11. मार्क्स और ज्ञान
(मार्क्सीय मन या ज्ञानपर विचार)
मोरिस कौर्न फोर्थकी ‘दि थ्योरी ऑफ नालेज’ में कहा गया है कि—‘मन शरीरसे विभाज्य नहीं है। मानसिक क्रियाएँ मस्तिष्ककी क्रियाएँ हैं। मस्तिष्क प्राणीके बाह्य जगत्के साथ रहनेवाले जटिलतम सम्बन्धोंका अवयव है। वस्तुओंकी प्रत्ययात्मिका जानकारी (Conscious, awareness) का प्रथम रूप ‘सेंसेशन’ (Sensation) अनुभूति है, जो प्रतिनियत सहज प्रतिक्रियाओं, ‘कण्डीशण्ड रिफ्लेक्सेज’ (Conditioned) के विकाससे उत्पन्न होता है। अनुभूतियाँ (सेंसेशन) प्राणीके लिये बाह्य-जगत्के साथ उसका जो सम्बन्ध है, उसके संकेतोंकी एक पद्धति निर्मित करती हैं। मनुष्यमें एक द्वितीय संकेतपद्धति विकसित हो गयी है—वाणी! यह काल्पनिक (भावप्रधान) [ऐब्स्ट्रैक्टिंग] और साधारणीकरणके कार्य करती है और इसी वाणीसे सम्पूर्ण उच्चतर मानसिक जीवन बढ़ चलता है, जो कि मनुष्य-प्राणीकी निजी विशेषता है। मानसिक प्रक्रियाओंकी अनिवार्य बात यह है कि उन्हीं गतिविधियोंके भीतर और उन्हींके द्वारा प्राणी अपने चारों ओरके वातावरणके साथ जटिल और विभिन्न सम्बन्ध अनवरत बनाता रहता है। इसलिये प्रत्ययोंकी प्रक्रियाएँ वास्तवमें बाह्य जड (मेटीरियल) सत्यको प्रतिबिम्बित करनेवाली प्रक्रियाएँ हैं। मस्तिष्ककी जीवन-प्रक्रियामें जड (भौतिक) जगत्का प्रतिबिम्ब ही ‘प्रत्यय’ (कौंशसनेस) है।’
आश्चर्य है कि इस विज्ञानके युगमें जब कि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म वस्तुओंकी खोज हो रही है, तब भी मन-जैसी सूक्ष्मवस्तुको जड स्थूल देहकी ही एक अवस्था माना जाता है। इसपर आगे पर्याप्त विवेचन किया जायगा कि मन दर्शन, श्रवण आदि इन्द्रियजन्य क्रियाओंमें सहकारी सूक्ष्म देहसे भिन्न तत्त्वान्तर है।
‘मनुष्यकी मानसिक क्रियाओंका विकास उसके सामाजिक कार्यकलापोंसे उद्भूत होता है। इसकी प्रक्रिया है—दर्शन, प्रेक्षण, अनुभूति, प्रतीति, ज्ञान (Perception) से विचारणा। विचारने एवं बोलनेकी क्षमता उत्पन्न होती है सामाजिक श्रमकी प्रक्रियासे, जो (सामाजिक श्रम) कि मनुष्यका मूलभूत (आधारभूत) सामाजिक कार्य (प्रवृत्ति) है।’
सामाजिक कार्य-कलापोंका प्रभाव यद्यपि क्रियाओंपर अवश्य पड़ता है, परंतु एतावता प्रकाशस्वरूप बोध, जड, बाह्य वस्तुओं एवं उनकी जड क्रियाओंका परिणाम नहीं हो सकता।
‘विचारनेमें हम उन प्रारम्भिक धारणाओंसे, जिनके अनुसार साक्षादिन्द्रियगम्य वस्तुएँ हैं—प्रारम्भकर कल्पनामयी धारणाओंकी ओर आगे बढ़ते हैं। कल्पनामयी धारणाओंका उद्गम है सामाजिक सम्बन्धोंके विकास तथा बाह्य प्रकृतिसे सम्बद्ध उत्पादनविषयक एवं अन्य प्रवृत्तियोंके विकाससे, जबकि मनुष्योंका अज्ञान तथा उनकी असहायता जन्म देती है रहस्यमयी, इन्द्रजालमयी तथा स्वाप्निक, मृगमरीचिकामयी काल्पनिक धारणाओंको। मानसिक श्रम, मास्तिष्किक श्रम (दिमागी मेहनत)-का भौतिक श्रमसे विभाजन काल्पनिक धारणाओंसे ही प्रारम्भ होता है और फिर सैद्धान्तिक प्रवृत्तियोंका व्यावहारिक प्रवृत्तियोंसे सम्बन्धविच्छेद होता है; जिसमें कि सिद्धान्तकी सत्यसे दूर उड़ चलनेकी प्रवृत्ति हो जाती है। आदर्शवादी एवं भौतिकवादी दलोंकी विचारपद्धतिके विरोधकी शाखाएँ ही नहीं, स्कन्ध भी यहींसे पृथक् होते हैं।’
वस्तुत: किन्हीं भी प्रवृत्तियोंमें ज्ञान ही मूल होता है। ज्ञानसे ही संघ या समाजका निर्माण होता है। स्थूल बाह्य-जगत्की अपेक्षा मन बहुत सूक्ष्म है। अत: मानसिक ज्ञान-विज्ञान तथा कल्पनामें एक ही भौतिक स्थूल प्रवृत्तियाँ आगे बढ़ी होती हैं, यह स्वाभाविक है। इतना ही क्यों, मन ही तो सबका मूल भी है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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