10.11 द्वन्द्वन्याय और विकास ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

10.11 द्वन्द्वन्याय और विकास

मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘जगत् परिवर्तनशील है। विकास परिवर्तनका ही एक प्रकार है। इस परिवर्तनको देखनेके विभिन्न दृष्टिकोण हैं। अतिभौतिकवादी और नैसर्गिकवादीका दृष्टिकोण एक है और द्वन्द्वात्मक भौतिकवादीका दृष्टिकोण और है। लेनिनकी व्याख्यासे इसपर काफी प्रकाश पड़ता है। विकास विरोधियोंका संघर्ष है। विकासकी दो ऐतिहासिक धाराएँ हैं। पहली विकासवृद्धि और ह्रास तथा दुहरानेके रूपमें और दूसरी विकासविरोधियोंके समन्वित एकत्व तथा परस्परसम्बन्धित रूपमें। पहली धारणा मृत, शुष्क, नि:सार है, दूसरी जीवित है। दूसरी धारणाके द्वारा ही हर विद्यमान वस्तुकी स्वयं गति समझी जा सकती है और इसकी कल्पना की जा सकती है कि पुरानेका ध्वंस होकर नयेका आविर्भाव कैसे होता है’ (लेनिन—मेटेरियेलिज्म एण्ड इम्पीरियलिज्म—क्रिटिसिज्म)।
विकासकी पहली धारणासे हम मौलिक परिवर्तनको नहीं समझ सकते। इस धारणाके अनुसार परिवर्तनको क्रमपरिवर्तनके रूपमें देखा जाता है। परिवर्तित वस्तु भी मुख्यत: मूल वस्तु ही है। मूल वस्तुमें परिवर्तनकी मात्रा अत्यल्प होती है और इन स्वल्प मात्राओंको जोड़कर ही परिवर्तित वस्तु बन जाती है। लेकिन इस प्रकार मौलिक परिवर्तनोंको समझा नहीं जा सकता। उदाहरणोंसे यह सिद्ध है कि प्राकृतिक वस्तुओंकी एक अवस्थासे दूसरी अवस्थाकी कुदान होती है। प्रकृतिमें क्रान्तिकारी परिवर्तनके उदाहरण मिलते हैं। विकास ही प्रकृतिका एकमात्र नियम नहीं है, क्रान्तिकारी परिवर्तनका भी उसमें स्थान है। किसी वस्तुके आविर्भाव या तिरोभावकी कल्पना उसके क्रमश: आविर्भाव या तिरोभावकी कल्पना है। लेकिन सत् (अस्तित्व)-का परिवर्तन न केवल एक गुणसे दूसरे गुणका परिवर्तन है, बल्कि परिमाणात्मकसे गुणात्मक परिवर्तन है। इस प्रकार एक परिवर्तन घटित होता है, जो एक दृश्यगत घटनाको दूसरीके स्थानापन्न करता है और धारा टूट जाती है, जब प्रवाहकी धारा टूट जाती है, तब विकासके रास्तेमें एक आकस्मिक परिवर्तन घटित होता है। हीगेलने अनेकों दृष्टान्तोंसे यह प्रमाणित किया है कि ‘प्रकृति और इतिहासमें कितनी ही बार आकस्मिक परिवर्तन होते रहते हैं।’ साधारण जन-विदित विकासवादके सिद्धान्तके पोलेपनको उन्होंने अच्छी तरह दर्शाया है। हीगेलके शब्दोंमें क्रमविवर्तनकी बुनियादी बात यह है कि जिसका आविर्भाव होता है, वह पहलेसे ही विद्यमान रहता है, केवल सूक्ष्म होनेके कारण अदृश्य रहता है। इसी प्रकार जब हम किसी दृश्यगत घटनाके तिरोभावकी बात करते हैं, तब हम ऐसी कल्पना करते हैं कि जिसका तिरोभाव होता है, वह तिरोहित हो चुका है और पूर्वगत घटनाका जो स्थान लेता है, वह पहलेसे ही विद्यमान है, लेकिन दोनों ही दृष्टिगोचर नहीं होते, परंतु इस प्रकारसे हम आविर्भाव या तिरोभावके सम्पूर्ण ज्ञानको दबा देते हैं। किसी घटनाके आविर्भाव या तिरोभावकी व्याख्या क्रमविवर्तनके द्वारा करना शब्दसम्भारमात्र है और इसका अन्तर्हित अर्थ यह है कि जो वस्तु आविर्भाव या तिरोभावकी प्रक्रियामें है, हम ऐसा समझते हैं कि वह आविर्भूत या तिरोहित हो चुकी है!’
‘हीगेलने स्वयं इस वस्तुका जो वर्णन दिया है, वह महत्त्वपूर्ण है। लोग परिवर्तनको उसके क्रमकी न्यूनतासे अपनी कल्पनाके अन्तर्गत करना चाहते हैं, लेकिन क्रमिक परिवर्तन नाममात्रका परिवर्तन है और गुणात्मक परिवर्तनके विपरीत है। क्रमिकता दो वास्तविकताके संयोगको, चाहे ये दो अवस्थाएँ हों, चाहे दो स्वतन्त्र वस्तु, दबा देती है। परिवर्तन समझनेके लिये जिनकी आवश्यकता है, उनका अपसरण हो जाता है। संगीतसम्बन्धोंमें परवर्ती स्वर आरम्भके मूलस्वरसे दूर हट जाता है। फिर ऐसा मालूम होता है कि एकाएक वह मूलस्वर लौट आया। यह पिछले स्वरमें जोड़का परिणाम नहीं है, इसका सम्बन्ध दूरके स्वरसे मालूम पड़ता है। सब मृत्यु और जन्म धारावाहिक क्रमिक न होकर इसके विघ्न ही हैं और परिमाणात्मकसे गुणात्मक परिवर्तनकी यह एक कुदान है। साधारण कल्पना जब कि किसी उत्थान या निर्वाणका ख्याल करती है, तब इसे वह क्रमिक उत्थान या निर्वाणके रूपमें देखती है, परंतु अस्तित्वमें परिवर्तन न केवल एक परिमाणसे दूसरे परिमाणका रूपान्तरण है, बल्कि गुणात्मकसे परिमाणात्मक तथा इसके विपरीत रूपान्तरणमें है। यह स्वरसे भिन्न होनेकी एक क्रिया है, जो क्रमकी धारा तोड़ देती है।’
‘प्रारम्भिक बात यह है कि प्रकृतिको समझनेके लिये इसके इतिहासके अध्ययनकी आवश्यकता है। परिमाणकी दृष्टिसे यह तो निश्चय ही है कि किसी भी मुहूर्तमें विश्व (संसार) वही है, जो पहले था और जो कि भविष्यके संसारके निर्माणकी क्रियामें है। इसी अनुमानके आधारपर विश्व (संसार) बुद्धिगम्य और व्यवहारयोग्य है। गुणात्मक दृष्टिसे यह समानरूपमें स्वयं सिद्ध है कि किन्हीं दो मुहूर्तोंमें विश्व (संसार) एक-सा नहीं है। यहाँतक हालत डार्विनकी क्रान्तिकारी पुस्तक ‘ओरिजन ऑफ मैन’ के प्रकाशित होनेके बाद, साधारण विकासवादकी कल्पनाके अनुरूप ही है। लेकिन यदि इस कल्पनाको व्यवहारोपयोगी बनाना है तो इसे और गहराईतक ले जाना पड़ेगा। विशेषकर इस जानकारीकी आवश्यकता है कि विश्व (संसार)-का निरन्तर रूप-परिवर्तन ऊपरी परिवर्तनतक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका बुनियादी संघटन भी उसमें सम्मिलित है और वे गतियाँ भी, जिनके योगकी सम्पूर्णतामें विश्वकी क्रियाशीलता है। इस ज्ञानसे भी इसको समृद्ध करना चाहिये कि विश्वके असीम परिवर्तनमें अपरिवर्तनीयताकी मात्रा कितनी है। विज्ञानमें पुनरावर्तनके दृष्टान्तोंसे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है।’
पर ये बातें अविचारितरमणीय हैं। वस्तुत: विकास परिणामका ही एक स्वरूप है। परिणामवादमें सत‍्कार्यवाद ही मान्य होता है। क्रमपरिवर्तन या प्राकृतिक वस्तुओंकी एक अवस्थासे दूसरी अवस्थामें कुदान अर्थात् क्रान्तिकारी परिवर्तन सब परिणाम ही हैं। बादलोंकी टक्‍करसे तत्काल दिग्दिगन्तव्यापी महाविद्युत्प्रकाशका विकास, काष्ठसे अग्निका क्रमिक विकास, जलका शीतल होना या बर्फ बन जाना, गर्म होना या भाप बन जाना, कुछ भी परिणामसे भिन्न नहीं है और न तो मूल वस्तुसे अत्यन्त भिन्न किसी वस्त्वन्तरका निर्माण ही होता है। अल्पज्ञ, अल्पायु मानवोंकी दृष्टिमें उत्तरोत्तर नवीन-नवीन वस्तुका ही विकास होता है, परंतु ईश्वर और दीर्घायु, दीर्घज्ञ, दीर्घदर्शी महर्षियोंकी दृष्टिमें वही भूतग्राम पुन:-पुन: उत्पन्न होकर प्रलीन हुआ करता है—‘भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।’ (गीता ८।१९)। किसी प्रकारका भी परिवर्तन मर्त्यता, शुष्कता एवं नि:सारताका ही द्योतक है। जड वस्तु न स्वयं गति है, न सार और न अमृत ही है; बल्कि वह क्रियाशील, विकारी एवं ध्वस्त होनेवाली वस्तु है। जो भी उत्पन्न होनेवाली वस्तु है; उसकी वृद्धि, परिणाम, अपक्षय एवं विनाश ध्रुव है। अविनश्वर तो सर्वकारण, सर्वाधिष्ठान, अखण्डबोधात्मक ब्रह्मात्मा है, जिसे मोहवश मार्क्सवादी भुलानेका प्रयत्न करते हैं। मार्क्सवादी और हीगेल जिसे ‘आकस्मिक घटना एवं प्रकृतिकी कुदान या क्रान्ति’ कहते हैं, विकासवादी जिसे ‘क्रमिक’ कहते हैं, दोनोंका ही सांख्यीय परिणामवादमें अन्तर्भाव है। केवल शीघ्रता एवं विलम्बमात्रसे परिणाममें भेद नहीं हो जाता और इस अर्थमें कि अत्यन्त अविद्यमान (बालूमें तेल-जैसी चीज)-का कभी भी आविर्भाव नहीं हो सकता, कोई भी आकस्मिक घटना नहीं होती, परंतु एक अल्पज्ञकी दृष्टिमें कई वस्तुएँ आकस्मिक ही प्रतीत होती हैं। जलके बर्फ बन जाने या भाप बन जानेपर स्थूल रूपसे क्रमविच्छेद प्रतीत होनेपर भी सूक्ष्मक्रम ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता ही है। चाहे जन्म और मरण हो, चाहे परिमाणात्मकसे गुणात्मक परिवर्तन हो, चाहे गुणात्मकसे परिमाणात्मक परिवर्तन हो, मूल वस्तुका अत्यन्त विच्छेद कभी नहीं होता। माता-पिताका सूक्ष्म शुक्रशोणित ही एकत्रित होकर क्रमेण विकसित होकर गर्भावस्था, शैशवावस्था, यौवन एवं वार्धक-अवस्थाको प्राप्त होता है। ‘जायते अस्ति वर्धते’ आदि षड‍्विध भावविकारको प्राप्त होते हुए भी मूलत: प्राकृतिक वस्तु ही सब कुछ थी और है। परमार्थ-सत्यदृष्टिसे सब कुछ स्वप्रकाश सत‍्से अनतिरिक्त ही है। दो अवस्थाएँ या दो स्वतन्त्र अवस्थावाली वस्तुएँ मूल वस्तुसे भिन्न नहीं होतीं, अत: उनका संयोग भी कोई नयी वस्तु नहीं है। रूईसे चाहे कितने भी चमत्कारपूर्ण वस्त्र, मृत्तिकासे कितने ही अच्छे मकान और लोहेसे कितने ही अच्छे यन्त्र बन जायँ, फिर भी क्या ये सब वस्तुएँ चाकचिक्यमात्रसे मूल वस्तुसे भिन्न हो जायँगी? बर्फ बन जानेपर भी क्या जलसे कोई बर्फ स्वतन्त्र वस्तु हो जायगी?
मार्क्सवादियों एवं हीगेलियन लोगोंके वागाडम्बरमात्रसे कार्य कभी कारणसे भिन्न नहीं हो सकता। संगीतके स्वरोंमें भी परस्परभिन्नता और विच्छिन्नता आरोहावरोहसे भिन्न होते हुए भी परिणामीके क्रमिक परिणाममें कोई अन्तर नहीं है। पुष्कर-शतपत्रका तत्क्षणच्छेद यद्यपि अक्रमिक ही प्रतीत होता है, फिर भी वहाँ सूक्ष्म क्रम रहता है। निर्वाण या निर्माणमें भी मूल वस्तुसे भिन्नका अस्तित्व नहीं होता। प्रकृतिके पदार्थोंमें एक-सी परिणामधारा नहीं होती। वह धारा कभी सूक्ष्म होती है, कभी स्थूल। सूक्ष्म धाराका स्थूल धाराके रूपमें परिवर्तन ही जन्म कहा जाता है। स्थूल धाराका पुन: सूक्ष्म धारामें परिवर्तन होनेमें ही ध्वंस या मरणका व्यवहार होने लगता है। इसीको ‘धारा टूट जाना’ कहा जाता है। इसीमें मूल वस्तु भिन्न होनेकी भ्रान्ति होने लगती है। इतिहासका अध्ययन और उससे भी अधिक दर्शनका अध्ययन प्राकृतिक परिणाम समझनेके लिये आवश्यक है। किसी प्रकारके परिवर्तन एवं परिवर्तनशील विश्वके मूलमें एक अपरिवर्तनशील, स्वत: सिद्ध स्वप्रकाश अखण्डबोध साक्षीका रहना अनिवार्य है, जिसके बिना न क्रमिक परिवर्तन, न आकस्मिक परिवर्तन ही सिद्ध होता है। विश्व एवं उसकी मूलभूत सप्तप्रकृति, विकृति एवं अविकृतिभूत मूलप्रकृति, सबका ही परिवर्तन तत्त्वदर्शियोंद्वारा अनुभूत है, परंतु उससे भी परस्तात् वह स्वयंसिद्ध सत्ता, जिसके बिना सब असत् एवं अप्रकाश, निरात्मक हो जाते हैं, महर्षियोंद्वारा साक्षात्कृत है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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