11.11 अनुभव-विमर्श ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.11 अनुभव-विमर्श

अनुभव यदि दूसरे अनुभवसे अनुभाव्य होगा तो अनवस्थादोष होगा; क्योंकि वह जिस अनुभवसे अनुभाव्य होगा, उसे भी किसी अन्य अनुभवसे अनुभाव्य होना पड़ेगा। यदि प्रथमानुभवसे द्वितीयका एवं द्वितीयसे प्रथमका अनुभव माना जाय तो अन्योन्याश्रयदोष होगा। प्रथमका द्वितीयसे, द्वितीयका तृतीयसे अनुभव मानें तो अनवस्था और यदि प्रथमानुभवका अपनेसे ही अनुभव माना जाय तो आत्माश्रय-दोष होगा एवं वही कर्म और वही कर्त्ता होनेसे कर्म-कर्त्तृविरोध भी होगा। अतएव अनुभवत्व एवं अनुभाव्यत्व दोनोंका सामानाधिकरण्य नहीं हो सकता। लोग कहते हैं कि ‘यदि अननुभाव्यत्वके कारण अनुभवका अनुभवत्व सिद्ध किया जायगा, तब तो खपुष्प भी अननुभाव्य है, अत: उसमें भी अनुभवत्व ठहरेगा।’ परंतु ऐसा कहना ठीक नहीं। जैसे गोमें गोत्व, घटमें घटत्व होता है, वैसे ही अनुभवमें अनुभवत्व सिद्ध ही है। फिर उसे अननुभाव्यत्वरूप साधनसे सिद्ध क्या करना है? फिर भी यदि अननुभाव्यत्वरूपसे अनुभवत्व सिद्ध भी करना पड़े तो ‘सत्त्वे सत्यननुभाव्यत्व’ अर्थात् सत्त्वविशिष्ट अननुभाव्यत्व भी अनुभवत्वका साधक हेतु माना जाता है। तथा च खपुष्पमें भले ही अननुभाव्यत्व रहे, परंतु विशेषणभूत सत्त्व न होनेसे उसमें अनुभवत्व नहीं जायगा। अज्ञात घटमें भी अनुभवयोग्यता है ही। अनुभवितुं योग्य ही अनुभाव्य होता है, अत: उसमें भी अतिव्याप्ति न होगी।
कुछ लोग कहते हैं कि ‘जो वर्तमान दशामें स्वाश्रयके प्रति स्वसत्तासे ही स्वविषयका साधन है, वही अनुभूति है।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि विषय साधनत्व विषय-प्रकाशकत्व ही है। उसका भी अर्थ होगा विषय-प्रकाशजनकत्व। विषय-प्रकाश विषयानुभवरूप ही होगा। तथा च निष्कर्ष यह निकलेगा कि अनुभव अनुभवका जनक है। यदि इन दोनों अनुभवोंकी एकता मान्य है, तब तो आत्माश्रय-दोष होगा। जैसे स्वयं देवदत्त अपनेसे उत्पन्न नहीं हो सकता, वैसे अनुभव भी अपनेसे ही उत्पन्न नहीं हो सकता। यदि दोनोंको भेद माना जाय तो द्वितीय अनुभवको प्रथमानुभवसे जन्य कहना पड़ेगा, परंतु प्रथमानुभव किससे उत्पन्न होगा? यदि उसे विषयेन्द्रिय सन्निकर्षसे जन्य मानें, तब तो द्वितीय अनुभवको भी उस सन्निकर्षसे जन्य मानना चाहिये। फिर उसे प्रथमानुभवसे जन्य क्यों माना जाय? अत: ‘अनुभव स्वविषय अनुभवका जनक है’ यह कल्पना व्यर्थ ही है। ‘अनुभव स्वाश्रयके प्रति स्वविषयका प्रकाशक है’ इस तरह ‘स्वाश्रयके प्रति’ यह अंश भी व्यर्थ ही है; क्योंकि अनुभव किसीके आश्रित नहीं रहता। जो कहते हैं कि ‘अनुभव आत्माके आश्रित रहता है’, वह भी ठीक नहीं है; क्योंकि अनुभव स्वयं ही तो आत्मा है।
कुछ लोग कहते हैं कि ‘अनुभविता ही आत्मा है, अनुभव नहीं’, पर यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि अनुभव ही अनुभविता भी है। जैसे प्रकाशस्वरूप सविता ही प्रकाशक भी कहा जा सकता है, वैसे ही अनुभवस्वरूप आत्मा ही अनुभविता भी कहा जा सकता है। कहा जाता है कि ‘संकोचविकासशाली धर्मभूत नित्यद्रव्य आत्मस्वरूपसे भिन्न ही ज्ञान है,’ परंतु संकोचविकास सावयव पदार्थका ही धर्म होता है। जो विकारी है, वह नित्यद्रव्य नहीं हो सकता। फिर इस पक्षमें यदि धर्मभूत ज्ञानद्रव्य स्वसत्तासे ही स्वविषयका प्रकाशक होता है, तो इसी तरह ज्ञानस्वरूप आत्मा भी स्वसत्तासे विषयप्रकाशक हो ही सकता है। वस्तुतस्तु शुद्ध बोध ब्रह्मस्वरूप ही है, अतएव वह निर्धर्मक ही है। अतएव उसमें अनुभवत्व, बोधत्वादि धर्मकी कल्पना व्यर्थ है। ‘अनुभवका लक्षण क्या है?’ इस प्रश्नका उत्तर यही है कि अनुभवका स्वरूप लक्षण अनुभव ही है। यदि अनुभवका भी अन्य स्वरूप हो, तब तो उस स्वरूपका भी कोई अन्य स्वरूप होगा एवं उस स्वरूपका भी अन्य स्वरूप होगा, फिर अनवस्थाप्रसंग अनिवार्य होगा। तटस्थ लक्षण अनुभवका वही है, जो ब्रह्मका है—‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति तद‍्ब्रह्म’ (तैत्ति० उप० ३।१) अर्थात् जिससे समस्त भूत उत्पन्न होते हैं, जिसमें जीवित रहते हैं और जिसमें विलीन होते हैं, वही ब्रह्म है।
कहा जाता है कि ‘अनुभव यदि परप्रकाश्य होगा, तो अनवस्थादि दोष होंगे, अत: उसे स्वयंप्रकाश कहना पड़ेगा। इस तरह स्वयंप्रकाशत्व धर्म उसमें रह सकता है, फिर उसे निर्धर्मक कैसे कहा जा सकता है?’ पर यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि यद्यपि ब्रह्ममें व्यावहारिक सधर्मकत्व है तथा पारमार्थिक धर्म उसमें कोई नहीं है; क्योंकि वह सजातीय-विजातीय-स्वगत सर्वविध भेदशून्य है। कहा जाता है कि ‘अनन्यावभास्यत्वविशिष्ट स्वेतरसर्वावभासकत्व ही स्वयंप्रकाशत्व है। अनुभवके सर्वावभासक होनेका अर्थ है सर्वावभास या सर्वानुभवजनक होना,’ परंतु यह कहना भी ठीक नहीं है। वस्तुत: निर्विकल्पक ज्ञान चैतन्य शब्दसे कहा जाता है और सविकल्पक ज्ञान वृत्तिशब्दवाच्य है। इस दृष्टिसे सविकल्पक ज्ञानकी उत्पत्ति निर्विकल्पक ज्ञानसे हो सकती है। यहाँ भी प्रश्न होता है कि ‘वृत्तिज्ञान क्या है? वृत्ति चैतन्य या अन्य कुछ?’ पहला पक्ष इसलिये ठीक नहीं कि वृत्ति स्वयं जड है, वह विषयावभासक नहीं हो सकती। ज्ञान भासक होता है। भान ही ज्ञान है। जडवृत्ति तो स्वकालमें भी भानरूप नहीं बन सकती। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं; क्योंकि चैतन्यको तो वृत्तिज्ञानका जनक ऊपर कहा गया है। फिर वही जन्य कैसे होगा? तीसरा पक्ष भी संगत नहीं है। वृत्ति एवं चैतन्यसे भिन्न ज्ञानरूप कोई वस्तु प्रसिद्ध नहीं है। उपर्युक्त प्रश्नका समाधान यह है कि वृत्तिप्रतिफलित चैतन्य ही वृत्तिज्ञान है। वही चैतन्य विषयचैतन्यसे अभिन्न होकर प्रत्यक्ष होता है। इसीलिये केवल चैतन्य एवं केवल वृत्तिसे वह वृत्तिज्ञान अन्य ही है। एक ही ज्ञानमें उपाधिभेदसे जन्यजनकभाव हो सकता है अथवा अनुभव ‘स्वेतर सर्वावभासक है’ इसका अर्थ यह है कि स्वेतर सभी विषयोंमें ‘भाति’ (प्रतीत होता है) इत्याकारक प्रतीतिविषयताका जनक है। ‘भाति’ इस प्रतीतिकी विषयता ही सर्वावभास्यता है। चिदाभासरूप फलकी व्याप्ति हुए बिना कोई भी जड वस्तु ‘भाति’ इस प्रतीतिका विषय नहीं हो सकती। एतावता स्वत: सर्वदा सर्वका अवभासन करता हुआ भी वृत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यके द्वारा सभी वस्तुओंमें ‘भाति’ (भासमान है) इस प्रतीतिकी विषयता होती है।
कहा जा सकता है कि ‘भाति यह प्रतीति ही तो अनुभव है, इससे अतिरिक्त अनुभव कुछ नहीं है,’ परंतु यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि प्रतीतिसे अतिरिक्त अनुभव है। चक्षुसे घटका साक्षात्कार करके पुरुष निश्चय करता है कि घट है और भासमान है। इस तरह घटसाक्षात्काररूप अनुभवसे भिन्न ही अनुभवजन्य प्रतीति होती है। फिर भी ‘भाति’ इस प्रतीतिसे भिन्न अनुभव क्या है? इस प्रश्नका उत्तर वस्तुत: दुर्वच ही है। यद्यपि कहा जाता है कि ‘निर्विकल्पक अनुभव ही दुर्वच होता है, सविकल्पक अनुभव तो सुवच ही होता है।’ तो भी यह ठीक नहीं; क्योंकि सविकल्पक अनुभवकी भी वही दशा होती है। हाँ, भेद यह है कि निर्विकल्पक अनुभवका विषय दुर्वच है, सविकल्पक अनुभवविषय सुवच होता है। स्वयं अनुभव तो दोनों ही दुर्वच ही होते हैं। विषयभेदके कारण वही अनुभवका सविकल्प-निर्विकल्परूप द्वैविध्य भी होता है। स्वत: तो अनुभव एक ही होता है। वह अनन्यावभास्य होकर स्वेतर सर्वका भासक होता है। यही उसका लक्षण है। यद्यपि यहाँ भी बहुत-से विकल्प उठते हैं, जैसे अनुभवका घटावभासकत्व क्या है? घट इत्याकारक प्रतीतिकी जनकता अथवा घट इस प्रतीतिविषयताकी जनकता अथवा घटाकारानुभवजनकत्व अथवा घटानुभवविषयत्वजनकत्व? अनुभव और प्रतीति यदि एक ही हैं, तो अनुभव अनुभवका जनक कैसे हो सकेगा? क्योंकि अभेदमें कार्यकारणभाव नहीं होता। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि घट तो सर्वदा विषय ही होता है, अत: उसमें विषयता सदा ही रहती है। फिर उसमें कादाचित्क जन्यता और अनुभवमें जनकता कैसे सम्भव होगी? इस तरह अन्य पक्ष भी असंगत ही हैं।
इस सम्बन्धमें अध्यात्मवादियोंका समाधान स्पष्ट है। प्रतीति-शब्दप्रयोगलक्षण व्यवहार है। अनुभव उससे भिन्न उसका जनक है। इस तरह प्रतीति और अनुभवमें भेद होता है। यद्यपि स्वानुभवसमयमें शब्दप्रयोग नहीं होता, परोपदेशसमयमें ही शब्दप्रयोग होता है, तथापि स्वानुभव-समयमें भी सूक्ष्म मानसिक शब्दप्रयोग होता ही है। इस तरह प्रतीतिजनकता अनुभवमें संगत है ही। इसी तरह अनुभूत घट ही ‘घट’ इस व्यवहारका विषय होता है। अत: अनुभव ही घटकी व्यवहारविषयताका जनक है। यदि घटका अनुभव न हो तो घटमें व्यवहारविषयता ही नहीं बन सकती। तीसरे पक्षमें भी कोई बाधा नहीं; क्योंकि केवल अनुभव घटानुभवका जनक हो ही सकता है। जैसे केवल प्रकाश घटप्रकाशका जनक कहा जा सकता है, वैसे ही यहाँ भी व्यवहार हो सकता है। निरुपाधिक अनुभव सोपाधिक अनुभवका जनक है। इस तरह घटरूप उपाधिके द्वारा कार्यकारणभाव होता है। अतएव चौथा पक्ष भी ठीक ही है। भले ही घट सर्वदा ही सामान्यानुभवका विषय हो, तथापि विशेषानुभवविषयता सदा नहीं रहती। किंतु चक्षु एवं घटका संयोग होनेसे ही घट विशेषानुभवका विषय होता है। इस तरह घटानुभवविषयत्वजनकता भी अनुभवकी घटावभासकता हो ही सकती है।
फिर प्रश्न होता है कि ‘वह सामान्यानुभव साक्षिचैतन्यरूप है अथवा साक्ष्याकार-वृत्तिज्ञानरूप?’ कहा जा सकता है कि ‘साक्ष्याकार-वृत्ति होनेपर साक्षीका साक्षात्कार समझा जायगा और फिर तो सभीको मुक्त ही होना चाहिये।’ परंतु यह ठीक नहीं है, कारण कि प्रमाणजन्य साक्षात्कारवृत्तिसे साक्षीके आवरक अज्ञानकी निवृत्तिके बिना साक्षात्कार नहीं होता है। इसपर भी विचार चलता है कि ‘साक्षीका साक्षात्कार क्या हो सकता है? क्योंकि अनुभवका अनुभव क्या होगा?’ परंतु इसका भी समाधान यही है कि साक्षीसे भिन्न द्वैतका अनुभव न होना ही साक्षीका साक्षात्कार है। कहा जा सकता है कि ‘इस तरह तो द्वैतानुभवाभाव ही साक्षीका अनुभव हुआ।’ परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि अनुभव नित्य है। फिर वह अभावका प्रतियोगी कैसे बन सकता है? अत: विशेष अनुभवका अभाव ही सामान्यानुभव है। विशेषानुभव तो चक्षुघट-संयोग आदिसे उत्पन्न होता है, अत: उसका अभाव हो सकता है। विशेषानुभवदशामें भी यद्यपि सामान्यानुभव रहता है, तथापि वह असत्-जैसा ही रहता है, किंतु विशेषानुभवाभावदशामें सामान्यानुभव सत्ताप्रकर्षको प्राप्त हो जाता है। इसीलिये विशेषानुभवाभाव सामान्यानुभवरूप साक्षीका साक्षात्कार है।
कहा जाता है कि ‘विशेषानुभवाभावदशामें अज्ञानका ही अनुभव होता है, साक्षीका नहीं।’ परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि साक्षीके आवरक अज्ञानका अनुभव ही साक्षीके अनुभवरूपसे व्यवहृत होता है। अज्ञानावच्छिन्न साक्षीका अनुभव ही सामान्यानुभव है। कहा जाता है कि ‘यद्यपि सोपाधिक साक्षीका अनुभव हो सकता है; क्योंकि वह अनुभाव्य होता है, परंतु केवल साक्षीका अनुभव कैसे हो सकेगा? केवल साक्षी ही अनुभव है, यह भी नहीं कहा जा सकता।’ परंतु यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि जबतक अविद्या रहती है, तबतक साक्षी केवल रह ही नहीं सकता। अविद्या उपाधिके द्वारा साक्षीकी सोपाधिकता बनी रहती है। यह भी कहा जाता है कि ‘फिर तो समाधिमें भी अज्ञान रहता है, अत: वहाँ भी साक्षीका स्फुरण कैसे होगा? पर यह भी ठीक नहीं; क्योंकि यदि समाधिमें साक्षी केवल ही है, उपाधिशून्य है, तब तो अवश्य समाधिमें साक्षीका अनुभव नहीं हो सकता; क्योंकि साक्षीका अनुभव करनेके लिये वहाँ कोई प्रमाता ही नहीं होता। किंतु उस समय केवल साक्षी ही रहता है। इसीलिये उस समय ‘मैं साक्षीको देख रहा हूँ’ ऐसी प्रतीति नहीं होती। अत: अज्ञान एवं अज्ञानकार्य जिस किसी विशेषके अनुभवका अभाव ही साक्षीका साक्षात्कार है। कहा जा सकता है कि ‘अभाव साक्षात्काररूप कैसे हो सकता है?’ पर यह ठीक नहीं, क्योंकि अभाव स्वयं अधिकरणरूप ही होता है। अत: विशेषानुभवाभावाधिकरण साक्षी ही साक्षीका साक्षात्कार है।’
विशेषका अध्यास सामान्यमें ही होता है। अध्यासाभाव अधिष्ठानसे अनतिरिक्त अधिष्ठानरूप ही होता है। विशेषानुभवाभावरूप साक्षीका साक्षात्कार उपपन्न हो सकता है अथवा यह भी कहा जा सकता है कि ‘साक्षीका ही परिशेष रहना साक्षीका अनुभव है और सर्वद्वैतकी अप्रतीति होनेपर ही वह होता है।’ यह भी कहा जा सकता है कि ‘साक्षिस्वरूप ही साक्षीका साक्षात्कार है। जैसे राहुका शिर, आत्माका चैतन्य, सूर्यका प्रकाश आदि स्थानोंमें अभेदमें भी भेद-व्यवहार होता है, वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिये। इस तरह प्रत्यगभिन्न स्वयंप्रकाश ब्रह्म ही नित्य अनुभव है।’
कुछ लोग कहते हैं कि ‘अनुभवका प्रागभाव अनुभवसे ही गृहीत होता है, अत: अनुभवको नित्य नहीं कहा जा सकता।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि फिर प्रश्न होगा कि ‘जिस किसी वस्तुका जिस किसीसे गृह्यमाण प्रागभाव होता है अथवा अगृह्यमाण भी प्रागभाव होता है?’ दूसरा पक्ष तो सर्वथा असंगत है; क्योंकि इस तरह तो प्रमाणके बिना ही किसी वस्तुका अस्तित्व सिद्ध हो सकेगा। पहला पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि यहाँ विचारणीय यह है कि अनुभवका प्रागभाव अपनेसे ही ग्राह्य है या अन्यसे? पहली बात ठीक नहीं; क्योंकि पुत्रका प्रागभाव पितासे गृह्यमाण होता है, स्वयं पुत्र अपना प्रागभाव ग्रहण नहीं कर सकता। इसी तरह अनुभव स्वयं अपना प्रागभाव ग्रहण नहीं कर सकता। यदि अपने प्रागभाव-ग्रहणके समय अनुभव रहता है, तो उसका प्रागभाव कैसे कहा जा सकता है? यदि स्वयं नहीं है, तो प्रागभावका ग्रहण किस तरह होगा? स्वप्रागभाव अन्यसे गृहीत होना तो ठीक है, परंतु प्रकृतमें तो अनुभवसे भिन्न सब जड ही है। फिर जडसे अनुभव-प्रागभाव किस तरह गृहीत हो सकेगा? ‘अनुभवका प्रागभाव आत्मासे गृहीत होगा’ यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि आत्मा ही तो अनुभव है।
कहा जाता है कि ‘अनुभवके प्रागभावको अनुभव ग्रहण नहीं करता, यह आपने कहीं देखा है या नहीं?’ पहला पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि उसी आपके दर्शनसे अनुभवका प्रागभाव सिद्ध हो जायगा। अनुभवका अपने प्रागभावको ग्रहण न करना भी अनुभवका प्रागभाव ही है। उसका दर्शन आपको है ही। दूसरा पक्ष भी इसलिये ठीक नहीं है कि यदि आपने यह देखा ही नहीं, तो कैसे कह सकते हैं कि ‘अनुभव अपने प्रागभावको ग्रहण नहीं करता?’ यदि अदृष्ट भी ग्राह्य हो, तब तो शशशृंग भी ग्राह्य हो सकेगा। परंतु इस कथनमें कुछ सार नहीं है; क्योंकि पुत्रका प्रागभाव पुत्र स्वयं ग्रहण नहीं करता। ‘यह मैंने देखा है’ इससे स्वप्रागभाव अपनेसे गृहीत नहीं होता, यह व्याप्तिज्ञान होता है। इसी आधारपर यह कहना संगत है कि ‘अनुभव-प्रागभावको अनुभव नहीं ग्रहण कर सकता।’
कहा जाता है कि ‘भले ही पुत्र-प्रागभावको पुत्र ग्रहण न करे, पर क्या एतावता पुत्र-प्रागभाव सिद्ध नहीं होता? उसी तरह भले ही अनुभव स्वप्रागभाव ग्रहण न करे, तथापि उसके प्रागभावकी असिद्धि नहीं कही जा सकती।’ पर यह भी कहना ठीक नहीं है; क्योंकि दृष्टान्तमें तो पुत्र-प्रागभावको पिता ग्रहण करता है, अत: वहाँ पुत्र-प्रागभाव सिद्ध होता है, परंतु अनुभवप्रागभावको कोई भी नहीं ग्रहण करता, अत: उसकी सिद्धि नहीं हो सकती। कहा जाता है कि ‘पुत्र भी अपने प्रागभावको अनुमानसे जान सकता है, जैसे कि ‘उत्पत्तिके पहले मैं नहीं था; क्योंकि उत्पत्तिके पहले घटका असत्त्व देखा जाता है।’ परंतु यह भी कथन संगत नहीं है; क्योंकि स्वप्रागभाव स्वप्रत्यक्षका विषय नहीं होता, यही उपर्युक्त कथनका आशय है। एतावता स्वानुमानकी विषयता स्वप्रागभावमें हो भी तो कोई आपत्ति नहीं। जो लोग कहते हैं कि ‘फिर तो इसी तरह अनुभव भी अनुमानके द्वारा स्वप्रागभावको जान सकता है,’ परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि अनुभव स्वसत्तासे ही स्वविषयका प्रकाश होता है, यही अनुभववादियोंकी धारणा है। फिर अनुभव यदि अनुमानरूप अन्य व्यापारसे स्वविषयको प्रकाशित करेगा तो सिद्धान्त-विरोध होगा। ऐसा होनेमें अनुभवमें स्वयंप्रकाशता भी नहीं सिद्ध होगी।’
कुछ लोग कहते हैं कि ‘अनुभव अतीत वस्तुको भी प्रकाशित करता है, इसीलिये योगियोंको अतीत वस्तुका भी प्रत्यक्ष होता है। इसी तरह अतीत प्रागभावको भी अनुभव ग्रहण कर सकता है।’ पर यह ठीक नहीं है; क्योंकि हमारा यह कहना नहीं है कि अनुभवमें वर्तमान वस्तु ही विषय होती है, किंतु योगीको या सर्वज्ञ ईश्वरको त्रैकालिक वस्तुओंका प्रत्यक्ष हो सकता है। अनुभवप्रागभाव अनुभवका विषय नहीं होता, यही कहना है। फिर भी शंका होती है कि ‘गुरूपदेशके पहले मुझे इस श्लोकार्थका ज्ञान नहीं था’, इस प्रकारके अनुभवमें अनुभवका प्रागभाव विषय होता ही है। पर यह भी ठीक नहीं; क्योंकि यहाँ श्लोकार्थज्ञानका प्रागभाव श्लोकार्थज्ञानका विषय नहीं है; किंतु यह प्रागभाव अन्य ज्ञानका ही विषय है। इस तरह ज्ञानान्तरके द्वारा ही श्लोकार्थज्ञानका प्रागभाव सिद्ध होता है। एतावता अनुभव-प्रागभाव किसी भी ज्ञानसे सिद्ध नहीं होता। हाँ, वृत्तिज्ञानका तो प्रागभाव एवं प्रध्वंसाभाव चैतन्यसे गृहीत होता है। अत: वृत्तिज्ञानका प्रागभावादि हो सकता है, परंतु चैतन्यका प्रागभाव चैतन्यसे व्याघातदोषके कारण गृहीत नहीं होता।
यदि कहा जाय कि ‘एक चैतन्यका प्रागभाव अन्य चैतन्यसे गृहीत हो’, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि अन्य चैतन्य है ही नहीं। चैतन्य चैतन्य सब एक ही हैं, आकाशवत् उसके भेदमें कोई प्रमाण नहीं है। जैसे पुत्र यह समझता है कि मैं उत्पत्तिके पहले नहीं था, वैसे चैतन्य यह अनुभव नहीं करता कि मैं उत्पत्तिके पहले नहीं था। अत: उसकी उत्पत्ति एवं प्रागभाव कथमपि गृहीत नहीं होते। फिर भी कहा जाता है कि ‘मैं नहीं था’ इस तरह आत्मा अपने प्रागभावका अनुभव करता है और यदि आत्मा अनुभवरूप ही है, तब तो उसका प्रागभाव सिद्ध हो गया। पर यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि देहतादात्म्य (अभेद)-के अध्याससे देह-प्रागभावको ही आत्मप्रागभाव भ्रान्तिवश समझ लिया जाता है। वस्तुत: आत्मप्रागभाव अनुभूत नहीं होता। कहा जाता है कि ‘मैं सर्वदा रहा हूँ’ इस प्रकार भी अनुभव नहीं जानता। परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि अनुभवस्वरूप विद्वान् आत्मा अवश्य अनुभव करता है कि मैं सर्वदा रहा हूँ। फिर भी कहा जाता है कि ‘सृष्टिके पहले जीव आदि नहीं थे, केवल ईश्वर था। ‘भागवत’ का कहना है—‘अहमेवासमेवाग्रे नान्यद्यत्सदसत्परम्’ (२।९।३२) अर्थात् सृष्टिके पहले मैं ही था, अन्य सत्, असत् कुछ भी न था। पर यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि सिद्धान्तमें जीव-ईश्वरकी एकता ही है, अत: ईश्वरकी नित्यतासे तदभिन्न जीवकी भी नित्यता सिद्ध हो जाती है। इसीलिये ‘अजो नित्य: शाश्वतोऽयम्’ (कठोप० १।२।१८) इत्यादि श्रुतियोंसे जीवात्माकी नित्यताका प्रतिपादन होता है। इस तरह अनुभव ही प्रत्यक् ब्रह्म है, उसका प्रागभावादि सिद्ध नहीं होता। यह स्वयंप्रकाशत्व, नित्यत्वादि अजन्य नित्यज्ञानका ही है। वृत्तिरूप इन्द्रिय-सन्निकर्षादिजन्य ज्ञानके सम्बन्धमें यह बात नहीं है।’
कुछ लोग कहते हैं कि ‘जैसे पृथ्वी नित्य है, फिर उसके अवस्थाविशेष घटादि अनित्य हैं, वैसे ही ज्ञानद्रव्यके नित्य होनेपर भी उसके अवस्थाविशेष स्मृतित्वादि अनित्य होंगे।’ पर यह कहना भी ठीक नहीं, कारण नित्य वस्तुमें अवस्था नहीं होती। सिद्धान्तत: पृथ्वी आदि भी अनित्य ही हैं। अनित्य क्षीरादि द्रव्यकी ही क्षीरत्व, दधित्वादि अवस्थाएँ होती हैं, नित्य ज्ञानकी कोई अवस्था वास्तविक नहीं होती। अवस्था स्वयं विकार है। विकारी वस्तु अनित्य ही होती है। कहा जाता है कि ‘जैसे वेदान्ती घटावच्छिन्न चैतन्यको अनित्य मानता है, फिर भी उसे शुद्ध चैतन्य नित्य मान्य है।’ पर यह ठीक नहीं है; क्योंकि वहाँ भी चैतन्य नित्य ही है, किंतु घटकी अनित्यतासे तदवच्छिन्न चैतन्यमें अनित्यताका व्यवहार होता है। यदि उसी तरह ज्ञानकी नित्यता एवं स्मृति, प्रमा आदिकी अनित्यता जडवादीको भी मान्य हो, तब तो ठीक ही है।
कुछ लोग कहते हैं कि ‘स्वयंप्रकाशत्व, नित्यत्वका सामानाधिकरण्य नहीं होता। स्वयंप्रकाश भी दीपादि अनित्य होता है। आकाश, कालादि स्वयंप्रकाश न होनेपर भी नित्य होते हैं,’ परंतु यह कथन ठीक नहीं है; क्योंकि जो स्वयंप्रकाश नहीं, वह स्वत:सिद्ध भी नहीं होता। जो स्वत:सिद्ध नहीं है, वह नित्य भी नहीं होता। काल, आकाश आदि भी अनित्य ही हैं। दीपादिकी स्वयंप्रकाशता सापेक्ष ही है। अतएव उसे भी अपने प्रकाशके लिये दीपान्तरकी अपेक्षा न होते हुए भी चक्षु, मन एवं चैतन्यकी अपेक्षा है ही। जो लोग योग्यानुपलब्धिके बलपर ज्ञानप्रागभाव सिद्ध करना चाहते हैं, वे भी भ्रान्त ही हैं; क्योंकि अनुपलब्धि-उपलब्धिका अभाव ही है। उपलब्धि अनुभव ही है। तथा च निष्कर्ष यह निकला कि अनुभवाभावसे ही अनुभवका प्रागभाव सिद्ध होता है। यहाँ विचारणीय है कि दोनों अनुभवों एवं दोनों अभावोंका यदि अभेद है, तब तो आत्माश्रयदोष होगा, अत: उसी अनुभवाभावसे अनुभव-प्रागभाव नहीं गृहीत हो सकता। यदि दोनोंका भेद है, तो प्रश्न होगा कि ‘अनुभवाभाव किससे गृहीत होगा?’ यदि दूसरे अनुभवसे, तब तो अन्योन्याश्रय-दोष होगा।
कहा जाता है कि ‘यदि यहाँ घट होता तो उपलब्ध होता, घट नहीं उपलब्ध होता, अत: वह नहीं है। इसी प्रकार इस समय यदि अनुभव होता, तो वह उपलब्ध होता, अनुभव उपलब्ध नहीं होता, अत: अनुभव नहीं है। इस तरह अनुभवाभाव सिद्ध होगा।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि यदि अनुभव उपलभ्य या भास्य हो, तभी इस प्रकार अभावसिद्धि हो सकती है। यदि अनुभव रहता हुआ भी वेद्य नहीं होता, स्वप्रकाश होनेसे अनुभवान्तरका गोचर नहीं होता, तो इस प्रकारकी अनुपलब्धिसे अभाव कैसे सिद्ध हो सकता है? घटका उपलब्धा आत्मा होता है, परंतु अनुभवका कोई भी उपलब्धा नहीं होता। आत्मा तो स्वयं अनुभवरूप ही है। प्रमाता भी अनुभवका ही सोपाधिक रूप है, अत: अनुपलब्धिप्रमाणसे अनुभवाभावका बोध नहीं हो सकता।
कुछ लोग यह भी आपत्ति उपस्थित करते हैं कि ‘प्रत्यक्ष ज्ञान स्वसत्ताकालमें विद्यमान ही स्वविषय घटादिका साधक होता है, घटादिकी सर्वदा सत्ताका बोध नहीं कराता। इसीलिये पूर्व एवं उत्तर कालमें घटादिकी सत्ता प्रतीत नहीं होती। प्रत्यक्ष-ज्ञानरूप संवेदन कालपरिच्छिन्नरूपसे प्रतीत होता है। इसीलिये घट भी कालपरिच्छिन्नरूपसे प्रतीत होता है। यदि घटादिविषयक संवेदन स्वयं कालानवच्छिन्न होकर प्रतीत हो; तब तो वेदनाविषय घटादिको भी कालानवच्छिन्नरूपसे ही प्रतीत होना चाहिये और फिर इस तरह घटादि भी नित्य ठहरेगा।’ परंतु यह आपत्ति नि:सार है; क्योंकि यदि घटादि विषयके परिच्छिन्न होनेसे तद्विषयक प्रत्यक्ष-ज्ञान भी परिच्छिन्न कहा जायगा, तब तो यह भी कहना होगा कि ईश्वर एवं आत्मा आदि विषयके नित्य होनेसे तद्विषयक प्रत्यक्ष-ज्ञानकी भी नित्यता होनी चाहिये। यह भी नहीं कहा जा सकता कि ‘जब घटादि प्रत्यक्षस्थलमें प्रत्यक्षकी अनित्यता दृष्ट है, तब तदनुसार ही ईश्वर या आत्मादिस्थलमें भी प्रत्यक्षको अनित्य ही मानना ठीक है।’ परंतु यह भी तो कहा जा सकता है कि ‘ईश्वरात्मस्थलमें ज्ञानकी नित्यता देखकर घटादिस्थलमें भी ज्ञान नित्य ही है।’ फिर शंका होती है कि ‘संवेदनके नित्य होनेसे संवेदनविषय घटादिको भी नित्य होना चाहिये।’ परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि यहाँ भी कहा जा सकता है कि संवेदनके अनित्य होनेसे ब्रह्म आदि भी अनित्य क्यों न हों? अत: स्वविषयके नित्यत्व एवं अनित्यत्वसे प्रत्यक्षका नित्यत्व या अनित्यत्व नहीं कहा जा सकता। घटसंवेदनके क्षणिक या त्रिचतु:क्षणस्थायी होनेपर भी तद्विषय घटादिको महीनों एवं वर्षोंतक स्थिर देखा ही जाता है। अत: घटादिको संवेदनके समकालिक नहीं कहा जा सकता। यदि घट संवेदनके असमकाल हो सकता है, तो संवेदन भी घटके असमकाल हो ही सकता है। फिर तो संवेदनके नित्य होनेपर भी घटादिकी नित्यताका कोई प्रसंग नहीं आता।
यह भी विचारणीय है कि ‘संवेदन अपने पूर्वोत्तरकालमें घटाभावका बोधन करता है अथवा घटका पूर्वोत्तरकाल घटाभावका बोधन करता है।’ पहला पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि संवेदनके पूर्वोत्तरकालमें घटका सत्त्व रहता ही है। व्यावहारिक घटकी अज्ञात सत्ता भी मान्य है ही। सामान्यतया कोई भी यह नहीं समझता कि ‘इसी समय मुझे घटज्ञान हुआ, अभी ही घट भी हुआ, पूर्वोत्तरकालमें घट नहीं था।’ अद्वैतीका जो कहना है कि ‘जब घटप्रतीति होती है, तभी घट है। घटप्रतीति नहीं तो घट भी नहीं।’ उसका आशय केवल इतना ही है कि प्रतीतिमें घट अध्यस्त होता है, अत: प्रतीतिसे अतिरिक्त घटकी सत्ता नहीं होती और दृष्टिसृष्टिवादकी व्यवस्था अत्युच्च अधिकारियोंके लिये ही है। इन्द्रियार्थ-सन्निकर्षजन्य घटादिज्ञान क्षणिक त्रिचतु:क्षणस्थायी होता है अथवा स्वविरोधिवृत्त्यन्तरोत्पत्ति-पर्यन्त स्थायी होता है। अत: उसकी अनित्यता वेदान्तीको भी अभीष्ट ही है। जो अजन्य ज्ञान है, वही नित्य है। कुछ लोग कहते हैं कि ‘अजन्य ज्ञान है ही नहीं।’ परंतु उन्हें वृत्तिरूप ज्ञानकी उत्पत्तिसे ही तदुपाधिकज्ञानकी जन्यताकी भ्रान्ति होती है। वृत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यरूप ज्ञान तो अजन्य ही है। उसकी जन्यतामें कोई प्रमाण नहीं है। वृत्ति एवं चैतन्यका विवेचन अतिदुष्कर है। जैसे मिले हुए क्षीर-नीरका विवेचन हंस ही कर सकता है, वैसे ही वृत्ति एवं चैतन्यका विवेचन अन्तर्मुख परमहंस ही कर सकता है।
जो कहते हैं कि ‘संविद्की अपेक्षासे ही विषयकी अतीतता एवं अनागतता होती है’, उन्हें यह भी बतलाना चाहिये कि फिर संविद्की अतीतता आदि किसकी अपेक्षासे होगी? यदि संविद्का अतीततानागतत्व स्वापेक्षासे ही मान्य है, तब तो विषयका भी अतीतत्वादि स्वापेक्षासे ही हो सकेगा। फिर संविद्की अपेक्षा क्यों होगी? यदि संविद्की अतीतता, अनागतता विषयकी अपेक्षासे मानी जाय, तब तो अन्योन्याश्रय-दोष अनिवार्य होगा। एक संविद्का अतीतत्वादि अन्य संविद्की अपेक्षा मान्य हो, तब तो उस संविद्की अतीतता आदिमें अन्य संविद्की अपेक्षा होगी, उसको अन्य संविद्की अपेक्षा होगी, इस तरह अनवस्था-प्रसंग होगा। अत: कालकी अपेक्षा ही विषयकी अतीतता आदिका होना उचित है। वर्तमानकालावच्छिन्न घट वर्तमान है, अतीतकालावच्छिन्न घट अतीत होगा। आगामिकालावच्छिन्न घट अनागत कहलाता है।
कहा जा सकता है कि ‘काल तो नित्य है, फिर उसमें अतीतत्वादि-व्यवहार कैसे होगा?’ परंतु यह ठीक नहीं है। दिन-मासादिलक्षण कालमें अतीतत्वादि दृष्ट ही है। ‘सविद्की अपेक्षासे कालमें अतीतत्वादि माना जाय’ यह भी ठीक नहीं; क्योंकि वस्तुत: कालकी अपेक्षासे ही संविद‍्में अतीतत्वादिका व्यवहार होता है। ‘इस समय घटज्ञान वर्तमान है, पूर्वक्षणमें घटज्ञान वर्तमान था, उत्तरक्षणमें घटज्ञान होगा’ इस व्यवहारसे संविद‍्में कालावच्छिन्नताकी प्रतीति होती है। यह भी कहा जाता है कि ‘संविद्से ही कालका अतीतत्वादि विदित होता है।’ परंतु इसमें किसीको विवाद ही नहीं है। संविद‍्से कालका वेदन होनेमें कोई आपत्ति नहीं। आपत्ति तो है घटसंविद‍्से कालवेदनमें। संविद्से भिन्न सभी वस्तुएँ संविद‍्के अधीन ही स्थितिवाली हैं। एकमात्र संविद् ही स्वत:सिद्ध है। ‘कालका अतीतत्वादि एवं कालपूर्वक विषयका अतीतत्वादि संविद‍्से ही ज्ञात होता है’ इस कथनसे संविद्का अतीतत्वादि सिद्ध नहीं होता। यह आवश्यक नहीं है कि अतीत संविद्से अतीत विषयका एवं वर्तमान तथा आगामी संविद‍्से वर्तमान तथा आगामी विषयका ग्रहण हो; क्योंकि संविदवच्छेदक कालके अतीतत्वादिसे ही विषयोंका अतीतत्वादि सिद्ध हो जाता है। जैसे एतद्दिनस्थिति सूर्यप्रकाशभास्य घट भी पूर्वदिनस्थित सूर्यप्रकाशसे ही भास्य होता है; क्योंकि कालके भेदसे सूर्यप्रकाशमें भेद नहीं होता। इसी तरह एतद्दिनसंविद्भास्य घटादि भी पूर्वदिनस्थित संविद‍्से ही भास्य होता है। दिनभेदसे संविद‍्में भेद सिद्ध नहीं हो सकता है। अत: घटज्ञान नित्य एवं स्वप्रकाश है। उसका विषयभूत घटादि अनित्य एवं जड है। घटकी अनित्यतासे ही ज्ञानमें अनित्यताका व्यवहार होता है।
कुछ लोग कहते हैं कि ‘निर्विषय अनुभव ही नहीं होता; क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं होती।’ परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि यहाँ विचारणीय यह है कि ‘यह निर्विषय संविद्का अनुपलम्भ कहनेवालेको है या अन्यको?’ पहला पक्ष ठीक नहीं; क्योंकि जिसको निर्विषय संविद्का उपलम्भ नहीं है, वह अज्ञानी होनेके कारण ‘नहीं जानता’ यही कहा जा सकता है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि दूसरेका हृदय दूसरेको प्रत्यक्ष नहीं होता। ‘दूसरेको भी निर्विषय संविद्का उपलम्भ नहीं होता’ यह कैसे कहा जा सकता है? यदि कहा जाय कि ‘निर्विषय संविद् सम्भव ही नहीं है’, तो इसमें कोई-न-कोई हेतु होना चाहिये। ‘अनुपलभ्यमानत्व हेतु है’ यह भी नहीं कहा जा सकता। यह हेतु तो सविषय ज्ञानमें भी अतिव्याप्त है; क्योंकि सविषय ज्ञान भी तो स्वप्रकाश होनेसे उसमें भी उपलब्धिविषयतारूप उपलभ्यमानता नहीं है। फिर तो अनुपलभ्यमानत्वरूप हेतुसे सविषय ज्ञानका भी अभाव ही सिद्ध हो जायगा। ‘ज्ञानमें ज्ञेयत्व नहीं हो सकता’ यह कहा जा चुका है। ‘निर्विषय ज्ञान नहीं है’ यह कथन निर्विषयज्ञानाभावको जानकर कहा जाता है अथवा बिना उपलम्भके ही? पहला पक्ष ठीक नहीं; क्योंकि अभाव प्रतियोगिपूर्वक ही होता है। जो घट नहीं जानता, उसे घटाभावका भी ज्ञान कैसे हो सकता है? जो निर्विषय-ज्ञान नहीं जानता, वह निर्विषय-ज्ञानाभाव भी कैसे जान सकेगा? दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं; क्योंकि यदि निर्विषय-ज्ञानाभावकी उपलब्धि नहीं है, तब तो निर्विषय-ज्ञानकी सिद्धिमें कोई बाधा है ही नहीं।
फिर भी कहा जाता है कि ‘ज्ञायते अनेन घटादिविषयजातमिति ज्ञानम्’ इस व्युत्पत्तिसे ज्ञान विषयप्रकाशनस्वभाववाला ही प्रतीत होता है। विषयप्रकाशक ही ज्ञान है। जो विषयप्रकाशक नहीं, वह ज्ञान कैसे कहा जा सकता है? वह विषयप्रकाशकत्व ही ज्ञानका स्वयम्प्रकाशत्व भी है। यदि ज्ञान निर्विषय होगा, तब तो स्वप्रकाश-ज्ञानत्व ही उसमें नहीं रहेगा। परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि यदि विषयप्रकाशकत्व ज्ञानत्व हो, तब तो घटादिप्रकाशक सूर्यादिप्रकाशको भी ज्ञान नहीं कहना चाहिये; क्योंकि उसीसे घटादिका प्रकाश होता है, अन्धकारस्थ घट भासित नहीं होता है। यदि सूर्यादिप्रकाशसे अतिव्याप्ति हटानेके लिये विषय-ज्ञानजनक ज्ञानको ज्ञान कहा जाय, तो इस वाक्यमें दो ज्ञान शब्द आते हैं। दोनोंका अर्थभेद है या नहीं? यदि भेद है तो क्या भेद है? यदि कहा जाय कि ‘जन्य ज्ञान फल है, जनक ज्ञान उसका कारण है, तो भी विचारणीय यह है कि फलभूत ज्ञान स्वप्रकाश है अथवा परप्रकाश?’ पहला पक्ष ठीक नहीं; क्योंकि जो विषयज्ञानका जनक नहीं, वह तो आपके मतमें स्वप्रकाश हो ही नहीं सकता। दूसरा भी पक्ष ठीक नहीं; क्योंकि फलभूतजन्य ज्ञानका प्रकाशक कोई है ही नहीं। यदि अन्य प्रकाशक ज्ञान माना जाय, तब तो अन्यमें होनेवाला प्रकृत फलज्ञानप्रकाशकत्व फलज्ञान ज्ञानजनकत्व ही होगा। फिर इस तरह अनवस्था प्रसक्त होगी। यदि दोनों ज्ञानशब्दोंका एक ही अर्थ है, तो व्याघातदोष होगा अर्थात् वही ज्ञान अपने-आप ही जन्य और अपने-आप ही जनक कैसे होगा? अत: यदि विषयावबोधजनकत्व ही स्वप्रकाशत्व कहा जायगा, तो विषयावबोधजनक करणभूत बोध ही स्वप्रकाश होगा, फलभूत बोध स्वप्रकाश ही न होगा। यदि करणभूतको ही स्वप्रकाश माना जायगा, तो कर्ता आत्मा भी स्वप्रकाश सिद्ध न हो सकेगा। इसी तरह ब्रह्ममें भी स्वप्रकाशता न रहेगी, अत: ‘अनन्यावभास्यत्वे सति स्वेतरसर्वावभासकत्व’ को ही स्वप्रकाशत्व कहना उचित है। करणज्ञान तो जड होनेसे चैतन्यावभास्य है, अत: वह स्वप्रकाश नहीं कहा जा सकता।
यह भी कहा जा सकता है कि ‘अस्तित्वे सत्यनन्यावभास्यत्व’ ही स्वप्रकाशत्व है अर्थात् जो दूसरोंसे प्रकाशित न होकर भी स्वत: सत्तावाला है, वही स्वप्रकाश है। शशशृंगादिकोंकी सत्ता ही नहीं होती, अत: वे अन्यानवभास्य होनेपर भी स्वयंप्रकाश नहीं कहे जाते। व्यावहारिक सत्य अज्ञात जगत् अनन्यावभास्य नहीं होता, वह तो किसी ज्ञानसे भास्य ही होता है, अत: उसमें भी अतिव्याप्ति नहीं होगी। वृत्तिज्ञान भी चैतन्यभास्य है ही। फलज्ञान ही इस प्रकारका स्वप्रकाश है; क्योंकि नित्य चैतन्य ही वृत्तिपर प्रतिफलित होकर फलज्ञान कहा जाता है। विषयावच्छिन्न चैतन्यके आवरक अज्ञानका निराकरण करना वृत्तिका उपयोग है। जैसे अजन्य नित्य मोक्षमें फलत्व-व्यवहार होता है, वैसे ही अजन्य फलज्ञानमें भी फलत्वव्यवहार हो सकता है। अज्ञात-विषयावच्छिन्न चैतन्य ही ज्ञात होकर फल कहलाता है। उसमें जन्यता नहीं है। कहा जा सकता है कि ‘फिर इस तरह तो ज्ञानमें ज्ञातता मान ली गयी।’ परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि विषयावच्छिन्न चैतन्य ही ज्ञात होता है, केवल नहीं। केवल तो अनुभवरूप होनेसे स्वप्रकाश ही है। विषयगत अवभास्यत्वरूप धर्म विषयावच्छिन्न चैतन्यमें आरोपित किया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि ‘भले ही फलभूत चैतन्यमें उपर्युक्त ढंगकी स्वप्रकाशता रहे, परंतु करणभूत ज्ञानमें तो विषय-प्रकाशकत्वरूप ही स्वप्रकाशता उचित है। तथा च निर्विषय वृत्तिज्ञान नहीं हो सकता।’ परंतु इस सम्बन्धमें सिद्धान्तीको कोई विवाद नहीं है। वेदान्ती जो निर्विकल्पज्ञानका समर्थन करता है, उसका अभिप्राय यही है कि निर्विकल्प ब्रह्मविषयक वृत्तिज्ञान ही निर्विकल्प-ज्ञान है। वह भी सविषयज्ञान है ही। अत: वृत्तिरूप ज्ञान निर्विषय न हो, इसमें कोई आपत्ति नहीं है। चैतन्यज्ञान तो निर्विषय होता ही है।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि ‘सोकर जागे हुए प्राणीको ‘इतने समयतक मैंने कुछ भी नहीं जाना’ इस प्रकारका स्मरण होता है। इससे निद्राकालमें अनुभवाभाव सिद्ध होता है।’ पर यह भी ठीक नहीं; क्योंकि यहाँ विचारणीय यह है कि ‘सुषुप्तिमें कुछ न जाननेवालेको ही सुषुप्ति मिटनेपर उक्त स्मरण होता है अथवा कुछ जाननेवालेको निद्राके अनन्तर उक्त स्मरण होता है?’ पहला पक्ष ठीक नहीं; क्योंकि कुछका न जानना यदि मान्य है, तब तो सुषुप्तिमें अनुभवकी सिद्धि होती ही है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं; क्योंकि फिर तो उक्त स्मरण ही नहीं सिद्ध होता। यदि कुछ वेदन था ही, तब कुछ नहीं जाननेका स्मरण कैसे संगत होगा? यहाँ कहा जाता है कि ‘न किंचित् जाननेका अर्थ है किसी भी वेदनका अभाव अर्थात् सुषुप्तिमें कोई भी ज्ञान न था।’ परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि यह विचारणीय है कि सुषुप्तिके ज्ञानाभावको आपने जाना या नहीं जाना? यदि जाना, तब तो सुषुप्तिमें ज्ञानाभावका ज्ञान आपको था ही। फिर ज्ञानाभाव कैसे कहा जा सकता है? यदि आपने ज्ञानाभावको नहीं जाना, तो उसको स्वीकार कैसे किया जाय? यदि अविदितका भी अस्तित्व माना जाय, तब तो शशशृंगादिका भी अस्तित्व मानना पड़ेगा। अत: यही कहना ठीक है कि सुषुप्तिमें विशेषानुभव ही अभाव था। चैतन्यरूप सामान्यानुभवका अभाव नहीं कहा जा सकता है।
इसी तरह यह भी शंका होती है कि ‘जहाँ भी कहीं संविद्, ज्ञान या अनुभव होता है साश्रय ही होता है, निराश्रयज्ञान कहीं भी नहीं देखा गया। संविद्को आत्माके आश्रित मानना ठीक है; क्योंकि संविद् या ज्ञान एक क्रिया ही है। क्रिया कर्ताके आश्रित होती है, अत: आत्मा कर्ता है, तदाश्रित संविद्का होना ठीक है।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि आत्मा स्वयं निष्क्रिय होनेसे अकर्ता है और संविद् भी वृत्तिसे अभिव्यक्त फल है, क्रिया नहीं। आत्मा ही संविद् है, संविद् ही आत्मा है। इस तरह संविद् ही सबका आश्रय है, वही सर्वाधिष्ठान है, वह किसीके भी आश्रित नहीं है। कहा जा सकता है कि ‘आत्मा तो अनुभविता है, फिर वह अनुभवरूप कैसे होगा?’ परंतु यह ठीक नहीं। जैसे प्रकाशस्वरूप सविता ही प्रकाशक भी कहा जाता है, वैसे ही अनुभवस्वरूप आत्मामें अनुभविताका भी व्यवहार होता है। कुछ लोग कहते हैं, कि ‘ज्ञानस्वरूप आत्माके आश्रित रहनेवाले ज्ञानद्रव्यको ही अनुभव कहते हैं, आत्माको नहीं।’ परंतु यह भी ठीक नहीं। यदि आत्मा ज्ञानस्वरूप है, तब ‘आत्मा ज्ञान नहीं है’ यह कहना असंगत है। यदि आत्माके स्वरूपभूत ज्ञानसे ही सब काम चल जाता है, तो तदाश्रित अलग ज्ञानद्रव्य मानना व्यर्थ है। इसमें गौरव भी है और कोई प्रमाण भी नहीं है। यदि ज्ञानमें भी अन्य ज्ञान होगा, तो फिर उस ज्ञानमें भी ज्ञानान्तर कहना पड़ेगा। इस तरह अनवस्था होगी। यदि आत्मा ज्ञानरूपी द्रव्य है, तो तदाश्रित ज्ञानरूपी अन्य द्रव्य मानना व्यर्थ भी है। अनवस्था, गौरवादि दोषोंसे दुष्ट भी है। यदि आत्माको द्रव्य न माना जाय, तो आत्माको सगुण माननेवालोंका पक्ष बाधित होगा। सुषुप्तिमें भी ‘मैंने कुछ नहीं जाना, सुखपूर्वक सो रहा था’ इत्यादि स्मरणोंके बलसे अज्ञान एवं सुखका अनुभव रहता ही है। अत: सुप्तिमें चैतन्यरूप या वृत्तिरूप ज्ञानका अभाव सिद्ध नहीं हो सकता। चैतन्य एवं अविद्यावृत्तिका अस्तित्व स्मरणबलसे स्पष्ट सिद्ध है। विशेषानुभवाभाव अवश्य मान्य है।
कहा जाता है कि ‘सुप्तिमें अन्त:करण नहीं होता, विषय भी नहीं रहता, तब विषयाकारपरिणत अन्त:करणकी वृत्तिरूप ज्ञान कैसे हो सकता है?’ परंतु यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि यद्यपि अन्य विषय न भी हो, तो भी सुख एवं अज्ञानरूप विषय होनेसे तदाकारपरिणत अविद्यावृत्ति हो सकती है। कहा जा सकता है कि ‘सुषुप्तिमें फिर तो ज्ञान भी सविशेष ही हो गया। फिर निर्विशेष ज्ञानकी सिद्धि कैसे हो सकती है?’ परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि सुप्तिमें सविशेष ही ज्ञानकी सिद्धि होती है, निर्विशेषकी नहीं। फिर भी कहा जा सकता है कि ‘सुप्ति’, ‘स्वप्न’, ‘जागर’ तथा ‘समाधि’ में भी जब निर्विषय ज्ञान नहीं होता, तब तो ‘सर्वदा सविषय ही ज्ञान होता है’ यही मानना ठीक है। तब तो फिर ‘ज्ञानवान् ही आत्मा है, ज्ञानरूप नहीं’ यही मानना उचित है। पर यह भी ठीक नहीं। व्यवहारत: यद्यपि आत्मा वृत्तिरूप ज्ञानवान् ही है; तथापि परमार्थत: ज्ञानवान् नहीं है; क्योंकि वस्तुत: वृत्तिके भासक आत्माका वृत्तिके साथ आध्यासिक सम्बन्धके अतिरिक्त कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है। अत: आत्मा चैतन्यज्ञानरूप ही है। प्रश्न होता है कि ‘आत्माका स्फुरण होता है या नहीं? यदि होता है, तब तो स्फुरण होनेवाले आत्माका स्फुरण धर्म हो गया। इस तरह धर्मी आत्माका धर्मभूत ज्ञान सिद्ध होता है। जैसे प्रकाशमान सूर्यका प्रकाश धर्म है, वैसे ही यदि आत्माका स्फुरण न हो, तब तो बन्ध और मुक्तिमें कोई भेद ही न रहेगा। जैसे संसारमें आत्माका स्फुरण नहीं है, वैसे ही मुक्तिमें भी स्फुरण न हो, तो बन्ध-मुक्ति समान ही ठहरेंगे। इसके अतिरिक्त घटके समान ही यदि आत्माका भी स्वत: स्फुरण न होगा, तो घटवत् आत्मामें भी जडताकी ही प्रसक्ति होगी। मुक्तिमें अन्य है नहीं, जिससे कि परप्रकाश्यता भी सम्भव होती। परप्रकाश्यता माननेपर स्वयंज्योतिष्ट्व-श्रुतिका भी विरोध होगा,’ परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि इसी प्रकारका विकल्प आपके धर्मभूत कल्पित ज्ञानमें भी होगा। उसकी स्फूर्ति होती है या नहीं? प्रथम पक्षमें स्फूर्तिवाले धर्मभूत ज्ञानमें स्फुरणरूप धर्म मानना पड़ेगा, तथा च वह धर्मान्तर होगा। इस तरह अनवस्था होगी। द्वितीय पक्षमें घटवत् जडत्वापत्ति होगी। फिर उसे ज्ञान भी कैसे कहा जायगा?
कुछ लोग कहते हैं कि ‘धर्मिभूत ज्ञानका स्फुरण नित्य है, वह भासमानता व्यवहारके अनुगुण होता है। धर्मभूत ज्ञानका स्फुरण विषयसम्बन्धजन्य होता है। वह विषयसम्बन्धके समय ही होता है, अन्यत्र नहीं। सुप्तिमें उसकी सर्वविषय-सम्बन्धार्हता वह्निशक्तिके समान प्रतिबद्ध होती है, अत: उस समय स्फुरण नहीं होता।’ परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि वस्तुत: स्फुरमाण वस्तुका स्फुरण ही स्वरूप है। जैसे भासमान सूर्यका भास ही स्वरूप है, प्रकाशातिरिक्त सूर्य नहीं होता। फिर भी ‘सूर्यका प्रकाश’ यह व्यवहार ‘राहुका सिर’ के समान औपचारिक होता है। इसलिये ‘प्रकाश भासित होता है या नहीं’ इस विकल्पके समान ही ‘आत्मा स्फुरित होता है या नहीं’—यह विकल्प भी अयुक्त ही है। आत्मा स्फुरणरूप ही है। ‘स्फुरण स्फुरित होता है या नहीं’—यह विकल्प कोई भी अनुन्मत्त नहीं कर सकता। फिर भी कुछ लोग कहते हैं कि ‘स्फुरण स्फुरमाणका धर्म ही है, स्वरूप नहीं; क्योंकि क्रिया कर्ताका स्वरूप नहीं होती। छेदनक्रिया छेत्ताका स्वरूप नहीं होती।’ परंतु यह पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि कहा जा चुका है कि प्रकाशस्वरूप सूर्यका प्रकाश क्रिया नहीं है, किंतु उसका स्वरूप ही है। जो आत्माको धर्मिज्ञानस्वरूप मानता है, उसके मतमें भी जब ज्ञान क्रिया नहीं है, तब स्फुरण स्फुरमाणका स्वरूप क्यों नहीं?
जो लोग ज्ञानसामान्यको मृत्तिकादिकी तरह नित्य द्रव्य मानते हैं, स्मृतित्वादि अवस्थाविशेषरूप ज्ञानोंको घटादिकी तरह अनित्य मानते हैं, उनका यह कहना नितान्त असंगत है कि ‘सुप्तोत्थित पुरुषके इतने समयतक मैंने कुछ नहीं जाना इत्याकारक ज्ञानसामान्याभावबोधक स्मरणसे अनुभवका प्रागभाव सिद्ध होता है;’ क्योंकि यदि ज्ञानसामान्य नित्य है, तो उसका प्रागभाव कैसे सिद्ध हो सकता है? कोई नित्य वस्तु अभावका प्रतियोगी नहीं होती। यदि ज्ञानसामान्य भी न हो, तब तो ‘मैंने कुछ नहीं जाना’ यह स्मरण भी असम्भव ही होगा; क्योंकि यत्किंचित् ज्ञानाभावका ज्ञान होनेपर ही स्मरण हो सकता है। जागरकालमें भी ‘तुम्हारी बात मैं नहीं समझता’ इस प्रकार जो बोलता है, उसे विशेष ज्ञान न रहनेपर भी सामान्य ज्ञान है ही, अन्यथा यदि उच्यमान अर्थज्ञानाभावका ज्ञान न हो, तो वाक्य-प्रयोग भी सम्भव नहीं। अत: सामान्य ज्ञान ही विशेषज्ञानाभावको ग्रहण करता है, सामान्यज्ञानाभावका ग्रहण नहीं हो सकता।
कहा जाता है कि ‘यदि अनुभव नित्य है, तो ‘मुझे यह अनुभव हुआ, यह अनुभव नष्ट हो गया’ इत्यादि व्यवहार कैसे सम्पन्न होंगे? परंतु इसका समाधान किया जा चुका है। विषयसम्बन्धके उत्पत्ति-विनाशसे अनुभवमें उत्पत्तिविनाशका व्यवहार उपपन्न होता है। घटोत्पत्तिसे घटाकाशकी उत्पत्तिका जैसा व्यवहार होता है, वैसे ही प्रकृतमें भी समझना चाहिये। घटादि स्वाभाविक जन्मादिविकारवान् हैं, किंतु अनुभूति औपाधिकरूपसे ही जन्मादिविकारवती है तथा जन्मादिविकारहीन स्वप्रकाश नित्य एक संविद् है। कुछ लोग कहते हैं कि ‘संविद् एक नहीं, किंतु अनेक हैं। जैसे अज आत्मा देहादिसे भिन्न है, अनादि भी अविद्या आत्मासे भिन्न है, वैसे अनादि एवं नित्य भी संविद् परस्पर भिन्न हो सकती है। यदि अविद्याका और आत्माका विभाग न होगा, तो अविद्यारूप ही आत्मा ठहरेगा।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि ‘संविद् अज होनेसे व्यतिरेकेण घटादिके तुल्य अविभक्त है, इस अनुमानसे संविद्की एकता ही सिद्ध होती है। संविद् ही आत्मा है, अत: आत्मासे देहादिका विभक्तत्वदृष्टान्त असंगत है। अविद्या भी प्रपंचरूपसे जायमान होनेसे अज नहीं है। घटादिके समान अन्यसे उसकी उत्पत्ति नहीं होती, इसी दृष्टिसे वह ‘अजा’ कहलाती है। अजा (बकरी)-के रूपकसे भी वह अजा कहलाती है। जैसे लोहित-शुक्ल-कृष्ण रंगवाली, अपने समान ही बहुत-से बच्चोंको उत्पन्न करनेवाली अजाका कोई अज भोग करता हुआ अनुसरण करता है, कोई भुक्तभोगा अजाको छोड़कर उदासीन हो जाता है, तद्वत् कोई जीव प्रकृतिका अनुसरण करता है, कोई उससे भोग-अपवर्गरूप प्रयोजन सम्पन्न करके उसे छोड़ देता है—‘अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वी: प्रजा: सृजमानां सरूपा:। अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्य:॥’ (श्वेताश्व० उप० ४।५) जैसे घटादि मृत्तिकासे भिन्न नहीं ठहरते, वैसे ही देहादि प्रपंच भी संविद्‍रूप आत्माका ही विवर्त या कार्य है, अत: वह भी संविद्से भिन्न नहीं है। आत्मशक्ति होनेसे अविद्या भी आत्मासे अभिन्न ही है। जैसे वह्निशक्ति वह्निसे भिन्न नहीं, वैसे ही आत्मशक्ति आत्मासे भिन्न नहीं है।’
कहा जा सकता है कि ‘यद्यपि कार्य कारणसे अभिन्न है, फिर भी कारण कार्यसे भिन्न होता है। शक्ति शक्तिमान‍्से भिन्न न होनेपर भी शक्तिमान् शक्तिसे भिन्न ही है। उसी तरह यहाँ भी संविद्को देहादिसे विभक्त कहना उचित है।’ परंतु यह भी ठीक नही; क्योंकि देहादि एवं अविद्यादि परमार्थत: यदि असत् हैं, तो फिर संविद‍्में तत्प्रयुक्त भेद कैसे रह सकता है? एतावता ‘आत्मा अविद्यारूप ही ठहरेगा’ यह आपत्ति भी निर्मूल ही है; क्योंकि वस्तुत: अविद्या है ही नहीं। यदि व्यावहारिक भेद कहा जाय, तो यह तो मान्य ही है। यावद‍्व्यहार आत्मा और देहादिका भेद है ही, अत: अज होनेसे संविद् अविभक्त ही है। कहा जाता है कि ‘निर्विकार होनेसे भले ही संविद‍्में स्वगत भेद न हो, परंतु देहादिसे तो संविद‍्में विजातीय भेद ही संविदोंके नानात्वसे सजातीय भेद मानना उचित ही है। अबाधित बोधसिद्ध दृश्यके नानात्वसे दर्शनका भी नानात्व सिद्ध होता ही है। जैसे छेद्यके भेदसे छेदनका भेद सिद्ध होता है, वैसे ही दृश्यके भेदसे दर्शनका भी नानात्व सिद्ध होता है।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि जैसे प्रकाश्य पटादिके भेद होनेपर भी प्रकाशका भेद नहीं होता, वैसे ही दृश्यके नानात्व होनेपर भी दर्शनका नानात्व सिद्ध नहीं हो सकता। घटादि विषयके भेदसे घटादिवृत्तिरूप ज्ञानका भले ही भेद हो, परंतु नित्य संविद् प्रकाशके समान अभिन्न ही है। संविद् न तो छेदनके समान क्रिया है और न तो वह जन्य ही है। वृत्ति अवश्य जन्य एवं क्रिया है। संविद् ही जब आत्मा है, तब आत्माका नानात्व भी इसी तरह खण्डित है। अत: जैसे गगनमें घटादि-उपाधिसे औपाधिक ही भेद होता है, स्वाभाविक नहीं, वैसे ही संविद‍्में घटादि एवं वृत्तिके भेदसे ही औपाधिक भेद प्रतीत होता है, स्वाभाविक भेद नहीं।
कहा जाता है कि ‘गगन तो घट-करकादि व्यतिरेकेण सिद्ध है, अत: उसमें औपाधिक भेद ठीक है, परंतु ज्ञान तो ज्ञेय एवं ज्ञाताके बिना कहीं उपलब्ध ही नहीं होता, फिर ज्ञानका औपाधिक भेद कैसे माना जाय? अत: ज्ञानका स्वाभाविक ही भेद मानना ठीक है।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सबकी सत्ता अनुभवके अधीन होती है। फिर अनुभवकी सत्ता ज्ञेय एवं ज्ञाताके अधीन कैसे हो सकती है? अनुभवके बिना किसी भी वस्तुकी सत्ता सिद्ध नहीं होती। ज्ञेय तो ज्ञानाधीन है ही। ज्ञाताका तो वास्तविक रूप ज्ञान ही है। यदि अनुभवके बिना भी सत्ता मानी जाय, तब तो शश-शृंगादिकी भी सत्ता माननी पड़ेगी। अन्धकारमें रहता हुआ भी घट अनुभवके बिना असत् ही रहता है।
कहा जाता है कि ‘भले ही रज्जु-सर्पादि प्रातीतिक पदार्थकी सत्ता अनुभवाधीन हो; क्योंकि उसकी अज्ञात सत्ता नहीं होती, परंतु घटादिकी सत्ता तो अनुभवाधीन नहीं होती; क्योंकि घटादि तो अनुभवके पहले और पीछे भी रहते ही हैं। प्रत्युत अनुभव ही घटादि विषयके अधीन होता है। घटादि जब होते हैं, तभी चक्षुका उनसे सन्निकर्ष होता है, तभी घटानुभव होता है,’ परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि स्वप्नमें घटादि विषयों एवं इन्द्रियोंके न होनेपर भी घटादि-अनुभव होता है। यदि कहा जाय कि ‘स्वाप्निक ज्ञान तो भ्रम है’, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि अनधिगत, अबाधित अर्थविषयक ज्ञान ही प्रमा है। संविद‍्ब्रह्मसे भिन्न सभी बाधित है, अत: घटादि-अनुभव भी वस्तुत: भ्रम ही है। यावद‍्व्यवहार बाधित न होना जैसे घटादिका है, वैसे ही स्वाप्निक पदार्थका भी है, स्वप्न भी व्यवहार ही है। यदि कहा जाय कि ‘स्वप्न अस्थिर व्यवहार है’, तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि व्यवहारगत स्थिरता या अस्थिरता विषयके बाधितत्व-अबाधितत्वपर ही निर्भर है। बाधितत्व जब स्वप्न-जागर दोनोंमें ही है, तब स्थिरत्व-अस्थिरत्वका भेद कैसे सिद्ध होगा? शतायु पुरुष एवं दशायु पुरुषके भी बाधितत्व-अंशमें समानता ही है। अत: जैसे स्वप्नमें विषयेन्द्रियादि न रहनेपर भी विषय-प्रत्यक्ष होता है, वैसे ही जागरमें भी हो सकता है। निद्रादोषके भावाभावसे ही स्वप्न-जागरमें भेद है। निद्रादोषके हटनेपर स्वप्न हट जाता है। जागरमें पित्रादि-दर्शनजनक अदृष्टके मिटनेसे पित्रादिका दर्शनाभाव होता है। अनुभवसे भिन्न पित्रादि हैं ही नहीं, अत: उनकी मृति आदिका प्रसंग ही नहीं उठता। अतएव मृतके सम्बन्ध नष्ट होनेका व्यवहार होता है। नाशका अदर्शन ही अर्थ है। इस तरह प्रतीति ही विषय है, प्रतीतिसे भिन्न विषय नहीं है, फिर प्रतीतिकी सत्ता विषयाधीन कैसे कही जा सकती है? इसमें अन्वयव्यतिरेक भी है। जब प्रतीति है, तभी विषय है। जब प्रतीति नहीं, तब विषय भी नहीं। जैसे मिट्टी होनेपर ही घट है। मिट्टी नहीं, तो घट भी नहीं। वैसे ही प्रतीतिसे भिन्न विषय नहीं।
कुछ लोग कहते हैं कि ‘विषय होनेपर प्रतीति होती है, विषय न रहनेपर प्रतीति नहीं होती, यही न्याय क्यों न माना जाय?’ परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि विषय न रहनेपर भी स्वप्नमें प्रतीति होती ही है। मृत पित्रादि स्वप्नमें हैं नहीं, तब भी प्रतीत होते हैं। जो लोग जन्य ज्ञानकी सत्ता विषयाधीन मानते हैं, वे भी नित्य ईश्वरज्ञान मानते हैं। फिर ईश्वरका नित्य ज्ञान अनित्य विषयोंके अधीन कैसे हो सकता है? नैयायिक तथा विशिष्टाद्वैतवादी नित्यज्ञान मानते हैं। वेदान्तानुसार तो नित्यज्ञानात्मक ब्रह्म ही अविद्यावशात् जन्य ज्ञान होता है और वही विषयसत्ताका हेतु बनता है। नित्य ज्ञान ही आत्मा है, आत्माकी सत्तासे ही अन्य सभी पदार्थ सत्तावान् होते हैं। ‘अहमस्मि’ इस रूपसे आत्माकी सत्ता आत्मासे ही सिद्ध है, परंतु ‘इदमस्ति’ इस रूपसे घटादिकी सिद्धि आत्म-प्रत्ययसे ही होती है। ‘अहं घटोऽस्मि’ इस रूपसे घट अपने आपको नहीं जानता, अत: घटादिकी सत्ता आत्मप्रत्ययके अधीन है। कहा जाता है कि ‘घटोऽस्ति’ इस प्रकारके आत्मप्रत्ययसे पहले भी घट तो है ही, परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि ‘अस्ति’ इस प्रत्ययके अविषय घटमें सत्ता नहीं हो सकती, अन्यथा शशशृंगादिमें भी सत्ता प्रसक्त होगी। कहा जा सकता है कि ‘अहमस्मि’ इस बोधके पहले भी जैसे आत्माकी सत्ता है, वैसे ही घटप्रत्ययके पहले भी घटकी सत्ता होनी चाहिये। परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि ‘अहमस्मि’ इस प्रत्ययका जो प्रत्येता है, वह तो इस प्रत्ययसे भी प्रथम सिद्ध ही है, अत: आत्माकी सत्ता हो सकती है, परंतु ‘अयं घट:’ इस प्रत्ययके पहले घट सिद्ध नहीं है, अत: घटकी सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती, अत: अनुभवकी सत्ता विषयाधीन नहीं है। इसी तरह ज्ञाताके अधीन भी अनुभवकी सत्ता नहीं है; क्योंकि सिद्धान्तमें ज्ञाता ही अनुभव है। यदि अनुभवसे भिन्न ज्ञाता प्रमाता माना जायगा, तो उस प्रमाताकी सत्ता भी अनुभवके अधीन माननी पड़ेगी। ज्ञाताका स्वरूप ही अनुभव है, वही अज्ञान, अन्त:करण आदि उपाधिसे साक्षी, प्रमाता आदि नामसे भी व्यवहृत होता है।
‘अनुभूति दृशिरूप होनेसे व्यतिरेकेण घटादिके तुल्य दृश्यधर्मवाली नहीं है’ इस अनुमानसे अनुभूति दृश्य या वेद्य धर्मसे युक्त नहीं है, यह भी सिद्ध होता है। कुछ लोग कहते हैं कि ‘जब अनुभूतिमें नित्यत्व, स्वयम्प्रकाशत्वादि धर्म मान्य हैं, तब उसे दृश्य धर्मरहित कैसे कहा जा सकता है? नित्यत्वादि भी संवेदनमात्र हैं, यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि संवदेनसे इनका स्वरूप भिन्न ही है।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि जो धर्म जिससे दृश्य होता है, वह उसका धर्म नहीं कहा जा सकता। जैसे चक्षुसे दृश्यमान रूप चक्षुका धर्म नहीं है। यद्यपि देवदत्त स्वगत स्थौल्यादि, सुखादि देखता है, तथापि वस्तुत: स्थौल्यादि, सुखादि देह, मन आदिके ही धर्म हैं, आत्माके धर्म नहीं हैं। आत्मा तो देह, मन आदिसे भिन्न ही है, अत: यहाँ प्रश्न होता है कि ‘यदि स्वधर्म स्वसे वेद्य नहीं होते, तो अनुभवधर्म नित्यत्वादि किससे वेद्य होंगे?’ अनुभवसे भिन्न सब जड ही है, उससे वेदन असम्भव है। अनुभव एक ही है, उसमें भेद ही नहीं है, अत: ‘अमुक अनुभवसे अमुक अनुभवका नित्यत्वादि गृहीत होगा’ यह भी नहीं कहा जा सकता। आत्मा भी अनुभवरूप ही है, अत: उससे भी नित्यत्वादिका अनुभव नहीं कहा जा सकता। इस तरह यदि नित्यत्वादि अनुभूतिके धर्म होंगे, तो वेदिता न होनेसे वे अवेद्य ही ठहरेंगे। यदि अवेद्य हैं, तो धर्म ही कैसे होंगे? अत: वस्तुत: अनुभूतिके कोई भी धर्म नहीं होते। जो नित्यत्वादि धर्म अनुभवमें विदित होते हैं, वे अनुभूतिके धर्म नहीं हैं, किंतु माया एवं मायाकार्य मूर्त वस्तुके ही धर्म हैं। मायाके द्वारा ही नित्यत्वादि अनूभूति-धर्मत्वेन कल्पित हैं।
कहा जा सकता है कि ‘नित्यत्व, स्वयम्प्रकाशत्वादि यदि अनुभूतिके धर्म नहीं हैं, तब तो अनुभूति नित्य, स्वप्रकाश, एक सिद्ध नहीं होगी। फिर तो वह अनित्य, जड, अनेक ही ठहरेगी।’ परंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि अनुभूतिमें जैसे पारमार्थिक नित्यत्वादि नहीं हैं, वैसे ही अनित्यत्वादि भी नहीं हो सकते। अत: अनुभूति निर्धर्मक ही है; क्योंकि यदि परमार्थत: कोई भी भास्य वस्तु होती, तभी वह भासक होती। यदि परमार्थत: कालत्रय होता, तभी कालत्रयाबाध्यत्वरूप नित्यत्व भी होता। इस तरह यदि एकत्वादि संख्या होती, तभी अनुभूतिमें एकत्व भी होता। अत: व्यावहारिक भास्य आदि पदार्थोंको लेकर ही स्वयम्प्रकाशत्वादिका व्यवहार अनुभूतिमें होता है। इसलिये अनुभूतिमें कोई भी दृश्यधर्म नहीं रह सकता। फिर भी कहा जाता है कि ‘यदि दृशिमें दृशित्वधर्म है, तब तो दृशि निर्धर्मक न हुई, उसमें दृशित्वधर्म है ही। यदि दृशिमें दृशित्व नहीं है तो दृशित्वरहित दृशि ही कैसी?’ परंतु यह भी शंका ठीक नहीं है; क्योंकि व्यवहारभूमिमें धर्म और धर्मी दो पदार्थ हैं या नहीं? यदि हैं, तो धर्मको निर्धर्मक मानना ही पड़ेगा; क्योंकि धर्ममें धर्म नहीं माना जाता। यदि धर्ममें भी धर्मान्तर होगा, तब तो वह भी धर्मी ही होगा, धर्म न रहेगा। इस तरह धर्म जैसे धर्मत्वरूप धर्मरहित सिद्ध होता है, वैसे ही दृशि भी दृशित्वधर्मरहित सिद्ध होगी। यदि धर्मधर्मी ये दो पदार्थ मान्य नहीं हैं, तब तो ‘यह धर्म है, यह धर्मी है’ इस प्रकारका व्यवहार ही लुप्त हो जायगा। इसलिये निर्धर्मक दृशिमें कोई भी धर्म नहीं है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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