकता। फिर विज्ञानकी भी तो कुछ सीमाएँ हैं। यह कहा जा चुका है कि घ्राण या रसनाद्वारा रूप या शब्दके निर्णयकी वैज्ञानिक चेष्टा व्यर्थ ही है।
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘ज्ञान-विज्ञान सभी मनुष्यके कर्म और विचारके बीच सृष्ट होते हैं। वैज्ञानिक तत्त्व पारस पत्थरकी तरह एकाएक नहीं मिल जाता। मनुष्यके कर्म और विचारकी क्षमता उसकी शिक्षा पारिपार्श्विक और यन्त्रादिके ऊपर यदि अलौकिक प्रेरणा ही ज्ञानका मूल होती तो पाँच सालकी उम्रका बालक भी जंगलमें बैठकर ही सब कुछ आविष्कार कर लेता। वैज्ञानिक सिद्धान्तोंकी आपेक्षिकताका कारण यह है कि वैज्ञानिक ज्ञान उत्पादन-व्यवस्थाकी उन्नति तथा वैज्ञानिक शिक्षाका स्तर और पारिपार्श्विकके ऊपर निर्भर हैं। दूसरा कारण यह है कि वैज्ञानिक तत्त्वका संग्रह हम भूत-जगत्से करते हैं। यदि यह भूत-जगत् अपरिवर्तनीय होता तो हम सब कुछ बिना अवशिष्टके जान सकते। लेकिन यह भूत-जगत् ही द्वन्द्वात्मक रीतिसे बनता बिगड़ता है। इस ध्वंस और निर्माणके एक विशेष अंशको अलगकर इसकी परीक्षाकर अपनी ज्ञानकी सत्यताको हम प्रमाणित करते हैं, परंतु द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद हमको आगाह कर देता है कि चरम ज्ञानकी खोज मत करो; क्योंकि जिसको जान रहे हो, उसीका कोई चरम शेष नहीं है। भूत जगत् निरन्तर परिवर्तित हो रहा है। नुख्ताबन्द घोड़ेकी तरह चलनेवाले बुर्जुआ दार्शनिक तब नसीब ठोककर कहते हैं—‘इसीलिये तो सभी माया है, हम कुछ नहीं जान सकते, परम पिता परमेश्वर ही जान सकते हैं।’ व्यावहारिक ज्ञान यह सिद्ध करता है कि भूत-जगत्को हम जान सकते हैं। वह इसका पूर्व विभाग है, लेकिन इसकी कोई सीमा नहीं है। यदि तुम्हारा यह ख्याल है कि एक विराम-दण्ड खींचे बिना तुम्हारे मनको सान्त्वना नहीं मिलेगी, समुद्रके उच्छ्वासके स्तब्ध हुए बिना समुद्रका ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकेगा, तो यह तुम्हारी दुर्बलता है। न भूत-जगत्का कोई अपराध है, न वैज्ञानिक धाराकी कोई त्रुटि। वैज्ञानिक हर समय नये तत्त्व और नये तथ्यका संधान करता रहता है और हरेक वैज्ञानिक सत्यभूत जगत्के गति-प्रवाहका अपेक्षित और आंशिक विवरणमात्र है। इसको भ्रम कहकर उड़ाया नहीं जा सकता।’
‘भौगोलिक तत्त्वका एक दृष्टान्त लीजिये, भारतवर्षका जो वर्तमान मानचित्र हम आज देख रहे हैं, वह क्या सदासे ऐसा ही रहा है? दो हजार वर्ष पूर्व भारतवर्षका जो रूप था, वह आजसे बहुत भिन्न था और दस हजार वर्षोंके बाद इसका रूप और भी बदल जायगा। बंगालकी खाड़ीके बीच रेत उठ सकती है, कोई पहाड़ ऊँचा या नीचा हो सकता है। किसी नदीका प्रवाह बदल सकता है। इसलिये आजका मानचित्र, जो परीक्षित सत्य है, दस हजार वर्ष बाद एक ऐतिहासिक सत्यमात्र रह जायगा। ग्रीनलैण्डकी वर्तमान अवस्थाके वर्णनका दो हजार वर्ष पूर्वकी अवस्थासे कोई सम्बन्ध नहीं है। आज वह जनविहीन है। एक समय वह जनबहुल था और वहाँकी जलवायु मनुष्यके निवासके लिये उपयुक्त थी। ये भौगोलिक सत्य चरम सिद्धान्त नहीं हो सकते; क्योंकि भौगोलिक अवस्था परिवर्तनशील है। वैज्ञानिक सिद्धान्त भी इसीलिये आपेक्षिक है, तथापि यह परीक्षासिद्ध और कार्यकारी है। तर्ककी आतिशबाजीसे इस सत्यको उड़ाया नहीं जा सकता।’
‘वैज्ञानिक सत्यसे कुछ दूसरे प्रकारकी आपेक्षिकता है। एक दृष्टान्त ले लीजिये। जब चन्द्रके ऊपर पृथ्वीकी छाया पड़ती है, तो हम कहते हैं कि चन्द्रग्रहण हो गया। हमारी यह दृष्टि पृथ्वीसे सम्पृक्त है। इसी घटनाको यदि कोई चन्द्रके ऊपरसे देख ले तो वह कहेगा कि सूर्यग्रहण हो गया; क्योंकि चन्द्रके ऊपरसे वह देखेगा कि सूर्यके ऊपर पृथ्वीकी छाया पड़ी है। जिस घटनाका यह अवलोकन किया जा रहा है, वह न भूल है और न मायादृष्टिकेन्द्र (फ्रेम-ऑफ-रिफरेन्स)-की विभिन्नताके कारण एक ही घटना दो प्रकारसे दीख रही है। यहाँ भी वैज्ञानिक ज्ञानकी आपेक्षिकता प्रमाणित हो रही है। सत्य आपेक्षिक है सही, लेकिन इस आपेक्षिकताको अति तक पहुँचाया जा सकता है और तब यह हास्यास्पद बन जाता है। इसी प्रकारकी आपेक्षिकताकी आड़ लेकर वर्तमान पूँजीवादी भविष्यके एक वैज्ञानिक चित्रको देखनेसे मुँह मोड़ता है। सत्यकी परिभाषा करते हुए लेनिनने लिखा है कि यह दृश्यगत घटनाके सब पहलुओंका जोड़ है, उनकी वास्तविकता है, पारस्परिक निर्भरता है।’
अध्यात्मवादी इसे अनुक्तोपालम्भ कहते हैं। यह रामराज्यवादीका कभी भी मत नहीं है। विज्ञानके लिये शिक्षा अपेक्षित नहीं है। अवश्य ही शिक्षा, विचार, कर्म और पारिपार्श्विक यन्त्र आदि ज्ञान-विज्ञानमें सहायक होते हैं। इन सामग्रियोंसे एक ज्ञानशक्तिसम्पन्न चेतनको ही ज्ञान-विज्ञान उत्पन्न होते हैं। इन सब सामग्रियोंके रहनेपर भी किसी काष्ठ, पाषाणको ज्ञान-विज्ञान नहीं सम्पन्न होता। काष्ठमें अग्नि है, तिलमें तैल है—वह प्रयत्नसे प्रकट होता है। इसी तरह चेतन प्राणीमें ज्ञानशक्ति है, वही प्रयत्नसे व्यक्त होती है। इसमें पूर्वके संस्कार भी हेतु होते हैं। आद्य शंकराचार्य आठ ही वर्षकी अवस्थामें सर्वशास्त्रोंके विद्वान् हो गये थे, परंतु सबमें यह क्षमता नहीं। ध्रुवको ईश्वरके विशेष अनुग्रहसे सम्पूर्ण ज्ञान हो गया था। गीताके कृष्ण तो स्वीकार करते हैं कि भगवान् आराधनाओंसे सन्तुष्ट होकर प्राणीको वह ज्ञानयोग प्रदान करते हैं, जिससे वह भगवान्को प्राप्त कर लेता है—
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।
(गीता १०।१०)
बहुत प्रकारके ज्ञान पशु-पक्षियोंको भी होता ही है, हंसका क्षीरनीरविवेक, मधुमक्खियोंद्वारा मधुका निर्माण, भेड़ियों, बाजों तथा बिल्ली आदिद्वारा शिकारकी दक्षता आदि गुण बिना शिक्षाके भी हो जाते हैं। पक्षियोंमें उड़नेकी कला, मछलियोंमें तैरनेकी कला जन्मजात ही होती है; फिर वैज्ञानिकोंका घमण्ड क्या अर्थ रखता है? भूतजगत्का परिवर्तन तो परिणामवादी, आरम्भवादी सभी मानते हैं; परंतु उनके भी कुछ नियम हैं ही। वैज्ञानिकोंको भी कुछ नियम निश्चित करने पड़ते हैं। मार्क्सवादियोंको भी आखिर निर्वाण एवं निर्माणका नियम तथा परिवर्तनशील होनेका नियम, क्रम-परिवर्तन और क्रान्तिकारी परिवर्तन आदिके कुछ-न-कुछ नियम मानने ही पड़ते हैं। द्वन्द्वात्मक रीतिसे बनने-बिगड़नेका भी आखिर नियम हुआ ही। जैसे कूपमण्डूक या उदुम्बरफलके बीचमें रहनेवाला नगण्य जन्तु अपनी जानकारीको ही बहुत मानता है, उसी तरह मार्क्सवादी अपनेको सर्वज्ञ होनेका घमण्ड करते हैं। पर वस्तुस्थिति यह है कि हर बातमें वैज्ञानिककी भी खोपड़ीपर अज्ञान ही सवार रहता है। समझदार वैज्ञानिक नतमस्तक होकर यही कहता है कि ‘आजका सबसे बड़ा ज्ञान यही है कि अभी हमलोग कुछ भी नहीं जानते।’ फिर विज्ञान या वैज्ञानिकको यह अधिकार कहाँसे प्राप्त हुआ कि वह सत्य ज्ञानकी खोजको मना करे? अल्पज्ञान (अधूराज्ञान) और सम्यक् ज्ञानका भेद स्पष्ट प्रतीत हो तो किसी भी सम्बन्धमें तत्त्वज्ञानकी रुचि स्वाभाविक है। सिवा अल्पज्ञके आज भी कौन दावा कर सकता है कि हम सभी भूत-जगत्को जानते हैं?
वैज्ञानिक हो चाहे और कोई, वह सत्यको बनाता नहीं; किंतु सत्यकी जानकारी प्राप्त करता है। यथाभूत वस्तु ही सत्य कहलाती है, उसको अयथाभूत जानना भ्रान्ति है। एक अल्पायु अज्ञ प्राणी अपने परिमित साधनोंसे, नि:सीम संसारमेंसे बहुत-सी वस्तुओंको बहुत अंशमें जानता है, उन्हींको नयी-नयी वस्तु, नये-नये तथ्यके रूपमें जानता-समझता है, परंतु एतावता दीर्घायु, दीर्घतपा, दीर्घदर्शियोंकी ऋतम्भरा प्रज्ञाद्वारा होनेवाले परमार्थ सत्यज्ञानका अपलाप नहीं किया जा सकता। भौगोलिक उथल-पुथलका परिज्ञान भी उन महातपस्वियोंको था ही। शास्त्रोंमें योगवासिष्ठ आदिमें यह स्पष्ट वर्णन है। जहाँ आज समुद्र लहराता है, वहीं कभी भीषण मरुस्थल परिलक्षित होने लगता है। जहाँ आज हिमालय है, वहाँ कभी समुद्र हो सकता है, इतना ही क्यों, उनकी दृष्टिमें सूर्य, चन्द्र, सागर, भूधर एवं समस्त वसुन्धराका अनेक बार उद्भव एवं अनेक बार प्रलय हुआ है। फिर भी भिन्न-भिन्न वस्तुओंके गुण, स्वभाव, परिमाण आदिका तथ्य वर्णन किया जाता है। व्यावहारिक वस्तुएँ आपेक्षिकरूपसे ही तथ्य हैं, यह तो शास्त्रोंका परम सिद्धान्त है। ‘तर्ककी आतिशबाजी नहीं’, तर्ककी गोलाबारी होती है, जिससे अपसिद्धान्त ध्वस्त हो जाता है। प्रमाण, युक्ति, तर्कविहीन विज्ञान विज्ञान ही नहीं, वह है निरा अज्ञान और निरा अभिमान। जिस भूमण्डलपर जो प्राणी रहता है, वहाँसे वह सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहणका विचार करता है। चन्द्रमासे सूर्यग्रहण या सूर्यसे चन्द्रग्रहणके विचारका मतभेद उपस्थित हो, तभी उस सम्बन्धमें विचार चल सकते हैं। आपेक्षिकताकी अति कहाँ है, इसकी सीमा भी प्रमाणके आधारपर ही निश्चित हो सकती है। क्या जो मार्क्सवादियोंके विपरीत पड़े, वही आपेक्षिकताकी अति है?
जैसे पूँजीवादी, मार्क्सवादियोंके भविष्य-चित्र देखनेसे मुँह मोड़ते हैं, वैसे ही रामराज्यवादियोंकी भविष्य-निर्धारणासे भौतिकवादी भी मुँह बिचकाते हैं। ‘दृश्यगत घटनाके सभी पहलुओंका जोड़ सत्य है, उनकी परस्पर निर्भरता ही वास्तविकता है,’ इत्यादि लेनिनका कथन भी असंगत है; क्योंकि घटनाएँ क्रिया हैं, वे स्वयं बाध्य एवं असत्य होती हैं; फिर उनके पहलुओंकी भी यही स्थिति होगी। उनके जोड़की यही स्थिति अवश्यम्भावी है। वस्तुत: अबाध्यता ही सत्यता है, जिस वस्तुमें जितनी अबाध्यता है, उतनी ही सत्यता है। यहाँतक कि रज्जु, सर्प, शुक्ति, रजतादि प्रातिभासिक पदार्थ भी प्रतिभास कालमें अबाधित होनेसे प्रातिभासित सत्य होते हैं। आकाशादि व्यवहारकालमें अबाधित होनेसे व्यावहारिक सत्य हैं। सर्वाधिष्ठान, अखण्डबोधस्वरूप सर्वसाक्षी अत्यन्ताबाध्य होनेसे वही परमार्थ सत्य है।
‘प्रैग्मेटिज्मके जन्मदाता विलियम जेम्सका कहना है कि जिसकी व्यावहारिक उपयोगिता है, वही सत्य है। सत्य हमारे विचारोंमें प्रतिबिम्बित वास्तविकताका रूप नहीं है, बल्कि जो व्यक्तिविशेषकी भावनाओं और आवश्यकताओंके साथ खप जाता है। शीलरका मत भी इसी प्रकार है। सामाजिक मनुष्य वास्तवभूतकी विचार-क्रियासे सत्यपर उपनीत नहीं होता, बल्कि मनुष्य ही सत्यकी सृष्टि करता है। पिलैण्डेलोके नाटक ‘तुम सही हो, यदि तुम अपनेको ठीक समझते हो’ में इस दर्शनवादका सुन्दर चित्र मिलता है। तुमको हाँ या ना करनेके लिये दस्तावेजका प्रमाण चाहिये। मेरे लिये इनकी कोई आवश्यकता नहीं; क्योंकि मेरी रायमें इन दस्ताबेजोंमें सत्यका निवास नहीं, बल्कि उन व्यक्तियोंके मनमें है, जिनके अन्दर सिवा उन्हींके दिये हुए प्रमाणसे हम प्रवेश नहीं कर सकते। डीबीके शब्दोंमें ‘हमारे लिये सत्य वही है, जिससे हमको सहायता मिलती है और जिसका हमारे ऊपर प्रभाव है।’ प्रयोजनवादका सारतत्त्व यही है कि व्यावहारिकता ही हमारे लिये सब कुछ है। इससे अधिक हम कुछ नहीं जान सकते। यह दर्शन साम्राज्यवादकी अवनतिका द्योतक है।’
मार्क्सवादियोंका यह कहना है कि ‘अन्य दर्शन मायाविमूढ़की तरह हमें पथभ्रष्ट करते हैं, मार्क्सीयदर्शन जीवनपथ निर्देश करता है’ अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना है। जैसे किसी आंशिक दृष्टिकोणसे मार्क्सीयदर्शन दर्शन कहला सकता है, वैसे ही अन्य पाश्चात्य-दर्शन भी भारतीयदर्शनोंकी दृष्टिसे तो यह सब ‘दर्शन’ कहलानेके योग्य ही नहीं हैं। समुचित प्रमाण, प्रमेय, फल तथा साधनोंका निरूपण पूर्णरूपसे किसी पाश्चात्त्य दर्शनमें नहीं है। छायावादी ढंगके वाक्योंसे केवल आपेक्षिक एकांगी दृष्टिकोणसे ही सिद्धान्तोंका निरूपण किया जाता है। इस दृष्टिसे उपर्युक्त दृष्टिकोण ठीक नहीं है। हजार अन्य सत्य भले ही हों, परंतु प्रयोजनवादीके लिये अगर वे उपयोगी नहीं तो प्रयोजनवादी दृष्टिकोणसे व्यर्थ ही हैं। शीलरका सत्य भी इसी दृष्टिका है। अपनी सचाई-झुठाई प्राणी जितना अपने-आप जान सकता है, उतना दूसरा नहीं समझ सकता। इस दृष्टिसे ‘तुम सही हो, यदि तुम अपने आपको ठीक समझते हो,’ कितनी सुन्दर बात है। दर्शन साम्राज्यकी अवनतिका जीता-जागता नमूना तो है, मार्क्सका जडवादी दर्शन, जिसमें ‘धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा’ के बदले ‘अर्थो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा’ के सिद्धान्तको भी सिद्धान्तनामसे पुकारा जाता है।
आमतौरपर वादि-प्रतिवादि-सम्भव प्रमाणों, तर्कों, सिद्धान्तोंके आधारपर ही विप्रतिपन्न विषयोंकी सिद्धि की जाती है, परंतु मार्क्सवादी किन्हीं भी सिद्धान्तों-तथ्यों, न्यायोंको स्थिर नहीं मानते। कारण, उन कसौटियोंपर वे एक क्षण भी नहीं टिक सकते। अत: उनके पास यह कहनेके सिवा कि ‘परमात्मा, ईश्वर, धर्मके अतिरिक्त मार्क्सवादी स्थिर आत्माका भी अस्तित्व नहीं मानता’, कोई दूसरा चारा नहीं। भला इसे दर्शन भी कैसे कहा जा सकता है? मार्क्सवादी स्वयं ही कहते हैं—‘जो दार्शनिक जिस परिस्थितिमें रहता है, उसी ढंगका उसका दर्शन होता है’, एतावता सिद्ध है कि उस दर्शनपर उस दार्शनिकके दिमागी फितूरके अतिरिक्त सत्यका अंश कुछ भी नहीं रहता।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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