10.10 व्यवहार और तथ्य
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘भूत पहले या मानस, यह प्रश्न एक दूसरे रूपमें भी जीवनके सामने उठ खड़ा होता है। प्रयोग पहले या सिद्धान्त? व्यवहार पहले या तथ्य? इसका उत्तर हमको जीवनपथमें एक विशिष्ट दिशाकी ओर ले जाता है। इस विषयमें मार्क्सवादी दृष्टिकोण भी अपनी विशेषता रखता है। कुछ लोग कहते हैं कि प्रयोग और सिद्धान्तमें कोई समन्वय नहीं हो सकता। प्रयोग इस गन्दी, स्थूल, असत्य, मायावी दुनियाँकी चीज है। सिद्धान्त चिरसत्य, शिव और सुन्दर है। दोनोंका क्या सम्बन्ध है? ‘सिद्धान्त दर्शन-ज्ञान ही सब कुछ है, इसके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं’, इस तरहके विचार रखनेवाले लोग मकड़ीकी भाँति अपने भीतरसे सिद्धान्तको निकालते हैं। दूसरे लोग हैं, जो प्रयोगसे एकदम इनकार तो नहीं करते; किंतु वे सिद्धान्तको ही प्रधान मानते हैं। उनकी दृष्टिमें सिद्धान्त प्रयोगकी संतान नहीं है, वह एक स्वयम्भू तत्त्व है। ऐसे मतवालोंके लिये प्रयोगका आश्रित होना निम्नकोटिके लोगोंको ही शोभा देता है। सिद्ध-महर्षि इसके ऊपर हैं। यह गौर करनेकी बात है कि प्राचीन भारतका प्रगतिशील युग प्रयोग-निर्भर ही था, जैसा कि अलबेरूनीद्वारा उद्धृत आर्यभट (४७६ ई०)-के निम्न सूत्रसे स्पष्ट हो जाता है। ‘सूर्यकी किरणें जो कुछ प्रकाशित करती हैं, वही हमारे लिये पर्याप्त है। उनसे परे जो कुछ है और वह अनन्त दूरतक फैला हो सकता है, उसका हम प्रयोग नहीं कर सकते। जहाँ सूर्यकी किरणें नहीं पहुँचतीं, वहाँ इन्द्रियोंकी गति नहीं और जहाँ इन्द्रियोंकी गति नहीं, उसे हम जान नहीं सकते।’
‘पूर्वोक्त दृष्टिकोण श्रेणी-विभाजित समाजका और उस समाजमें शारीरिक और मानसिक श्रमके विभाजनका परिणाम है। पूँजीवादमें शारीरिक और मानसिक श्रमका विच्छेद पूरे तौरपर हो जाता है। श्रमके इस विभाजनके कारण प्रयोगसे बिलकुल स्वतन्त्र होकर सिद्धान्तका निर्माण होता है और विद्वत्तापूर्ण तथ्योंका आविष्कार होता है, जो व्यवहारकुशल लोगोंकी अवज्ञाके पात्र बन जाते हैं। इस प्रकार उत्पन्न प्रयोग और सिद्धान्तका विच्छेद पूँजीवादी विचारधाराकी रक्षणशील संकीर्णताके कारण अधिक गहरा बन जाता है और जो आजके दिनके ढोंगपूर्ण विचारोंके लिये जिम्मेदार हैं। विज्ञानकी विभिन्न शाखाओंके अध्ययनसे भी हम इसी नतीजेपर पहुँचते हैं कि प्रयोग ही सिद्धान्तका जनक है। देशविजय और व्यापारने भूगोलको जन्म दिया। पैदावार तथा उद्योग और लड़ाईके औजारोंने खनिज-विज्ञानकी सृष्टि की। कृषिमें बीज बोनेके लिये ऋतुओंके ज्ञानकी आवश्यकता हुई। इस आवश्कताके कारण नक्षत्रशास्त्रकी रचना हुई। इसी नक्षत्रशास्त्रकी शाखा-उपशाखाके रूपमें आलोक-विज्ञान (दूरबीन आदिका आविष्कार) तथा पदार्थ-विज्ञानकी सृष्टि हुई। व्यावहारिक उपयोगिता ही यन्त्रगति शास्त्रका जनक है। जैसे नील नदीकी सतहको उठाकर खेत सींचनेकी आवश्यकता इत्यादि। इतर धातुओंको सोनेमें परिवर्तित करनेकी चेष्टासे रसायनशास्त्रकी उत्पत्ति हुई। रसायनशास्त्रके पर्यायवाची अंग्रेजी शब्द केमिस्ट्रीकी उत्पत्ति है मिस्र-भाषाके शब्द कीमियासे। गणितशास्त्र एक ऐसा शास्त्र है, जो सबसे अधिक बुद्धिप्रसूत और प्रयोगसे असम्बन्धित जान पड़ता है। लेकिन इसके इतिहासके अध्ययनसे भी यही विचारधारा पुष्ट होती है। खेतोंकी नाप-जोखसे ज्यामिति (रेखागणित)-का सम्बन्ध है और जिस समय रोम-अधिपति आगस्टसने सिकंदरियाके हीरोको रोमन-राज्यका नकशा खींचनेके लिये नियुक्त किया, उससे भी ज्यामिति-शास्त्रने काफी पोषण प्राप्त किया। ‘साइंस ऐट दी क्रास-रोड्स’ (विज्ञान—चौमुहानेपर) नामक लेखमें हेसेनने न्यूटनपर जो प्रकाश डाला है, उससे इस भ्रमका निराकरण होता है कि न्यूटन किसी द्युलोकका स्वप्नद्रष्टा है, जिसका पार्थिव व्यवहारसे कोई संस्पर्श नहीं है। उसने यह दिखलाया है कि न्यूटनने जिन समस्याओंका समाधान किया है, उनकी उत्पत्ति उस समयके मानव-समाजकी व्यावहारिक आवश्यकताओंसे ही हुई है।’
‘भूत पहले या मानस’ यह प्रश्न इस अभिप्रायसे है कि दृक्-दृश्य, ज्ञान-ज्ञेय इनमेंसे कौन पहलेसे है? यदि मानसका अर्थ उस मानससे है, जो कि एक आन्तर इन्द्रिय या सूक्ष्म पंचमहाभूतोंके समष्टि सात्त्विक अंशोंसे निर्मित अन्त:करणरूपसे प्रसिद्ध है, तब अधिक मतभेद नहीं रह जाता। प्रयोग पहले या सिद्धान्त, व्यवहार पहले या तथ्य? कोई भी समझ सकता है कि प्रमाण से ही प्रमेयकी सिद्धि होती है। कभी भी बोधसे ही बोध्यकी सिद्धि होती है। फिर बोध तो वह वस्तु है कि प्रमाण भी उसीसे सिद्ध होता है। इस बोधका प्रागभाव एवं प्रध्वंस समझनेके लिये भी बोध आवश्यक ही है। जड अबोधसे उसका प्रागभाव समझना कठिन ही नहीं असम्भव है। बोधमें सविशेषता लानेके लिये इन्द्रिय-मन आदिका व्यापार आवश्यक होता है। प्रयोगोंसे नियमों एवं सिद्धान्तोंकी जानकारी होती है, निर्माण नहीं होता। किन-किन वस्तुओंमें क्या-क्या गुण हैं, यह हमारी जानकारीसे पहले भी कम-से-कम भौतिकवादीको तो मान्य होना ही चाहिये। इसलिये व्यापार, विजय-यात्राके कारण भौगोलिक स्थितिका ज्ञान होता है, निर्माण नहीं। इसी प्रकार पैदावार, उद्योग, लड़ाई और औजारोंने खनिजके ज्ञानमें सहायता की है, परंतु इनके कारण खनिजका निर्माण नहीं हुआ। कृषिके कारण ऋतुओंका ज्ञान भले ही हुआ हो, परंतु ऋतुओंका अस्तित्व कृषिके कारण नहीं हुआ। प्रयोगके आधारपर विद्यमान वस्तुका ही ज्ञान और उपयोग कहा जा सकता है। अग्निकी उष्णता, जलकी शीतलता, वायुकी प्रवहण-शीलता हमारे प्रयोगके आधारपर नहीं बनी। इस तरह प्रयोग और आवश्यकताके अनुसार गुण-उपयोगिता एवं सिद्धान्तोंका ज्ञान होता है, परंतु गुण-उपयोगिता और सिद्धान्त पहलेसे ही होते हैं। इतना ही क्यों? सभी प्रवृत्तियोंमें संकल्प या ज्ञान हेतु होते हैं। क्रियाओं, अनुभवोंसे जानकारीमें विशेषताएँ होती हैं। ये ज्ञान भी सदा प्रयोगोंके आधारपर नहीं होते। व्यवहारमें देखते हैं कि जो गाँवके किसान खेती करते हैं, उन्हें इतना कृषिविज्ञान नहीं रहता, जितना पुस्तकों और प्रयोगशालाओंके द्वारा विद्यार्थियोंको होता है। सदा संग्राम करनेवालोंको भी इतना परिज्ञान नहीं होता, जितना एक फील्डमार्शलको और मजदूरोंको शिल्पका इतना ज्ञान नहीं होता, जितना इंजीनियरोंको।
बुद्धिका महत्त्व तो सभीको मान्य होना ही चाहिये। सहस्रों मनुष्य जो काम नहीं कर पाते, वह काम बुद्धिनिर्मित मशीनोंसे सरलतासे हो जाता है। इसी तरह लाखों वर्षोंकी वृत्तियोंसे भी जो ज्ञान सम्पन्न नहीं होता, वह ज्ञान शान्त-समाहित, योग-शक्तिसम्पन्न मनसे हो जाता है। जैसे बुद्धिनिर्मित दूरवीक्षण या सूक्ष्मवीक्षणसे दूर-सूक्ष्म वस्तुओंका ज्ञान हो सकता है, वैसे ही योग-जन्यशक्ति-विशिष्ट मनसे बाह्य प्रयोगके बिना भी अनेक वस्तुओं, उनके गुणों एवं सिद्धान्तोंका ज्ञान हो जाता है। ‘जहाँ सूर्यकी किरणें नहीं पहुँचतीं, वहाँ इन्द्रियोंकी गति नहीं और जहाँ इन्द्रियोंकी गति नहीं, उसे हम जान नहीं सकते’—यह कथन योगज-ज्ञानविहीन व्यक्तियोंके लिये ही ठीक है। यह भी रूपवान् वस्तुके ही सम्बन्धमें कहा गया है। शब्द और स्पर्शके सम्बन्धमें सूर्यकिरणें प्रकाश नहीं फैला सकतीं; फिर भी श्रोत्रत्वके द्वारा उनका ज्ञान होता ही है। प्रकृति-परमाणु आदिका ज्ञान अनुमानसे होता है। इन्द्रियों, मन एवं बुद्धिमें सूर्यकी किरणें नहीं पहुँचतीं; फिर भी उनका ज्ञान साक्षीसे होता ही है। रेडियो, टेलीविजनद्वारा इस समय अतिदूरस्थ शब्द एवं रूपका अनुभव किया ही जा रहा है। यह सामान्य इन्द्रियगतिसे भिन्न ही यान्त्रिक शक्तिका चमत्कार है। इसी तरह यौगिक चमत्कार भी है। रसायनशास्त्रके कारण भी जिन-जिन सम्बन्धोंसे जिन-जिन धातुओंमें सुवर्ण बननेकी शक्ति है, उन्हीं धातुओंसे उन्हीं सम्बन्धोंके द्वारा सुवर्णनिष्पत्ति होती है। इसी तरह क्या गणित क्या अन्य विषय—सबमें सिद्धान्त स्थायी ही होते हैं। उनकी जानकारीके लिये ही शिक्षा-प्रयोग आदि अपेक्षित होते हैं।
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘अनुभव सामाजिक प्रयोगोंका परिणाम तथा जोड़ है। लेनिनके शब्दोंमें अनुभवमें हमारी बुद्धिपर अनिर्भर होकर बुद्धिके विषयोंका आविर्भाव होता है।’ मौसमी हवा और सामुद्रिक धाराएँ जीवरूपके आविर्भावके बहुत पहलेसे थीं। मानव-ज्ञान और सामाजिक प्रयोगके आविर्भावके करोड़ों वर्ष पहले ये वर्तमान थीं, लेकिन बहुत दिनोंकी समुद्रयात्राके अनुभवसे ही इन हवाओं और धाराओंका ज्ञान सम्भव हो सका। फिर लेनिनके ही शब्दोंमें वह इसी रूपमें अनन्तकालसे चली आ रही है। युक्तियुक्त बुद्धिका आधार है, मानव-व्यवहार, जो लाखों बार दुहरानेपर संज्ञाके अन्दर तर्कज्ञानके रूपमें प्रतिष्ठित हो जाता है। यद्यपि व्यावहारिक आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये ही सिद्धान्तका जन्म होता है। जन्म ग्रहण करनेके बाद एक सीमातक इसका स्वतन्त्र विकास होता है और जिस व्यावहारिक आधारपर यह उठ खड़ा होता है, उसको प्रभावित, संशोधित और परिवर्धित किये बिना नहीं रहता। इस प्रकार प्रयोग और सिद्धान्त ‘विरोधियोंका एकत्व’ है, जिनके परस्पर प्रभावका कोई अन्त नहीं है—जबतक मनुष्य-जातिका अस्तित्व है, मानव-व्यवहार प्राथमिक है। गेटेके शब्दोंमें—‘आरम्भमें था कर्म’ लेकिन चूँकि व्यवहार पूर्णता लाता है, इसलिये प्रयोगका विकास सिद्धान्तको आगे बढ़ाता है और यह पुन: प्रयोगको प्रभावित करता है।
यहाँपर बुखारिनका यह उद्धरण अनुपयुक्त न होगा—‘उद्योग और सिद्धान्त—दोनों ही सामाजिक मनुष्यकी क्रिया है, यदि हम सिद्धान्तको एक निश्चित प्रणालीके रूपमें और प्रयोगको एक बनी-बनायी वस्तुकी तरह न देखें, बल्कि क्रियाशील-अवस्थामें इनको देखें तो हमें श्रम-क्रियाके दो रूप दिखलायी पड़ेंगे। श्रमका शारीरिक और मानसिक भागोंमें विभाजन सिद्धान्त-प्रयोगका संचित और साररूप है। प्रयोग और सिद्धान्तकी परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया और उनकी एकताका विकास प्रयोगकी प्राथमिकताकी बुनियादपर होता है। इतिहासमें व्यावहारिकताके क्षेत्रमें विज्ञानने जन्म ग्रहण किया, विचारोंकी उपज वस्तुओंकी उपजसे ही अपना रूप ग्रहण करती है। सामाजिकताके क्षेत्रमें सामाजिक रहन-सहन सामाजिक चेतनाका मूल है। सम्पूर्ण सामाजिक विकास वस्तु-उत्पादक श्रम-क्रिया-शक्ति-जनित है। मार्क्ससे ही हमें प्रयोगकी प्राथमिकताकी बुनियादपर प्रयोग और सिद्धान्तके समन्वयकी शिक्षा मिलती है। प्रयोग ही सिद्धान्तकी सत्यताका प्रमाण है।’
परंतु विचार करनेपर यही सिद्ध होता है कि कुछ अनुभव अवश्य प्रयोगोंके परिणाम हों, परंतु सबके सम्बन्धमें ऐसा नहीं कहा जा सकता। बुद्धिके विषय जो भी होंगे, वे उसी हालतमें बुद्धिपर अनिर्भर रह सकेंगे, जिनकी स्वतन्त्र सत्ता होगी। बुद्धि या अनुभव प्रमाणकोटिमें आते हैं, जिनपर सभी वस्तुओंकी सिद्धि निर्भर होती है। ‘मौसमी हवा और सामुद्रिक धाराएँ जीवरूप एवं मानव-विज्ञान और सामाजिक प्रयोगके करोड़ों वर्ष पहले थीं’, यह भी अल्पज्ञ प्राणिकृत कोरी कल्पना ही है। बीज एवं अंकुरके समान कर्मों एवं शरीरोंकी अनादि परम्परा है। अनादि जीवको बिना स्वीकृत हुए कर्मों, शरीरों, प्रबोधों, निद्राओं-जन्मों-मरणोंकी परम्पराएँ निराश्रय हो जायँगी। किसी वस्तुका भाव या अभाव सिद्ध करनेके लिये प्रमाण और द्रष्टा तो अपेक्षित होता ही है। अतीत कालका भी बोध होना चाहिये। कालपरिमित वस्तुओंका भी ज्ञान होना चाहिये। अनुमान भी सामाजिक ज्ञानके ही आधारपर चलता है। फिर इसी तरह सामाजिक ज्ञानके ही आधारपर यह भी तो सिद्ध है, जैसे स्वप्न एवं जागरणके पूर्व भी निद्राका प्रबोध होता है। उसी तरह मौसमी हवा और सामुद्रिक धाराकी कौन कहे, आकाश और उससे भी सूक्ष्म अहंकार, उससे भी प्रथम बुद्धि एवं बुद्धिसे पहले समष्टि निद्रारूप अविद्या और उससे भी पहले उसका भासक अखण्ड अनुभव था। विद्यमान वस्तुकी ही अभिव्यक्ति होती है। बालूमें तेलकी तरह अत्यन्त अविद्यमान वस्तुका कभी भी प्रादुर्भाव हो नहीं सकता। लेनिनकी युक्तियुक्त बुद्धिकी विशेषता अन्त:करणकी वृत्तिसे ही सम्बन्ध रखती है। जैसे विभिन्न काष्ठों, तारों तथा अनेक उपाधियोंके कारण प्रकट विशिष्ट अग्निके प्रकारोंमें विशेषता आ सकती है। व्यापक मूल अग्निकी सत्तामें इन उपाधियोंके भाव-अभावका कुछ असर नहीं पड़ता। इसी तरह बुद्धिकी विभिन्न अवस्थाओं एवं बाह्य उपाधियोंमें भेद होनेपर भी सर्वभासक अखण्ड बोधमें इन बाह्य व्यवहारोंका कुछ भी असर नहीं पड़ता। प्रमाणोंके आधारपर वादि-प्रतिवादियोंद्वारा निर्णीत सत्य ही सिद्धान्त होता है। प्रामाणिक निर्णय न तो पुरुषोंकी इच्छापर निर्भर होता है और न आवश्यकताकी अपेक्षा रखता है। अनिष्ट निर्णयकी न तो आवश्यकता ही होती है और न पुरुषकी इच्छा ही वैसी होती है। फिर प्रमाणके द्वारा वस्तुतन्त्रज्ञान होता ही है। हाँ, सिद्धान्तोंको जानकर उनके आधारपर आवश्यकता-पूर्ति होती है। जैसे जल-अग्नि आदिका सामान्यरूपसे प्रयोगसे सिद्धान्त और सिद्धान्तसे प्रयोगमें प्रगति होती है, परंतु ये बातें आपेक्षिक हैं। सिद्धान्त न तो रबड़छन्दकी तरह घटता-बढ़ता है और न तो गिरगिटकी तरह क्षण-क्षणमें रंग ही बदलता रहता है। कहा जा चुका है कि प्रमाणोंके आधारपर वादि-प्रतिवादिद्वारा सत्यका निर्णय ही सिद्धान्त है। त्रिकालबाध्य सत्य परिवर्तनशील नहीं होता है। अग्नि उष्ण है—यह सिद्धान्त अस्थायी नहीं। उद्योग और सिद्धान्त दोनों ही सामाजिक मनुष्यकी क्रिया है।
बुखारिनका यह कहना भी इसी अंशमें सही है कि जानकारी मानसी क्रिया है, परंतु इससे भी प्रकाशस्वरूप ज्ञानकी नित्यता एवं सिद्धान्तकी स्थिरतामें फरक नहीं पड़ता। हाँ, यह सही है कि जिस वस्तुका ज्ञान अपूर्ण है, उसके सिद्धान्त भी अपूर्ण होंगे। उस सम्बन्धमें जितना ही अधिकाधिक परिचय होगा, उतनी जानकारी होगी, उसी ढंगका सिद्धान्त बनेगा। इसमें भी सन्देह नहीं है कि प्रयोगमें शारीरिक श्रमकी विशेषता रहती है और सिद्धान्तमें मानसिक श्रमकी विशेषता। फिर भी यह व्यवस्थित नहीं है। कितने ही प्रयोग भी मानसिक ही होते हैं। प्रयोग और सिद्धान्त जबतक अन्तिम रूपसे निश्चित नहीं होते, तबतक उनमें विकास या परिवर्तन होता रहता है, परंतु अन्तिम रूपसे निश्चित हो जानेपर विकास समाप्त हो जाता है। इसीलिये यह भी नहीं कहा जा सकता कि प्रयोग और सिद्धान्तकी क्रिया-प्रतिक्रिया और उनकी एकताका विकास प्रयोगकी प्राथमिकताकी बुनियादपर होता है; क्योंकि प्रयोग-प्रवृत्ति भी ज्ञानपूर्वक ही हुआ करती है। प्रवृत्तिमात्रकी प्रथम बुनियाद है ज्ञान। अतएव कहा जा सकता है कि सर्वत्र ज्ञानसे ही व्यवहारने जन्म ग्रहण किया है। सर्वव्यवहारहेतु आत्मा या अन्त:करणका गुण ही ज्ञान कहा जाता है। जैसे हमारे ज्ञानसे घटादि वस्तुएँ उपजती हैं, उसी तरह ईश्वरीय ज्ञानसे आकाशादि वस्तुएँ उपजती हैं। ‘जानाति, इच्छति, अथ करोति’ यह व्यापक सिद्धान्त है। कोई व्यक्ति जानता है, इच्छा करता है, फिर क्रिया करता है। सामाजिक रहन-सहन सामाजिक चेतनका मूल है, यह भी अर्धसत्य है। सत्य यह है कि रहन-सहन भी विचारमूलक होते हैं। उनमें उत्तरोत्तर स्पष्टता होती रहती है। शिक्षणपरम्परा या किसी कारणसे अभिव्यक्त विशेष ज्ञान ही सामाजिक चेतनाका मूल है। अतएव श्रम-क्रिया-शक्तिजनित सामाजिक विकास अंशत: मान लेनेपर भी हर क्रियाके मूलमें ज्ञान है। यह न भूलना चाहिये कि क्रिया इच्छाजन्य है, इच्छा ज्ञानजन्य है, क्रियाजन्य जब इच्छा भी नहीं है, तब इच्छाका भी जनक ज्ञान क्रियाजन्य कैसे होगा? प्रयोगकी प्राथमिकताकी बुनियादपर प्रयोग और सिद्धान्तके समन्वयका मार्क्सीय शिक्षाका सिद्धान्त सर्वथा असंगत है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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