11.5 ज्ञानका मूल ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.5 ज्ञानका मूल

‘ज्ञान वस्तुगत सत्यताकी यथासम्भव निर्दुष्ट प्रतिच्छायाओंके रूपमें प्रतिष्ठापित एवं परीक्षित मान्यताओं, दृष्टियों एवं प्रस्तावनाओंका योग है। यह निश्चितरूपसे एक सामाजिक उपज है, जिसकी जड़ें सामाजिक व्यवहारोंमें हैं; जिन्हें व्यावहारिक आशाओं एवं अपेक्षाओंकी पूर्तिद्वारा परीक्षित एवं संशोधित कर लिया जाता है। सभी ज्ञानोंका प्रारम्भ उन इन्द्रियानुभूतियोंमें निहित है, जिनकी विश्वसनीयता मनुष्यके व्यवहारोंमें सिद्ध है। ज्ञान कभी भी सम्पूर्ण या अन्तिम नहीं हो सकता, परंतु उसका सर्वदा विस्तृत एवं आलोचित होते रहना आवश्यक है।’
वस्तुत: नित्य ज्ञान ही सबका मूल है, उसका मूल कोई नहीं। अनित्य-ज्ञान विषयों एवं इन्द्रियोंके संनिकर्षसे अन्त:करण-वृत्तिरूप ज्ञान उत्पन्न होता है। वह भी ज्ञान तभी बनता है, जब उसमें नित्य-बोधका प्रतिबिम्ब पड़ता है। सामान्यतया क्रियाएँ ज्ञानके प्रतिफल भले ही हों, परंतु ज्ञान क्रियाओंका फल नहीं हो सकता। जड वायु, जल एवं अग्निमें अनेक प्रकारकी क्रियाएँ होती हैं, उन्हें अन्तर्यामी चेतनसे प्रेरित तो कहा जा सकता है, परंतु उन क्रियाओंके द्वारा उनमें कोई ज्ञान नहीं उत्पन्न होता। ‘ज्ञायते अनेनेति ज्ञानम्’ इस व्युत्पत्तिसे ज्ञान शब्दका अन्त:करण-वृत्ति अर्थ है, परंतु ‘ज्ञप्तिर्ज्ञानम्’ इस व्युत्पत्तिसे स्फुरणमात्र ही ज्ञानपदार्थ है। ज्ञानमें क्रिया और स्फुरण दो अंश हैं। ‘जानाति’ के ‘तिङ्’ का अर्थ चिदाभास है, धात्वर्थ क्रिया है। दोनोंको मिलाकर ही ‘जानाति’ का व्यवहार होता है। चैतन्य प्रतिबिम्बयुक्त बुद्धिकी घटादिवृत्ति चैतन्यसे व्याप्त होती है; इसीलिये बुद्धिवृत्तिमें ही ज्ञानकी भ्रान्ति होती है। आरोपित सर्वदृश्यका भासक होनेसे ब्रह्ममें ही ज्ञानता मुख्य है। प्रत्ययकारिता बुद्धिके साक्षीमें अध्यस्त होनेसे साक्षीमें भी भासकत्वकी कल्पना होती है, वस्तुत: है वह भानस्वरूप ही। बुद्धिकर्तृक सभी प्रत्यय चैतन्यखचित ही उत्पन्न होते हैं, इसी आधारपर ‘ज्ञानं क्रियते’ (ज्ञान किया जाता है) वह व्यवहार होता है. जैसे बुद्धिके पहले अनवच्छिन्नबोध कूटस्थ है, वैसे ही बुद्धि उत्पन्न होनेपर भी वह बोध निष्क्रिय ही रहता है; इसीलिये श्रुतियाँ द्रष्टाकी स्वरूपभूता दृष्टिका सर्वथा अविपरिलोप ही बतलाती हैं—
‘न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यते।’
(बृहदारण्यकोपनिषद् ४।३।२३)
आलोचन-संकल्प-अभिमानादिकरण व्यापार बुद्धिमें उपसंक्रान्त होकर बुद्धिके अध्यवसायरूप व्यापारके साथ उसी तरह एक व्यापारवान् हो जाते हैं, जैसे अपनी सेनाके साथ ग्रामाध्यक्षादिकी सेना सर्वाध्यक्षकी ही हो जाती है।
वेदान्त-मतानुसार सूक्ष्म पंचभूतोंके समष्टि सात्त्विक अंशोंसे मन या अन्त:करण उत्पन्न होता है। व्यष्टि सात्त्विक अंशोंसे श्रोत्रादि पंचज्ञानेन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं और चित्त, अहंकार, बुद्धि सब उसी मन या अन्त:करणकी ही वृत्तियाँ हैं, जैसे लोहपिण्डमें स्वत: दाहकत्व न होनेपर भी वह्निके साथ तादात्म्यसम्बन्ध होनेसे लोहपिण्डमें दाहकत्व होता है, उसी तरह भौतिक अन्त:करण यद्यपि जड है, उसमें प्रकाशकत्व नहीं है, फिर भी स्वप्रकाश आत्मचैतन्यके तादात्म्याध्यास-सम्बन्धसे उसमें भी चैतन्यका उपलम्भ होने लगता है। स्वप्रकाश अखण्डबोध आत्मा ही मुख्य-ज्ञान है, उसीके प्रकाशसे मन अन्त:करण आदिमें भी प्रकाश व्यक्त होता है। अनन्त आकाशस्वरूप बोधात्मक ब्रह्म ही उपाधिभेदसे विभिन्न ज्ञानोंके रूपमें भासित होता है, जैसे घटादि उपाधि-भेदसे घटाकाश आदिका भेद प्रतीत होता है। जहाँ विषयावच्छिन्न चैतन्यका प्रमातृचैतन्यके साथ अभेद होता है, वहाँ अपरोक्ष-ज्ञान होता है। जहाँ प्रमातृचैतन्यसे विषय-चैतन्यका भेद विद्यमान रहता है, वहाँ प्रमाणके बलसे केवल परोक्ष-ज्ञान होता है। इसलिये अनुव्यवसायको विशिष्ट विषय बनानेके लिये सामान्य-विशेषविषयक ही इन्द्रियोंको मानना चाहिये। ‘योगभाष्यकार’ का भी यही कहना है—
न च तत्सामान्यमात्रग्रहणाकारम्, कथमनालोचित:, विषयविशेष इन्द्रियेण मनसानुव्यवसीयेत। (योगभाष्य ३।४७)
कुछ लोग कहते हैं आलोचन-ज्ञान सामान्यज्ञान-विषयको ग्रहण करता है; किंतु मन विशिष्टविषयको ग्रहण करता है, परंतु यह ठीक नहीं, वस्तुत: इन्द्रिय-जन्य आलोचन अविविक्त सामान्यविशेषको ग्रहण करता और अनुव्ययसाय-ज्ञान विविक्त सामान्यविशेषको ही ग्रहण करता है, इसीलिये ‘योगवार्तिक’ में कहा गया है—
निर्विकल्पकबोधेऽपि द्वॺात्मकस्यापि वस्तुन:।
ग्रहणं लक्षणाख्येयं ज्ञात्रा शुद्धं तु गृह्यते॥
निर्विकल्पकज्ञान सामान्यमात्रको ही नहीं ग्रहण करता; क्योंकि उसमें विशेषका भी प्रतिभास होता है। इसी तरह विशेषमात्रका ही ग्रहण होता है, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उसमें सामान्याकारका भी भान होता है, किंतु सामान्यविशेष—दोनोंहीका ग्रहण करता है, परंतु ‘यह सामान्य है, यह विशेष’ इस तरह विवेचनपूर्वक ग्रहण नहीं होता है; क्योंकि कालान्तरका अनुसंधान नहीं होता। जैसे ग्रामाध्यक्ष कुटुम्बियोंसे कर लेकर विषयाध्यक्षको अर्पण करता है, विषयाध्यक्ष सर्वाध्यक्षको, सर्वाध्यक्ष भूपतिको कर समर्पण करता है; इसी तरह बाह्येन्द्रिय विषयोंका आलोचन करके मनको अर्पण करती है, मन संकल्प करके अहंकारको अर्पण करता है, अहंकार उसका अभिमान करके अर्थात् संवेदन और स्मृतियोंके समूहको आत्मीयत्वेन ग्रहण करके अर्थात् बाह्येन्द्रियोपलब्ध क्षणिक संवेदन एवं स्मृतियोंको संग्रथित करके सर्वाध्यक्षभूता बुद्धिको समर्पण करता है; इस तरह सभी करण बुद्धिमें अर्थ-समर्पण करके पुरुषको अर्थ-प्रकाश कराते हैं।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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