10.9 काण्टका ज्ञान-सिद्धान्त
‘काण्ट इससे सहमत है कि हमारा ज्ञान अनुभवसे आरम्भ होता है और इस अनुभवकी प्रारम्भिक बात है—बाहरी वस्तुओंका अस्तित्व। वह केवल इस बातसे इनकार करता है कि यहीं इसका अन्त होता है; क्योंकि हमें ऐसी चीजोंका ज्ञान है, जो अनुभवसे परे हैं। वह इसको मान लेता है कि शेषोक्त प्रकारका ज्ञान पूर्वोक्त प्रकारके ज्ञानका अनुमान कर लेता है; क्योंकि यह कैसे सम्भव है कि पहचान (ज्ञान)-की शक्तिका उद्बोध न हो सिवा उन वस्तुओंके संयोगसे, जिनका प्रभाव हमारी इन्द्रियोंपर पड़ता है और जो स्वयं अपने प्रतिबिम्ब उत्पन्न करती हैं और अंशत: हमारी बुद्धिको जाग्रत् करती हैं, ताकि वह इन प्रतिबिम्बोंकी तुलना कर सके, इनको जोड़ सके तथा अलग-अलग कर सके और इस प्रकार हमारे इन्द्रिय-लब्ध चित्रोंके सच्चे मालको वस्तुओंके ज्ञानके रूपमें परिणत करता है और जिसको हम अनुभवका नाम देते हैं। इसलिये समयके ख्यालसे हमारा कोई ज्ञान अनुभवसे पहले नहीं है, बल्कि इसके साथ ही आरम्भ होता है।
‘वह आगे चलकर कहता है कि ‘ज्ञानका एक और अंग है। यद्यपि हमारा ज्ञान अनुभवसे आरम्भ होता है, इसका यह अर्थ नहीं कि अनुभवसे ही सब ज्ञानकी उत्पत्ति होती है; क्योंकि इसके विपरीत यह बहुत सम्भव है कि जो कुछ हमको इन्द्रिय-संयोगसे प्राप्त होता है और जो कुछ हमारी पहचानकी शक्ति स्वयं अपना अंश मिलाती है, इन दोनोंके मिश्रणसे ही हमारा व्यावहारिक ज्ञान बनता है। लेकिन मुद्दतकी आदतसे ही हमारे अन्दर वह कौशल और एकाग्रता आती है, जिससे हम इन दोनोंको पृथक् करनेमें समर्थ होते हैं। काण्टके पहलेके दार्शनिक दो मुख्य दलोंमें बँटे हुए थे, एक भौतिकवादी, जो इन्द्रियानुभव तथा उसके ऊपर सोच-विचारके दूसरे रास्तेद्वारा बाहरी दुनियाँसे एक ज्ञानकी उत्पत्ति बताते थे और दूसरे आदर्शवादी, जो कहते थे कि मानसमें ऐसे विचार हैं, जिनका कारण नहीं बताया जा सकता। ऐसे विचार जिनकी सार्वभौमिकता और अमूर्तरूप यह निर्देश करता है कि ये स्वयं प्राप्त हैं और सब अनुभवके मूलमें हैं।’
‘काण्टकी ऐतिहासिक स्थिति यह है कि दोनों दृष्टिकोणोंके समन्वयके द्वारा उसने इस विरोधका अन्त किया और उसका यह दावा था कि इस नये दृष्टिकोणमें उसने इन दोनोंका सम्मेलन एक ऊँचे स्तरपर कराया है। उसने यह मान लिया कि स्थान, काल, कारण इत्यादि अमूर्त कल्पनाओंको केवल अनुभवमें रूपान्तरित नहीं किया जा सकता, दूसरी ओर यद्यपि ये स्वयं प्राप्त हैं। यह कल्पना नहीं की जा सकती कि ये बिलकुल ही अनुभवपर निर्भर नहीं हैं। उसका दावा था कि वास्तविकता यह है कि सब अनुभवके मूलमें पूर्व परिस्थितियोंके रूपमें ये विद्यमान हैं और इस तरह ये अनुभवके रूपोंका निर्णय करते हैं।’
‘उसने यह दलील दी कि बाहरी वस्तु और दूसरी मानव बुद्धि—ये ज्ञानके दो उद्गम नहीं हैं—ज्ञानका एक ही उद्गम है—वह है कर्ता और कर्म (बुद्धियुक्त मनुष्य और वस्तु)-का सम्मेलन। जैसे जलका कारण अम्लजन और उद्रजनका सम्मेलन है। यहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि जलके दो कारण हैं, किंतु दोनोंका सम्मेलनरूप एक ही कारण है। उसी तरह प्रकृतमें भी समझना चाहिये। कर्ता और कर्मका सम्मेलन ही जलका कारण है। सारा संसार हमारे लिये दृश्यमान घटनाओंकी एक परम्परा है। क्या ये दृश्य मानसकी उपज हैं, जिसके सामने ये दर्शित होते हैं या कि ये वस्तुओंके विशुद्ध प्रतिनिधि हैं? आदर्शवाद या वस्तुवाद—दोनोंमेंसे कोई नहीं और दोनों मानस और वस्तु सहयुक्त होकर दृश्य या प्रत्यक्षीकरणको उत्पन्न करते हैं। प्रत्यक्षीकरण दोनोंके सम्मेलनका ही फल है।’
‘अनुभवसे ज्ञानका आरम्भ होता है’, इत्यादि काण्टका कथन इन्द्रिय-व्यापार आदिके अभिप्रायसे संगत होता है। इन्द्रिय, मन, अहंकार एवं बुद्धिके व्यापारोंको ही अनुभव, संकल्प आदि अनेक नाम दिये गये हैं। वस्तुत: ये सभी जड हैं। जड़ोंमें जब अपने ही प्रकाशकी शक्ति नहीं है, तब उनसे विषय-प्रकाशकी कल्पना सर्वथा निरर्थक है। मन या अन्त:करणकी वृत्ति भी ज्ञानपदसे कही जाती है, परंतु यह सब कथन औपचारिक ही है। इन्हीं जड व्यापारोंकी उत्पत्ति और नाश कहा जा सकता है। सर्वप्रकाशक बोधका न प्रागभाव सिद्ध होगा और न तो प्रध्वंसाभाव ही। वस्तुओंके संयोगसे इन्द्रियोंपर प्रभाव पड़ता है और विषयरूपी वस्तुओंका प्रतिबिम्ब भी वृत्तिमें उत्पन्न हो बुद्धिके जागरणमें भी वस्तुओंका उपयोग होता है। फिर भी इनके द्वारा नित्य-बोधकी अभिव्यक्ति ही होती है, उत्पत्ति नहीं। जैसे काष्ठोंके संघर्षसे दाहकत्व-प्रकाशकत्वविशिष्ट अग्निका प्राकटॺ होता है, ठण्डे-गरम तारोंके योगसे विद्युत्प्रकाशका प्राकटॺ होता है, किंवा सूर्यकान्तमणिके योगसे व्यापक सौरालोकका अग्निके रूपमें प्राकटॺ होता है, स्वच्छ काँच आदिके योगसे सौरालोक चमत्कृत होता है, उसी तरह वृत्तियोंके योगसे व्यापक अखण्ड बोध चमत्कृत होता है। इस तरह अनुभव और ज्ञानका भिन्न-भिन्न अर्थोंमें प्रयोग केवल ज्ञानकी उपाधियोंमें ही होता है। वस्तुत: स्वतन्त्र नित्य नीरूप चित्प्रकाश ही अनुभव एवं ज्ञान आदि शब्दोंका लक्ष्य अर्थ है। व्यावहारिक ज्ञान-पहचान, अनुभव, इनकी उत्पत्ति, विनाश, स्पष्टता, अस्पष्टता, एकता एवं अनेकता—ये भी बातें इन्द्रिय, मन, अहंकार एवं बुद्धिके ही विभिन्न व्यापारोंसे सम्भव हैं, परंतु एक समान प्रकाश तो सर्वत्र एक-सा ही रहता है। उसी एक नित्यप्रकाशको ही किन्हीं पाश्चात्योंने मानसमें स्वयंसिद्ध माना है। अतएव ‘अनुभवकी स्पष्टता या उसका निरूपण बाह्यवस्तुसापेक्ष है’—यह काण्टका कथन भी इसी दृष्टिसे संगत होता है। बुद्धियुक्त मनुष्य और बाह्यवस्तुओंसे अनुभव उत्पन्न होता है, यह कथन भी वृत्तिरूप ज्ञानके सम्बन्धमें है। बुद्धिवृत्तिरूप ज्ञानके उत्पन्न होनेपर उसीके द्वारा नित्य ज्ञानका प्राकटॺ होता है। यद्यपि परमार्थ सत्य यही है कि सम्पूर्ण संसार मानसकी ही उपज है। इतना ही क्यों? मानस भी तो अखण्ड बोधका ही एक भ्रान्तिसिद्ध रूप है। क्या हम देखते नहीं कि स्वप्नका देह, स्वप्नका प्रपंच, स्वप्नका सभी दृश्य एक ढंगके बोधका ही विवर्त है। कुछ निम्नस्तरकी दृष्टिसे मानस और बाह्यवस्तुओंके सम्मेलनसे प्रत्यक्षीकरण आदि व्यापारके भासक साक्षीका अपलाप नहीं किया जा सकता।
‘हीगेलके बहुतेरे सिद्धान्तोंका मूल काण्टके दर्शनमें मिलता है। जब काण्टने सब सम्भव ज्ञानके क्षेत्रको उन रूपोंमें सीमित कर दिया, जिनमें मनुष्य बाहरी दुनियाँको देखता है तो उसने हीगेलके इस वाक्यकी नींव डाली कि जो कुछ वास्तव है, वह तर्कसंगत है और जो कुछ तर्कसंगत है, वह वास्तव है। यह ठीक है कि काण्टने अस्वीकार किया कि वस्तुस्वरूप कोई ज्ञान प्राप्त हो सकता है, लेकिन हीगेलको दो दिशाओंमें यह असम्बद्ध मालूम हुआ। पहली बात तो यह है कि इस सिद्धान्तके अनुसार कि ‘विचाररूप’ के अन्दरकी वास्तविकताको देनेवाला अनुभव ही है। वस्तुस्वरूप नामक विचाररूप तभी सत्य हो सकता है, जब इसकी उत्पत्ति किसी अनुभवसे ही हो। दूसरी बात यह है कि दृश्यगत घटनाओंमें तथा इनके और बुद्धिके बीचके सम्बन्धमें ही अनुभवका निवास है। एंजिल्सने इसीका भाषान्तर करके कहा ‘यदि हम किसी वस्तुके सभी गुणोंको जान लें, तो वस्तुस्वरूपके विषयमें कुछ आविष्कार करना बाकी नहीं रह जाता, सिवा इसके कि वह वस्तु हमारे बाहर है और उसका अस्तित्व हमारे ऊपर निर्भर नहीं है।’
‘इन्द्रियानुभूतिवादियों (लॉक इत्यादि) के खण्डनकी क्रियामें काण्टके सिद्धान्तोंने उसको यह कहनेके लिये बाध्य किया कि हम पृथक् रूपसे केवल गुणोंका प्रत्यक्षीकरण नहीं करते। सम्पूर्ण प्रत्यक्षकारी संज्ञा क्रियाशील प्रत्यक्षीकरणमें सम्पूर्ण बाहरी वास्तविकताके द्वारा संशोधित और परिवर्तित होती है। हीगेलने इन दोनों सम्पूर्णोंको एक विकासमान सम्पूर्णके धनात्मक और ऋणात्मकरूपमें माना और इस प्रकार पूर्ण आदर्शवादको पहुँचे। ‘काण्टने कर्ता और कर्म (वस्तु)-के विरोधात्मक एकत्वको अपनी दर्शन-व्यवस्थाका केन्द्र बनाया। लेकिन उसकी इस कल्पनामें यह असंगति थी कि एक ही ओर यानी कर्ताकी ओर ही यह एकत्व क्रियाशील तथा फलोत्पादक है। हीगेलने इस असंगतिको दूर किया और इस बुनियादपर अपनी सारी प्रथाका निर्माण किया कि सत्यका अवस्थान न केवल शुद्ध कर्तामें और न केवल शुद्ध वस्तुमें है, बल्कि इनके बीचके क्रियाशील सम्बन्धमें है—जिस सम्बन्धके द्वारा कर्ता और वस्तु, दोनोंमें क्रमवर्धनशील रूपान्तर होता रहता है। आदर्शवादके स्तरपर यह कल्पना हमको ले जाती है, मार्क्सीय विश्वकल्पनाकी ओर। आदर्शवादने क्रियाशील पक्षको विकसित किया, लेकिन केवल अमूर्तरूपमें द्वन्द्वमान, तर्क और विचारके व्यापक नियमोंके विकासमें तथा मनुष्यकी मस्तिष्क-क्रियाकी सीमाओंको रेखांकित करनेमें। वस्तुओंके द्वारा रक्तमांससम्पन्न मनुष्य-व्यवहारके क्रियाशील पक्षका विकास भौतिकवादियोंने किया नहीं और आदर्शवादी अपने आदर्शवादके कारण कर न सके।’
‘प्रारम्भमें दिये गये ज्ञानकी परिभाषाका द्वन्द्वात्मकरूप अब समझा जा सकता है। मनुष्यके बाहर स्थित प्रकृति ही ज्ञानका उद्गम है। ज्ञानप्रक्रिया मनुष्य और वस्तुके बीच एक क्रिया-प्रतिक्रिया है, जो मनुष्य और वस्तुको भिन्न बना देती है, ज्ञात होनेके कारण। ज्ञात वस्तु अपने पहले रूपसे विभिन्न बन जाती है और ज्ञानी मनुष्य भी अपने पहले रूपसे भिन्न है। ज्ञानका मूल है मनुष्यकी व्यावहारिक क्रिया—वस्तुओंके द्वारा, अनुभवके द्वारा। ज्ञानप्राप्तिकी पहली सीढ़ी है इन्द्रियानुभूति। इन्द्रियानुभूति कोई ऐसी चीज नहीं है, जो मनुष्य-अवयवके साथ सदा एक-सी बनी रहती हो। यह इन्द्रियानुभूति एक विशेष उपज है और यह पैदा होती है पशुओंकी इन्द्रियानुभूतिसे भिन्नरूपमें; ऐतिहासिक, सामाजिक प्रयोगकी बुनियादपर। सामाजिक ज्ञानका विकास इन्द्रियानुभूति तथा युक्तियुक्त ज्ञान दोनोंको समृद्ध करता है। किसी भी असभ्य मनुष्यके विचार और इन्द्रियानुभूतिका स्तर इतना निम्न होता है कि किसी सभ्य मनुष्यसे उसकी तुलना नहीं हो सकती। उसके निम्नस्तर और अत्यन्त सीमित पार्थिव आचार-व्यवहारपर ही उसके विचार और इन्द्रियानुभूति दोनों ही निर्भर हैं। ज्ञानकी दूसरी सीढ़ी है तर्कबुद्धि। यह बुद्धि भी प्रयोग और व्यवहारके द्वारा आती है।’
वृत्तिरूप ज्ञानका ही क्षेत्र किन्हीं रूपोंमें सीमित हो सकता है। निर्विषय, निर्दृश्य शुद्धबोधके सम्बन्धमें यह नहीं कहा जा सकता। साथ ही बाह्यरूप भी सीमित नहीं है। केवल जो कुछ मानवबुद्धिग्राह्य है, वही सब कुछ नहीं है। मनुष्यकी अल्पज्ञता तो स्पष्ट ही है। यदि हम वस्तुका सभी गुण जान लें तो वस्तुस्वरूपके विषयमें कुछ आविष्कार बाकी नहीं रह जाता। एंजिल्सका यह विचार भी आकाशकुसुमकी कल्पना ही है। स्वाप्निक दृश्यवस्तु जैसे द्रष्टापर ही निर्भर होती है, उसी तरह जाग्रत्-प्रपंच भी द्रष्टापर ही निर्भर है। इसीलिये हीगेलको चेतनसे अचेतनकी उत्पत्ति माननेको बाध्य होना पड़ा। काण्ट और हीगेलके इस भेदमें कोई तथ्य नहीं है कि कर्ता और कर्मका क्रियाशील एकत्व क्रियाशील तथा फलोत्पादक है या क्रियाशील सम्बन्ध फलोत्पादक है; क्योंकि ज्ञान स्वयं चेतन एवं प्रकाशात्मक होनेसे कर्ताकी जातिका है, अत: कर्ताकी ओर फलोत्पत्तिका व्यवहार होता है—यह काण्टका अभिप्राय है। निर्विकार, निर्दृश्य अखण्ड बोधमें विषयोपराग स्वत: सम्भव नहीं है। अत: दृक्, दृश्य, चेतन, अचेतनके अन्योन्याध्याससे ही व्यावहारिक सप्रपंच ज्ञान होता है। यही हीगेलका अभिप्राय है। मार्क्सके अनुसार ‘मनुष्य एवं वस्तुके बीचकी क्रिया-प्रतिक्रिया ही ज्ञानप्रक्रिया है और ज्ञानका मूल मनुष्यकी व्यावहारिक क्रिया है। इन्द्रियानुभूति और तर्क-बुद्धि ही प्रयोग एवं व्यवहारके द्वारा युक्तियुक्त ज्ञानका निर्माण करती है।’ जहाँतक व्यावहारिक वृत्तिरूप-ज्ञानकी बात है, सांख्यवादी भी यही मानते हैं। इतना अवश्य है कि सांख्योंका मनुष्य रक्त-मांस-अस्थिपंजरमात्र नहीं; किंतु वह चेतन असंग आत्मा है और उसी दृष्टिसे द्रष्टा तथा दृश्य, कर्ता और कर्म, भोक्ता तथा भोग्यका भेद भी सिद्ध होता है अथवा इससे निम्नस्तरपर उतरें तो कह सकते हैं कि सूक्ष्म सत्त्वात्मक बुद्धितत्त्व ही कर्ता या ज्ञाता है। तामस, राजस, स्थूल-प्रपंच वस्तु है। यही कर्ता, कर्म, ज्ञाता एक ज्ञेयका भेद है, परंतु मार्क्सके अनुसार ‘भूत ही सब कुछ है। उसका ही परिणाम वस्तु है और उसीका परिणाम मनुष्य है।’ फिर उसकी क्रिया-प्रतिक्रियासे भी अति विलक्षण प्रकाशरूप ज्ञान किस तरह उत्पन्न हो सकेगा, यह विचारणीय विषय है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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