11.13 मूल, वस्तु या चेतना?
‘मूल, भूत है या चेतना?’ इस प्रश्नके उत्तरमें आधुनिक वैज्ञानिक एडिंगटन भी कहते हैं—‘खोजते हुए अन्तमें जहाँ पहुँचा, वहाँ देखता हूँ, मनकी छायामात्र है।’ वैज्ञानिक जोन्स गणितशास्त्रके पण्डित हैं। उनका कथन है—‘अन्तमें देखता हूँ, विज्ञानकी ही विजय है। विश्वका मूलाधार, ईश्वर एक अंकशास्त्रवित् है और यह विश्व उसीके मस्तिष्कका एक अंकमात्र है।’ पूछा जा सकता है कि एडिंगटनका मानस और जोन्सका अंक क्या उनके मस्तिष्क और शरीरके ऊपर निर्भर नहीं है? क्या अपना मस्तिष्क और शरीर उनको अभौतिक या अतिभौतिक मालूम होता है? जोन्स, एडिंगटन आदिकी वर्णनशैलीमें कुछ अन्तर है, उसपर आधुनिकताकी मामूली छाप है, लेकिन बात पुरानी है—पाइथागोरसका अंक, प्लेटोका आदर्श, उपनिषदोंका ब्रह्म—केवल नयी पोशाकमें हमारे सामने आये हैं। वस्तुको लाँघकर उसके पीछे किसी अवास्तव अलौकिककी प्रतिष्ठाकी चेष्टा हमको अस्वाभाविक नहीं प्रतीत होती। श्रेणीविभाजित समाजमें वास्तव-जीवन जब अनिश्चित और जटिल होता है, तब एक अलौकिक और अन्तिम सत्यकी प्राप्तिसे वास्तव-पीड़ित मनको सान्त्वना मिलती है। धर्मकी प्रयोजनीयताका समर्थन करते हुए बड़े-बड़े धार्मिक भी यही युक्ति पेश करते हैं, पर मनुष्यका शरीरसम्बन्धी ज्ञान जितना ही उन्नत होता गया, आत्माकी धारणा भी उतनी ही सूक्ष्म होती आयी है और शरीर तथा आत्माका अविच्छेद्य सम्बन्ध उन्हें दिखायी देने लगा है। शरीरके साथ ही आत्माका निधन होता है, इस बातको मनुष्यने सभ्यताके प्राचीन युगमें ही मान लिया था। पश्चात् आत्माके दो भाग किये गये—जीवात्मा और परमात्मा। जीवात्मा नश्वर है, लेकिन परमात्मा अमर। देहातीत आत्मा या चैतन्य इस तरह जिन्दा रहा। प्लेटो और अरस्तू, रामानुज और शंकर—सभीने विदेही आत्माको इस प्रकार ईश्वर या ब्रह्मके साथ जोड़ दिया। आत्माको ‘विदेह’ माननेके अतिरिक्त कोई मार्ग भी नहीं रहा। असभ्य मनुष्यके निकट प्राकृतिक और अलौकिक दोनों ही प्रत्यक्ष सत्य हैं, उनका विज्ञान प्रधानत: मन्त्र-तन्त्र है। सभ्यजगत्में विज्ञानकी उन्नति रोकी नहीं जा सकती। विज्ञान अलौकिक शक्तिकी कोई परवा नहीं करता, बल्कि असभ्य मनुष्यके कल्पित अलौकिकके राज्यको क्रमश: संकीर्ण बना देता है। यही कारण है कि विज्ञानके प्रभावस्वरूप दर्शनकी आत्मा क्रमश: विशुद्ध होती आयी है, यानी इसका प्रमाण प्रयोगके बाहर ले जाकर इन्द्रिय-बुद्धिसे परे रखा गया है। इसी आत्माको सारे विश्वतत्त्वके मूलमें उन्होंने विराजमान देखा। शांकर-वेदान्तके अनुसार विश्वका मूलाधार ब्रह्म और आत्मा एक ही चीज है—‘तत्त्वमसि’।
‘देखा गया है कि प्रत्येक युगमें देश और जातियोंकी सीमा अतिक्रमकर मनुष्यकी विचारधारा एक प्रकार रही है। प्रेत-तत्त्व, जादू-विद्या, अनेकेश्वरवाद, एकेश्वरवाद इत्यादि मनुष्यकी चिन्ताधाराकी सीढ़ियाँ सभी देशोंमें एक ही प्रकारकी रही हैं। यह भी संधान मिलता है कि यह तत्त्व-विचार जीवनकी गतिके छन्दमें ही बदलता रहा है और सूक्ष्म भी होता आया है। हमारे असभ्य पूर्व पुरुषोंका प्रेत-विश्वास ही सभ्य मनुष्योंके अध्यात्मवादके मूलमें है, इससे हमारे सभ्यतागर्वी मनको चोट पहुँचती है, लेकिन इतिहास इसका साक्षी है। प्रकृति-जगत्का इतिहास हमको यह दिखलाता है कि चेतनाकी उत्पत्ति भी वस्तु-जगत्में ही है। आदर्शवादी दार्शनिक कहता है कि चेतना ही भूतका मूल है, लेकिन विज्ञानने यह भलीभाँति प्रमाणित किया है कि चेतना सदासे नहीं रही। वस्तु-जगत्के इतिहासमें ऐसा भी समय था, जब जीव-जगत्का अस्तित्व नहीं था। वस्तुनिरपेक्ष चेतना, रक्त-मांसविहीन अदृश्य—ये धारणाएँ मनुष्यकी बुद्धिप्रसूत हैं। लेकिन मनुष्यसे भी पहले, जीव-जगत् के अस्तित्वके पहले, चेतनाका अस्तित्व है, यह सम्भव नहीं। भूतसे ही चेतनाकी उत्पत्ति है, इसलिये भूत ही पहले है। चेतना सभी प्रकार भूतके पश्चात् है। अध्यात्मवादी वस्तु और चेतनाके सम्पर्कको केवल बुद्धिद्वारा जाँचते हैं, इतिहासकी ओर ध्यान नहीं देते।’
‘आदिम मानवकी अपरिणत विज्ञानबुद्धिने वस्तुजगत्में मनुष्यकी ही भावनाधारणाकी छाया देखी है। उसीने प्रेत, परमात्मा, देवता, ईश्वर-आदर्श आदिका रूप लिया है। सदियों पहले चार्वाक और जेनोफेनीजने इसका अनुमान किया था। शताब्दियोंकी वैज्ञानिक गवेषणासे प्रमाण मिलता है कि भूतसे ही चेतनाकी उत्पत्ति हुई। चेतना भूतके ही विकासकी एक विशेष अवस्था है। इस चेतनाका, चाहे यह मनुष्यकी हो, चाहे किसी और प्राणीविशेषकी, भूत-जगत्से अलाहिदा कहीं पता नहीं चलता। अध्यात्मवादी सूर्यविज्ञान, भूतत्व और जीव-विज्ञानके प्रमाणित सिद्धान्तोंको मान भी लेते हैं, लेकिन साथ-ही-साथ कहेंगे कि ‘अस्फुट चेतनाने तो सारे जगत्को छा रखा है, यह विश्व चेतनामय है।’ इस प्रकार भूतजगत्की एक विशेषवस्तु या गुणको वह इसके मूलमें बिठला देते हैं, मनुष्यकी चेतनाको देश-कालातीत मानकर इसको भूतजगत्को चेतनाका रूप दे देते हैं।
‘अनुभव ही इस अध्यात्मवादी युक्तिका अन्तिम उत्तर है। शरीरविहीन चेतनाका कोई अस्तित्व नहीं। बर्बरके प्रेतकी तरह मानव-कल्पनाका यह प्रतिबिम्ब है। मार्क्सवाद इसीलिये इतिहासके ऊपर जोर देता है। इस इतिहासका अर्थ राजाओंका युद्ध नहीं। यह समग्र मानव-समाज और सारे विश्वका इतिहास है। इतिहास ही चेतनाके ऐतिहासिक जन्मका प्रमाण है। यह चेतना देश और कालसे सीमित है। अध्यात्मवादी क्या करते हैं, वे मनुष्यकी किसी एक मानसिक क्रियाको मूल सत्य मानकर इसीको भूतजगत्के मूलमें पहुँचा देते हैं। कोई कहता है कि भूतके मूलमें प्रज्ञा (रीजन) है, कोई कहता है इच्छाशक्ति (विल) है और कोई कहता है प्राणशक्ति (वाइटल एयर्स) है। जहाँतक जान पड़ता है, जीवजगत्में मनुष्यको ही केवल अमूर्त-भावनाकी क्षमता प्राप्त है। मानव-मस्तिष्क और शरीरके संगठनकी विशिष्टतासे ही इस क्षमताकी उत्पत्ति है। असंख्य मनुष्योंकी अभिज्ञतासे ही ‘मनुष्य’ नामकी साधारण संज्ञा बनती है। लेकिन इन असंख्य मनुष्योंको छोड़कर इस साधारण संज्ञाका स्वतन्त्र अस्तित्व कहाँ रह जाता है? साधारण संज्ञा मनुष्यकी विचारक्रियाकी एक पद्धति है, यह मनुष्यके जीवनधारणके काम आती है। अन्यान्य जीव बाहरी जगत्की प्रेरणाओंको मिलाकर अमूर्त-भावनाकी सृष्टि नहीं कर सकते और इसीलिये प्रकृतिके सामने उनकी अक्षमता अधिक है। साधारण संज्ञाकी सृष्टिकी क्षमताने मनुष्यको प्रकृतिके रहस्यको समझनेमें काफी सहायता पहुँचायी है, लेकिन यही क्षमता मनुष्यके मनमें भ्रान्तिकी सृष्टि कर सकती है और करती है। साधारण संज्ञा वास्तवकी अभिज्ञतासे ही बनती है, लेकिन मनुष्यका मन इसको वास्तवसे हटाकर इसके एक स्वतन्त्र अस्तित्वकी सृष्टि कर सकता है और करता है, इसीलिये मनुष्यकी विचारधाराको ‘चेतना’, ‘प्रज्ञा’ आदि अनेकों साधारण संज्ञाओंमें परिवर्तित किया जा सकता है। आदर्शवादी यह भूलकर कि ‘चेतना’, ‘प्रज्ञा’ आदि साधारण संज्ञाएँ असंख्य जीवोंकी विशेष अवस्थापर निर्भर हैं, इनको एक स्वतन्त्र शक्तिके रूपमें देखते हैं।’
परंतु यह सारी कल्पना निरर्थक है। आयुर्वेद, योगशास्त्र तथा आध्यात्मिक दृष्टिके आधारपर शरीरसम्बन्धी ज्ञान लाखों वर्षोंका पुराना है। उपनिषदोंने लाखों वर्ष पहले घोषित कर दिया है—‘अविनाशी वा अरे अयमात्मा।’ (बृहदा०) यह आत्मा अविनाशी है। ‘शरीरके विनाशसे आत्माका भी विनाश होता है’ यह भ्रम पहले भी लोगोंको था। श्रुतिने भी कहा—‘एतेभ्यो भूतेभ्य: समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति।’ (बृहदा० २।४।१२) अर्थात् शरीरादि संघातरूपमें परिणत भूतोंसे समुत्थित होकर उनके विनाशके पश्चात् ही विनष्ट हो जाता है, अर्थात् देहादिका नाश होते ही उसके साथ तादात्म्याभिमानमूलक जो औपाधिकरूप है, वह नष्ट हो जाता है। जैसे विशिष्ट तेज आदिके कारण सामुद्रिक जलमें लवण-कणका रूप बनता है, उपाधिके वियुक्त होनेपर वह औपाधिकरूप नष्ट हो जाता है, परंतु जैसे लवण-कण नष्ट होनेपर भी सिन्धुजल नहीं मिटता, वैसे ही देहादि उपाधिमूलक औपाधिकरूप नष्ट होनेपर भी वास्तविक अनौपाधिकरूप बना ही रहता है। जैसे महाकाशका अंश ही घटाकाश होता है, वैसे ही परमात्माका अंश ही क्षेत्रज्ञ आत्मा है। जीवात्माके औपाधिक रूपके नश्वर होनेपर भी उसका वास्तविकरूप कभी नश्वर नहीं है।
प्रेतात्माकी कल्पना न केवल शास्त्रीय ही है, अपितु उसके प्रत्यक्ष चमत्कार आज भी उपलब्ध होते हैं। प्रेत-विद्याके आधारपर ही अन्य लोगोंको अविज्ञात गुप्त-से-गुप्त रहस्योंका ज्ञान परलोकविद्यावाले बतलाते हैं। अनेक स्थानोंमें सबके सामने किसी गृह-प्रांगणमें ईंट, पत्थर एवं अपवित्र वस्तुओंकी वर्षा होना, घरकी वस्तुओं, वस्त्रों आदिका देखते-देखते लुप्त होना आदि घटनाएँ ऐसी हैं कि पुलिसकी छान-बीन भी वहाँ व्यर्थ होती है, केवल साहसमात्रसे ऐसी वस्तुओंका अपलाप नहीं किया जा सकता। युक्तिकी दृष्टिसे भी उत्कट कामनायुक्त मन:प्रधान सूक्ष्म शरीरविशिष्ट प्राणी अपने प्राक्तन कर्मोंके अनुसार अन्य योनियोंके समान ही प्रेतयोनिमें भी प्राप्त होता है। कर्मोंके उत्कर्ष-अपकर्षके अनुसार ही उनमें भी ऐश्वर्यका तारतम्य होता है।
आस्तिक प्रत्यक्षानुमानके अतिरिक्त आगम-प्रमाण भी मानते हैं। तदनुसार पूजा-पाठ, मन्त्र-तन्त्र—सभीका अस्तित्व है। ईश्वर न माननेवाले मीमांसकों एवं सांख्योंने भी मन्त्रोंका महत्त्व माना है। निरीश्वरवादी बौद्धों एवं जैनियोंमें भी मन्त्रोंका अस्तित्व मान्य है। सबके ही यहाँ प्रणवादि मन्त्रका जप चलता है। आजके वैज्ञानिक युगमें भी अधिकांश मनुष्य मन्त्रोंमें विश्वास रखते हैं। जैसे तृण, वीरुध, ओषधियोंमें भिन्न विचित्र गुण होते हैं, उनके परस्पर संश्लेष-विश्लेषसे उन गुणोंमें ह्रास-विकास एवं उद्गम-अभिभव होता रहता है, वैसे ही मन्त्रोंसे भी। अगणित ओषधियों एवं उनके अगणित संश्लेष-विश्लेषोंसे उद्भूत एवं अभिभूत होनेवाले गुणोंको केवल अन्वय-व्यतिरेकसे नहीं समझा जा सकता। अन्वय-व्यतिरेकसे एक संखियाका ही गुण, रस, स्वाद आदि लाखों प्राणियोंके भी बलिदानसे लाखों वर्षोंमें भी जान सकना असम्भव है। अतएव महातपा महर्षियोंने योगज प्रत्यक्षसे ही सब वस्तुओंके गुण जाने हैं। इसी तरह वर्णोंके भी विचित्र संश्लेष-विश्लेषमें भी विलक्षण प्रकारकी शक्तियाँ निहित होती हैं। वर्णविन्यासोंके चमत्कार लोकमें भी प्रत्यक्ष हैं ही। राजा-जारा, नदी-दीन, कपि-पिक आदि वर्णोंके व्यत्यास मात्रसे अर्थ और प्रभावमें कितना भेद होता है? कोई वर्णविन्यासज्ञ पाँच मिनटके लिये सुप्रीमकोर्टमें खड़ा होकर वर्णविन्यासकी महिमासे दूसरोंका और अपना महान् लाभ कर लेता है। कोई अननुरूप वर्णविन्यासके कारण कलहका कारण बन अपना और दूसरोंका नुकसान कर लेता है। इसीलिये योगियों, तार्किकों एवं नैयायिकोंने भी मन्त्रशक्ति मानी है। कोई भी विधिपूर्वक मन्त्रानुष्ठान करके आज भी मन्त्रका महत्त्व अनुभव कर सकता है। कुछ वैज्ञानिक भी अलौकिक शक्ति मानने लगे हैं। दर्शन वैज्ञानिकोंके विज्ञानकी परवा न करके ही अपने सत्य सिद्धान्तको वैज्ञानिकों एवं विज्ञानकी उत्पत्तिके पहलेहीसे बतला रहा है। लाखों वर्ष पहलेसे ही, जब आधुनिक वैज्ञानिक गर्भमें भी नहीं आये थे, उपनिषदें आत्माको मनोवचनातीत कहती आ रही हैं। वह इसलिये कि आन्तर वस्तुसे बाह्य वस्तुका ग्रहण होता है, बाह्यसे आन्तरका नहीं। बाह्य प्रकाशका परिज्ञान नेत्रसे होता है, परंतु सूक्ष्म नेत्र-इन्द्रियका बोध बाह्य प्रकाशसे नहीं होता। इन्द्रियोंका व्यापार मनसे विदित होता है, परंतु इन्द्रियोंसे मनका व्यापार विदित नहीं होता। मन, बुद्धि आदिका बोध सर्वभासक साक्षीसे होता है, परंतु स्वप्रकाश साक्षीका मन आदिके द्वारा बोध नहीं होता। इसी तरह जाति, गुण, क्रिया, सम्बन्धसे रहित होनेके कारण शब्दकी अभिधावृत्तिका गोचर अद्वितीय ब्रह्म नहीं होता। बराक (बेचारे) विज्ञानके भयसे दार्शनिकोंने ब्रह्मको मनोवचनातीत नहीं बनाया है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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