11.9 भारतीय दर्शनमें ज्ञान-सिद्धान्त
‘काण्टके भी अनुभव और ज्ञान—दोनोंका भेद सिद्ध नहीं हो सकता। भारतीय दर्शनोंके अनुसार अनुभवके ही भ्रम और प्रमा—ये दो भेद होते हैं। उसे ही ज्ञान भी कहते हैं। ‘सर्वव्यवहारहेतुर्गुणो बुद्धिर्ज्ञानम्’ अर्थात् आहार-विहार, शब्द-प्रयोगादि सभी व्यवहारोंका असाधारण कारण गुण ही बुद्धि है, वही ज्ञान भी है। ज्ञानके बिना कोई भी व्यवहार नहीं बन सकता, यह स्पष्ट ही है। शब्द-वाक्यादि प्रयोग भी बिना ज्ञानके नहीं बनता। घटादिका दण्डादि कारण सर्वव्यवहारका कारण नहीं है। कालादि सर्वकारण होते हुए भी असाधारण कारण नहीं है। इसीलिये बुद्धि या ज्ञानका यह लक्षण दण्डादि एवं कालादिमें अतिव्याप्त नहीं है। वह बुद्धि या ज्ञान दो प्रकारका है—एक स्मृति और दूसरा अनुभव। इनमें संस्कारमात्र-जन्य ज्ञान ‘स्मृति’ कही जाती है और स्मृतिभिन्न ज्ञान अनुभव है। अनुभव भी यथार्थ एवं अयथार्थ—इस तरह दो प्रकारका होता है। तद्वान्में तत्प्रकारक ज्ञान ‘यथार्थ’ ज्ञान है, जैसे रजतमें रजतज्ञान और अतद्वान्में तत्प्रकारक ज्ञान ‘अयथार्थ’ है, जैसे शुक्तिमें रजत-ज्ञान। यथार्थानुभव या प्रमा, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्दादिभेदसे अनेक मतोंके अनुसार अनेक प्रकारका होता है। यथार्थानुभव या प्रमाके व्यापारवान् असाधारण कारणोंको ‘प्रमाण’ कहा जाता है। अयथार्थानुभव भी संशय, विपर्यय एवं तर्कभेदसे तीन प्रकारका होता है—एक धर्मीमें विरुद्ध नानाधर्म-वैशिष्टॺबोधक ज्ञान ‘संशय’ है, जैसे कि ‘स्थाणुर्वा पुरुषो वा’ अर्थात् वह स्थाणु है या पुरुष। मिथ्याज्ञान ‘विपर्यय’ है, जैसे कि शुक्तिमें रजत-ज्ञान। व्याप्यके आरोपसे व्यापकका आरोप तर्क है, जैसे कि यदि वह्नि न होगा तो धूम भी नहीं होगा। यहाँ वह्निके अभावरूप व्याप्यके आरोपसे धूमाभावरूप व्यापकका आरोप किया जाता है। स्मृति भी प्रमाजन्य यथार्थ और अप्रमाजन्य अयथार्थ होती है।
सांख्यमतानुसार प्रकृतिका परिणाम बुद्धि स्वतन्त्र पदार्थ है। महत्तत्त्व या बुद्धि अव्यक्ततत्त्वसे उत्पन्न होती है। महत्तत्त्व अर्थात् बुद्धिसे अहंकारकी उत्पत्ति होती है, बुद्धिद्वारा अध्यवसित निश्चित विषयमें ‘मैं अधिकृत हूँ’ इस प्रकारका अभिमान करनेवाला अहंकार है। उसी तरह अहंकारसे मन उत्पन्न होता है। इन्द्रियके द्वारा सम्बुद्धाकार पदार्थका संकल्प-विकल्प करना मनका काम है। पहले आलोचनात्मक ज्ञान होता है, उसके बाद सविकल्प ज्ञान होता है। इन्द्रियोंके द्वारा मनोव्यापारके पहले प्रतिपत्ताको प्रथम अविकल्पित वस्तुमात्रका ही ग्रहण होता है। उस समय सामान्य-विशेषरूपसे अनाकलित और अविविक्त विषयका ही ग्रहण होता है। प्रतिपत्ता मनके व्यापारसे फिर सामान्य-विशेषरूपसे वस्तुकी विकल्पना करता है। यह सांख्यों तथा भट्टपाद कुमारिल आदिकोंको सम्मत है। ‘प्रथमं सविकल्पकप्रत्ययात् पुरा यद्वस्तुमात्रगोचरं बालमूकादिविज्ञानसमानं निर्विकल्पकज्ञानमस्ति, तत्प्रतीतिसिद्धमालोचनात्मकं ज्ञानमभ्युपेयम्, तदभावे सविकल्पकज्ञानानुपपत्ते:।’ निर्विकल्प ज्ञानके उपरान्त बुद्धिके द्वारा नीलत्व घटत्वादिरूपसे विविक्त होकर जो गृहीत होता है, वही सविकल्पक ज्ञान है। एतावता केवल इन्द्रियसे उत्पन्न ज्ञान निर्विकल्पक एवं इन्द्रियसहकृत मनसे उत्पन्न ज्ञान सविकल्पकज्ञान है।
प्रभाकरके मतानुसार ‘स्वप्रकाशज्ञान विषयरूपसे घटादिका प्रकाश करता है और आश्रयत्वेन आत्माका प्रकाशक होता है। अत: ‘अहं जानामि’ इस अंशमें अहं रूपसे आत्मा ही भासमान होता है। ‘अहं’ यह अनात्मा नहीं है। कहा जाता है कि ‘जैसे ‘अयो दहति’ (लोहपिण्ड दहन करता है) यहाँ वस्तुत: लौहपिण्डमें जैसे स्वत: दाहकत्व नहीं होता, वैसे ही ‘अहं’ में भी स्वत: ज्ञातृत्व नहीं हो सकता।’ परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि शीतल लौहपिण्ड और दीप-ज्वालात्मक दग्धा—दोनों जिस प्रकार विविक्तरूपसे उपलब्ध होते हैं, उस प्रकार अहंकार और ज्ञाताका कहीं भी विवेकेन उपलम्भ नहीं हो सकता। इसलिये आत्मा अहंकारास्पद है। वही संवित्का आश्रय होनेसे अपरोक्ष है। सांख्यवादी जड अन्त:करणमें चित् प्रतिबिम्बको देखकर उसके कारणभूत तादृशबिम्बकी कल्पना वैसे ही करते हैं, जैसे दर्पणस्थ प्रतिबिम्बके आधारपर मुखका अनुमान किया जाता है, परंतु इन पक्षोंमें यदि आत्मा नित्यानुमेय है तो अपरोक्षावभास विरुद्ध है। नैयायिक आत्माको मानस प्रत्यक्षका विषय मानते हैं। मनका अन्वय-व्यतिरेक विषयानुभवसे ही गतार्थ हो जाता है। वस्तुत: विषयानुभवके आश्रयरूपसे जब आत्माकी सिद्धि हो सकती है, तब पृथक् आत्म-विषयक ज्ञान मानना व्यर्थ ही है।’
भट्टपादके मतानुसार आत्मा प्रत्यक्ष होनेसे घटवत् ज्ञानका विषय है। एकहीमें कर्म-कर्तृविरोध होता है, परंतु यहाँ तो द्रव्यांशमें प्रमेयता और बोधांशमें प्रमातृता है। उसमें भी प्रमेय-अंशमें प्रधानता और प्रमाता-अंशमें अप्रधानता रहती है। प्रभाकर इस पक्षका भी विरोध करते हैं। उनके मतानुसार अचेतन द्रव्यांशको आत्मा नहीं कहा जा सकता। यदि बोधांशको ही कर्म कहा जाय तो कर्म-कर्तृविरोध होगा। बोध समकालमें ही प्रमेयरूपसे और प्रमातारूपसे परिणत हो नहीं सकता; क्योंकि वह नित्य है। यदि प्रधान आदिके समान वह परिणत हो, तो भी प्रमातृभागके स्वप्रकाश होनेसे संवित्के आश्रयरूपसे वह प्रतीत न हो सकेगा। ऐसी स्थितिमें अपसिद्धान्त भी होगा। विषयरूपसे प्रतीत होनेपर घटादिके समान प्रमातामें भी अनात्मताकी प्रसक्ति होगी। इसलिये संवित् आश्रयरूपसे ही आत्माका एवं संवित्के विषयरूपसे घटादिका प्रत्यक्ष मानना चाहिये। प्रमिति स्वसत्तामें कभी भी अवेद्य होकर नहीं रहती।
उपर्युक्त प्रकारसे प्रभाकरका ज्ञान या संवित् स्वप्रकाश है। भट्टपादके अनुसार विषय प्राकटॺरूप ही बोध उत्पन्न होता है। बौद्धोंका क्षणिक विज्ञान स्वतन्त्र है। उनमें सौत्रान्तिक ज्ञानमें विषयप्रतिबिम्ब देखकर उसके आधारपर और प्रतिबिम्ब बिम्बपूर्वक होता है, इस आधारपर ज्ञाननिष्ठ विषय प्रतिबिम्बके बलपर बिम्बरूप सत्य-विषयका अनुमान करते हैं। विज्ञानवादी ‘विज्ञानरूप ही विषय है’, यह मानकर विषयोंकी अपरोक्षता मानते हैं। नैयायिकलोग मन:संयुक्त आत्मामें प्रमितिरूप ज्ञानकी उत्पत्ति कहते हैं। वे ज्ञानविषयक ज्ञान मानते हैं। ‘अयं घट:’ यह ज्ञान व्यवसायात्मक होता है और ‘ज्ञातो मया घट:’ अथवा ‘घटमहं जानामि’ इस आकारका ज्ञान अनुव्यवसायात्मक कहा जाता है। उत्तरोत्तर ज्ञानोंसे पूर्व-पूर्व ज्ञानोंका प्रामाण्य भी कहा जाता है, परंतु इस स्थितिमें पूर्व-पूर्व ज्ञानोंका अज्ञान भी मानना पड़ेगा, तभी अज्ञान-निवर्तकरूपसे उत्तरोत्तर ज्ञानोंकी सार्थकता हो सकती है। कोई भी प्रतीति स्वसत्ताकालमें प्रकाशहीन नहीं होती, अतएव घटादिके तुल्य उसे अवेद्य नहीं कहा जा सकता।
कुछ लोगोंका कहना है कि ‘जैसे घटादिरूप वेद्य होता है, वैसे ही प्रमाणरूप आत्मव्यापारसे जायमान घटादिनिष्ठ प्राकटॺ भी वेद्य हो सकता है।’ यहाँ भी प्रश्न होता है कि ‘वह आत्मव्यापार क्या है, परिस्पन्द या परिणाम?’ प्रथम पक्ष इसलिये माना नहीं कि सर्वगत आत्मामें परिस्पन्द नहीं हो सकता। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि मृत्तिकाका परिणामभूत घट जैसे मृत्तिकामें ही रहता है, वैसे ही आत्म-परिणामभूत ज्ञान आत्मामें ही रहना चाहिये, उसकी विषयनिष्ठता नहीं हो सकती। कहा जाता है कि ‘बालोंके पकने (श्वेत होने)-रूप परिणामसे जैसे शरीरमें वार्धक्य होता है, वैसे ही आत्मपरिणामसे विषयमें ज्ञानका प्राकटॺ होता है।’ इसपर भी विचारणीय यह है कि ‘प्राकटॺका जो आश्रय है, वह चेतन है या प्राकटॺका जो जनक है, वह चेतन है अथवा प्राकटॺजनक ज्ञानाख्य व्यापारका आधार ही चेतन है?’ यदि पहला पक्ष ठीक है, तब तो घटादि विषयको चेतन होना चाहिये; क्योंकि विषय ही प्राकटॺका आश्रय है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि चक्षुरादि भी प्राकटॺके जनक हैं; अत: वे ही चेतन कहे जायँगे। तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि ‘भोजनक्रियाजन्य तृप्ति-फल-सम्बन्धी देवदत्तके समान आत्मा ज्ञानक्रियाजन्य-फल-सम्बन्धी होनेसे ज्ञानक्रियावान् है’, इत्यादि अनुमानके आधारपर आत्माकी ज्ञानाधारताका अनुमान करना पड़ेगा, परंतु आत्मामें फल-सम्बन्धका अभाव होनेसे हेतु असिद्ध है; क्योंकि प्राकटॺरूप फल विषयमें ही रहता है, आत्मामें नहीं। अतएव तार्किकों और भाट्टोंका मत ग्रहण न करके प्रमातृव्यापारप्रमाण एवं प्रमाणफल-प्रमितिको स्वप्रकाश ही मानना उचित है। बौद्ध संवेदन (अनुभव)-को ही प्रमाण और उसे ही प्रमाणफल मानते हैं, परंतु इस पक्षमें वही प्रमाण और वही प्रमाणफल होनेसे कर्म-कर्तृ-विरोध स्पष्ट ही है।
कहा जाता है कि ‘यद्यपि प्रमाता आत्माका कोई व्यापार नहीं है, तथापि आत्मा, मन, चक्षु एवं विषयोंका संनिकर्ष ही प्रमाणरूप होकर प्रमातृव्यापाररूपसे उपचरित होता है। प्रमाणफल तो अव्यभिचरितरूपसे प्रमिति ही है। हान, उपादान, उपेक्षा व्यभिचरित होनेवाले हैं, अत: उन्हें प्रमाणफल नहीं कहा जा सकता।’ इस तरह प्रभाकरका मत है कि ‘स्वप्रकाश विषयसंवेदनके आश्रयरूप प्रदीपाश्रय-वर्त्तिकाके तुल्य प्रकाशमान अहंकार आत्मा है, दृग्दृश्यका अन्योन्याध्यासरूप अहंकार नहीं।’ परंतु वेदान्ती आत्माको अनुभवरूप ही मानते हैं। यहाँ विचारणीय यह है कि ‘क्या आत्मा ही चित्प्रकाश है अथवा आत्मा और अनुभव—दोनों ही चित्प्रकाश हैं अथवा केवल अनुभव ही चित्प्रकाश है और आत्मा जड ही है?’ यदि आत्मा ही चित्प्रकाश है, तो ‘क्या अनुभव चक्षुरादिके तुल्य स्वयं अप्रकाशित रहकर ही विश्वको प्रकाशित करेगा या आलोकादिके तुल्य सजातीय प्रकाशान्तर-निरपेक्ष प्रकाशमान होकर विषयका प्रकाशक होगा?’ पहला पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि चक्षु तो स्वातिरिक्त अनुभवका जनक होता है। इस तरह अनुभव स्वातिरिक्त अनुभवका जनक नहीं है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि अनुभव स्वजातीय अनुभवान्तरकी अपेक्षा न करके ही प्रकाशमान होता है। इस तरह स्फुरण लक्षणयुक्त होनेसे अनुभव ही चित्प्रकाश सिद्ध हो जाता है। यद्यपि अनुभव, चक्षु तथा आलोक—तीनों ही घटादिके व्यंजक हैं, तथापि अनुभव विषयाज्ञानका विरोधी होनेसे चित्प्रकाशरूप है। आलोक विषयगत तमका विरोधी होनेसे जड प्रकाशस्वरूप है और चक्षु अपरोक्ष अनुभवका साक्षात् साधन होनेसे अज्ञात कारण है। इसपर भी कहा जाता है कि ‘आलोकके तुल्य अनुभव सजातीय प्रकाशानपेक्ष है।’ परंतु यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि आलोक भी अपने प्रकाशके लिये सजातीय चक्षुकी अपेक्षा रखता ही है, कारण आलोक स्वत: तमसे रहित है, अत: चक्षुका तमके निवारणमें उपयोग नहीं है। हाँ, चक्षुर्जन्य अनुभवके द्वारा आलोकका प्रकाश होता है, परंतु वह आलोकका विजातीय ही है, अत: आलोककी तरह सजातीयानपेक्ष अनुभवका चित्प्रकाशरूप होना ठीक है। यदि इस प्रकाशको जड माना जाय, तो जगत्में अन्धता-प्रसक्ति हो जायगी। प्रमातृ-चैतन्य ही जडानुभवबलसे सबका अवभासन करता है। यदि आत्म-चैतन्यका विषयके साथ सम्बन्धमात्रके लिये जडानुभवका उपयोग है, तब तो यह वेदान्तका ही मत है। वृत्तिरूप अनुभव सम्बन्धार्थ या आवरणाभिभवार्थ ही होता है। कुछ लोग आत्म-चैतन्यसे पृथक् ही विषयकी अभिव्यक्तिके लिये जडानुभवजन्य अनुभवान्तर मानते हैं; परंतु वह अनुभव भी यदि जड है तो उसे भी अन्य अनुभव अपेक्षित होगा। इस तरह अनवस्था होगी।
‘आत्मा और अनुभव दोनों ही चित्प्रकाश हैं’ यह पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि इस तरह आत्मा और अनुभव दोनों ही अन्योन्य-निरपेक्ष सिद्ध होंगे, फिर उनका सम्बन्ध किसके द्वारा विदित होगा? दोनोंके ही अन्योन्यवार्तानभिज्ञ होनेके कारण दोनोंमेंसे कोई भी सम्बन्धग्राही नहीं हो सकता। कहा जा सकता है कि ‘जैसे पुरुषान्तरका ज्ञान चिद्रूप होनेपर भी दूसरेको विदित नहीं होता, वैसे ही चिद्रूप होनेपर भी आत्मा स्वयं प्रकाशित नहीं होगा। इसलिये अनुभवाधीन ही आत्माकी सिद्धि होती है।’ परंतु यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि तब तो यही आपत्ति अनुभवके सम्बन्धमें भी हो सकती है। यदि कहा जाय कि ‘पुरुषान्तर संवेदनव्यवहित होता है, किंतु अपना अनुभव अव्यवहित है, अत: स्वप्रकाश है,’ तो आत्माके सम्बन्धमें भी यही कहा जा सकता है। आत्मा चिद्रूप एवं अव्यवहित होनेसे अपने अनुभवके समान स्वयं ही प्रकाशित होता है।
‘अनुभव ही चित्प्रकाश है’ यह तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि ‘आत्मा ही चित्प्रकाश है’ यह पक्ष मानना अनिवार्य है। कारण, आत्मा और अनुभवका अभेद ही है। ‘यह अनुभव आत्माका गुण है’ ऐसा तार्किक और प्राभाकर मानते हैं। ‘आत्मस्वरूप होनेसे द्रव्य ही अनुभव है’ यह सांख्यमत है। ‘ज्ञान-परिणाम क्रियाका फल है तथा च क्रिया और फलमें अभेदकी विवक्षासे कर्म ही ज्ञान है’ यह भाट्टमत है, परंतु ज्ञानको कर्मरूप माननेसे गमनादि क्रियाके तुल्य ही उसमें प्रकाशरूपता और फलता नहीं बन सकती। द्रव्य होनेपर भी अनुभव यदि अणुपरिणाम हो, तब तो खद्योतके समान परिमित वस्तुके एक देशका ही प्रकाशक होगा, सम्पूर्ण वस्तुका प्रकाशक ज्ञान नहीं होगा। यदि अनुभव महत्परिमाण द्रव्य माना जाय, तब तो अनुभवस्वरूप आत्माका सर्वत्र अवभास होना चाहिये। यदि आत्मा महत्परिमाण अनुभवका आश्रय हो तो भी वही प्रसंग रहेगा। यदि अनुभवको मध्यम परिमाण माना जाय तो उसे सावयव कहना पड़ेगा और फिर अनुभव अवयवोंके परतन्त्र होगा, आत्माधीन रहेगा। यदि कहा जाय कि ‘जैसे भूतलपरिणाम घट भूतलाधीन होता है, वैसे ही आत्मपरिणाम अनुभव आत्मपराधीन होगा,’ तब भी प्रदीप एवं प्रकाशके समान आत्मा और अनुभवका अभेद ही कहना पड़ेगा। जैसे प्रदीपसे घटादि प्रकाशित होते हैं, वैसे ही ‘घटो मयावगत:’ (मैंने घट जाना) इत्यादि व्यवहार होता है। यदि आत्मा और चैतन्य या ज्ञानका भेद होगा, तब तो ‘काष्ठेन प्रकाशित:’ (काष्ठके द्वारा प्रकाशित होता है)-के समान ‘मयावगतम्’ यह प्रयोग भी औपचारिक ही समझा जायगा।
‘ज्ञान गुण है’ इस पक्षमें जैसे प्रदीपमें रहनेवाले भास्वररूपकी उत्पत्ति आश्रयकी उत्पत्तिसे भिन्न नहीं होती, वैसे ही अनुभवकी भी उत्पत्ति उसके आश्रयकी उत्पत्तिसे भिन्न नहीं होगी। ऐसी स्थितिमें आत्मा नित्य है, उसमें अनुभवका व्यभिचार कभी नहीं होता, अत: अनुभव और आत्मा दोनोंमें भेद नहीं है, किंतु अनुभवस्वरूप ही आत्मा है। यदि आत्माकी सिद्धि अनुभवके अधीन हो, तब तो घटादिके समान ही आत्मा भी अनात्मा ही ठहरेगा। कहा जा सकता है कि ‘नील-पीतादि अनुभव अनेक हैं, वे आत्म-स्वरूप कैसे हो सकते हैं?’ परंतु अनुभवोंमें स्वरूपत: कोई भी भेद नहीं है। जैसे एक अनन्त आकाशमें घटादि उपाधिके भेदसे भेद प्रतीत होता है, वैसे ही नील-पीतादि विषय एवं तदाकार बुद्धिवृत्ति आदि उपाधिसे आकाशवत् अनन्त अखण्ड एक अनुभवमें औपाधिक भेद प्रतिभासित होते हैं। अनुभवके भेदमें कोई प्रमाण नहीं है। अनुभवका जन्म और विनाश भी अप्रामाणिक है, अत: ‘घटमें पाकके अनन्तर रक्तरूप उत्पन्न होनेपर रक्तानुभव उत्पन्न होता है। रक्तानुभवके पहले श्यामरूपका अनुभव था, अब वह नहीं है,’ इत्यादि कथन ठीक नहीं हैं; क्योंकि भेदसिद्धि होनेपर जन्म-विनाश सिद्ध होगा और जन्म-विनाश सिद्ध होनेपर भेदसिद्धि होगी। इस तरह अन्योन्याश्रय दोषकी प्रसक्ति होती है। कुछ लोगोंका कहना है कि ‘चक्षुरादि साधनोंकी अर्थवत्ताके लिये उत्तर संवित्का जन्म मानना आवश्यक है और एक कालमें दो संवित् नहीं रह सकतीं, अत: पूर्व संवित्का विनाश भी मानना चाहिये।’ परंतु यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि एक ही संवित्के भिन्न-भिन्न विषयोंके साथ होनेवाले सम्बन्धोंके ही उत्पत्ति-विनाशसे साधनोंकी सार्थकता एवं यौगपद्य (एककालिकता)-की निवृत्ति बन जायगी।
बौद्धोंका कहना है कि ‘संविदोंमें भेद रहता हुआ भी सादृश्यके कारण प्रतीत नहीं होता। नील-पीतादि विषयरूप उपाधिके संसर्गसे ही वह भेद प्रतीत होता है,’ परंतु यह कथन भी ठीक नहीं; क्योंकि ज्वालाएँ अन्यवेद्य हैं, उनमें भेदकी अप्रतीति हो सकती है, परंतु स्वप्रकाश संवित्में होनेवाले भेदकी अप्रतीति नहीं बन सकती। कहा जा सकता है कि ‘जैसे वेदान्तियोंका स्वप्रकाश भी ब्रह्म अज्ञात रह सकता है, वैसे ही संवित्का भेद भी अप्रतीत रह सकता,’ परंतु यह भी ठीक नहीं है। ब्रह्ममें अविद्याका आवरण प्रमाणसिद्ध है, अत: एक ही संवित् अनादि है; क्योंकि उसका प्रागभाव नहीं है। सुरेश्वराचार्यका कहना है कि प्रत्येक कार्य प्रागभावपूर्वक ही होता है। उस प्रागभावकी भी सिद्धि संवित्से ही होती है, अत: संवित्का प्रागभाव नहीं है। यदि संवित् न हो तो प्रागभाव ही सिद्ध नहीं हो सकता और जब संवित् है ही, तब उसका प्रागभाव कैसे कहा जा सकता है? ‘कार्यं सर्वैर्यतो दृष्टं प्रागभावपुरस्सरम्। तस्यापि संवित्साक्षित्वात् प्रागभावो न संविद:॥’ इस तरह स्वप्रकाशानुभव नित्य है, वही आत्मा भी है। आत्मा ही विषयोपाधिक होकर अनुभव कहलाता है। विषयोपाधिकी विवक्षा न होनेसे वही अनुभव आत्मा कहलाता है। जैसे वृक्ष ही समूहरूप उपाधिके कारण वन कहलाते हैं और उपाधि-विवक्षा न होनेसे वे ही वृक्ष कहलाते हैं। अत: प्रभाकरका यह कहना ठीक नहीं है कि ‘अनुभवके आश्रयरूपसे आत्माका प्रकाश होता है।’
कहा जाता है कि ‘घटमहं पश्यामि’ यहाँ अहंकार ही घटका द्रष्टा है, वही आत्मा है, परंतु यह ठीक नहीं है। यदि ‘अहं’ ही आत्मा है, तब तो सुषुप्तिमें भी उसका स्फुरण होना चाहिये, परंतु सुषुप्तिमें अहंकी प्रतीति नहीं होती, अत: अहंकार आत्मा नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि ‘सुषुप्तिमें विषयानुभव नहीं होता, अत: अहंकारकी भी प्रतीति नहीं होती।’ यह कहना भी ठीक नहीं है। यहाँ यह विचारणीय है कि ‘क्या सुषुप्तिमें अनुभव ही नहीं है अथवा विषयसम्बन्धका ही अभाव है?’ पहला पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि अनुभव नित्य है, अत: उसका अभाव नहीं कहा जा सकता। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि विषय-सम्बन्ध आत्मप्रतीतिका कारण नहीं है। कहा जाता है कि ‘आत्माका द्रष्टृत्वरूप आकार ही अहंकार है, द्रष्टृत्वकी प्रतीतिमें विषय-सम्बन्ध आवश्यक है,’ परंतु यह कहना भी ठीक नहीं है। यहाँ विचारणीय यह है कि ‘द्रष्टृत्व क्या है? क्या दृश्यका अवभासकत्व ही द्रष्टृत्व है अथवा दृश्यभिन्नता द्रष्टृता है, किंवा चिन्मात्र ही द्रष्टृत्व है? पहले और दूसरे पक्षमें दृश्यके ही द्वारा द्रष्टाका निरूपण होता है। दृश्यके आगन्तुक होनेसे द्रष्टा भी आगन्तुक ही होगा। तब वह आत्मा कैसे होगा? अत: अहंकार आत्मा नहीं हो सकता। तीसरे पक्षमें तो दृश्यकी अपेक्षा ही नहीं रहती, अत: सुषुप्तिमें विषय न रहनेपर भी अहंकारका उपलम्भ होना चाहिये। ‘सुषुप्तिमें अहंकी प्रतीति होती है’ यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जैसे पूर्व दिनके अहंका स्मरण होता है, वैसे ही सुषुप्तिके भी अहंका उल्लेख होना चाहिये। यद्यपि जिसका अनुभव होता है, उसका स्मरण होना अनिवार्य नहीं है। फिर भी जब आत्माका स्मरण होता ही है, तब चिद्रूप अहंकारका स्मरण होना ही चाहिये। कहा जा सकता है कि ‘सुषुप्तिके अहंकारका भासक नित्य चैतन्यरूप अनुभव है। उसका विनाश न होनेसे संस्कार उत्पन्न नहीं होता, अत: स्मृति नहीं होती।’ परंतु तब तो पूर्व दिनके अहंकारका भी स्मरण न होना चाहिये। वेदान्तमतमें तो अहंकारावच्छिन्न चैतन्यसे ही अहंकारकी प्रतीति होती है। वह अनित्य ही है, अत: संस्कारोत्पत्ति तथा स्मरण बननेमें कोई आपत्ति नहीं। यदि कहा जाय कि ‘सुषुप्तिके भी अहंकारका स्मरण होता ही है, अतएव ‘सुखमहमस्वाप्सम्’ (मैं सुखपूर्वक सोया था) इस सुप्तोत्थितके स्मरणमें अहंकी प्रतीति होती है।’ इसपर तार्किकका कहना है कि ‘यह स्मरण है ही नहीं, किंतु उत्थानकालमें प्रतीत होनेवाले आत्मामें सुखोपलक्षित दु:खाभावका अनुमान किया जाता है। मैं स्वप्न एवं जागरितके बीचमें दु:खरहित था; क्योंकि उस बीचके दु:खका घटादिके समान कभी स्मरण नहीं होता।’
मुख्य सुख सुषुप्तिमें हो नहीं सकता, अत: जैसे सिरका भार हटनेपर प्राणीको सुखका अनुभव होता है, वैसे ही सुषुप्तिमें दु:ख न होनेसे सुखका व्यवहार होता है। कहा जा सकता है कि ‘सुखका स्मरण होनेसे सुषुप्तिमें मुख्य ही सुख मानना ठीक है।’ परंतु फिर तो सामान्य विशेषनिष्ठ होता है, अत: भोजनसुख, पानसुख आदि रूपसे विशिष्ट सुखका भी स्मरण होना चाहिये। यदि कहा जाय कि ‘उस विषयमें संस्कारका उद्बोध नहीं हुआ’, तब भी ‘सुखमहमस्वाप्सम्’ के साथ ‘नाहं किञ्चिदवेदिषम्’ (मै कुछ भी नहीं जानता था) यह ज्ञानाभावका परामर्श सुखानुभवका विरोधी है, अत: दु:खाभावमें ही सुखका व्यवहार मानना ठीक है। जो कहा जाता है कि ‘सुप्तोत्थितमात्रका अंगलाघव, प्रसन्नवदनत्वादिसे पूर्वकालमें सुखानुभवका अनुमान होता है,’ तो वह भी ठीक नहीं है। अनुभवके अनन्तर क्षणमें स्मरण ही हो सकता है, फिर अनुमान व्यर्थ है। यह भी कहा जाता है कि ‘तारतम्यरूपसे दृश्यमान अंगलाघवादि सातिशय स्वापसुखानुभवके बिना उपपन्न नहीं हो सकते। दु:खाभाव तो एक रूप ही होता है, अत: उस आधारपर अंगलाघवादिका तारतम्य नहीं बन सकता।’ परंतु यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि प्रतियोगिदु:खजनक करण-व्यापारोंके उपरमके तारतम्यसे अंगलाघवादिके तारतम्यकी प्रतीति होनेमें कोई बाधा नहीं है।
वेदान्तसिद्धान्तानुसार तो स्वप्रकाश साक्षिचैतन्यस्वरूप ही आनन्द है। वह यद्यपि सर्वदा ही भासमान रहता है, फिर भी जाग्रत् एवं स्वप्नमें तीव्र वायु विक्षिप्त प्रदीपप्रभाके समान ‘अहं मनुष्य:’ इत्यादि मिथ्याज्ञानसे विक्षिप्त होनेके कारण स्पष्ट प्रतीत नहीं होता, परंतु सुषुप्तिमें वह मिथ्या ज्ञान नहीं रहता, अत: वहाँ साक्षीरूप आनन्द स्पष्टरूपसे भासित होता है। आवरणभूत अविद्या ब्रह्मतत्त्वाकारका आच्छादन करती हुई भी स्वभासक साक्षिचैतन्याकारको नहीं ढकती, अन्यथा बिना साक्षीके तो अविद्या भी सिद्ध न हो सकेगी। अत: सुषुप्तिमें अनुभूत आनन्द, आत्मा एवं भावरूप अज्ञान, इन्हीं तीनोंका सुप्तोत्थितको ‘सुखमहमस्वाप्सम्, नाहं किञ्चिदवेदिषम्’ इस तरह स्मरण होता है। कहा जाता है कि ‘इन तीनोंका अनुभव अन्त:करण वृत्तियोंसे नहीं हो सकता; क्योंकि सुषुप्तिमें वृत्ति नहीं रहती। चैतन्यसे अनुभव हो सकता है, परंतु वह अविनाशी होनेसे संस्कारका उत्पादक न होगा, अत: स्मरण नहीं बनेगा,’ परंतु यह ठीक नहीं है। सुषुप्तिमें अविद्या-वृत्तिसे ही तीनोंका ग्रहण सम्भव है। अविद्या-वृत्त्यवच्छिन्न चैतन्यसे ही उक्त तीनों वस्तुओंका अनुभव होता है, उसीका नाश भी सम्भव है और संस्कार भी सम्भव है। उसी संस्कारसे स्मृति हो सकती है। कहा जाता है कि ‘इस तरह तो अविद्याविशिष्ट आत्मा अनुभविता होगा और अन्त:करणविशिष्ट आत्मा स्मर्ता होगा, अत: वैयधिकरण्य होगा। अन्यके अनुभूतका अन्य स्मर्ता नहीं होता।’ परंतु यह भी कहना ठीक नहीं है; क्योंकि उत्थानकालमें भी अविद्याविशिष्ट ही आत्माका स्मर्ता है। स्मृत अर्थका शब्दानुविद्ध व्यवहार अन्त:करणसे होता है।
जो कहा जाता है कि ‘सुखमस्वाप्सम्, नावेदिषम्’ यह ज्ञान दु:खाभाव एवं ज्ञानाभावको ही विषय करता है, वह ठीक नहीं है; क्योंकि सुषुप्तिमें यद्यपि ज्ञानाभाव एवं दु:खाभाव रहते हैं, फिर भी उनका अनुभव नहीं होता, कारण सुषुप्तिमें उनके प्रतियोगी दु:ख तथा ज्ञानका स्मरण नहीं रहता। प्रतियोगिस्मरणके बिना अभावका ग्रहण असम्भव ही होता है। कहा जाता है कि ‘तो फिर वेदान्त-पक्षमें भी सौषुप्त ज्ञानाभाव तथा दु:खाभावका अनुभव कैसे होगा?’ इसका समाधान अर्थापत्तिसे किया जाता है। उक्त रीतिसे सुषुप्तिके अविक्षिप्त सुखका अनुस्मरण करके तद्विरोधी दु:खका अभाव प्रमित हो सकता है। परामृष्टभावरूप अज्ञानकी अन्यथा अनुपपत्तिसे अज्ञानविरोधी ज्ञानका अभाव निश्चित हो जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि ‘भावरूप अज्ञान ज्ञानके विरुद्ध नहीं है; क्योंकि जागरणकालमें ज्ञान और अज्ञान दोनों ही एक साथ रहते हैं।’ परंतु यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि यद्यपि अज्ञानमात्रका प्रपंच-ज्ञानके साथ विरोध नहीं है, तथापि विशेषाकाररूपसे परिणत अज्ञानका ज्ञानके साथ विरोध होता है। घटज्ञानाकारसे परिणत अज्ञान पटादि ज्ञानोंसे विरुद्ध होता ही है। अन्यथा घटज्ञानकालमें पटादि सम्पूर्ण जगत्को प्रकाशित होना चाहिये। इस दृष्टिसे सुषुप्तावस्थाकारसे परिणत अज्ञानका अशेष विशेष ज्ञानोंके साथ विरोध है ही, अत: अर्थापत्तिसे ज्ञानाभाव सिद्ध होगा। कुछ लोग प्रबोधकालमें ज्ञानका स्मरण होनेसे सुषुप्तिमें ज्ञानाभावका अनुमान करते हैं, परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि मार्गस्थ तृणादिका भी स्मरण नहीं होता। फिर भी उनका अभाव नहीं कहा जा सकता।
कहा जाता है कि ‘यदि स्मरण न होनेसे अभावका अनुमान नहीं हो सकता, तो अस्मर्यमाण होनेसे गृहमध्यमें प्रात:काल गज नहीं था, यह अनुमान कैसे बनेगा?’ परंतु यह कोई दोष नहीं है। वहाँ तो गृहमें कुसूलादि विविध पदार्थोंका अनुभव करके मध्याह्नमें उन्हींका स्मरण करके उनकी अन्यथानुपपत्तिसे प्रात: गजाभाव प्रमित होता है, अत: सुषुप्तिमें दु:खाभाव एवं ज्ञानभाव अर्थापत्तिसे ही वेद्य होते हैं। भावरूप अज्ञान, आनन्द तथा आत्माका स्मरण होता है। फिर भी सुषुप्तिमें न अहंकारका अनुभव होता है और न तो उत्थितको उसका स्मरण ही होता है। ‘सुखमहमस्वाप्सम्’ इस रूपसे स्मरणमें जो अहंका उल्लेख होता है, उसकी स्थिति यह है कि सुषुप्तिमें अहंकार अज्ञानमें विलीन हो जाता है। प्रबोधमें वह पुन: उद्भूत होता है। उत्पन्न होकर वही अहंकार स्मर्यमाण आत्माको स्पष्ट व्यवहारके लिये सविकल्परूपसे उपलक्षित करता है। अहंकारवृत्तिका यही प्रयोजन भी है। इसलिये आत्मा अहंवृत्तिको छोड़कर अन्य अन्त:करणवृत्तियोंसे कभी भी व्यवहृत नहीं होता। इसीलिये नैष्कर्म्य-सिद्धिकारका कहना है कि ‘प्रत्यक्स्वरूप एवं अति सूक्ष्म होने तथा आत्मदृष्टिसे उसका अनुशीलन होनेसे घटपटाद्याकार अन्य वृत्तियोंको छोड़कर अहंवृत्तिसे ही आत्मा उपलक्षित होता है। अहंकार या तो आत्माके साथ ही व्याप्त होकर रहता है अथवा विलयको प्राप्त होता है। उसकी अन्य तीसरी अवस्था नहीं होती। इसीलिये अहंबुद्धिसे आत्माका सविकल्प होता है। इस तरह जाग्रत्-स्वप्नमें आत्मरूपसे भासमान होनेपर भी अहंकार सुषुप्तिमें नहीं रहता, अत: वह स्वप्रकाश आत्माका स्वरूप नहीं है। अहंकार परमेश्वराधिष्ठित स्वविद्यासे ही उत्पन्न होता है। ज्ञानशक्ति एवं क्रियाशक्ति उसका स्वरूप है। कूटस्थ चैतन्यसे ही उसकी सिद्धि होती है। कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि उसके कार्य हैं। सुषुप्तिमें अन्त:करणका प्रलय हो जाता है, अत: वह वहाँ नहीं रहता। यद्यपि क्रियाशक्तिरूप प्राण सुषुप्तिमें भी रहता है, तथापि प्राण अहंकारसे भिन्न है, अत: अहंकारके लयमें कोई विरोध नहीं है। यदि प्राण अन्त:करणका ही अंश माना जाय, तो यह मानना चाहिये कि प्राणांशको छोड़कर अवशिष्ट अन्त:करणका सुषुप्तिमें लय होता है। दृष्टि सृष्टि-पक्षमें तो सुप्त पुरुषके प्रति सभीका मुख्य प्रलय ही होता है। जो लोग स्वतन्त्र अचेतन प्रकृति आदिको ही महत्त्व, अहंतत्त्व आदि सब प्रपंचका उपादान मानते हैं, परमेश्वराधिष्ठित अविद्याको नहीं, उनके यहाँ सब वस्तुएँ इदंरूपसे ही गृहीत होनी चाहिये। ‘अयं कर्ता, अयं भोक्ता’ (यह कर्ता है, यह भोक्ता है) इस रूपसे प्रतीति होनी चाहिये, ‘अहं कर्ता, अहं भोक्ता’ (मैं कर्ता हूँ, मैं भोक्ता हूँ) इस प्रकारसे नहीं। ऐसी प्रतीति तो तभी बन सकती है, जब सभी वस्तुएँ आत्मामें अध्यस्त हों।’
नैयायिक अणु-परिमाण मनको इन्द्रिय मानते हैं। उसीको सुख-दु:ख, इच्छा-ज्ञानका निमित्तकारण मानते हैं। इस मनके बिना आत्मा इन्द्रिय तथा विषयके संयुक्त होनेपर भी एक कालमें अनेक ज्ञान नहीं होते। मन अणु है, अत: एक कालमें अनेक इन्द्रियोंसे संयुक्त नहीं हो सकता। जिस समय वह जिस इन्द्रियसे संसृष्ट होता है, उस समय उसी विषयका ज्ञान होता है। इसीलिये एक कालावच्छेदेन दो ज्ञानकी उत्पत्ति न होना ही मनका लिंग है। ‘युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्’ (न्यायदर्शन० १।१।१६) यह कहा गया है। मनसे भिन्न मध्यम परिमाण अन्त:करण नैयायिकोंको मान्य नहीं है। उनके मतानुसार मनके द्वारा सर्वगत आत्मामें समवायसम्बन्धसे ज्ञान-गुणकी उत्पत्ति होती है। आत्मा यद्यपि ज्ञानाश्रय है और वह सर्वगत है, तथापि निरवयव होनेसे उसका सर्वसंयोग सम्भव नहीं है, अत: युगपत् (एक साथ) सर्वप्रकाश नहीं होगा। क्रियारूप या गुणरूप ज्ञानका—स्वाश्रयका उल्लंघन करके—अन्यत्र संयोग सम्भव नहीं है, अत: उस ज्ञानसे किसी भी वस्तुका प्रकाश न होना चाहिये। यदि ज्ञान बिना संसर्गके असंसृष्टका ही ग्रहण करे तो अतिप्रसंग होगा, अर्थात् असंसर्ग समान होनेसे किसी भी वस्तुका ग्रहण होना चाहिये। ‘शरीरावच्छिन्न आत्मप्रदेशसमवायी ज्ञान होता है’ इस पक्षमें भी विचारणीय है कि यदि प्रदेश आत्माका स्वाभाविक धर्म है, तब तो आत्मामें सावयवत्वापत्ति होगी। यदि प्रदेश औपाधिक है तो भी ज्ञान तत्प्रदेशसंयुक्त वस्तुका ही ग्राहक है, अत: देहादिसे बाह्य घटादिका प्रकाश न होना चाहिये। यदि ज्ञान बाह्यात्मप्रदेश-संयुक्त वस्तुका भी ग्राहक है, तो फिर सभी बाह्य वस्तुएँ बाह्यात्मप्रदेश-संयुक्त हैं ही, अत: सबका ही ग्रहण होना चाहिये। कुछ लोगोंका यह भी कहना है कि ‘ज्ञानाधार आत्मासे मन संयुक्त होता है, मनसे इन्द्रिय संयुक्त होती है और इन्द्रियसे विषय संयुक्त होता है। इस तरहकी संयोगपरम्परासे वस्तुका बोध होता है,’ परंतु यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि यह परम्परा तो ज्ञानोत्पादनमें ही उपयुक्त होती है। ज्ञान उत्पन्न होनेके बाद भी यदि संयोगपरम्परासे विषयका प्रकाश हो, तब तो विषयसंयुक्त, तत्संयुक्तादिरूपसे अवस्थित सभी जगत्का प्रकाश होना चाहिये।
वेदान्त-मतानुसार सर्वगत चिदात्माको आवृत करके स्थित भावरूप अविद्या ही सम्पूर्ण जगत्के आकारसे स्थित होती है। शरीरके मध्यमें अविद्याविवर्त्त अन्त:करण रहता है। इसीकी सूक्ष्म पंचभूतोंके समष्टि सात्त्विक अंशसे भी उत्पत्ति मानी जाती है। वही धर्माधर्मसे प्रेरित होकर नेत्रादि इन्द्रियोंद्वारा निकलकर घटादि विषयोंको व्याप्त होकर तत्तद्-विषयोंके आकारसे आकारित होता है। जैसे पूर्ण सरोवरका जल सेतुच्छिद्रके द्वारा निकलकर कुल्याप्रवाहरूप (नहर-नालियों)-से खेतोंमें पहुँचकर तदाकार हो जाता है, वैसे ही प्रकृतमें भी समझना चाहिये। फिर भी जलके समान अन्त:करण बहता नहीं है, किंतु सूर्यरश्मिके तुल्य ही है। तैजस होनेसे अन्त:करण दीर्घ प्रभाकारसे परिणत होता है और रश्मिके समान ही सहसा उसका संकोच भी उपपन्न होता है। अन्त:करण सावयव है, अत: उसका परिणाम उपपन्न होता है। वह अन्त:करण घटाद्याकारसे परिणत होकर देहके भीतर और घटादिमें व्याप्त होकर देह एवं घटादिके मध्यमें दण्डायमान अविच्छिन्नरूपसे अवस्थित रहता है। देहावच्छिन्न अन्त:करणका भाग ‘अहंकार’ एवं ‘कर्ता’ कहा जाता है। मध्यवर्ती दण्डायमान अन्त:करणका भाग ‘वृत्तिज्ञान’ नामकी क्रिया कही जाती है। विषयव्यापक भाग विषयको ज्ञानका कर्म बनानेवाला अभिव्यक्ति योग्य कहा जाता है। वह तीनों ही भागवाला अन्त:करण अतिस्वच्छ होता है, अत: उसमें स्वच्छ काँचपर सौर प्रकाशके समान आत्म-चैतन्य अभिव्यक्त होता है। अभिव्यक्त चैतन्य यद्यपि एक ही है, तथापि अभिव्यंजकके त्रैविध्यसे उसमें त्रिधा व्यवहार होता है। कर्तृभागावच्छिन्न चिदंश ‘प्रमाता’, क्रियाभागावच्छिन्न चिदंश ‘प्रमाण’ और विषयगत योग्यत्वभागावच्छिन्न चिदंश ‘प्रमिति’ कहलाता है। तीनों ही भागोंमें अनुगत एकाकार अन्त:करणमें प्रमातृ-प्रमेय-सम्बन्धरूप ‘मयेदमवगतम्’ (मैंने इसे जाना) यह विशिष्ट व्यवहार बनता है। व्यंग्य चैतन्य एवं व्यंजक अन्त:करणका ऐक्याध्यास होनेसे अन्योन्यमें अन्योन्य-धर्मका व्यवहार भी संगत है। प्रकाशरूप होनेसे या प्रकाशसंसृष्ट होनेसे ही वस्तुओंका प्रकाश होता है। सूर्यादि प्रकाशरूप होनेसे प्रकाशित होते हैं। घटादि प्रकाशसंसर्गी होनेसे प्रकाशित होते हैं। वैसे ही आत्मचैतन्य या अखण्ड बोध अथवा नित्यज्ञान प्रकाशरूप होनेसे एवं अन्य वस्तुएँ तत्संसर्गी होनेसे प्रकाशित होती हैं। चैतन्यका विषयके साथ संयोग, समवायादि सम्बन्ध नहीं होता, किंतु आध्यासिक ही संसर्ग होता है। जैसे रज्जुमें सर्पका अध्यास होता है, वैसे ही चैतन्यमें प्रपंचका अध्यास है। अत: अधिष्ठान चैतन्यमें प्रपंच अध्यस्त है। उसी चैतन्यसे प्रपंचका प्रकाश होता है। किंतु वह चैतन्य अविद्यांशोंसे ढका रहता है। उन्हीं आवरणांशोंके हटानेके लिये प्रमाता-प्रमाणादिका व्यापार होता है। घटादिकी प्रत्यक्षतामें आलोक, चक्षु, मन आदिकी आवश्यकता पड़ती है। आलोककी अपरोक्षताके लिये अन्य आलोक अपेक्षित नहीं होता। चक्षुके ज्ञानमें दूसरे चक्षु आदिकी अपेक्षा नहीं होती। सर्वविज्ञाता, प्रमाता या ज्ञानको अपने प्रकाशके लिये अन्यकी अपेक्षा नहीं होती। सर्वसाक्षी प्रमाताका भी प्रकाशक अखण्डभान साक्षात् अपरोक्ष कहा जाता है। दो उपाधियोंके एकत्रित होनेसे दो उपहितोंका भी अभेद हो जाता है। जैसे घट और मठ एकत्रित होनेसे घटाकाश और मठाकाश दोनों एक ही हो जाते हैं, वैसे ही जहाँ अन्त:करण विषय-प्रदेशपर इन्द्रियादिद्वारा जाता है, वहाँ विषय एवं अन्त:करण दोनों उपाधियाँ एकत्रित होनेसे विषयावच्छिन्न चैतन्य और वृत्त्यवच्छिन्न चैतन्य एक हो जाते हैं। इसीको प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। जहाँ अन्त:करणवृत्ति विषयसे संसृष्ट नहीं होती, वहाँ परोक्ष ज्ञान होता है और अन्त:करण तथा विषय दोनों एकत्रित होनेसे अन्त:करणावच्छिन्न एवं विषयावच्छिन्न चैतन्यकी एकता हो जाती है। उस समय विषयावच्छिन्न चैतन्यमें अध्यस्त विषय विषयावच्छिन्न चैतन्यभिन्ना अन्त:करणवच्छिन्न प्रमातृ चैतन्यमें भी अध्यस्त समझा जाता है। इसीलिये प्रमातृ चैतन्यसे विषयका अपरोक्षज्ञान होता है।
इसपर शंका होती है कि ‘अन्त:करणसे चैतन्यकी अभिव्यक्ति क्या है? यदि आवरण-विनाश, तब तो घटज्ञानसे ही मोक्ष हो जाना चाहिये; क्योंकि वेदान्तमतमें आवरण-विनाश ही मोक्ष है। यदि अभिव्यक्ति आत्मगत अतिशय-विशेष है, तब तो सातिशय आत्मा विकारी ही होगा,’ परंतु इसका समाधान यह है कि आवरणाभिभव ही अभिव्यक्ति है। एतावता निरावरण चैतन्यसे विषयका प्रकाश होता है। कहा जाता है कि ‘चैतन्य सर्वगत है, फिर स्वसंसृष्ट सर्वभासक होनेसे प्रतिकर्म-व्यवस्था नहीं होगी। प्रमाण-प्रमेयादि व्यवहार ही प्रतिकर्म-व्यवस्था है, परंतु यह दोष नहीं है। ‘जो सुख-दु:खादि एक पुरुषको अनुभूत होते हैं, वे क्या सभी पुरुषोंको अनुभूत होने चाहिये; क्योंकि चैतन्य एक ही है?’ यह आपत्ति है अथवा यह कि ‘देवदत्त जिस समय घटका अनुभव करता है, उसी समय सम्पूर्ण जगत्का अनुभव होना चाहिये; क्योंकि देवदत्तका चैतन्य सर्वगत है।’ पहली आपत्ति इसलिये संगत नहीं है कि केवल चैतन्य अनुभवका हेतु नहीं है; क्योंकि वह अविद्यासे आवृत है, किंतु अन्त:करणद्वारा अभिव्यक्त चैतन्यसे ही विषयोंका अनुभव होता है। वह अन्त:करण प्रतिपुरुष भिन्न है, अत: जिस पुरुषके अन्त:करणसे अभिव्यक्त चैतन्यद्वारा जिस विषयका सम्पर्क होता है, उसीको उसका ज्ञान होता है। दूसरी आपत्ति भी ठीक नहीं है; क्योंकि परिच्छिन्न अन्त:करणसे अभिव्यक्त चैतन्यका युगपत् सम्पूर्ण जगत्से सम्बन्ध नहीं होता, अत: सर्वावभासका प्रसंग ही नहीं है। अत: प्रतिकर्म-व्यवस्थामें कोई अनुपपत्ति नहीं है।’
कहा जाता है कि ‘परिच्छिन्न अन्त:करणका भी सूर्यरश्मिवत् सर्वव्यापी परिणाम होगा।’ परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि पुण्य-पाप, नेत्र-श्रोत्र आदिके रूपसे अन्त:करणके परिणामकी सामग्री प्रतिविषयमें निश्चित है, अत: परिणाममें भी व्यवस्था ही सिद्ध होगी। जो कोई योगाभ्यासद्वारा अन्त:करणकी सर्वव्यापी परिणाम-सामग्री सम्पादन कर लेता है, वह सर्वज्ञाता हो ही सकता है। यहाँ भी शंका होती है कि ‘क्या चैतन्यके असंग होनेके कारण स्वत: विषयोपराग असम्भव होनेसे विषयोपरागके लिये अन्त:करण-उपाधि अपेक्षित है अथवा उपराग होनेपर भी विषय-प्रकाश-सिद्धिके लिये अन्त:करण-उपाधि मान्य है?’ पहला पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि असंगी होनेसे अन्त:करणोपाधिपर भी चैतन्यका उपराग सम्भव नहीं है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि चित् सम्बन्धसे ही प्रकाश सिद्ध होता है, फिर उपाधि व्यर्थ है। तब तो उपाधि-परित्यागसे सर्वगत चैतन्यसे संयुक्त सर्ववस्तुका प्रकाश होना ही चाहिये। इसी प्रकार यह समाधान भी पर्याप्त नहीं है कि ‘प्रतिबिम्बभूत जीव चैतन्य परिच्छिन्न होनेसे सर्वभासक नहीं हो सकता।’ बिम्बभूत ईश्वरकी सर्वज्ञता मान्य ही है। यद्यपि जीव-ब्रह्मका अद्वैत-वेदान्तमें भेद मान्य नहीं है, तथापि व्यावहारिक अल्पज्ञता-सर्वज्ञता आदिका भेद तो है ही; क्योंकि विषयका अनुभव ब्रह्मचैतन्यरूप है। जीवमें सर्वज्ञताके समान ही अल्पज्ञता भी नहीं बन सकेगी। यदि कहा जाय कि ‘जीवोपाधि अन्त:करणका चक्षु आदिद्वारा विषयसम्बन्ध होता है, अत: जीव विषयोंका ज्ञाता हो सकेगा’ सो भी ठीक नहीं; क्योंकि यदि अन्त:करणसे सृष्ट होनेसे जीव ज्ञाता हो, तब तो जीवको सदा ही ब्रह्मस्वरूपका भी ज्ञाता होना चाहिये; क्योंकि सर्वगत ब्रह्मका अन्त:करणके साथ संसर्ग है ही। यदि कहा जाय कि ‘अविद्योपाधिक ही जीव सर्वगत है और वह सभी जगत्को प्रकाशित कर सकता है, फिर भी वह अविद्यासे आवृत होनेके कारण स्वयं भी अप्रकाशमान रहता है, अतएव ‘अहमज्ञ:’ ऐसा अनुभव होता है। अविद्या यद्यपि परिच्छिन्न है, फिर भी वह सर्वगत चैतन्यका तिरोधान करती है। नेत्रके समीपमें धारित अंगुलिमात्रसे महान् आदित्यादिका भी तिरोधान होता ही है। इस दृष्टिसे जहाँ अन्त:करणका उपराग (सम्बन्ध) होता है, वहीं अविद्या-आवरणका अभिभव होता है। वहाँ ही अभिव्यक्त चैतन्यसे किंचित् अंशका ही प्रकाश होता है,’ परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि अविद्याकार्यभूत अन्त:करणसे अविद्याका अभिभव असम्भव है। इसलिये प्रतिकर्म-व्यवस्था नहीं बन सकती।
इन सब बातोंका वेदान्तीय समाधान यह है कि जीव चैतन्य असंग होनेसे यद्यपि अन्यसम्बन्धित नहीं होता, तथापि अन्त:करणसे उसका सम्बन्ध होता है; क्योंकि अन्त:करणका ऐसा ही स्वभाव है। जैसे सर्वगत भी गोत्वजाति सास्नादि (गल-कम्बलादि) मती गो-व्यक्तिमें ही सम्बन्धित होती है, अन्यत्र नहीं, वैसे ही प्रकृतमें भी समझना चाहिये अथवा जैसे प्रदीप-प्रभा रूप, रस, गन्ध, वायु आदि प्रदेशोंमें व्याप्त होनेपर भी रूपको ही प्रकाशित करती है, अन्यको नहीं, वैसे ही अन्त:करण-उपाधि चैतन्यसे विषयोपराग-सिद्धिके लिये संगत होगी। उपरागके बिना चित्प्रकाश विषयोंका प्रकाश नहीं कर सकता। जैसे प्रदीप-प्रकाश स्वसंयुक्तका ही द्योतक होता है, वैसे ही चैतन्य भी स्वोपरक्तका ही प्रकाशन कर सकता है। ब्रह्म सर्वप्रपंचका उपादान कारण है, अत: औपाधिक उपरागके बिना ही स्वस्वरूपके समान ही स्वाभिन्न सर्वजगत्का प्रकाशन करता है। जीव ऐसा नहीं कर सकता; क्योंकि वह प्रपंचका उपादान नहीं है।
कहा जा सकता है कि ‘जब जीव स्वत: अवभासक नहीं है, तब घटादिके समान ही अन्य सम्बन्धसे भी प्रकाशक नहीं हो सकता,’ परंतु यह ठीक नहीं। केवल लौह तृणादिका दाहक न होनेपर भी लौहपिण्डपर व्यक्त अग्नि जैसे तृणादिका दाहक होता है, वैसे ही असंग-साक्षी चैतन्य विषयोंका प्रकाशक न होनेपर भी अन्त:करणवशात् निरावरण होकर विषयोंका प्रकाशक होगा। जिस पक्षमें अन्त:करणस्थ चित्प्रतिबिम्ब ही जीव है, तब तो परिच्छिन्न होनेसे सुतरां प्रतिकर्म-व्यवस्था उपपन्न होगी। भले ही विषयानुभव ब्रह्म-चैतन्य हो, फिर भी जीवोपाधिभूत अन्त:करणका वृत्तिरूप परिणाम जबतक विषयाकार नहीं होता, तबतक वह अव्यक्त ही रहता है। विषयाकार अन्त:करण वृत्तिपर अभिव्यक्त चैतन्यको जीव-चैतन्य भी कहनेमें कोई विरोध नहीं है। ब्रह्मके अन्त:करण-संसृष्ट होनेपर भी ब्रह्माकार अन्त:करण वृत्ति न होनेसे जीवको सदा ब्रह्म-ज्ञान-प्रसंग नहीं आता। अन्त:करणस्वरूप मात्र वस्तुका व्यंजक नहीं होता, किंतु तत्तद्वस्त्वाकार-अन्त:करणके परिणाम ही उन-उन वस्तुओंके व्यंजक होते हैं। अतएव तदाकारवृत्ति न होनेसे ही अन्त:करणमें ही रहनेवाले धर्मादिकी अभिव्यक्ति नहीं होती। जीव भी जीवाकार अहंवृत्तिरूपसे परिणत अन्त:करणमें ही अभिव्यक्त होता है, अन्त:करणमात्रमें नहीं। इसीलिये सुषुप्तिमें अहंवृत्ति न होनेसे जीवकी भी प्रतीति नहीं होती। इस तरह अन्त:करण प्रतिबिम्ब जीवत्व-पक्षमें भी सब व्यवस्था बन जाती है।
जिस पक्षमें अविद्योपाधिक सर्वगत जीव है, उस पक्षमें भी आवरणतिरोधायक अन्त:करणसे सब व्यवस्था बनती है। जैसे, गोमय-कार्य वृश्चिक एवं मृदादिकार्य वृक्ष अपने कारण गोमय तथा मृदादिके तिरोधायक होते हैं, वैसे ही अविद्याकार्य अन्त:करण भी अविद्याका तिरोधायक बन जाता है। वृश्चिक-शरीरमें गोमयके और वृक्ष-शरीरमें मृदादिके किंचित् भी अंशकी प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। इस तरह वेदान्तमतमें प्रमात्रादि व्यवहार ठीक सम्पन्न हो जाते हैं। चिदुपरागके लिये अथवा विषय-चैतन्याभेदकी अभिव्यक्तिके लिये या आवरणाभिभवके लिये वृत्तिका उपयोग हो सकता है। वृत्तिके द्वारा चैतन्य तथा विषयका विषय-विषयिभाव सम्बन्ध होता है। कुछ लोग विषयसंयुक्त वृत्तिके तादात्म्यसम्बन्धसे चैतन्यद्वारा विषयका प्रकाश मानते हैं। अन्य लोगोंका मत है कि अपरोक्ष जीव-चैतन्यके साथ साक्षात् सम्बन्धसे ही सुखादिका साक्षात्कार होता है, अत: परम्परासम्बन्ध ग्रहण न करके साक्षात् सम्बन्ध ही ग्रहण करना चाहिये। इसलिये जैसे तरंग और तरुके संस्पर्शसे तरुमें नदी-स्पर्श माना जाता है, वैसे ही विषयवृत्ति-संसर्गसे जीव-विषय-संसर्ग भी मान्य है। जैसे कारणाकारण-संयोगसे कार्याकार्य संयोग होता है, वैसे ही कार्याकार्य-संयोगसे कारणाकारण-संयोग भी होता है; अर्थात् नैयायिक लोग जैसे हस्त एवं वृक्षके संयोगसे देह-वृक्षका संयोग मानते हैं, हस्त अवयव होनेसे शरीरका कारण है, वृक्ष शरीरका अकारण है। कारण (हस्त) तथा अकारण (वृक्ष)-के संयोगसे कार्य (शरीर) तथा अकार्य (वृक्ष)-का सम्बन्ध मान्य है, वैसे ही वृत्ति जीव-चैतन्यका कार्य है और विषय अकार्य है, अत: कार्य (वृत्ति) तथा अकार्य (विषय) संयोगसे कारण (जीव-चैतन्य) और अकारण (विषय)-का भी सम्बन्ध बन जायगा। इस तरह वृत्तिद्वारा जीव-चैतन्यका विषयके साथ साक्षात् सम्बन्ध बन जाता है।
कुछ लोगोंका यह भी मत है कि ‘अन्त:करणोपहित विषयावभासक चैतन्यका विषयतादात्म्यापन्न ब्रह्म-चैतन्यके साथ अभेदाभिव्यक्तिद्वारा विषयतादात्म्यसम्पादन ही चिदुपराग है।’ इस पक्षमें विषयकी अपरोक्षतामें आध्यासिक सम्बन्ध ही मुख्य कारण है। वृत्तिद्वारा अभेद व्यक्त होनेपर विषयावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य और अन्त:करणावच्छिन्न जीवचैतन्य एक ही हो जाता है, अत: विषयावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्यमें अध्यस्त विषय-विषयावच्छिन्न चैतन्याभिन्न अन्त:करणावच्छिन्न चैतन्यरूप जीवचैतन्यमें भी अध्यस्त समझा जा सकता है। अभेदाभिव्यक्ति क्या है, इसपर कुछ लोगोंका कहना है कि ‘जैसे कुल्याद्वारा तड़ाग एवं केदारसलिलकी एकता होती है, वैसे ही वृत्तिद्वारा विषय एवं अन्त:करणावच्छिन्न चैतन्यकी एकता होती है। यद्यपि विषयावच्छिन्न चैतन्य ब्रह्म-चैतन्य ही है और वही विषय-प्रकाशक है, तथापि वृत्तिद्वारा जीव-चैतन्यके साथ अभेद होनेसे उसमें जीवत्व सम्पन्न हो जाता है, इसलिये जीव विषयका प्रकाशक बन सकता है।’ दूसरे लोग कहते हैं कि ‘बिम्बस्थानीय विषयावच्छिन्न चैतन्य ब्रह्मके साथ प्रतिबिम्बभूत जीवकी (अभेदाभिव्यक्ति) नहीं होती। व्यावर्त्तक उपाधि दर्पणके समान जबतक बनी है, तबतक उपहितोंकी एकता नहीं हो सकती। जबतक दर्पण है, तबतक बिम्ब-प्रति-बिम्बभाव रहेगा ही। इसी तरह अन्त:करणादि उपाधि जबतक है, तबतक जीव-ईश्वरभाव रहेगा ही। फिर ब्रह्म-चैतन्यका जीवचैतन्य बनना असम्भव ही रहेगा। यदि वृत्तिकृत अभेदकी अभिव्यक्तिसे विषयावच्छिन्न ब्रह्म जीव हो जायगा, तब तो ब्रह्मका विषय-संसर्ग न रहनेसे ब्रह्म उस विषयका ज्ञाता न रहेगा। फिर उसकी सर्वज्ञता बाधित होगी। अत: विषयावच्छिन्न ब्रह्मचैतन्य विषयसंसृष्ट वृत्तिके अग्रभागमें विषयप्रकाशक प्रतिबिम्बका समर्पण करता है। उसी प्रतिबिम्बका जीवके साथ एकीभाव होता है। इसी तरह अन्त:करण, वृत्ति तथा विषयोंसे अवच्छिन्न चैतन्योंमें क्रमेण प्रमाता, प्रमाण एवं प्रमेय-व्यवहार असंकररूपसे सम्पन्न होगा।’
कहा जा सकता है कि ‘वृत्तिसे उपहित चैतन्य विषय-प्रमा होगी, उसका विषयाधिष्ठान चैतन्यके समान विषयके साथ आध्यासिक सम्बन्ध नहीं होगा। फिर विषयकी अपरोक्षतामें आध्यासिक सम्बन्ध प्रयोजक है, यह सिद्धान्त असंगत हो जायगा,’ परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि विषयसे अवच्छिन्न विषयाधिष्ठान चैतन्य ही वृत्तिमें प्रतिबिम्बित है। इस दृष्टिसे अभेद उपपन्न होता है। कुछ लोग विषयाधिष्ठान-चैतन्यसे ही विषयका साक्षात् आध्यासिक सम्बन्ध होनेसे बिम्बभूत ब्रह्मचैतन्यको ही विषयप्रकाशक मानते हैं; किंतु बिम्बत्वादि विशिष्टरूपसे उसका भेद होनेपर भी बिम्बत्वोपलक्षितरूपसे एकीभाव ही अभेदाभिव्यक्ति है। बिम्बादिरूपमें भेद बना ही रहता है। अत: जीवब्रह्मके सांकर्यमें एवं ब्रह्मकी सर्वज्ञतामें विरोध आदि नहीं। इसी तरह ‘वृत्तिसे आवरणका अभिभव होता है’, इस पक्षमें भी विचारणीय है कि आवरणाभिभव क्या है? यदि अज्ञाननाश ही आवरणाभिभव माना जाय तब तो घटज्ञानसे अज्ञानका नाश होगा और अज्ञानमूलक प्रपंचकी ही निवृत्ति हो जायगी। कुछ लोगोंके मतमें चैतन्यमात्रके आवरक अज्ञानका विषयावच्छिन्न-प्रदेशमें ज्ञानसे एकदेशेन नाश उसी तरह होता है, जिस तरह महान्धकारमें खद्योत-प्रकाशसे एकदेशेन अन्धकारका नाश होता है। अत: घटज्ञानसे विषयप्रदेशस्थ अज्ञानके एकदेशका ही नाश होगा, सम्पूर्ण अज्ञानका नहीं, अत: प्रपंच-निवृत्तिका प्रसंग नहीं होगा अथवा ज्ञानसे विषयाज्ञानका कट (चटाई)-के समान संवेष्टन या संकोच हो जाता है, यही आवरणाभिभव है, अथवा रणमें भीत भट (योद्धा)-के पलायनके समान ज्ञानसे विषयावच्छिन्न चैतन्यनिष्ठ अज्ञान हट जाता है, यही आवरणाभिभव है। अन्य लोगोंका कहना है कि ‘अज्ञानका एकदेशसे नाश होनेसे उपादान न रहनेसे विषयावच्छिन्न चैतन्य-प्रदेशमें फिर आवरणकी उत्पत्ति न होगी। अतएव मानना यह चाहिये कि चैतन्यमात्रके आवरक अज्ञानका तत्तदाकारवृत्ति संसृष्ट अवस्थावाले विषयावच्छिन्न चैतन्यको आवरण न करनेका स्वभाव ही आवरणाभिभव है।’ कहा जाता है कि ‘घटादि विषयको ढककर स्थित होनेवाले पटके समान विषयावच्छिन्न चैतन्यको आवृत करके स्थित होनेवाला अज्ञान विषयको आवृत क्यों न करेगा?’ परंतु यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ‘अहमज्ञ:’ इस प्रतीतिके आधारपर कहा जा सकता है कि अहमनुभवमें प्रकाशमान चैतन्यका आश्रय करके अज्ञान स्थित होता है और वह स्वाश्रयभूत चैतन्यको आवृत नहीं करता है।
अन्य लोगोंका कहना है कि ‘घटं न जानामि’ (मैं घट नहीं जानता) इस तरह अज्ञान घटज्ञान विरुद्धरूपसे प्रतीत होता है। घटज्ञान होनेपर घटका अज्ञान निवृत्त हो जाता है। इस तरह घटज्ञानद्वारा निवर्त्यरूपसे अनुभूयमान घटाज्ञान मूलाज्ञान नहीं है। शुद्ध चैतन्यविषयक अज्ञान शुद्ध चैतन्य-ज्ञानसे ही निवर्त्य होता है। घटज्ञान-निवर्त्य घटाज्ञान वैसा नहीं है, अतएव घटावच्छिन्न चैतन्यविषयक अज्ञान मूलाज्ञानका अवस्थाविशेष है। उस अवस्था—अज्ञान (मूलाज्ञान)-का नाश ही आवरणाभिभव है। कहा जाता है कि ‘फिर भी एक ज्ञानसे अज्ञानका नाश होनेपर तत्समानविषयक ज्ञानान्तरोंमें आवरणाभिभावकता कैसे होगी?’ यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि जितने ज्ञान हैं, उतने ही अज्ञान हैं। इसलिये प्रत्येक ज्ञानसे प्रत्येक अज्ञानका नाश होता है। यह अवस्थारूप अज्ञान मूलाज्ञानके तुल्य ही अनादि है। व्यावहारिक जगत् और जीवको आवृत करके स्वाप्निक जीव-जगत्को प्रतिभासित करनेवाली आवरण एवं विक्षेप-शक्तिवाली निद्रा अज्ञानकी अवस्था है। इसी तरह सुषुप्तिमें अन्त:करणादिके विलीन होनेपर ‘सुखमहमस्वाप्सम्, नाहं किञ्चिदवेदिषम्’ (मैं सुखपूर्वक सोया, मैंने कुछ नहीं जाना) इस तरह स्मरण होनेसे मूलाज्ञानके तुल्य अनुभूयमान सुषुप्ति भी अज्ञानकी अवस्थाविशेषरूप ही है। जाग्रत् भोगप्रद कर्मोंके उपरम होनेपर इन दोनों ही अवस्थाओंका प्रादुर्भाव होता है, अत: ये सादि हैं। इसी तरह अन्य अवस्था—अज्ञान भी सादि ही है। यदि सभी मूलाज्ञान अनादि माने जायँ, तब तो प्रथम उत्पन्न घटज्ञानसे ही घटविषयक सभी अज्ञानोंका नाश होगा। किस अज्ञानका नाश हो, किसका न हो, इसमें कोई विनिगमका अर्थात् निर्णायक युक्ति नहीं है। ‘घटावच्छिन्न चैतन्यावरक सर्व अज्ञानोंके नाश हुए बिना घटविषयक प्रकाश ही न होगा। अत: पीछे होनेवाले ज्ञान आवरणके अभिभावक सिद्ध न होंगे।’ इसका समाधान कुछ लोग यह करते हैं कि ‘जैसे अनेक ज्ञान-प्रागभावोंके रहनेपर भी एक ज्ञानसे एक ही प्रागभाव नष्ट होता है, संशयादि-उत्पादनमें समर्थ घटावरणरूप अन्य ज्ञान-प्रागभावोंके रहनेपर भी घटज्ञानसे एक घटप्रागभावके नष्ट होनेपर ही घटविषयका प्रकाश होता है, वैसे ही एक ज्ञान उत्पन्न होनेपर एक ही अज्ञान निवृत्त होता है, इतर अज्ञानोंके रहनेपर भी विषयका प्रकाश होता है।’
दूसरे लोगोंका मत है कि ‘सब अज्ञान सर्वदा आवरण नहीं करते, किंतु जिस समय जो अज्ञान आवरण करता है, उस समयके उस ज्ञानसे उसी अज्ञानका नाश होता है। वृत्तिद्वारा आवरक अज्ञानका नाश होनेपर जब वृत्ति उपरत होती है, तब अन्य अज्ञान आवरण करते हैं।’ इसपर कहा जाता है कि ‘यदि सब अज्ञान सर्वदा आवरक न हों, तब तो ब्रह्मज्ञानकालमें ब्रह्मज्ञानसे भी उन अज्ञानोंकी निवृत्ति नहीं होगी, फिर तो मुक्तिमें भी उन अज्ञानोंकी प्रसक्ति होगी,’ परंतु यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि उक्त सभी अज्ञान मूलाज्ञानकी अवस्था ही हैं, अत: ब्रह्मज्ञानसे मूलाज्ञानके नष्ट होनेसे उसके अवस्थाभूत अन्य अज्ञानोंका भी नाश होना संगत है।
कई लोग कहते हैं कि ‘अज्ञान स्वभावसे ही सविषय होता है, अत: सभी अज्ञान सर्वदा ही अपने विषयको आवृत करते हैं।’ कहा जा सकता है कि ‘घटादिविषयकी उत्पत्तिके पहले अज्ञान किसे आवृत करेगा?’ परंतु कारणमें सूक्ष्मरूपसे घटादि सदा ही रहते हैं, अत: उनका आवरण सदा ही हो सकता है। उनके मतानुसार एक ज्ञानसे एक अज्ञानका नाश होता है, अन्योंका अभिभव होता है। जैसे ‘बहुजनसमाकुल प्रदेशमें एकके ऊपर भी वज्र पड़नेपर दूसरोंका अपसारण हो जाता है, वैसे ही प्रकृतमें भी समझना चाहिये अथवा जैसे सन्निपातहर औषध एक दोषको हटाता हुआ इतर दोषोंको भी हटाता है, वैसे ही एक अज्ञानको नष्ट करता हुआ भी ज्ञान इतर अज्ञानोंको भी तिरस्कृत करता है। जबतक ज्ञान रहता है, तबतक आवरणशक्तिका प्रतिबन्ध ही उनका तिरस्कार है।’
कहा जा सकता है कि ‘धारावाहिक ज्ञानस्थलमें प्रथम वृत्तिके द्वारा अज्ञानका निवारण होगा, परंतु द्वितीय आदि वृत्तियाँ अज्ञानकी निवारक न होंगी; क्योंकि प्रथम ज्ञानसे ही एक अज्ञानका निवारण और अन्योंका तिरस्कार सम्पन्न है,’ परंतु इसका समाधान कुछ लोग यह करते हैं कि ‘जैसे दीपधारा तमको तिरस्कृत करके स्थित रहती है, वैसे ही वृत्तिधारा भी अज्ञानको तिरस्कृत करके स्थिर होती है। जैसे प्रदीप-तिरस्कृत भी तम प्रदीपके उपरत होनेपर पुन: प्रवृत्त होता है, वैसे ही वृत्ति-तिरस्कृत भी अज्ञान-वृत्तिके उपरत होनेपर पुन: विषयको आवृत करता है; परंतु वृत्त्यन्तरोंके उदय होनेपर तिरस्कृत ही रह जाता है, जैसे प्रदीपान्तरके उदय होनेपर तम तिरस्कृत ही रहता है। जिसके रहनेपर अग्रिम क्षणमें जिसका सत्त्व रहता है, जिसके अभावमें जिसका असत्त्व रहता है, वह तज्जन्य मान्य होता है। तथा च प्रदीपधारासे तमके प्रागभावका पालन जैसे सम्पन्न होता है, वैसे ही वृत्ति-परम्परासे अनावरणका परिपालन होता है। वही द्वितीय आदि वृत्तिका फल है।’ कुछ लोगोंके मतानुसार ‘पर्यायसे ही अज्ञानविषयको आवृत करते हैं, अत: ज्ञान स्वकालके ही आवरक अज्ञानका नाश करता है। इसलिये धारावाहिक ज्ञानस्थलमें द्वितीयादि वृत्तियाँ भी अज्ञानकी नाशक हैं।’ इस पक्षमें कहा जा सकता है कि ‘यदि ज्ञानोदयकालमें भी अज्ञान रहता है, तो विषयका आवरण भी सम्भव है,’ परंतु इसका समाधान यह है कि अवस्थारूप अज्ञान तत्तत्कालोपलक्षित-स्वरूपका ही आवरण करते हैं। ज्ञान भी स्वकालोपलक्षितविषयावरक अज्ञानका नाश करते हैं। तथा च किसी ज्ञानके उदय होनेपर तत्कालीन विषयावरक अज्ञानका ही नाश होता है। विद्यमान भी अज्ञान अन्यकालीन विषयोंके ही आवरक होते हैं, इसलिये तत्कालीन विषयावभासमें कोई अनुपपत्ति नहीं हो सकती।
कुछ लोग कहते हैं कि ‘आद्य घटादिज्ञानसे घटादिके अज्ञान नष्ट होते हैं। द्वितीयादि ज्ञानोंसे तो कालविशिष्ट वस्तु-विषयक अज्ञानकी ही निवृत्ति होती है। अतएव एक बार चैत्र-ज्ञान होनेपर ‘चैत्रं न जानामि’ इस प्रकार स्वरूपावरण अनुभूत नहीं होता। किंतु ‘इस समय वह कहाँ है, यह मैं नहीं जानता’ इस तरह कालादिविशिष्टविषयक ही आवरणका अनुभव होता है। भले विस्मृतिशालीको एक बार अनुभवके अनन्तर भी स्वरूपावरणकी अनुभूति हो, परंतु अन्यत्र द्वितीयादिज्ञान विशिष्टविषयक ही होते हैं।’ कहा जा सकता है कि ‘इस तरह तो धारावाहिक ज्ञानस्थलमें द्वितीयादिज्ञान अज्ञाननिवर्तक न होंगे; क्योंकि स्थूलकालविशिष्टाज्ञान प्रथमज्ञानसे ही निवृत्त हो चुका है। पूर्वापरज्ञानोंसे व्यावृत्त सूक्ष्म कालादिविशिष्टाज्ञानकी निवृत्ति द्वितीयादिज्ञानसे हो ही नहीं सकती; क्योंकि सूक्ष्मकाल द्वितीयादिज्ञानके विषय ही नहीं हैं,’ परंतु धारावाहिक स्थलमें प्रथमोत्पन्न एक ही वृत्ति तावत्काल स्थायीरूपसे मान्य है, अत: वहाँ वृत्तिभेद है ही नहीं। वृत्तिभेद माननेपर भी बहुकालावस्थायी वृत्ति मान्य होती है, अत: स्थूलकालादिविशिष्ट ही वस्तुका अज्ञान निवृत्त होता है। प्रतिक्षण उत्पन्न होनेवाली अनेक वृत्तियोंकी ही यदि धारा मानी जाय, तब तो द्वितीयादिज्ञान ज्ञातविषयक ही होनेसे प्रमाण नहीं हैं। अत: आवरण-निवर्तक न भी हों, तो भी कोई हर्ज नहीं।
‘विवरण’ कारने साक्षिसिद्धि अज्ञानको ज्ञानाभावभिन्न सिद्ध करनेके लिये अनुमानादि-वेद्य बतलाकर भी अज्ञानको प्रमाणवेद्य इसीलिये कहा है कि अज्ञात-ज्ञापक ही प्रमाण मान्य होता है, अज्ञान सदा ही साक्षिवेद्य होनेसे अज्ञात नहीं है, अत: अनुमानागमादि-वेद्य होनेपर भी वह प्रमाणवेद्य माना जाता है। इसलिये द्वितीयादि वृत्तियाँ उपासनादि वृत्तियोंके तुल्य अज्ञाननिवर्तक न भी हों, तो भी कोई हानि नहीं। प्रमाणवृत्तियोंके ही अज्ञाननिवर्त्तनका नियम होता है। विषयावरक अज्ञान दो प्रकारका मान्य होता है—एक विषयाश्रित होता है, जो कि अनिर्वचनीय रज्जु-सर्पादिका उपादान होता है। अनिर्वचनीयकार्यके उपादानरूपसे उसकी सिद्धि होती है। दूसरा विषयावरक अज्ञान पुरुषमें ‘इदमहं न जानामि’ (इसे मैं नहीं जानता) इस रूपसे अनुभूत होता है। पुरुषाश्रित अज्ञान विषयाश्रित सर्पादि विक्षेपका उपादान नहीं हो सकता और विषयाश्रित अज्ञानका प्रकाशरूप साक्षीके साथ संसर्ग नहीं हो सकता, अत: दोनों ही अज्ञान मानना उचित है। परोक्षज्ञानस्थलमें वृत्ति बाहर नहीं जाती, अत: दूरस्थ वृक्षोंमें आप्तवाक्यसे परिमाण-विशेषका ज्ञान होनेसे यद्यपि पुरुषगत अज्ञान निवृत्त हो जाता है तथापि विषयगत अज्ञान नहीं मिटता, अत: उनमें विपरीत परिमाण-भ्रम देखा जाता है। उपदेशके अनन्तर ‘शास्त्रार्थं न जानामि’ इत्याकारक अज्ञानकी निवृत्ति देखी ही जाती है।
अन्य लोगोंका कहना है कि ‘जैसे नेत्रगत काचादि दोष विषयको आवृत करते हैं, वैसे ही पुरुषाश्रित अज्ञान ही विषयका आवरक होता है।’ वाचस्पतिमिश्रके मतानुसार ‘जीवाश्रित अज्ञानके विषयीभूत ब्रह्मका ही विवर्त्त सम्पूर्ण संसार है। जैसे दर्शकोंसे अविज्ञात मायावी ही अनेक मायिक प्रपंचके रूपमें प्रकट होता है, वैसे ही पुरुषसे अज्ञात शुक्तिकादिसे अवच्छिन्न ब्रह्म ही शुक्ति-रजतादिरूपमें विवर्जित होता है। परोक्षवृत्तिसे अज्ञानसम्बन्धी एक आवरणावस्थाकी निवृत्ति होनेपर भी विक्षेपरूप अवस्थान्तर अज्ञान बना रहता है।’ अन्य लोगोंका कहना है कि ‘शुक्ति-रजतादि परिणाम विषयगत अज्ञानका ही हो सकता है, अत: विषयको आवृत करनेवाले पटके समान विषयगत आवरण ही मानना ठीक है।’ कहा जा सकता है कि ‘इस तरह अज्ञानका साक्षीके साथ संसर्ग न होनेसे साक्षीके द्वारा उसका प्रकाश नहीं बन सकेगा और परोक्ष-वृत्तिसे विषयसंसर्ग न होनेसे उसकी निवृत्ति भी नहीं बनेगी।’ परंतु इसका समाधान यह है कि ‘शुक्तिमहं न जानामि’ यह मूलाज्ञान ही साक्षीसे संसृष्ट है। उसीका साक्षीसे भान होता है। शुक्तिविषयगत अज्ञान मूलाज्ञानका अवस्थाविशेष ही है। शुक्ति आदिका भी मूलाज्ञानके विषयभूत चैतन्यके साथ अभेद होनेसे शुक्तिविषयताका अनुभव उपपन्न हो जायगा। विवरणादिमें मूलाज्ञानके साधन-प्रसंगमें ‘इदमहं न जानामि’ इस रूपसे मूलाज्ञानमें प्रत्यक्ष-प्रमाणका उपन्यास किया गया है। ‘अहमज्ञ:’ इस प्रकार सामान्यतया अज्ञानका अनुभव मूलाज्ञानका अनुभव माना गया है। ‘शुक्तिमहं न जानामि’ इत्यादि विषय-विशेषके अज्ञानका अनुभव अवस्था-अज्ञानका ही अनुभव है। फिर भी अवस्था-अवस्थावान्का अभेद होनेसे मूलाज्ञानका साक्षिसंसर्ग होनेसे ही अवस्था-ज्ञानका भी भान बन जाता है अथवा विषयचैतन्य तथा साक्षिचैतन्य, दोनोंका अभेद होनेसे अवस्थाज्ञान भी साक्षिचैतन्यका विषय समझा जा सकता है। परोक्ष-ज्ञान यद्यपि विषयसंसर्ग न होनेसे अज्ञानका निवर्तक नहीं है, तथापि सत्ता निश्चय परोक्षवृत्त्यात्मक प्रतिबन्धके कारण अज्ञानके अनुभवकी भ्रान्ति होती है, अत: अपरोक्षज्ञान ही अज्ञानका निवर्तक होता है, परंतु अविद्या-अहंकार सुख-दु:खादि-विषयक अपरोक्षज्ञानमें भी अज्ञाननिवर्त्तकता नहीं होती; क्योंकि ये सब सदा ही साक्षिभाष्य होते हैं, कभी भी अज्ञात नहीं रहते। कूटस्थ, व्यापकचैतन्यसे वृत्तियाँ तथा वृत्तियोंका अभाव भासित होता है। अहंकार आदिका सदा ही साक्षिरूप प्रकाशसे संसर्ग रहता है, अत: वे सदा ही भासमान रहते हैं। अन्य ज्ञानधाराकालमें ‘अहम्’ भासित ही रहता है। अतएव ‘एतावन्तं कालमिदमहं पश्यन्नेवासम्’ (इतने कालतक मैं इसे देखता ही रहा) इस प्रकार अहंकारका अनुसंधान होता है। जैसे राहुका प्रकाश राहुसमावृत सूर्य-चन्द्रद्वारा ही होता है, वैसे ही अविद्याका प्रकाश अविद्यावृत साक्षिचेतनद्वारा ही होता है। साक्षीके नित्य होनेपर भी वृत्तिके नाशसे संस्कार और स्मृति हो सकेगी। अनवस्था-भयसे वृत्तिगोचर वृत्ति न माननेपर भी वृत्तिके नाशसे ही तद्गोचर संस्कार आदि उपपन्न होते हैं। सुख-दु:खादिके ही नाशसे तद्गोचर संस्कार बन सकेगा। साक्षिचैतन्य स्वत: नित्य होनेपर भी भास्य विशिष्टरूपसे अनित्य है, अत: भास्यके नाशसे तद्विशिष्ट चैतन्यका भी नाश होता है। उसीसे संस्कार, स्मृति आदि बन सकेंगे। अन्य लोग सौषुप्त अज्ञान-सुखादिग्राहक अविद्यावृत्तिके समान अहंकार-सुखादिको स्मृतिके लिये अविद्या-वृत्ति मानते हैं। उसीके नाशसे संस्कारादि बनते हैं। इस पक्षमें यह कहा जा सकता है कि ‘एतावन्तं कालमिदमहं पश्यन्नेवासम्’ (इतने समयतक मैं इसे देखता ही रहा) इस प्रकार विषयज्ञानधाराके साथ अहंकार-ज्ञानकी धारा कैसे बन सकेगी? परंतु यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि ‘शिरसि मे दु:खं पादयोर्मे सुखम्’ (मेरे सिरमें दु:ख है, पैरमें सुख है) इस तरह जैसे अवच्छेदकके भेदसे ‘सुख-दु:खका यौगपद्य हो सकता है, वैसे ही अहमाकारवृत्ति और इदमाकारवृत्ति—दोनों ही एक साथ रह सकती हैं।’
कुछ लोग कहते हैं कि ‘अहमाकारवृत्ति अविद्या-वृत्ति नहीं है, किंतु उपास्तिके तुल्य मनोवृत्ति है, ज्ञान नहीं। ‘सोऽहं’ इस प्रत्यभिज्ञामें भी तदंशभूत स्मृति है, अहमंशमें ज्ञान नहीं है। अहमाकारवृत्ति ज्ञान इसलिये नहीं है कि ज्ञान करण चक्षु-श्रोत्रादि तथा लिंगादिसे जन्य नहीं है। मन स्वयं ज्ञानका उपादान है, वह करण नहीं हो सकता। जैसे ‘पर्वते वह्निमनुमिनोमि’ इस ज्ञानमें परोक्षता-अपरोक्षता दोनों होती है। ‘इदं रजतम्’ इस ज्ञानमें अंशभेदसे जैसे प्रमात्व-अप्रमात्व सम्भव है, वैसे ही ‘सोऽहं’ इस प्रत्यभिज्ञामें भी अंशभेदसे ज्ञानत्व-अज्ञानत्व (ज्ञानभिन्नत्व) भी सम्भव है। अन्य लोग मनको इन्द्रिय मानते हैं, अत: ‘मामहं जानामि’ इस प्रकारकी वृत्ति ज्ञान ही है, अतएव ब्रह्मविषयक अपरोक्षवृत्ति आवरणकी अभिभावक होती है। इस सम्बन्धमें भी विवाद यह है कि शुक्तिमें ‘इदं रजतम्’ ज्ञान होता है। यहाँ इदमाकार अपरोक्ष वृत्ति होती है, फिर भी इदमंशका आवरण अभिभूत नहीं होता। यदि ऐसा होता, तो शुक्तिमें रजतका अध्यास न होता।’ इसका कुछ लोग समाधान यह करते हैं कि ‘इदमाकारवृत्तिसे शुक्तीदमंशविषयक अज्ञान निवृत्त होता है, परंतु शुक्तित्व विशेषका अज्ञान निवृत्त नहीं होता। उसी अज्ञानसे रजतका भ्रम होता है; क्योंकि शुक्तित्वके अज्ञानसे ही रजतभ्रम होता है। शुक्तित्वज्ञानसे ही रजतभ्रम दूर होता है, अत: शुक्तित्वके अज्ञानसे ही अनिर्वचनीय रजतकी उत्पत्ति होती है। इसीलिये ‘इदं रजतम्’ इस भ्रममें इदमंशका स्फुरण होता है। रजतभ्रममें शुक्त्यंश अधिष्ठान है, इदमंश आधार है। सकार्य अज्ञानका विषय अधिष्ठान है। अतद्रूप भी तद्रूपसे आरोप्य बुद्धिमें स्फुरित होते हुए आधार कहा जाता है—‘संसिद्धा सविलासमोहविषये वस्तुन्यधिष्ठानगीर्नाधारेऽध्यसनस्य वस्तुनि ततोऽस्थाने महान् सम्भ्रम:।’ (संक्षेप शारीरक ३।२३९)
अन्य लोगोंका मत है कि ‘इदमंशाज्ञान’ का ही परिणाम रजत है, अतएव ‘इदं रजतम्’ इस तरह ‘इदम्’ से संसृष्ट ही रजत प्रतीत होता है। इदमाकारवृत्तिसे आवरण शक्तिमात्रकी निवृत्ति होती है। फिर भी विक्षेप-शक्तिके साथ अज्ञान बना रहता है। वही कल्पित रजतका उपादान है। अधिष्ठान-साक्षात्कारसे अधिष्ठानाज्ञान निवृत्त हो जानेपर भी विक्षेप-शक्तिसहित अज्ञान ही जलप्रतिबिम्बित वृक्षका अधोऽग्रत्वाध्यास तथा जीवन्मुक्तिमें अनुवृत प्रपंचाध्यासका उपादान होता है। कुछ आचार्य कहते हैं कि ‘इदं रजतम्’ यह ज्ञान भ्रमात्मक है। इसमें इदमाकार-ज्ञान प्रमाणज्ञान नहीं है। ‘इदं रजतम्’ इस भ्रममें दो ज्ञानोंका अनुभव नहीं होता है, अतएव ‘इदं’ यह प्रमाज्ञान है, ‘रजतम्’ यह भ्रमात्मक ज्ञान है, परंतु यह पक्ष संगत नहीं है; क्योंकि सामान्य-विशेष संसर्गविषयक यहाँ एक ही ज्ञान है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि अधिष्ठान-सामान्यज्ञान अध्यासका कारण है, अत: अध्यास देखकर उसके कारणभूत इदंवृत्तिकी कल्पना करनी चाहिये; क्योंकि अधिष्ठान-सामान्यज्ञान अध्यासका हेतु है ही नहीं। कहा जा सकता है कि ‘अधिष्ठान-सम्प्रयोगके बिना प्रातिभासिक रजतकी उत्पत्ति नहीं होती। यही इदंवृत्तिके होनेमें प्रमाण है।’ परंतु यह ठीक नहीं है। इससे इतना ही सिद्ध होता है कि दुष्टेन्द्रिय-सम्प्रयोग ही अध्यासका कारण है। यह भी शंका होती है कि ‘इन्द्रिय-सम्प्रयोग सभी भ्रमोंमें कारण नहीं है; क्योंकि अहंकारके अध्यासमें इन्द्रिय-सम्प्रयोग अपेक्षित है ही नहीं। अत: अधिष्ठान-सामान्यज्ञानको ही अध्यासका हेतु मानना ठीक है। रजतादि अध्यासमें इन्द्रियसे शुक्तिके इदमंशका ज्ञान होता है। अहंकाराध्यासमें स्वत: प्रकाशमान प्रत्यगात्माका सामान्य-ज्ञान हेतु है।’ परंतु यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि घटादिके अध्यासमें अधिष्ठान सामान्यज्ञान नहीं होता है; क्योंकि घटादि प्रत्यक्ष होनेके पहले घटादिके अधिष्ठानभूत नीरूप ब्रह्ममात्र गोचर चाक्षुष वृत्तिका उत्पन्न होना असम्भव ही है। स्वरूप-प्रकाश तो आवृत ही रहता है। यदि कहा जाय कि ‘आवृत-अनावृत साधारण अधिष्ठान प्रकाशमात्र अध्यासका कारण है,’ तब तो शुक्तिके इदमंशसे इन्द्रिय-सम्प्रयोग हुए बिना भी आवृत शुक्त्यवच्छिन्न चैतन्य रहता ही है, अत: उस समय भी शुक्तिमें रजतका अध्यास होना चाहिये। यह भी नहीं कहा जा सकता कि ‘अध्यास-सामान्यमें अधिष्ठान-प्रकाश सामान्य हेतु है और प्रातिभासिक अध्यासमें अभिव्यक्त अधिष्ठान-प्रकाश हेतु है, इसलिये कहीं दोष न आयेगा। सामान्यमें सामान्य और विशेषमें विशेष हेतु होता ही है;’ क्योंकि ‘पीत: शङ्ख:, नीलं कूपजलम्’ इत्यादि प्रातिभासिक अध्यासोंमें भी अभिव्यक्त अधिष्ठानका प्रकाश नहीं होता है। रूपके बिना चाक्षुषज्ञान नहीं होता। शंखादिगत शुक्ल-रूपका उपलम्भ उस समय है ही नहीं। अध्यासके पहले नीरूप शंखादि गोचरवृत्ति असम्भव ही है। यदि यह माना जाय कि ‘प्रातिभासिक भ्रमोंमें भी रजतादि अध्यासोंमें ही अभिव्यक्त अधिष्ठान-प्रकाश हेतु है’ तो भी ठीक नहीं है; क्योंकि फिर भी ‘पीत: शङ्ख:’ इत्यादि स्थलोंमें दुष्टेन्द्रिय-सम्प्रयोगको हेतु कहना ही पड़ेगा। ऐसी स्थितिमें प्रातिभासिक अध्यासोंमें दुष्टेन्द्रिय-सम्प्रयोगको ही हेतु क्यों न माना जाय? इसीसे रजताध्यासके कादाचित्कत्वका भी निर्वाह हो जाता है। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि सामान्यतया एवं विशेषतया अधिष्ठान-प्रकाश अध्यासका कारण है। फिर भी शंका होती है कि ‘सादृश्यनिरपेक्ष अध्यासोंमें अधिष्ठान-प्रकाश हेतु न भी हो, तो भी सादृश्यसापेक्ष रजतादि अध्यासमें रजतादि सादृश्यभूत भास्वररूप विशेषादिविशिष्ट धर्मिज्ञानको कारण मानना चाहिये। यदि दुष्टेन्द्रिय-सम्प्रयोगमात्रको अध्यासमें कारण कहा जाय, तब तो शुक्तिके तुल्य ही इंगाल (कोयला)-में भी रजतादिका अध्यास होना चाहिये।’ कुछ लोगोंका कहना है कि ‘सादृश्य भी विषयदोषरूपसे ही अध्यासमें कारण है।’ परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि वि-सदृशमें सादृश्यभ्रमसे भी अध्यास होता है, जैसे कि समुद्रजलमें दूरसे नील शिलातलका अध्यारोप होता है। कुछ लोग सादृश्य-ज्ञान-सामग्रीको ही अध्यासका कारण कहते हैं; परंतु ज्ञान-सामग्री ज्ञानका कारण हो सकती है, अर्थका कारण नहीं। अत: लाघवात् सादृश्य-ज्ञान ही अध्यासका कारण है।
कुछ लोग कहते हैं कि ‘जैसे स्वत: शुभ्र रजतपात्रगत स्वच्छ जलमें ही नैल्याध्यास होता है, मुक्ताफलमें नैल्याध्यास नहीं होता, वैसे ही शुक्तिमें ही रजताध्यास होता है, इंगालादिमें नहीं। यह फल-बल-कल्प्य स्वभावभावविशेष ही व्यवस्थाका कारण है। सादृश्य-ज्ञानका होना-न-होना हेतु नहीं है।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि स्वत: पटखण्डमें कमल-कुड्मल आदिका अध्यास यद्यपि नहीं होता, तथापि कर्तनादिके द्वारा कमलाकार सम्पन्न होनेपर उसी कर्तनादिद्वारा कमलाकारघटित पटखण्डमें कमलका अध्यास देखा जाता है। यहाँ वस्तुस्वभावानपेक्षसादृश्यज्ञान ही अन्वयव्यतिरेकसे अध्यासका हेतु निश्चित होता है, अन्यथा कमलाकाररहित पटखण्डमें भी कमलका भ्रम होना चाहिये। इसपर भी कुछ लोग कहते हैं कि ‘सादृश्य-ज्ञानको यदि अध्यासमें कारण माना जाय तो भी विशेष दर्शनप्रतिबध्य रजतादि अध्यासोंमें ही उसे कारण मानना ठीक है।’ ‘पीत: शङ्ख:’ इत्यादि विशेष दर्शनसे अप्रतिबध्य स्थलोंमें सादृश्य-ज्ञान सम्भव ही नहीं है। विशेष दर्शनसे प्रतिबध्य शुक्ति रजतादि स्थलोंमें प्रतिबन्धक ज्ञान-सामग्रीको प्रतिबन्धक माननेका नियम है। इस दृष्टिसे विशेष दर्शन सामग्रीको अवश्य प्रतिबन्धक कहना पड़ेगा। इसीसे सब व्यवस्था बन सकती है। फिर सादृश्य-ज्ञानको अध्यासका कारण क्यों माना जाय? इंगालादिके चक्षु:सम्प्रयुक्त होनेपर उसमें नैल्यादिरूप विशेष दर्शन सामग्री होनेसे रजतादि अध्यास नहीं होता। शुक्ति आदिमें भी यदि नीलपृष्ठत्वादिके साथ चक्षु:सम्प्रयोग होता है तो विशेष दर्शन-सामग्री होनेसे रजताध्यास नहीं होता। सदृशभागमात्रका सम्प्रयोग होनेसे विशेष दर्शन-सामग्री न होनेके कारण अध्यास होता है। कहा जा सकता है कि ‘उस समय भी शुक्तित्वरूप विशेष दर्शनकी सामग्री तो है ही, फिर अध्यास क्यों नहीं होता?’ परंतु यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि अध्यास-समयमें भी शुक्तित्व-दर्शनाभावसे तत्सामग्रॺभाव आपको भी मानना ही पड़ेगा। यदि सादृश्य-ज्ञानरूप अध्यास कारणदोषसे प्रतिबन्धके कारण शुक्तित्व-दर्शन-सामग्रॺभाव मान्य है, तब तो घट्टकुटीप्रभातन्यायसे सादृश्य-ज्ञानको अध्यासका कारण मानना ही पड़ा।
इसपर दूसरे पक्षका कहना है कि रजताध्याससे समीप आनेपर शुक्तिमें रजतसादृश्यरूप चाकचिक्यके दृश्यमान रहनेपर ही शुक्तित्वका उपलम्भ होता है। इससे सादृश्य-ज्ञान शुक्तित्वरूप विशेष दर्शनकी सामग्रीका प्रतिबन्धक सिद्ध नहीं हुआ। अत: दूरत्वादि दोषोंसे प्रतिबद्ध होनेसे अथवा शुक्तित्व-व्यंजक नीलपृष्ठत्वादिग्राहक मानाभावसे विशेष दर्शन-सामग्रीका अभाव मानना पड़ेगा। इसी तरह दूरस्थ समुद्र-जलमें नीलशिलात्वका आरोप हो सकता है; क्योंकि वहाँपर नियत नीलरूपाध्यासके प्रयोजक दोषसे दूरत्वके कारण नीरत्व-व्यंजक तरंगादिग्राहक साधनके सन्निहित न होनेसे शुक्लरूप, जलराशित्व आदि विशेषोंके दर्शनकी सामग्रीका अभाव है। विस्तृत वस्त्रमें परिणाहादिरूप विशेष-दर्शनकी सामग्री होनेसे कमलत्वादिका अध्यास नहीं होता है। कर्त्तनादिद्वारा कमलाकारसम्पन्न पटमें विशेष दर्शन-सामग्री न होनेसे कमलत्वादि अध्यास हो जाता है।
एक शंका यह भी होती है कि ‘अध्यासमें यदि सादृश्य-ज्ञानकी अपेक्षा न हो तो करस्पृष्ट लौहखण्डमें उसके नीलरूपकी ग्राहक विशेष दर्शन-सामग्री न होनेसे रजताध्यास क्यों नहीं होता?’ परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि ऐसे स्थलोंमें रजताध्यास होता ही है। हाँ, ताम्रादिव्यावर्त्तक विशेष सामग्री न होनेसे ताम्रादि अध्यास भी होता है, कहीं अनेक अध्यास होनेसे अध्यस्तमें संशय भी होता है। ‘ताम्र है या रजत है’ इत्यादि कहीं रजतप्राय वस्तुपूर्ण कोषगृहादि लौहशकलमें रजतहीका अध्यास होता है। कहीं सादृश्य-ज्ञान रहनेपर भी करणदोष न रहनेसे शुक्तिमें रजताध्यास नहीं होता। वैसे ही कभी अध्यास न भी हो तो भी कोई दोष नहीं। अत: कार्यकल्प्य इदमाकारवृत्ति आवश्यक नहीं है। फिर ‘इदमाकारवृत्ति आवरणभंग करती है या नहीं’ इत्यादि विचार व्यर्थ है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि ‘अप्रतिबद्ध इदमर्थ-सम्प्रयोगरूप कारणसे भी इदमाकारवृत्तिकी कल्पना होगी’ क्योंकि इदमर्थ-सम्प्रयोगरूप कारणसे उत्पन्न होती हुई इदंवृत्तिका दुष्टेन्द्रिय-सम्प्रयोगसे क्षुभित अविद्याके परिणामभूत इदंवृत्तिके समकाल उत्पन्न रजत ही विषय होता है। वहीं प्रातिभासिक रजत दोषयुक्त चक्षुसे गृहीत होता है। कहा जा सकता है कि चक्षुसे रजतका सम्प्रयोग हुए बिना रजत चाक्षुष नहीं हो सकता। दुष्टेन्द्रिय-सम्प्रयोगजन्य रजत इदंवृत्तिके समकाल नहीं हो सकता; क्योंकि ज्ञान-कारण इन्द्रिय-सम्प्रयोगसे ज्ञान ही उत्पन्न हो सकता है। रजत तो अर्थ है, उसकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है? अत: इदंवृत्तिके अनन्तर तज्जन्य तदभिव्यक्त साक्षीमें ही रजतका अध्यास होता है, इसलिये साक्षीसे ही रजतका भान होता है। रजतमें चाक्षुषत्वका अनुभव इसलिये होता है कि स्वभासक चैतन्यव्यंजक इदंवृत्तिका चक्षु जनक है, अत: परम्परासे चक्षुर्जन्य होनेके कारण चाक्षुषत्वका अनुभव होता है।
इस पक्षमें अन्य लोग यह दोष देते हैं कि ‘इस तरह तो पीत शंखभ्रममें चक्षुकी अपेक्षा न होनी चाहिये; क्योंकि रूपके बिना केवल शंख चक्षुसे ग्राह्य हो नहीं सकता। पीतिमा ग्रहणके लिये भी चक्षु अनावश्यक है; क्योंकि साक्षिभास्यत्वपक्षमें आरोप्य ऐन्द्रियक मान्य नहीं होता।’ यह भी नहीं कहा जा सकता कि ‘पीतिमाका स्वरूपाध्यास नहीं होता, अपितु नयनगत पित्तकी पीतिमा ही अनुभूयमान होती है। उसका केवल शंख-संसर्ग ही अध्यस्त होता है, इसलिये उसी पीतिमाके अनुभवार्थ चक्षुकी अपेक्षा होती है।’ कारण इस स्थितिमें तो शंख और पीतिमाका संसर्ग प्रत्यक्ष नहीं होना चाहिये; क्योंकि नयनप्रदेशगत पित्तकी पीतिमाकारवृत्तिसे अभिव्यक्त चैतन्यके साथ शंख और पीतिमाके संसर्गका सम्बन्ध ही नहीं है, अत: वे साक्षिभास्य नहीं हो सकते। पीतिमासे संसृष्ट शंखगोचर एकवृत्ति स्वीकृत नहीं है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि ‘नयनप्रदेशस्थित पित्तकी पीतिमाके दोषसे शंखमें संसर्गाध्यास नहीं होता, किंतु नयनरश्मियोंसे निर्गत विषयव्यापी पित्त द्रव्यकी पीतिमाका ही संसर्गाध्यास होता है। जैसे रक्त रंगसे व्याप्त घटमें अनुभूयमान रक्तरूपके संसर्गका भान होता है। अत: पित्त पीतिमाकारवृत्तिसे शंखदेशमें चैतन्यकी अभिव्यक्ति होनेसे शंखपित्तपीतिमाका अपरोक्ष अनुभव हो सकता है, परंतु उक्त कथन इसलिये ठीक नहीं है कि फिर तो जैसे सुवर्णलिप्त घटादिमें अन्य लोगोंको भी पीतिमाका अनुभव होता है, वैसे ही शंखमें लिप्त पित्तकी पीतिमाका अनुभव अन्य लोगोंको भी होना चाहिये।’
कुछ लोग कहते हैं कि ‘समीपमें गृहीत होकर ही पीतिमा दूरगृहीत होती है। जैसे दूर आकाशमें उड़ते हुए पक्षीका तभी दर्शन होता है, जब उसका समीपमें दर्शन हुआ हो, परंतु अन्य नयनगत पित्तद्रव्यकी पीतिमा अन्यको समीपसे गृहीत नहीं होती, अत: उसे शंखव्यापी पित्तकी पीतिमा भी गृहीत नहीं होती।’ परंतु यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि पित्तरोगवाले मनुष्यके चक्षुके समीप चक्षु रखनेसे पीतिमा-सामीप्य तो है ही; फिर उसका ग्रहण अन्य लोगोंको होना ही चाहिये। इसी तरह अतिधवल बालुकामय तलमें बहनेवाली स्वच्छ नदीके जलमें नीलत्वके अध्यासमें तथा गगनमें नीलत्वके अध्यासमें एवं चाँदनीमें स्थित रक्त वस्त्रके नैल्याध्यासमें अनुभूयमान आरोपका निरूपण नहीं हो सकता। यदि यहाँ नैल्यसंसृष्ट तादृग् जल या गगनादि-अधिष्ठान-गोचर चाक्षुषवृत्ति स्वीकार नहीं की जायगी, तब तो चक्षुका अनुपयोग दुष्परिहार्य ही होगा।
‘पंचपादिका’ कारकी दृष्टिमें जिस बालकने इस जन्ममें तिक्तरसका अनुभव नहीं किया है, उसे मधुर दुग्धमें तिक्तताकी प्रतीति जन्मान्तरीय अनुभवजन्य संस्कारसे होनी मान्य है। इससे स्वरूपत: अध्यस्त तिक्तरसका रसनासे ही अनुभव मानना स्पष्ट है, अन्यथा रसना-व्यापारके बिना भी तिक्तताकी प्रतीति होनी चाहिये। अत: पूर्वोक्त नीलता-अध्यासस्थलोंमें भी अधिष्ठानसम्प्रयोगसे तद्विषयक चाक्षुषवृत्तिका उदय होता है और उसी समय नीलताका अध्यास होता है। वही अध्यस्त नीलता उस वृत्तिका विषय होती है, अत: वह भी चाक्षुष ही है; क्योंकि रूपके बिना गगनादि अधिष्ठानोंमें चाक्षुषवृत्ति हो नहीं सकती। अत: अधिष्ठानावच्छिन्न चैतन्यकी अभिव्यक्ति न होनेसे अध्यस्तनीलता अधिष्ठानचैतन्यसे भास्य नहीं हो सकती। तिक्त-रसस्थलोंमें तो अध्यस्त एवं अधिष्ठान दोनों ही एक रसनेन्द्रियग्राह्य नहीं हैं।’ त्वक् इन्द्रियसे मधुर दुग्धरूप अधिष्ठानगोचरवृत्ति उत्पन्न होती है। उस वृत्तिसे अधिष्ठान-चैतन्यकी अभिव्यक्ति होनेसे पित्तोपहत रसनाका सम्प्रयोग होता है, उसी चैतन्यमें तिक्तरसका अध्यास होता है। उसी समय अध्यस्त रसविषयक रासनवृत्ति उत्पन्न होती है। त्वगिन्द्रियजन्य अधिष्ठानगोचरवृत्तिमें अभिव्यक्त चैतन्यसे भास्य तिक्तरसमें यदि परम्परासे भी रसनाका उपयोग न होगा तो रासनत्वानुभवका समर्थन किसी भी तरह नहीं होगा। इसी तरह रजतके भी चाक्षुषत्वकी उत्पत्ति हो सकती है। अतएव ‘चक्षुषा रजतं पश्यामि’ (नेत्रसे रजत देखता हूँ) यह अनुभव होता है।
कहा जा सकता है कि ‘चक्षुसे रजतका सन्निकर्ष हुए बिना ही यदि रजतमें चाक्षुषत्व हो, तब तो प्रत्यक्ष रजतमें विषयेन्द्रिय-सन्निकर्ष कारण है, द्रव्य-प्रत्यक्षमें द्रव्येन्द्रिय-संयोग कारण है। रजत-प्रत्यक्षमें रजतेन्द्रिय-संयोग कारण है, इत्यादि कार्य-कारणभाव भंग होगा,’ परंतु यह कोई दोष न होगा। सन्निकर्ष, संयोगादि कोई एक कारण अनुगत नहीं है, अत: प्रथम नियम नहीं बनता। नैयायिकोंके मतमें संयोगायोग्य तमरूप अद्रव्यमें भी द्रव्यत्वका अध्यास होता है और संयोगायोग्य गुणादिमें भी द्रव्यत्वका अध्यास होता है, अत: द्वितीय नियमका अभिप्राय यह है कि व्यावहारिक द्रव्यत्वाधिकरणके प्रत्यक्षमें इन्द्रियसंयोग कारण है, अत: प्रातिभासिक रजतमें तो अधिष्ठानगत इदंत्वके समान ही अधिष्ठानगत द्रव्यत्वका भी आरोप ही होता है। इसलिये प्रातिभासिक द्रव्यत्वाधिकरण रजतके इन्द्रियसंयोगके बिना भी प्रत्यक्ष होनेमें कोई हानि नहीं है। अतएव तृतीय नियमका भी कोई अस्तित्व नहीं रह जाता। जहाँ बीज-सामान्यका अंकुर सामान्यके साथ कार्य-कारणभाव माननेपर बीजान्तरसे अंकुरान्तरकी उत्पत्तिका प्रसंग होता है, वही विशिष्ट कार्य-कारणभाव मानना आवश्यक होता है। प्रकृतमें वह सर्वथा व्यर्थ है।
कहा जा सकता है कि ‘द्रव्यप्रत्यक्षमें द्रव्य-संयोग कारण है, यह सामान्य नियममात्र माननेसे अन्य द्रव्यसंयोगसे अन्य द्रव्य-प्रत्यक्ष होने लगेगा।’ परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि तत्तद्द्रव्यके प्रत्यक्षमें तत्तद्द्रव्यसंयोग कारण है, ऐसा माननेपर कोई अतिप्रसंग नहीं होता। अन्यथा अन्य रजतसंयोगसे अन्य रजतका प्रत्यक्ष होनेका अतिप्रसंग भी अनिवार्य ही होगा। इसके अतिरिक्त ‘इदं रजतं पश्यामि, नीलं जलं पश्यामि, नीलं गगनं पश्यामि’ इत्यादि अनन्यथासिद्ध अनुभवोंमें ‘प्रत्यक्षमात्रमें विषय-सन्निकर्ष कारण है’ इत्यादि नियमोंका व्यावहारिक विषयमें ही संकोच करना चाहिये। कहा जा सकता है कि ‘इस तरह तो यही कहना ठीक है कि प्रमामें सन्निकर्ष कारण है, भ्रममें नहीं, यह भी संकोच कल्पना हो सकती है। फिर तो असन्निकृष्ट देशान्तरस्थ रजतादिका भी भ्रम हो सकता है। इस तरह अन्यथाख्यातिका प्रसंग होगा।’ परंतु यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि अभिव्यक्त चैतन्यका सम्बन्ध हुए बिना देशान्तरस्थ रजतकी अपरोक्षता नहीं बन सकती। रजतप्रतीति और बाध, दोनों ही बातोंमें भ्रमविषयक अनिर्वचनीय रजतको स्वीकार किये बिना काम नहीं चल सकता।
कहा जा सकता है कि ‘अधिष्ठान-सम्प्रयोगमात्रसे यदि प्रातिभासिक रजतको ऐन्द्रियक माना जायगा, तब तो शुक्ति-रजताध्यास-समयमें ही वही कालान्तरमें अध्यसनीय रंग (राँगा)-का भी चाक्षुषत्व होना चाहिये, परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि रजताध्यास-समयमें रंग-रजतसाधारण चाकचिक्य दिखलायी पड़नेपर भी जिस राँगादिरूप दोषके अभावसे वहाँ रंगाध्यास नहीं होता, उसीके कारण रंगादिविषयक वृत्ति भी उत्पन्न नहीं होती। रजतमें राँगादि होता है, इसीलिये रजताध्यास एवं रजताकारवृत्ति उत्पन्न होती है। अत: इदमंशयुक्त रजताकार एक ही वृत्ति इन्द्रियजन्य उत्पन्न होती है। उसके पहले इदमाकारवृत्ति नहीं होती, परंतु अन्य लोगोंका मत है कि ‘इदमाकारवृत्ति’ एक ही होती है। वही अध्यासके प्रति कारण है। अध्यस्त रजतादिका उस वृत्तिसे अभिव्यक्त साक्षिचैतन्यसे भान होता है। अत: रजताकारवृत्ति निरर्थक है।’ अन्य लोगोंके मतानुसार ‘इदमाकार सामान्य-ज्ञानरूपिणी एक ही वृत्ति होती है। इदं एवं रजतके तादात्म्यगोचरवृत्ति दूसरी होती है। अत: दो ज्ञान ही मान्य होना ठीक है।’ अन्य लोगोंका मत है कि ‘जैसे इदमंशावच्छिन्न चैतन्यस्थ अविद्या रजतज्ञानाभासरूपसे परिणत होती है, इदंवृत्तिके तुल्य रजतज्ञान अनध्यस्त नहीं है, जैसे रजतमें अधिष्ठानगत इदंताके संसर्गका भान होता है, वैसे ही रजतज्ञानमें अधिष्ठानगत इदंत्व-विषयत्व संसर्गका भान हो सकता है। अत: ‘इदं रजतम्’ यह द्वितीय ज्ञान इदंविषयक नहीं कहा जा सकता।’
कहा जा सकता है कि ‘साक्षिचैतन्यसे ही सब पदार्थोंका भान हो सकता है, वृत्तिकी क्या आवश्यकता है? यदि घटादिविषयक संस्कारके लिये वृत्ति आवश्यक भी हो, तो भी उसका निर्गम अनावश्यक है। परोक्षस्थलके समान ही अनिर्गत वृत्त्यवच्छिन्न चैतन्यसे ही घटादिका प्रकाश हो ही सकता है। फिर भी परोक्ष-अपरोक्षकी विलक्षणता वैसे ही उत्पन्न हो सकेगी, जैसे परोक्षमें भी शाब्द एवं अनुमितिमें करणविशेषप्रयुक्त-वृत्तिसे विलक्षणता सम्पन्न हो जाती है।’ अन्य लोगोंके अनुसार ‘प्रत्यक्ष-स्थलमें विषयावच्छिन्न चैतन्य ही विषयप्रकाश होता है, अत: विषय-चैतन्यकी अभिव्यक्तिके लिये वृत्ति-निर्गम आवश्यक है। परोक्ष-स्थलमें व्यवहित वन्ध्यादिके साथ वृत्ति-संसर्ग नहीं होता, वहाँ इन्द्रियोंके समान वृत्ति-निर्गमका द्वार उपलब्ध नहीं होता, अत: अगत्या अनिर्गत वृत्त्यवच्छिन्न चैतन्य ही स्वरूपसम्बन्धसे विषय-प्रकाश माना जाता है।’ अन्य लोगोंके मतानुसार जैसे साक्षात् चैतन्यसंसर्गी अहंकार तथा सुख-दु:खादिका चैतन्यसे प्रकाश होता है, वैसे ही विषयसंसृष्ट चैतन्य ही अपरोक्षताका हेतु है। अत: विषयचैतन्यकी अभिव्यक्तिके लिये वृत्ति-चैतन्य आवश्यक है।
अन्य लोगोंका कहना है कि ‘शब्दानुमानावगत विषयोंकी अपेक्षा प्रत्यक्षावगत विषयकी स्पष्टता अनुभूत होती है। रसालके सौगन्ध्य-माधुर्यादिकी हजारों शब्दानुमानोंसे भी उतनी स्पष्टता नहीं होती, जितनी रासन, घ्राणजादि प्रत्यक्ष-ज्ञानसे होती है; क्योंकि प्रत्यक्षके बिना रसालका माधुर्य-सौगन्ध्य कैसा है, यह जिज्ञासा बनी ही रहती है। अत: प्रत्यक्ष ग्राह्य पदार्थ अभिव्यक्त अपरोक्ष-चैतन्यसे अवगुण्ठित होता है, इसलिये उसकी स्पष्टताविषयक जिज्ञासा प्रशान्त हो जाती है। शब्दसे रसालकी मधुरता आदिका ज्ञान होनेपर भी तद्गत माधुर्यादि वृत्ति अवान्तर जातिका बोध नहीं होता। इसीलिये साक्षिवेद्य सुखादि भी स्पष्ट हैं। शब्दवृत्तिवेद्य ब्रह्म भी मननादिके पहले अस्पष्ट होता है। मननादिसे जब पूर्ण अज्ञान मिटता है, तब स्पष्टता होती है।’ इसपर भी कुछ लोग कहते हैं कि ‘विषयावच्छिन्न चैतन्यगत आवरक अज्ञान अनिर्गतवृत्तिसे नष्ट हो सकेगा और कहीं अतिप्रसंग भी नहीं होगा।’ कहा जा सकता है कि ‘समानविषयक होनेसे देवदत्तके घटज्ञानसे यज्ञदत्तके घटाज्ञानकी निवृत्ति होनी चाहिये। अहमर्थ एवं विषयचैतन्यमें रहनेवाले ज्ञान-अज्ञानका भिन्नाश्रय होनेपर भी विरोध होगा ही; क्योंकि समानाश्रयता विरोधका प्रयोजक नहीं।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि समानाश्रयविषयत्वको ज्ञानाज्ञानके विरोधका प्रयोजक मानकर वृत्ति-निर्गम माननेपर भी देवदत्तीय घटज्ञान एवं यज्ञदत्तीय घटाज्ञान दोनों ही एक घटावच्छिन्न चैतन्यको आश्रय करते हैं, अत: अतिप्रसंग होगा ही। इसलिये कहना पड़ेगा कि ‘विशिष्ट विरोधप्रयोजक जो अज्ञान जिस पुरुषके प्रति जिस विषयका आवरण करता है, वही अज्ञान तद्विषयक ज्ञानसे निवृत्त होता है। फिर समानाश्रयता अपेक्षित नहीं है। दूसरे लोग उपर्युक्त पक्षको असंगत कहते हैं। उनके अनुसार ‘वृत्ति-निर्गम अंगीकार किये बिना ज्ञान एवं अज्ञानके विरोधका कोई भी प्रयोजक निश्चित नहीं हो सकेगा।’ कोई लोग विषयगत अज्ञानकी निवृत्तिके लिये वृत्तिका निर्गम आवश्यक समझते हैं। कुछ लोग चिदुपरागार्थ अर्थात् चैतन्यके साथ सम्बन्धके लिये वृत्ति-निर्गम आवश्यक समझते हैं और कई लोग अभेदकी अभिव्यक्तिके लिये वृत्ति-निर्गम आवश्यक समझते हैं।’
‘तत्त्वशुद्धि’ कारका कहना है कि ‘प्रत्यक्ष-प्रमाण न तो घटपटादिको ग्रहण ही करता है और न उनका सत्त्व ही ग्रहण करता है। किंतु वह (प्रत्यक्ष-प्रमाण) अधिष्ठानरूपसे घटादि-अनुगत सन्मात्रको ही ग्रहण करता है। ‘सत् ही प्रत्यक्ष-प्रमाणका विषय है, घटादिका प्रत्यक्ष नहीं होता। जैसे भ्रममें अधिष्ठानका इदमंश ही प्रत्यक्षसे ग्रहण होता है, इन्द्रियोंका अन्वय-व्यतिरेक इदमंशके प्रत्यक्षमें ही उपक्षीण हो जाता है, आरोपित रजतांशका प्रतिभास भ्रान्तिसे होता है, वैसे सन्मात्रका प्रत्यक्षसे ग्रहण होता है। उसीमें इन्द्रियका व्यापार सार्थक है। घटादि-भेद प्रतिभास, भ्रान्तिसे ही होता है।’ कहा जा सकता है कि ‘रजतादिकी तरह घटादिका बाध नहीं होता, अत: घटादि-प्रतिभासको भ्रान्ति मानना निर्मूल है।’ परंतु यह ठीक नहीं। बाधदृष्टि न होनेपर भी देशकालव्यवहित वस्तुके समान घटादिभेद वस्तु प्रत्यक्षके अयोग्य है, अत: उनका प्रतिभास भ्रान्ति है। इन्द्रिय-व्यापारके अनन्तर प्रतीयमान घट स्वभिन्न समस्त पदार्थोंसे भिन्न ही प्रतीत होता है। घटादि सर्वभिन्नरूपसे असंदिग्ध, अविपर्यस्तरूपसे प्रतीत होते हैं। भेद-ग्रह प्रतियोगिग्रह-सापेक्ष होता है, परंतु देश, काल-व्यवधानसे असन्निकृष्ट प्रतियोगियोंका प्रत्यक्षसे ग्रहण नहीं हो सकता। जो लोग कहते हैं कि ‘भेदज्ञान प्रतियोगि-अंशमें संस्कारकी वैसे ही अपेक्षा करता है, जैसे प्रत्यभिज्ञान तत्तांशमें संस्कारकी अपेक्षा करता है।’ परंतु यहाँ तो प्रतियोगि-अंशमें स्मृति भी सम्भव नहीं है। कहा जाता है कि ‘वस्तुभेद होनेसे कनकाचल भेदका प्रतियोगी है—इस तरहके अनुमानसे प्रतियोगि-सम्बन्धगोचर संस्कार सम्भव है।’ परंतु यह भी ठीक नहीं है। भेदज्ञानके बिना अनुमिति भी नहीं होगी। अनुमिति तभी हो सकती है, जब पक्ष, साध्य, हेतुका भेद ज्ञात हो। पक्षादि-भेदज्ञान तभी हो सकता है, जब अनुमिति हो, इस तरह आत्माश्रय दोष होता है। अत: भेदगत प्रतियोगि-सम्बन्धका भान नहीं हो सकता। पक्षादिके अभेद-भ्रम निराकरणके लिये भेदज्ञान आवश्यक है। सम्बन्धिद्वयका प्रत्यक्ष हुए बिना सम्बन्धका प्रत्यक्ष नहीं होता। प्रतियोगीका प्रत्यक्ष हुए बिना प्रतियोगि-विशिष्ट भेदका प्रत्यक्ष नहीं होता। प्रत्यक्षायोग्य प्रतियोगीका प्रतिभान भ्रान्तिरूप ही है। फिर उसी ज्ञानमें भासित भेद एवं भेदविशिष्ट घटादि भी उसी भ्रममें भासित होते हैं, अत: निर्विशेष सन्मात्र ही भासित होते हैं।’
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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