11.10 अनुभव और आत्मा
‘वार्तिकसार’ में संवित्के सम्बन्धमें महत्त्वपूर्ण बातें कही गयी हैं। संवित्का भेद स्वत: नहीं कहा जा सकता। घटसंवित्, पटसंवित् इस रूपसे वेद्यपूर्वक ही संवित्का भेद भासित होता है, अत: संवित्का यह भेद स्वाभाविक नहीं; किंतु घटादि उपाधिके कारण ही प्रतीत होता है। वह सुतरां भ्रम है। इसी प्रकार सम्यक् ज्ञान, संशय एवं मिथ्याज्ञान इत्यादि भेद भी संवित् के स्वाभाविक नहीं हैं; क्योंकि ये भेद बुद्धिगत हैं। चिद्रूप संवित् तो सम्यक्, संशय, मिथ्या आदि सभी ज्ञानोंमें समान है; क्योंकि बाध न होनेसे रज्जु-सर्पका भी स्फुरण मिथ्या नहीं। यदि स्फूर्तिका बाध हो, तब तो रज्जुतत्त्वका भी स्फुरण कैसे हो सकेगा? यदि कहा जाय कि रज्जुस्फूर्ति सर्पस्फूर्तिसे पृथक् है; तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि ऐसी स्थितिमें दो स्फूर्तियोंमें स्फूर्ति शब्दका प्रयोग कैसे होगा? कहा जा सकता है कि स्फूर्तित्व-जातिके अनुगमसे ही दोनोंमें स्फूर्ति शब्दका प्रयोग हो सकेगा, परंतु वेदान्तमतानुसार व्यक्ति-जातिके स्थानमें व्यावृत्त एवं अनुवृत्त शब्दका प्रयोग होता है। तदनुसार यहाँ चित् अनुवृत्त है, बुद्धि व्यावृत्त है। तथा च सर्पबुद्धि, रज्जुबुद्धियोंकी परस्पर व्यावृत्ति होनेपर भी चित् या स्फूर्ति उभयत्र अनुगत है। उसीको कोई जाति कह लेते हैं। गोत्वादिमें भी यही न्याय लागू हो सकता है। सर्वत्र अनुगत ब्रह्म ही गोत्वादि जाति है। व्यावृत्त व्यक्ति मायिक है। इस तरह सम्यक्, संशय, मिथ्या आदि विभिन्न आकारवाली बुद्धि है। इसी तरह प्रमाता-प्रमाणादिका भी भेद है। जैसे घटादिका भेद है, वैसे ही सम्यक्त्वादि और प्रमात्रादिमें भी भेद है, परंतु यह भेद कल्पित है। इन्हीं कल्पित भेदोंसे संवित्का भेद भी कल्पित होता है। वस्तुत: प्रत्यक्स्वरूप संवित् स्वत:सिद्ध है और एक है। उसीके आधारपर भावाभाव सब व्यवहार चलता है।
बोध, अनुभव, संवित् आदि शब्दोंसे वही परब्रह्म आत्मा कहा जाता है। अनुभवरूप संवित्से ही अहंप्रत्ययकी भी सिद्धि होती है। जो लोग अहंप्रत्ययसे आत्मसिद्धि मानते हैं, उनके यहाँ भी अहंप्रत्ययसिद्धिके लिये अनुभवरूप आत्माकी अपेक्षा रहेगी ही, इस तरह अन्योन्याश्रय दोष होगा। जो अहंधीको स्वप्रकाश एवं आत्माको जड कहते हैं, उनका केवल भाषाका ही भेद है। स्वप्रकाशसे ही जडकी सिद्धि होती है। इस सम्बन्धमें उनका तथा वेदान्तीका ऐकमत्य ही है। श्रुतिके अनुसार ब्रह्म जड नहीं है; क्योंकि ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ यह श्रुति ब्रह्मको ज्ञानरूप कहती है।
यह भी विचारणीय है कि यदि संवित् प्रमेय है, तब तो प्रमेयविषयक प्रमा फलरूप संवित् अन्य होनी चाहिये, परंतु दो संवित्का उपलम्भ नहीं होता। यदि कहा जाय कि यद्यपि अन्य संवित्का उपलम्भ नहीं होता, तथापि व्यवहारलिंगसे उसका अनुमान किया जायगा, तो यह ठीक नहीं; क्योंकि फलरूप संवित् तो स्वप्रकाश होती है, फिर उसके अनुमानकी बात कैसे चल सकती है? कहा जाता है कि जैसे ‘अयं घट:’ इस व्यवसायज्ञानका प्रकाशक ‘घटज्ञानवानहं’ यह अनुव्यवसायज्ञान होता है, वैसे ही आत्मामें भी संवित् एवं तद्विषयक संवित् इस तरह दो संवित् मान्य हैं, परंतु यह कहना असंगत है; क्योंकि यह प्रतीतिसे पराहत है अर्थात् दो संवित्की प्रतीति नहीं होती। जैसे घटादिविषयक संवित् होती है, वैसे संविद्विषयक संवित्की नहीं होती।
कुछ लोग कहते हैं कि ‘आत्मा द्रव्य एक बोधस्वरूप है, अत: आत्मा द्रव्यरूपसे प्रमेय है और बोधरूपसे प्रमाता। इस तरह एकहीमें ग्राह्यता-ग्राहकता दोनों ही बन सकती है,’ परंतु इस मतमें भी आत्मा अहंधीगम्य नहीं हो सकता। यदि द्रव्यांश अहंबुद्धि है, तो अन्योन्याश्रय दोष होगा; क्योंकि जैसे भासमान ही दीप घटादिका प्रकाशक होता है, वैसे ही भासमान ही बुद्धि किसीका साधक हो सकती है। अत: उसके प्रकाशके लिये बोध आवश्यक होगा। तदर्थ आत्माके ज्ञाततारूप लिंगसे अहंबुद्धिका अनुमान करना पड़ेगा। लिंगज्ञानमें ज्ञातताविशिष्ट आत्माका भी ज्ञान हो जायगा। तथा च आत्माके ज्ञानमें अहंबुद्धि होगी एवं अहंबुद्धिसे आत्माका ज्ञान होगा। यदि अहंबुद्धि बोधांश ही है, तो अन्त:करणरूप उपाधिसे बोध ही अहंबुद्धि भी है और उसीसे सर्वव्यवहार उपपन्न हो सकता है, फिर द्रव्यांशका अंगीकार करना व्यर्थ है। फिर भी कहा जाता है कि ‘यदि बोध स्वप्रकाश ही है, तो वेदान्तोंका क्या प्रयोजन रहेगा?’ परंतु इसका समाधान यही है कि उसी बोधका अनुवाद करके उसे ब्रह्मरूप समझाना ही वेदान्तोंका प्रयोजन है। उस अखण्ड स्वप्रकाश बोधसे प्रत्यक्षानुमानागमादि प्रमाण एवं जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, समाधि, मूर्च्छा-अवस्था स्वत: सत्तास्फूर्तिरहित होनेपर भी प्रकाशित होते हैं। इसी तरह निखिल प्रपंच जिस बोधके प्रसादसे सत्ता-स्फूर्तिवाला होकर भासमान होता है, जो स्वयं स्वमहिमस्थ एवं स्वप्रकाशबोध है, वही ब्रह्मात्मा है। जो स्वयं अन्यार्थ नहीं है और सब कुछ जिसके लिये है, वही निरतिशय पर-प्रेमका आस्पद आत्मा एवं आनन्दस्वरूप बोध ही सब कुछ है; अर्थात् सब कुछ उसीमें अध्यस्त है। भावाभावात्मक सभी पदार्थ जिसका आश्रय करते हैं, प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय आदि परस्पर विलक्षण अविद्याकार्यस्वरूप जगत् जिसमें प्रतिभासित होता है, वही सर्वविकारशून्य, सर्वसाक्षी अखण्ड बोध ब्रह्म है।
कहा जा सकता है ‘निद्रामें किसी नित्य अनुभवका पता नहीं लगता, फिर उसे अवस्थात्रय-साक्षी कैसे कहा जा सकता है?’ परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि निद्राकालमें भी सुख, निद्रा, विशेषज्ञानाभाव, सुखादिके भासक असंकुचित बोधका अस्तित्व है ही; अतएव श्रुति कहती है ‘न हि द्रष्टुर्दृष्टेर्विपरिलोपो विद्यते’ (बृह० ४।३।२३)। अर्थात् द्रष्टाकी स्वरूपभूता नित्य-दृष्टि कभी भी लुप्त नहीं होती। फिर भी जागरस्वप्नमें प्रकाश्य स्फुट होनेसे प्रकाशकत्व स्फुट है, सुप्तिमें स्थूल दृश्य न होनेसे औपाधिक साक्षिता स्फुट नहीं होती। वस्तुत: साक्ष्यके सम्बन्धसे ही आत्मामें साक्षिताका भी व्यवहार होता है। प्रत्यग्बोधस्वरूप आत्मा तो मन, बुद्धि एवं वाक्का भासक होनेसे उनका भी अगोचर ही है। उसीमें कर्तृत्वादि अविद्याकल्पित है। अविद्या भी बोधसे ही प्रकाशित होती है। अविद्या अनादि होनेपर भी ब्रह्माकारवृत्तिसे बाधित हो जाती है। जैसे सौरालोकप्रकाशित तूलराशि सूर्यकान्तपर अग्निरूपसे व्यक्त उसी सौरालोकसे दग्ध हो जाती है, वैसे ही अविद्याभासक भान ही ब्रह्माकार-वृत्तिपर प्रकट होकर अविद्याका दाहक हो जाता है। भले वह बोध देह, बुद्धि, मस्तिष्क आदिमें ही प्रतीत हो, फिर भी वह स्वतन्त्र है, देहादिका धर्म नहीं है। भले गृह, क्षेत्र आदिमें दिव्य रत्नादि मिलें, फिर भी वे गृह-क्षेत्रादिके धर्म नहीं हैं। भले ही काष्ठादिमें अग्नि उपलब्ध हो फिर भी अग्नि स्वतन्त्र है, काष्ठादिका धर्म नहीं है, वैसे ही बोध स्वतन्त्र, नित्य एवं ब्रह्मात्मस्वरूप है, वह देहादिका धर्म नहीं है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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