11.12 ज्ञान और आनन्द
ज्ञानके सम्बन्धमें अनेक प्रकारोंकी विप्रतिपत्तियोंके रहते हुए भी ‘अर्थप्रकाश’ को ही ‘ज्ञान’ कहा जा सकता है। मुक्तिमें यद्यपि अर्थ नहीं होता, तथापि जब अर्थ-संसर्ग सम्भव हो, तभी अर्थका प्रकाशक अर्थ ही ज्ञान है। अतएव ‘ज्ञानत्व जाति-विशेष है, साक्षात् व्यवहारजनकत्व ही ज्ञानत्व है, जड-विरोधित्व ही ज्ञानत्व है, जडसे भिन्नत्व ही ज्ञानत्व है, अज्ञानविरोधित्व ही ज्ञानत्व है’ आदि भी ज्ञानके लक्षण हैं। इनमेंसे कोई लक्षण वृत्तिप्रतिबिम्बित चिदाभासमें संगत होता है, तो कोई अखण्ड ब्रह्मरूप ज्ञानमें जाता है, किंतु अर्थप्रकाशत्व वृत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यरूप ज्ञान एवं ब्रह्मरूप ज्ञान दोनोंमें ही अनुगत है।
सर्वावभासक ज्ञान ही ब्रह्म है; क्योंकि यह श्रुतिप्रमाण है—‘तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।’ (कठोप० २।२।१५) सर्वप्रेमास्पदत्व, सर्वानन्दयितृत्व ही आनन्द है। ‘एष ह्येवानन्दयति’ (तैत्ति० उप० २।७)। यह ब्रह्म ही आनन्दित करता है। यह सर्वावभासक ज्ञान स्वत: भासमान होता है। यदि उसका भी कोई अन्य भासक माना जायगा, तो उसका भी भासक कोई अन्य मानना पड़ेगा? इस तरह अनवस्था-दोष अनिवार्य हो जायगा। इसपर कहा जाता है कि ‘यदि ज्ञानस्वरूप ब्रह्म सर्वदा भासमान है, तो उसमें जगत्का अध्यास किस तरह बन सकेगा? क्योंकि भासमान शुक्तिकामें रजतका अध्यास नहीं होता—जैसे शुक्तिका भान रजताध्यासका विरोधी होता है, वैसे ही ज्ञानस्वरूप ब्रह्मका भासमान होना भी प्रपंचाध्यासका विरोधी होगा।’ किंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि सर्वथा अभासमान शुक्तिकामें भी तो रजताध्यास कभी भी नहीं होता, सामान्यतया भासमान शुक्त्यादि अधिष्ठानमें ही रजतादिका अध्यास होता है। अभासमान एवं विशेषाकारेण भासमान अधिष्ठानमें अध्यास नहीं होता। इस तरह सामान्यतया भासमान ज्ञानस्वरूप ब्रह्मसे प्रपंचाध्यास बन सकता है।
इसपर पुन: कहा जा सकता है कि ‘निर्विशेष ब्रह्ममें सामान्य-विशेष-व्यवहार नहीं बन सकता।’ पर यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जबतक अविद्या है, तबतक निर्विशेष ब्रह्ममें भी कल्पित विशेष मान्य होता ही है। निर्विशेष ब्रह्ममें प्रपंचाध्यास माना भी नहीं जाता, किंतु अज्ञानावच्छिन्न सविशेषमें ही प्रपंचका अध्यास होता है। तथा च प्रपंचाध्यासका अधिष्ठानभूत ब्रह्मका सामान्याकार सन्मात्र है और विशेषाकार ज्ञान एवं आनन्द है। भ्रमकालमें विशेषाकारकी प्रतीति नहीं होती, सामान्याकार-प्रतीति भ्रमकालमें भी होती है। ‘इदं रजतम्’ के समान ही ‘सज्जगत्’ यह भ्रम-प्रत्यक्ष होता है। जैसे वहाँ ‘इदमंश’ अधिष्ठान सामान्यांश है, वैसे ही यहाँ सदंश अधिष्ठान सामान्यांश है। जैसे ‘शुक्तौ रजतम्’ इस प्रकार भ्रम नहीं होता, वैसे ही ‘ज्ञानमानन्दो वा जगत्’ ऐसा भ्रम नहीं होता। जैसे नीलपृष्ठ, त्रिकोण शुक्तिके साक्षात्कारसे रजतभ्रम दूर हो जाता है, उसी तरह सत्यज्ञानानन्दस्वरूप ब्रह्मके साक्षात्कारसे जगद्भ्रम मिट जाता है। ज्ञानानन्दरूपसे अभासमान और सद्रूपसे भासमान ब्रह्ममें जगत्का अध्यास होता है। अघटित-घटना-पटीयसी मायाके कारण ही ब्रह्ममें जगत्का अध्यास होता है। ‘सेव्यं भगवतो माया यन्नयेन विरुद्धॺते’ (श्रीमद्भा० ३।७।९)—भगवान्की माया नयसे विरुद्ध होनेपर भी प्रत्यक्ष ही प्रपंचाध्यास मायाके द्वारा सम्पन्न हो जाता है।
आनन्दके सम्बन्धमें भी इसी प्रकार कहा जा सकता है—(१) आनन्दत्व जाति आनन्द है या (२) अनुकूलतया वेदनीयत्व आनन्द है या (३) अनुकूलत्वमात्र आनन्द है या (४) ज्ञानस्वरूपता ही आनन्द है अथवा (५) निरुपाधि-इष्टता ही आनन्द है अथवा (६) दु:खविरोधित्व ही आनन्द है या (७) दु:खाभावोपलक्षितत्व आनन्द है? पहला पक्ष इसलिये ठीक नहीं कि वह लक्षण अखण्डस्वरूप ब्रह्मानन्दमें नहीं जाता। दूसरा भी ठीक नहीं; क्योंकि मोक्षमें तो आनन्दस्वरूप ब्रह्म ही रहता है, उसे जाननेवाला कोई वेदिता रहता ही नहीं। आनन्दस्वरूप आत्मा वेद्य है भी नहीं, अत: वह वेदनीय भी हो नहीं सकता, तब उसमें द्वितीय लक्षण कैसे संगत होगा? अनुकूलता भी सापेक्ष होती है और वह भी अन्यके प्रति न होकर अपने प्रति ही कहनी पड़ेगी। तथा च, सविशेषता अनिवार्य होगी, निर्विशेषमें अपने प्रति अपनेमें अनुकूलवेदनीयता कथमपि उपपन्न नहीं हो सकती। इसीलिये तीसरा भी पक्ष ठीक नहीं। यदि वेदनस्वभावसे अधिक अनुकूलता स्वाभाविक है, तब भी सखण्डतापत्ति होगी। यदि अनुकूलता औपाधिक है, तब तो उस आनन्दकी कभी निवृत्ति भी हो सकती है। चतुर्थ पक्ष भी ठीक नहीं; क्योंकि उक्त रीतिसे अनुकूलता सम्भव नहीं। इस तरह तो दु:खज्ञानको आनन्द कहना पड़ेगा। निर्विषय ज्ञान अतएव निरुपाधि-इष्टता ही आनन्द है, यह पाँचवाँ पक्ष भी ठीक नहीं। सुख है, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ज्ञान सविषय ही होता है, विषयानुल्लेखि ज्ञान होता ही नहीं। छठा पक्ष भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि यदि विरोधनिवर्त्तन ही है, तब तो आनन्दरूप आत्मामें सदा ही दु:ख-निवृत्ति होनी चाहिये। यदि दु:खतादात्म्यकी अयोग्यता ही दु:खविरोधिता है, तब तो घटादि भी दु:खतादात्म्यके अयोग्य हैं, उन्हें भी आनन्द कहा जाना चाहिये। सप्तम पक्ष भी ठीक नहीं; क्योंकि दु:खाभावरूप वैशेषिकके मोक्षमें आनन्द न होनेपर भी दु:खाभावोपलक्षितत्वरूप वेदान्तीके आनन्दका लक्षण चला जायगा।
इस तरह उपर्युक्त लक्षणोंमें दोष होनेपर भी निरुपाधि-इष्टता अर्थात् निरुपाधिक निरतिशय प्रेम या इच्छाकी विषयता ही आनन्द है, यह लक्षण निर्दोष है। इसपर कहा जा सकता है कि ‘दु:खाभाव भी निरुपाधि-इच्छाका विषय होता है, अत: लक्षण अतिव्याप्त है।’ किंतु यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि दु:खाभाव भी एक प्रकारके सुखका शेष ही है, अत: वह लक्ष्य ही है, वहाँ लक्षण जाना अतिव्याप्ति नहीं। अभाव भी विरोधि-भावान्तर ही है, अत: दु:खाभाव सुखरूप ही है। कहा जा सकता है कि ‘मुक्तिमें तो इच्छा नहीं रहती, परंतु वहाँ भी आनन्द तो रहता है, अत: अव्याप्ति हुई।’ पर यह भी ठीक नहीं; क्योंकि वहाँ भी इष्टत्वोपलक्षितत्व तो है ही। जब भी इच्छा थी, तब उसका विषय आनन्द था। इच्छाके विषय यद्यपि शब्दादि विषय भी होते हैं, तथापि वे सुखसाधन होनेसे इच्छाके विषय होते हैं, स्वत: नहीं। वे ही जब दु:खकारक होते हैं, तब उनमें द्वेष होने लगता है। अत: वे सोपाधिक इच्छाके ही विषय होते हैं। निरुपाधिक इच्छाके नहीं। उपलक्ष्यमें व्यावर्त्तक अवच्छेदकका रहना आवश्यक नहीं, जैसे कभी भी काकके रहनेसे काकोपलक्षित गृहका बोध होता है, उसी तरह कभी भी होनेवाली इच्छासे इष्टत्वोपलक्षित आनन्दका बोध हो सकता है।
यहाँ शंका होती है कि ‘निरुपाधि-इष्टत्व आनन्दमें स्वाभाविक है या औपाधिक?’ अन्तिम पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि ब्रह्मस्वरूपमें आनन्दरूपता औपाधिक नहीं होगी; क्योंकि उसकी इष्टता तो निरुपाधिक ही है। प्रथम पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि इसमें भी विकल्प यह है कि वह निरुपाधि इष्टत्व-ज्ञानसे भिन्न है या अभिन्न? यदि पहला पक्ष कहें, तो उसमें सखण्डत्वापत्ति होगी। यदि ज्ञानसे अभिन्न ही है, तब तो उसमें आनन्द-पदप्रयोग व्यर्थ ही है, परंतु यह भी कहना ठीक नहीं; क्योंकि ज्ञान और आनन्द दोनोंका यद्यपि अभेद ही है, तथापि कल्पित भेद लेकर ज्ञानत्व-आनन्दत्व जातिभेदको लेकर दोनों शब्दोंकी प्रवृत्ति होती है। एतावता ‘विषयोल्लेखरहित ज्ञान आनन्द है’, यह पक्ष भी निर्दोष ही है। ‘ज्ञान विषयोल्लेखरहित भी होता ही है’, यह पीछे सिद्ध किया जा चुका है। जगत् दृश्यरूप होनेसे सत् नहीं कहा जा सकता; किंतु दृक्रूप होनेसे आनन्द सद्रूप भी है।
सुख एवं वेदनका भेद न होनेसे परप्रेमास्पदरूपसे भासमान आत्मा ही आनन्दरूप है। जैसे वृत्तिरूप ज्ञान अनित्य होनेपर भी वृत्तिभासक स्फुरणरूप ज्ञान नित्य है, वैसे ही अन्त:करणवृत्तिरूप सुख भी अनित्य है; परंतु ब्रह्मात्मस्वरूप सुख नित्य ही है। ‘मैं कभी न रहूँ’ ऐसा न हो, किंतु सर्वदा बना रहूँ ‘मा न भूवम्, किंतु सर्वदा भूयासम्’ इस प्रकार आत्मामें स्वाभाविक ही प्रेम देखा जाता है। यदि आत्मा सुखरूप न हो, तो वह प्रेमास्पद नहीं हो सकता। यदि प्राणी अनित्य सुखमें भी प्रेम करता है, तो नित्य सुखमें तो परप्रेम होना ही चाहिये। सुखमें ही प्रेम होता है। सुखसाधनोंमें भी यद्यपि प्रेम होता है, तथापि सुखके प्रयोजनसे ही सुखसाधनोंमें प्रेम होता है। सुखसाधनोंमें प्रेम सुखार्थ ही होता है, परंतु सुखमें प्रेम अन्यार्थ नहीं होता। इसी तरह आत्मामें भी प्रेम आत्मार्थ ही होता है, अन्यार्थ नहीं। इसीलिये आत्मा निरुपाधिक प्रेमका आस्पद है। जैसे चणकचूर्णादि (बेसन)-में मधुरता शर्करासम्बन्धसे होती है, परंतु शर्करामें स्वत: मधुरिमा होती है। मोदक आदिमें सातिशय मिठास होती है, शर्करामें निरतिशय मिठास होती है। उसी तरह अन्यत्र सातिशय प्रेम होता है, आत्मामें निरतिशय प्रेम होता है। इसीलिये सब कुछ आत्मार्थ है, आत्मा अन्यार्थ नहीं होता। अत: आत्मा सबका ही शेषी है।
संसारमें सुख-दु:ख एवं सुख-दु:ख-साधनोंके वैचित्र्यसे यह मानना पड़ता है कि यह विचित्रता जीवात्माके पिछले शुभाशुभ कर्मोंसे ही उपपन्न होगी। पिछले शुभाशुभ कर्मोंकी उत्पत्ति भी जन्मान्तरीय देहसे माननी पड़ेगी। वह जन्मान्तर भी उससे प्राचीन कर्मोंसे मानना पड़ेगा। इस तरह बीज एवं अंकुरकी परम्पराके समान ही जन्मों एवं कर्मोंकी परम्पराको भी अनादि मानना पड़ता है। यह अनादि परम्परा सादि देहके आश्रित हो नहीं सकती। अत: अनादि आत्माके ही आश्रित उसे मानना पड़ता है; अर्थात् अनादि आत्माके ही पूर्व-पूर्व देहोंसे उत्तरोत्तर कर्म होते हैं एवं पूर्व-पूर्व कर्मोंसे उत्तरोत्तर देह होते हैं। उस आत्मामें ही कर्म एवं जन्म चलते हैं।
शय्या, प्रासादादि-संघात जैसे परार्थ (दूसरोंके लिये) होते हैं, वैसे ही देह, इन्द्रिय, मन आदिका संघात भी स्वविलक्षण किसी चेतनके लिये ही होता है। शय्यादि जैसे अपनेसे भिन्न देवदत्तादि शरीररूपी संघातके ही लिये दृष्ट हैं, वैसे ही यदि देहादिसंघात भी किसी दूसरे संघातके ही लिये हों, तब तो अनवस्था प्रसंग होगा; क्योंकि उस संघातको भी किसी अन्य संघातके लिये मानना पड़ेगा। अत: शरीरादि-संघातको किसी स्वविलक्षण, असंहत चेतनके लिये मानना पड़ेगा। इसीलिये त्रिगुणात्मक सुख-दु:ख-मोहात्मक अव्यक्त, महदादि प्रपंचके विपरीत त्रिगुणातीत, असंहत असंग चेतन आत्मा सिद्ध होता है। त्रिगुणात्मक जड-प्रपंच रथादि चेतन सारथी या अश्वादिसे अधिष्ठित ही जैसे कार्यकरणक्षम होता है, वैसे अचेतन प्रकृति, बुद्धि आदि भी चेतनसे अधिष्ठित होकर ही कार्यकरणक्षम होंगी। अत: त्रिगुणात्मक अचेतनसे भिन्न चेतन अधिष्ठाता आवश्यक है। भोक्ता भी अचेतनसे भिन्न चेतन ही होना चाहिये। सुख-दु:खादि भोग्य हैं। इनके द्वारा अनुकूलनीय, प्रतिकूलनीय, सुखी, दुखी चेतन ही हो सकता है। बुद्धॺादि स्वयं सुख-दु:ख-मोहात्मक हैं, अपनेसे ही स्वयं अनुकूलनीय या प्रतिकूलनीय नहीं हो सकते। इसी तरह द्रष्टाके बिना दृश्य नहीं हो सकता। बुद्धॺादि दृश्य हैं, उनका द्रष्टा उनसे भिन्न ही होना चाहिये। साक्षात् द्रष्टा होनेसे चेतन ही साक्षी हो सकता है। द्रष्टा चेतन स्वयं अदृश्य होता है। चैसे रूप दृश्य है, चक्षु द्रष्टा है, वैसे ही चक्षु भी दृश्य है, मन द्रष्टा है।
संसारमें चेतनके अधीन ही अचेतनकी प्रवृत्ति होती है। भले चेतनसंयुक्त अचेतनकी प्रवृत्ति होती है, तथापि प्रवृत्ति अचेतनकी ही है; क्योंकि दोनों ही प्रत्यक्ष हैं। फिर भी अचेतन रथादिसे जीवित देहमें अचेतन-विलक्षणता स्पष्ट ही है। काष्ठादिके आश्रित दाह, प्रकाशादि क्रिया केवल अग्निमें उपलब्ध नहीं होती। फिर भी दाह, प्रकाशादि क्रिया अग्निका ही धर्म है; क्योंकि अग्निसंयोग होनेसे ही काष्ठादिमें दाहादि उपलब्ध होता है, अग्निसंयोगके बिना उपलब्ध नहीं होता। भौतिकवादी भी तो चेतन देहको ही प्रवर्तक मानते हैं। वेदान्तानुसार निर्विकार कूटस्थ आत्मा भी अचेतनका प्रवर्तक वैसे ही होता है, जैसे अयस्कान्तमणि स्वयं प्रवृत्तिरहित होनेपर भी लोहका प्रवर्तक होता है या जैसे प्रवृत्तिरहित रूपादि चक्षुरादिके प्रवर्तक होते हैं। यद्यपि जैसे दुग्ध स्वयं वत्सवृद्धॺर्थ प्रवृत्त होता है, जैसे जल अचेतन भी प्रवृत्त होता है, वैसे ही अचेतनकी प्रवृत्ति होनी ठीक है; तथापि वहाँ भी वत्सके चोषण तथा सर्वशासक अन्तर्यामीसे ही दुग्धादिकी प्रवृत्ति होती है। जैसे कर्ताके बिना कुठारादि करणोंका व्यापार नहीं बन सकता, वैसे ही देह, इन्द्रियादिका देहादिभिन्न कर्ताके बिना व्यापार नहीं हो सकता। भौतिकवादी शरीरको चेतन कहता है।
कहा जाता है कि ‘जैसे नैयायिकके मुक्तात्मामें ज्ञान नहीं होता, वैसे ही मृत शरीरमें भी ज्ञानका अनुपलम्भ उपपन्न हो जाता है। प्रमाणके अभावसे ज्ञानका अभाव उपपन्न हो ही जाता है।’ परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि यदि शरीर चेतन हो, तो बाल्य-यौवनादि-भेदसे देहमें भेद सुस्पष्ट उपलब्ध होता है। फिर एक देह न होनेसे एक आत्मा भी नहीं होगा। फिर ‘जिस मैंने बाल्यावस्थामें माताका अनुभव किया था, वही मैं वृद्धावस्थामें पौत्रोंका अनुभव करता हूँ’ ऐसा अनुभव न होना चाहिये। बाल, स्थविर-शरीरमें भेद प्रत्यक्ष है। शरीरसम्बन्धी अवयवोंके उपचय-अपचयद्वारा शरीरका उत्पाद-विनाश सिद्ध है। जो कहा जाता है कि ‘पूर्वशरीरोत्पन्न संस्कारसे द्वितीय शरीरमें संस्कार उत्पन्न होता है’, तो यह ठीक नहीं। अनन्त संस्कारोंकी कल्पनामें गौरव होगा। यदि शरीर ही चेतन है, तब तो वह उत्पन्न होनेवाला शरीर नवीन ही है। फिर बालकोंकी माताके स्तन्यपानमें प्रवृत्ति न होनी चाहिये; क्योंकि इष्टसाधनता ज्ञान प्रवृत्तिमें हेतु है। सद्य:समुद्भूत शिशुको इष्टसाधनताका अनुभावक कुछ भी नहीं है। देहभिन्न आत्मा माननेवाले तो कह सकते हैं कि जन्मान्तरानुभूत इष्टसाधनताका स्मरण हो सकता है, परंतु जहाँ देहभिन्न आत्मा नहीं है, वहाँ तो जन्मान्तरकी बात है ही नहीं। वहाँ स्तन्यपानमें जन्मान्तरीय इष्टसाधनताका ज्ञान नहीं कहा जा सकता। शंका हो सकती है कि ‘यदि जन्मान्तरीय अनुभूत स्तन्यपानकी इष्टसाधनताका स्मरण होता है, तो अन्य जन्मान्तरीय अनुभूत पदार्थोंका स्मरण क्यों नहीं होता?’ तो इसका समाधान यह है कि उद्बोधक न होनेसे उनका स्मरण नहीं होता। स्तन्यपानके सम्बन्धमें तो जीवनका हेतुभूत अदृष्ट ही संस्कारका उद्बोधक है। यदि स्तन्यपानमें इष्टसाधनताका बोध होकर प्रवृत्ति न हो, तो जीवन ही असम्भव हो जायगा।
कुछ लोग चक्षु, श्रोत्र आदि इन्द्रियोंको ही चेतन मानते हैं, परंतु चक्षु आदिके उपघात होनेपर भी स्मृति होती है, अत: यदि चक्षुरादि इन्द्रियाँ चेतन होतीं, तो उनके उपघातमें स्मृति न होनी चाहिये थी। अन्यके अनुभूतका अन्य स्मरण नहीं कर सकता। मन भी चेतन नहीं है। फिर तो वह अणु होनेसे उसकी प्रत्यक्षता न होगी। कहा जाता है कि ‘क्षणिक विज्ञान ही आत्मा है।’ परंतु ‘सोऽहं’ (मैं वही हूँ) इस प्रकार अनेकदिनवर्ती आत्माकी प्रत्यभिज्ञा होनेसे नित्य विज्ञान ब्रह्मको ही आत्मा मानना ठीक है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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